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सत्य के प्रयोग/ संयमकी ओर

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सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ३५५ से – ३५६ तक

 

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अध्याय ३० : संयमकी देर नमक और दाल छुड़ानेके प्रयोग मैंने साथियोंपर खूब किये हैं और दक्षिण अफ्रीका तो उसके परिणाम अच्छे ही आये थे । वैद्यककी दृष्टिसे इन दोनों चीजोंके त्यागके संबंदमें दो सत हो सकते हैं। पर संयमकी दृष्टि तो इनके त्याग लाभ ही है, इसमें संदेह नहीं । भोग और संयमीका भोजन और मार्ग अवश्य ही जुदा-जुदा होना चाहिए । ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा करनेवाले लोग भोका जीवन बिताकर ब्रह्मचर्यको कठिन और कितनी ही बार प्रायः अशक्य कर लेते हैं। संयमकी योर पिछले अध्याय में यह बात कह चुका हूं कि भोजनमें कितने ही परिवर्तन कस्तूरबाईकी बीमारीकी बदौलत हुए। पर अब तो दिन-दिन उसमें ब्रह्मचर्यकी दृष्टिले परिवर्तन करता गया । पहला परिवर्तन हुआ दूधका त्याग । दूधसे इंद्रिय-विकार पैदा होते हैं, यह बात मैं पहले-पहल रायचंदभाईसे समझा था । अन्नाहार-संबंधी अंग्रेजी पुस्तकें पढ़ने से इस विचारमें वृद्धि हुई। परंतु जबतक ब्रह्मचर्यका व्रत नहीं लिया था तबतक दूध छोड़ने का इरादा खास तौरपर नहीं कर सका था। यह बात तो मैं कभीसे समझ गया था कि शरीर-रक्षाके लिए दूधकी आवश्यकता नहीं हैं, पर उसका सहसा छुट जाना कठिन था । एक और मैं यह बात अधिकाधिक समझता ही जा रहा था कि इंद्रियदमनके लिए दूध छोड़ देना चाहिए कि दूसरी थोर कलकत्तासे ऐसा साहित्य मेरे पास पहुंची जिसमें ग्वाले लोगों के द्वारा गाय-भैंसोंपर होनेवाले अत्याचारों का वर्णन था । इस साहित्यका मुझपर बड़ा बुरा असर हुआ और उसके संबंवमें मैंने मि० केलनबेक भी बातचीत की । । हालांकि मि केलनबेकका परिचय में सत्याग्रहके इतिहास में कर चुका हूं और पिछले एक अध्यायमें भी उनका उल्लेख कर गया हैं। परंतु यहां उनके संबंध में दो शब्द अधिक कहने की आवश्यकता है। उनकी मेरी मुलाकात अनायास होगई थी । सि० खानके वह मित्र थे । मि २ खानने देखा कि उनके अंदर गहरा ________________

आस-कथा : भाग ४ वैराग्यभाव था। इसलिए मेरा खयाल है कि उन्होंने उनसे मेरी मुलाकात कराई। जिन दिनों उनसे मेरा परिचय हुआ उन दिनोंके उनके शौक और शाह-खर्चको देखकर में चौंक उठा था; परंतु पहली ही मुलाकात मुझसे उन्होंने धर्मके विषयमें प्रश्न किया । उसमें बद्ध भगवानकी बात सहज हीं निकल पड़ी । तबसे हमारा संपर्क बता गया । वह इस हदतक कि उनके मनमें यह निश्चय हो गया कि जो काम मैं करूं वह उन्हें भी अवश्य करना चाहिए। वह अकेले थे । अकेलेके लिए मकान-खर्चके अलावा लगभग १२००) रुपये मासिक खर्च करते थे । ठेठ यहांले अंतको इतनी सादगीपर आ गये कि उनका मासिक खर्च १२०) रुपये हो गया । मेरे घर-बार बिखेर देने और जेलसे आने के बाद तो हम दोनों एक साथ रहने लगे थे। उस समय हम दोनों अपना जीवन अपेक्षाकृत बहुत कड़ाईके साथ बिता रहे थे । इधके संबंध में जब मेरा उनसे वार्तालाप हुआ तब हम शामिल रहते थे। एक बार मि० केलनबेकने कहा कि “जब हम दूध इतने दोष बताते हैं। तो फिर उसे छोड़ क्यों न दें ? वह अनिवार्य तो है ही नहीं ।” उनकी इस रायको सुनकर मुझे बड़ा आनंद और आश्चर्य हुआ। मैंने तुरंत उनकी बातको स्वागत किया और हम दोनोंने टाल्स्टाय-फार्ममें उसी क्षण दूधका त्याग कर दिया । यह बात १९१२ की है । पर हमें इतने त्यागसे शांति न हुई । दूध छोड़ देनेके थोड़े ही समय बाद केवल फलपर रहने का प्रयोग करने का निश्चय किया । फलाहारमें भी . धारणा यह रक्खी गई थी कि सस्ते-से-सस्ते फलसे काम चलाया जाये । हम दोनोंकी आकांक्षा यह थी कि गरीब लोगोंके अनुसार जीवन व्यतीत किया जाय ।। हमने अनुभव किया कि फलाहारमें सुविधा भी बहुत होती हैं। बहुतांशमें चूल्हा सुलगाने की जरूरत नहीं होती । इसलिए कच्ची मूंगफली, केले, खजूर, नींबू और जैतून का तेल, यह हमारा मामूली खाना हो गया था । . जो लोग ब्रह्मचर्यका पालन करने की इच्छा रखते हैं उनके लिए एक चेताबनी देने की आवश्यकता है । यद्यपि मैंने ब्रह्मचर्यके साथ भोजन और उपवास का निकट संबंध बताया है, फिर भी यह निश्चित है कि उसका मुख्य आधार है। . हमारा मन ! मलिन मुन उपवाससे शुद्ध नहीं होता, भोजनको उसपर असर

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