सत्य के प्रयोग/ शांति-निकेतन

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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छ ? : शति-नके ३६७ - शांतिनिकेतन राजकोटसे मैं शांति-निकेतन गया। वहांके अध्यापकों और विद्यार्थियोंने मुझपर बड़ी प्रेम-वृष्टि की। स्वागतकी विधिमें सादगी, कला और प्रेमका सुंदर मिश्रण था। वहां काका साहब कालेलकरसे मेरी पहली बार मुलाकात हुई । कालेलकर काका साहब' क्यों कहलाते थे, यह मैं उस समय नहीं जानता था; पर बादको मालूम हुआ कि केशवराव देशपांडे, जो विलायतमें मेरे समकालीन थे और जिनके साथ विलायतों मेरा बहुत परिचय हो गया था, बड़ौदा राज्यमें ‘गंगनाथ विद्यालयका संचालन कर रहे थे। उनकी बहुतेरी भावनाओं में एक यह भी थी कि विद्यालय कुटुंबभाव होना चाहिए। इस कारण वहां तमाम अध्यापकोंके कौटुंबिक नाम रखे गये थे । इसमें कालेलकरको 'काका' नाम दिया था ! फड़के ‘मामा' हुए। हरिहर शर्मा 'अण्णा' बने । इसी तरह और भी नाम रवखे गये । आगे चलकर इस कुटुंब में आनंदानंद (स्वामी') काकाके साथीके रूपमें और पटवर्धन (अप्पा) मामाके मित्रके रूपमें इस कूटूबमें शामिल हुए । इस कुटंबके थे पांचों सज्जन एक-के-बाद एकः मेरे साथ हए । देशपांडे साहेब'के नामसे विख्यात हुए। साहेबको विद्यालय बंद होने के बाद यह कुटुंब तितरबितर हो गया; परंतु इन लोगोंने अपना आध्यात्मिक संबंध नहीं छोड़ा। काका सावं तरह-तरहके अनुभव लेने लगे और इसी क्रम में वह शांति-निकेतनमें रह रहे थे । उसी मंडलके एक और सज्जन चिंतामणि शास्त्री भी वहां रहते थे। ये दोनों संस्कृत पढ़ानेमें सहायता देते थे । शांति-निकेतनमें मेरे मंडलकों अलग स्थानमें ठहराया गया था। वहां मगनलाल गांधी उस मंडलकी देखभाल कर रहे थे और फिनिक्स आश्चमके तमाम नियमोंका बारीकी से पालन कराते थे। मैंने देखा कि उन्होंने शांति-निकेतनमें अपने प्रेम, ज्ञान और उद्योग-शीलताके कारण अपनी सुगंध फैला रक्खी थी। एंड्रूज तो वहां थे ही। पीयर्सन भी थे । जगदानंद बाबू, संतोष बाबू, क्षितिज मोहन बाबू, नगीन बाबू, शरद बाबू, और काली बाजूसे उनका अच्छा परिचय हो गया था। [ ४०५ ]________________

आत्म-कथा : भाग ५ अपने स्वभावके अनुसार में विद्यार्थियों और शिक्षकोंमें मिल-जुल गया और शारीरिक श्रम तथा काम करने के बारेमें वहां चर्चा करने लगा। मैंने सूचित किया कि वैतनिक रसोइयाकी जगह यदि शिक्षक और विद्यार्थी ही अपनी रसोई पका लें तो अच्छा हो । रसोई-वरपर अरोग्य और नीतिकी दृष्टिले शिक्षकराण देख-भाल करें और विद्यार्थी स्वावलंबन और स्वयंपाकका पदार्थ-पाट लें । यह बात मैंने वहांके शिक्षकोंके सामने उपस्थित की । एक-दो शिक्षकोंने तो इसपर सिर हिला दिया; परंतु कुछ लोगों को मेरी बात बहुत पसंद भी आई। बालकों को तो वह बहुत ही जंच गई; क्योंकि उनको तो स्वभावसे ही हरेक नई बार आ जाया करती है। बस, फिर क्या था, प्रयोग शुरू हुआ । जब कविवरतक यह बात पहुंची तो उन्होंने कहा, यदि शिक्षक लोगोंको यह बात पसंद आ जाय। तो मुझे यह जरूर प्रिय है। उन्होंने विद्यार्थियोंसे कहा कि यह स्वराज्यकी कुंजी है । पीयर्सनने इस प्रयोगको सफ़ल करने जी-जनसे मिहनत की । उनको यह बात बहल ही पसंद आई थी। एक ओर शाक काटनेवालोंका जमघट हो पाया, दूसरी और अनाज साफ करनेवाली मंडली बैठ गई । रसोई-वरके आसपास शास्त्रीय शुद्धि करनेमें नगीन बाबू आदि डट गये । उनको कुदाली-फावड़े लेकर काम करते हुए देख मेरा हृदय वासों उछलने लगा । परंतु यह शारीरिक श्रमका काम ऐसा नहीं था कि सेवा-सौ लड़के और शिक्षक एकाएक बरदाश्त कर सकें । इसलिए रोज इसपर अहस होती। कितने ही लोग थक भी जाते; किंतु पीयर्सन क्यों थकने लगे ? वह हमेशा हंसमुख रहकर रसोईके किसी-न-किसी काममें लगे ही रहते । बड़े-बड़े बर्तनोंको मांजना उन्हींका काम था । वर्तन मांजने वाली टुकड़ीकी थकावट उतारनेके लिए कितने ही विद्यार्थी वहां सितार बजाते। हर कामुको विद्यार्थी बड़े उत्साहूके साथ करने लगे और सारा शांति-निकेतन शहदके छत्तेकी तरह गूंजने लगा । इस तरह परिवर्तन जो एक बार आरंभ होते हैं तो फिर वे रुकते नहीं । फिनिक्सका रसोई-धर केवल स्वावलंबी ही नहीं था; बल्कि उसमें रसोई भी बहुत सादा बनती थी। मसाले वगैरा काममें नहीं लाये जाते थे। इसलिए भात, दाल, शाक और गेहूंकी चीजें भाफमें पका ली जाती थीं। बंगाली भोजनमें सुधार करने के इरादेसे इस प्रकारकी एक पाकशाला रक्खी गई थी। इसमें [ ४०६ ]________________

अध्याय ४: शांति-निकेतन । 17 एक-दो अध्यापक और कुछ विद्यार्थी शामिल हुए थे। ऐसे प्रयोगोंके फलस्वरूप सार्वजनिक अर्थात् बड़े भोजनालयको स्वावलंबी रखनेका प्रयोग शुरू हो सका था। । परंतु अंतको कुछ कारणोंसे यह प्रयोग बंद हो गया। मेरा यह निश्चित मत हैं कि थोड़े समयके लिए भी इस जग-विख्यात संस्थाने इस प्रयोगको करके कुछ खोया नहीं है और उससे जो-कुछ अनुभव हुए हैं वे उसके लिए उपयोगी साबित हुए थे ! मेरा इरादा शांति-निकेतनमें कुछ दिन रहनेका था; परंतु मुझे विधाता बर्दस्त बहांसे घसीट ले गया । मैं मुश्किलसे वहां एक सप्ताह रहा होगा कि पूनासे गोखलेके अवसानका तार मिला । सारा शांति-निकेतन शोकमें डूब गया । मेरे पास सब मातम-पुरसीके लिए आये । वहां के मंदिर में खास सभा हुई । उस समय वहांका गंभीर दृश्य अपूर्व था। मैं उसी दिन पूनर रवाना हुआ । सायमें पत्नी और मगनलालको लिया। बाकी सब लोग शांति-निकेतनमें रहे। एंड्रूज बर्दबानतक रे’ साथ आये थे। उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या आपको प्रतीत होता है कि हिंदुस्तात सत्याग्रह करनेका समय वेगा ? यदि हां, लो इव ? इसका कुछ खयाल होता है ? ' मैंने इसका उत्तर दिया--- " यह कहना मुश्किल है। अभी तो एक सालतक मैं कुछ करना ही नहीं चाहता । गोखलेने मुझसे वचन लिया है कि मैं एक सालतक भ्रमण करू । किसी भी सार्वजनिक प्रश्नपर अपने विचार न बनाऊं, न' प्रकट करूं । मैं अक्षरशः इस बचनका पालन करना चाहता हूं। इसके बाद भी मैं तबतक कोई बात न कहूंगा, जबतक किसी प्रश्नपर कुछ कहने की आवश्यकता न होगी। इसलिए मैं नहीं समझता कि अगले पांच वर्चतके सत्यान्न करनेका कोई अवसर आवेगा ।" । यहां इतना वा आवश्यक है कि हिंद स्वराज्य में मैंने जो विचार प्रदर्शित किये हैं गोखले उनपर हंसा करते और कहते थै, एक वर्ष तुम हिंदुस्तान में रहकर देखोगे तो तुम्हारे में विचार अपने-अप' ठिकाने लग जायंगे ।'

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