सामग्री पर जाएँ

सत्य के प्रयोग/ जुलू 'बलवा'

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ३३९ से – ३४१ तक

 

________________

अध्याय २४ ; जुल बलया २४ जुनू बलवा घर बनाकर बैठनेके बाद जमकर एक जगह बैठना मेरे नसीबमें लिखा ही नहीं । जोहान्सबर्ग में जमने लगा था कि एक ऐसी घटना हो गई जिसकी कल्पना भी नहीं थी । समाचार अाये कि नेटलमें जुलू लगने वलवा' खड़ा कर दिया है । मुझे जुलू लोगोंसे कोई दुश्मनी नहीं थी । उन्होंने एक भी हिंदुस्तानीको नुकसान नहीं पहुंचाया था। स्वयं ‘बल' के बारेमें भी मुझे शंका थी; परंतु मैं उस समय अंग्रेजी सल्तनतको संसारके लिए कल्याणकारी मानता था । मैं हृदयसे उसका वफादार था। उसका क्षय में नहीं चाहता था। इसलिए बल-प्रयोग विषयका नीति-नीतिके विचार मुझे अपने इरादेसे रोक नहीं सकते थे । नेटलिपर श्रापत्ति आवे तो उसके पास रक्षाके लिए स्वयंसेवक-सेना थी और आपत्तिके समय उसमें जरूरतके लायक और भरती भी हो सकती थी । मैंने अङ्गारोंमें दहा कि स्वयंसेवक-सेना इस 'बल'को शांत करने के लिए चल पड थी । । मैं अपनेको नेटल मानता था और नेलके सुथ में निकट संबंध था ही' ! इसलिए मैंने वहां के गवर्नरको पत्र लिखा कि यदि जरूरत हो तो मैं घायलों की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए हिंदुस्तानियों की एक टुकड़ी लेकर जाने को तैयार हूं । गवर्नरने तुरंत ही इसको स्वीकार कर लिया। मैंने अनुकूल उतर अथवा इतनी जल्दी उतर आ जानेकी याशा नहीं की थी। फिर भी यह पत्र लिखने के पहले मैंने अपना इंतजाम कर ही लिया था कि यदि गवर्नर हमारे प्रस्तावको स्वीकार कर ले तो जोहान्सबर्गका घर तोड़ दें । पोलक एक अलग छोटा घर लेकर रहें और करदाई फिनिक्स जाकर रहें । कस्तूरबाई इन योजना पूर्ण सहमत हुईं। ऐसे कामोंमें उसकी तरफसे कभी कोई रुकावट आने का स्मरण मुझे नहीं होता। गवर्नरका जबाद आते ही मैंने मकान-मालिकको घर खाली करनेका एक महीने का बाकायदा नोटिस दे दिया। कुछ सामान फिनिक्स गया और कुछ बोलकके पास रह गया ! ________________

डरबन पहुंचकर मैंने आदमी मांगे । बहुत लोगोंको जरूरत न थी । हम चौबीस आदमी तैयार हुए । उनमें मेरे अलावा चार गुजराती थे। शेष मदरास प्रांत भिरभिट-युक्त हिंदुस्तानी थे और एक पठान था ।। मुझे औषधि-विभागके मुख्य अधिकारीने इन टुकड़ीनें ‘सारजंट मेजरका स्थायी पद दिया और मेरे पसंद किये दूसरे दो सज्जनों को सारजंट'को और एक को ‘कारपोरल की पदवियां दीं । वर्दी भी सरकारकी तरफसे मिली। इसका कारण यह था कि एक तो काम करनेवालोंके आत्म-सम्मानकी रक्षा हो, दूसरे काम सुविधा-पूर्वक हो, और तीसरे ऐसी पदवी देने का वहां रिवाज भी था । इस टुकड़न छः सप्ताहतक सतत सेवा की । 'बलने के स्थलपर जाकर मैंने देखा कि वहां ‘बलवा' जैसा कुछ नहीं था । कोई सामना करता हुशा दिखाई नहीं पड़ा । उसे ‘बलवा माननैका कारण यह था कि एक जुलू सरदारने जुलू लोगोंपर बैठाये नये करको न देने की सलाह उन्हें दी थी और एक सारजंटको, जो वहां कर वसूल करनेके लिए गया था, मार डाला था। जो भी हो, मेरा हृदय तो इन जुलूझोंकी तरफ था और अपनी छावनी पहुंचने पर जब हमें खासकरके जुलू घायलोंकी ही शुश्रूषाका काम दिया गया तब तो मुझे बड़ी खुशी हुई। उस डाक्टर अधिकारीने हमारी इस सेवाका स्वागत करते हुए कहा--- "गोरे लोः इन बायलों की सेवा करनेके लिए तैयार नहीं होते । मैं अकेला क्या करता ? इनके धाव खराव हो रहे हैं। अप मा गये, यह अच्छा हुआ । इसे मैं इन निरपराध लोगोंपर ईश्वरकी कृपा ही समझता हूं।'यह कहकर मुझे पट्टियां और जंतु-नाशक पानी दिया और उन घायलोंके पास ले गये। घायल हमें देखकर बड़े आनंदित हुए । गोरे सिपाही जंगलों से झांक-झांककर हुसको घाव धोने से रोकनेकी चेष्टा करते और हमारे न सुननेपर थे जुलू लोगोंको जो बुरी बुरी गालियां देते उन्हें सुन्दर हुने कानोंमें उंगलियां देनी पड़तीं. ।। " धीरे-धीरे इन गोरे सिपाहियोंके साथ भी मेरा परिचय हुआ और फिर उन्होंने मुझे रोवाना बंद कर दिया। इस सेना कर्नल स्पाक्स और कर्नल बायली थे, जिन्होंने १८९६में मेरा घोर दिरोध किया था। वे मुझे इस काममें सम्मिलित देखकर चकित हो गये। मुझे खास तौरपर बुलाकर उन्होंने धन्यवाद दिया और जनरल मैकेजीके पास ले जाकर उनसे मेरी मुलाकात करवाई। ________________

अध्याय ३५ : हृदय-मंथन् ३२१ पाठक यह न समझ लें कि ये लोग पेशेवर सैनिक थे । कल बालीका येशा था वकालत । कर्नल स्पाक्स कसाईखानेके एक प्रसिद्ध मालिक थे। जनरल मैकेंजी नेटालके एक मशहूर किसान थे । ये सत्र स्वयं-सेवक थे और स्वयंसेवक के रूपमें ही उन्होंने सैनिक शिक्षा और अनुभव प्राप्त किया था । जिने रोगियोंकी शुश्रूषाका काम हुने सौंपा गया था, वे लड़ाईमें घायल लोग न थे। उनमें एक हिस्सा तो था उन कैदियोंका जो इहपर पकड़े गये थे। जनरलने उन्हें कोड़े मारनेकी सजा दी थी। इससे उन्हें जख्म पड़ गये थे और उनका इलाज न होनेके कारण पक गये थे। दूसरा हिस्सा था उन लोगोंका, जो जुलू-मित्र कहलाते थे ! ये मित्रतादर्शक चिह्न पहने हुए थे । फिर भी इन्हें सिपाहियोंने भूलसे जख्मी कर दिया था । इसके उपरांत खुद मुझे गोरे सिपाहियों के लिए देवा लानेका और उन्हें दवा देने का काम सौंपा गया था । पाठकोंको याद होगा कि डाक्टर बूथके छोटेसे अस्पतालमें मैंने एक सालतक इसकी तालीम हासिल की थी । इसलिए यहां मुझे दिक्कत न पड़ी। इसकी बदौलत वहुतेरे गोरोसे मेरा परिचय हो गया । परंतु युद्ध-थलपर गई हुई सैन एक ही जगह नहीं पड़ी रहती । जहांजहांसे खतरे समाचार अाते वहीं जा दौड़ती। उनमें बहुतेरे तो घुड़सवार थे। | हमारी फौज अपने पड़ावसे चली। उसके पीछे-पीछे में भी डोलियां कंधोंपर रखकर चलना या । दो-तीन बार तो एक दिन में चालीस मीलतक चलने का प्रसंग आ गया था। यहां भी हमें तो बस वही प्रभुका काम मिला । जो जुलू-मित्र भूलसे घायल हो गये थे उन्हें डोलियोंमें उठाकर पड़ावपर लेजाना था और वहां उनकी सेवा-शुश्रूषा करनी थी । २५ हृदय-मंथन जुलू-विद्रोह में मुझे बहुतेरे अनुभव हुए और विचार करनेकी बहुत . सामग्री मिली । बोअर-संग्राममें युद्धकी भयंकरता मुझे उतनी नहीं मालूम हुई जितनी इस बार। यह लड़ाई नहीं, मनुष्यका शिकार था । अकेले मेरा ही नहीं,

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।