सत्य के प्रयोग/ हृदय-मंथन

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ३५ : हृदय-मंथन् ३२१ पाठक यह न समझ लें कि ये लोग पेशेवर सैनिक थे । कल बालीका येशा था वकालत । कर्नल स्पाक्स कसाईखानेके एक प्रसिद्ध मालिक थे। जनरल मैकेंजी नेटालके एक मशहूर किसान थे । ये सत्र स्वयं-सेवक थे और स्वयंसेवक के रूपमें ही उन्होंने सैनिक शिक्षा और अनुभव प्राप्त किया था । जिने रोगियोंकी शुश्रूषाका काम हुने सौंपा गया था, वे लड़ाईमें घायल लोग न थे। उनमें एक हिस्सा तो था उन कैदियोंका जो इहपर पकड़े गये थे। जनरलने उन्हें कोड़े मारनेकी सजा दी थी। इससे उन्हें जख्म पड़ गये थे और उनका इलाज न होनेके कारण पक गये थे। दूसरा हिस्सा था उन लोगोंका, जो जुलू-मित्र कहलाते थे ! ये मित्रतादर्शक चिह्न पहने हुए थे । फिर भी इन्हें सिपाहियोंने भूलसे जख्मी कर दिया था । इसके उपरांत खुद मुझे गोरे सिपाहियों के लिए देवा लानेका और उन्हें दवा देने का काम सौंपा गया था । पाठकोंको याद होगा कि डाक्टर बूथके छोटेसे अस्पतालमें मैंने एक सालतक इसकी तालीम हासिल की थी । इसलिए यहां मुझे दिक्कत न पड़ी। इसकी बदौलत वहुतेरे गोरोसे मेरा परिचय हो गया । परंतु युद्ध-थलपर गई हुई सैन एक ही जगह नहीं पड़ी रहती । जहांजहांसे खतरे समाचार अाते वहीं जा दौड़ती। उनमें बहुतेरे तो घुड़सवार थे। | हमारी फौज अपने पड़ावसे चली। उसके पीछे-पीछे में भी डोलियां कंधोंपर रखकर चलना या । दो-तीन बार तो एक दिन में चालीस मीलतक चलने का प्रसंग आ गया था। यहां भी हमें तो बस वही प्रभुका काम मिला । जो जुलू-मित्र भूलसे घायल हो गये थे उन्हें डोलियोंमें उठाकर पड़ावपर लेजाना था और वहां उनकी सेवा-शुश्रूषा करनी थी । २५ हृदय-मंथन जुलू-विद्रोह में मुझे बहुतेरे अनुभव हुए और विचार करनेकी बहुत . सामग्री मिली । बोअर-संग्राममें युद्धकी भयंकरता मुझे उतनी नहीं मालूम हुई जितनी इस बार। यह लड़ाई नहीं, मनुष्यका शिकार था । अकेले मेरा ही नहीं, [ ३४२ ]________________

জাম-থা: ক ৪ बल्कि दूसरे अंग्रेजोंका भी यही खयाल था । सुबह होते ही हमें सैनिकोंकी गोलेबारीकी झावाज पटाखेकी तरह सुनाई पड़ती, जौ गांवोंमें जाकर गोलियां झाड़ते । इन शब्दोंको सुना और ऐसी स्थितिमें रहना मुझे बहुत बुरा मालूम हुआ । परंतु मैं इस कदुई बूंदको पीकर रह गया और ईश्वर-कृपासे काम भी जो मुझे मिल वह भी जुलू लोगोंकी सेवाका ही । मैंने यह तो देख लिया था कि यदि हमने इस कामके लिए कदम बढ़ाया होता तो दूसरे कोई इसके लिए तैयार न हो । इस बातको स्मरः करके मैंने अंतरात्माको शांत किया। इस विभाग में आबादी बहुत कम थी । पहाड़ों और कंदराओंमें भले, मादे और जंगली कहलाने वाले जुलू लोगोंके कूबों (झोंपड़े) के सिवा वहां कुछ नहीं था। इससे वहांका दश्य बड़ा भव्य दिखाई पड़ता था। भीलोंतक जब हम बिना बस्तीके प्रदेशमें लगातार किसी घायलको लेकर अथवा खाली हाथ मंजिल तथ करते तब मेरा मन तरह-तरहके विचारोंमें डूब जाता ।। यहां ब्रह्मचर्य-विषयक मेरे विचार परिपक्व हुए । अपने साथियों साथ भी मैंने उसकी चर्चा की। हां, यह बात अभी भन्ने स्पष्ट नहीं दिखाई देती थी कि ईश्वर-इनके लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। परंतु यह बात मैं अच्छी तरह जान गया कि सेवाके लिए उसकी बहुत आवश्यकता है। मैं जानता था कि इस प्रकारकी सेवाएं मुझे दिन-दिन अधिकाधिक करनी पड़े और यदि मैं भोगविलास, प्रजोत्पत्ति, और संतति-पालनमें लगा रहा तो मैं पूरी तरह सेवा न कर सकेंगा । मैं दो घोड़ोंपर सबारी नहीं कर सकता है। यदि पत्नी इस समय गर्भवती होती तो मैं निश्चित होकर आज इस सेवा-कार्यमें नहीं कूद सकता था। यदि ब्रह्मचर्य का पालन न किया जाय तो कुटुंब-वृद्धि मनुष्यके उस प्रयत्नकी विरोधक हो जाय, जो उसे समाजके अभ्युदयके लिए करना चाहिए; पर यदि विवाहित होकर भी ब्रह्मचर्यका पालन हो सके तो कुटुंब-सेवा समाज-सेवाकी विरोधक नहीं हो सकती। मैं इन विचारोंके भंवरमें पड़ गया और ब्रह्मचर्यका व्रत ले लेनेके लिए कुछ अधीर हो उठा। इन विचारोंसे मुझे एक प्रकारका आनंद हुआ और मेरा उत्साह बढ़ा । इस समय कल्पनाने मेरे सामने सेवाका क्षेत्र बहुत विशाल कर दिया था । .. ये विचार अभी मैं अपने मदमें ढ़ रहा था और शरीरको कस ही रहा था [ ३४३ ]अध्याय २५ : हृदय-मंथन ३२३ कि इतनेमें कोई यह अफवाह लाया कि बलवा' शान्त हो गया है और अब हमें छुट्टी मिल जायगी । दूसरे ही दिन हमें घर जानेका हुक्म हुश्रा और थोड़े ही दिनों बाद हम सब अपने-अपने घर पहुंच गये । इसके कुछ ही दिन बाद गवर्नरने इस सेवाके निमित्त मेरे नाम धन्यवाद का एक खास पत्र भेजा ! फैिनिक्समें पहुंचकर मैंने ब्रह्मचर्य-विषयक अपने विचार बड़ी तत्परतासे छगनलाल, मगनलाल, वेस्ट इत्यादिके सामने रक्खे । सबकी वे पसंद श्रार्थे । सवने ब्रह्मचर्यकी आवश्यकता समझी । परंतु सबको उसका पालन बड़ा कठिन मालूम हुश्रा । कितनोंने ही प्रयत्न करनेका साहस भी किया और मैं मानता हूं कि कुछ तो उसमें अवश्य सफल हुए हैं । मैंने तो उसी समय व्रत ले लिया कि श्राजसे जीवन-पर्यंत ब्रह्मचर्यका पालन करूंगा । इस व्रतका महत्त्व और उसकी कठिनता मैं उस समय पूरी न समझ सका था । कठिनाइयोंका अनुभव तो मै श्राज तक भी करता रहता हूं । साथ ही उस व्रतका महत्त्व भी दिन-दिन अधिकाधिक समझता जाता हूं । ब्रह्मचर्यहीन जीवन मुझे शुष्क और पशुवत् मालूम होता है । पशु-स्वभावतः निरंकुश है, मनुष्यका मनुष्यत्व इसी बातमें है कि वह स्वेच्छासे श्रपनेको अंकुशमें रक्खे । ब्रह्मचर्यको जो स्तुति धर्मग्रंथोंमें की गई है उसमें पहले मुझे अत्युक्ति मालूम होती थी । परंतु अब दिन-दिन वह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि वह बहुत ही उचित और अनुभव-सिद्ध हैं । वह ब्रह्मचर्य जिसके ऐसे महान् फल प्रकट होते हैं, कोई हंसी-खेल नहीं केवल शारीरिक वस्तु नहीं है । शारीरिक अंकुशसे तो ब्रह्मचर्यका श्रीगणेश होता है । परंतु शुद्ध ब्रह्मचर्यमें तो विचार तककी मलिनता न होनी चाहिए । पूर्ण ब्रह्मचारी स्वप्नमें भी बुरे विचार नहीं करता । जबतक बुरे सपने श्राया करते हैं, स्वप्नमें भी बिकार-प्रबल होता रहता है तबतक यह मानना चाहिए कि अभी ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है । - मुझे तो कायिक ब्रह्मचर्यके पालनमें भी महाकष्ट सहना पड़ा । इस समय तो यह कह सकता हूं कि में इसके विषयमें निर्भय हो गया हूं; परंतु अपने विचारोंपर अभी पूर्ण विजय प्राप्त नहीं कर सका हूं । मैं नहीं समझता कि

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