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सत्य के प्रयोग/ ‘सभ्य’ वेशमें

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सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ६९ से – ७२ तक

 


एक दिन मैं फेरिंग्टन स्ट्रीट पहुंचा, और 'वेजिटेरियन रेस्तरां' (निरामिष भोजनालय) नाम पढ़ा। बच्चेको मनचाही चीज मिलनेसे जो आनंद होता है, वही मुझे हुआ। हर्षोन्मत्त होकर मैं अंदर पहुंचा ही नहीं कि दरवाजेके पास कांचकी खिड़कीमें विक्रयार्थ पुस्तकें देखीं। उनमें मैंने सॉल्टकी 'अन्नाहारकी हिमायत' नामक पुस्तक देखी। एक शिलिंग देकर खरीदी और फिर भोजन करने बैठा। विलायतमें आनेके बाद यही पहला दिन था, जब मैंने पेट-भर खाना खाया। उस दिन ईश्वरने मेरी भूख बुझाई।

सॉल्टकी पुस्तक पढ़ी। मेरे दिलपर उसकी अच्छी छाप पड़ी। यह पुस्तक पढ़नेके दिनसे मैं अपनी इच्छासे, अर्थात् सोच-समझकर, अन्नाहारका कायल हुआ। माताजीके सामने की हुई प्रतिज्ञा अब मुझे विशेष आनंददायक हो गई। अब तक जो मैं यह मान रहा था कि सब लोग मांसाहारी हो जायं तो अच्छा और पहले केवल सत्यकी रक्षाके लिए और पीछेसे प्रतिज्ञा-पालनके लिए मांसाहारसे परहेज करता रहा और भविष्यमें किसी दिन आजादीसे खुलेआम मांस खाकर दूसरोंको मांस-भोजियोंकी टोलीमें शामिल करनेका हौसला रखता था, सो अबसे, उसके बजाय खुद अन्नाहारी रहकर औरोंको भी ऐसा बनानेकी धुन मेरे सिरपर सवार हुई।

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'सभ्य' वेशमें

अन्नाहारपर मेरी श्रद्धा दिन-दिन बढ़ती गई। सॉल्टकी पुस्तकने आहारविषयपर अधिक पुस्तकें पढ़नेकी उत्सुकता तीव्र कर दी। ऐसी जितनी पुस्तकें मुझे मिलीं उतनी खरीदीं और पढ़ीं। हावर्ड विलियम्सकी 'आहार-नीति' नामक पुस्तकमें भिन्न-भिन्न युगके ज्ञानियों, अवतारों, पैगंबरोंके आहारका और उससे संबंध रखनेवाले उनके विचारोंका वर्णन किया गया है। पाइथागोरस, ईसामसीह इत्यादिको उसने महज अन्नाहारी साबित करनेकी कोशिश की है। डाक्टर मिसेज एना किंग्सफर्डकी 'उत्तम आहारकी रीति' नामक पुस्तक भी चित्ताकर्षक थी। फिर आरोग्य-संबंधी डा. एलिन्सनके लेख भी ठीक मददगार
साबित हुए। उनमें इस पद्धतिका समर्थन किया गया था कि दवा देनेके बजाय केवल भोजनमें फेरफार करनेसे रोगी कैसे अच्छे हो जाते हैं। डाक्टर एलिन्सन खुद अन्नाहारी थे और रोगियोंको केवल अन्नाहार ही बताते। इन तमाम पुस्तकोंके पठनका यह परिणाम हुआ कि मेरी जिंदगीमें भोजनके प्रयोगोंने महत्त्वका स्थान प्राप्त कर लिया। शुरूमें इन प्रयोगोंमें आरोग्यकी दृष्टिकी प्रधानता थी। पीछे चलकर धार्मिक दृष्टि सर्वोपरि हो गई।

अबतक मेरे उन मित्रकी चिंता मेरी तरफसे दूर न हुई थी। प्रेमके वशवर्ती होकर वह यह मान बैठे थे कि यदि मैं मांसाहार न करूंगा तो कमजोर हो जाऊंगा, यही नहीं बल्कि बुद्धू बना रह जाऊंगा; क्योंकि अंग्रेज-समाजमें मैं मिल-जुल न सकूंगा। उन्हें मेरे अन्नाहार-संबंधी पुस्तकोंके पढ़नेकी खबर थी। उन्हें यह भय हुआ कि ऐसी पुस्तकोंको पढ़नेसे मेरा दिमाग खराब हो जायगा, प्रयोगोंमें मेरी जिन्दगी यों ही बरबाद हो जायगी, जो मुझे करना है वह एक तरफ रह जायगा और मैं सनकी बनकर बैठ जाऊंगा। इस कारण उन्होंने मुझे सुधारने का आखिरी प्रयत्न किया। मुझे एक नाटकमें चलने को बुलाया। वहां जानेके पहले उनके साथ हॉबर्न भोजनालयमें भोजन करना था। वह भोजनालय क्या, मेरे लिए खासा एक महल था। विक्टोरिया होटलको छोड़नेके बाद ऐसे भोजनालयमें जानेका यह पहला अनुभव था। विक्टोरिया होटलका अनुभव तो यों ही था, क्योंकि उस समय तो मैं कर्तव्य-मूढ़ था। अस्तु, सैकड़ों लोगोंके बीच हम दो मित्रोंने एक मेज़पर आसन जमाया। मित्रने पहला खाना मंगाया। वह 'सूप' या शोरवा होता हैं। मैं दुविधामें पड़ा। मित्रसे क्या पूछता? मैंने परोसने वालेको नजदीक बुलाया।

मित्र समझ गये। चिढ़कर बोले- "क्या मामला है?"

मैंने धीमेसे संकोचके साथ कहा- "मैं जानना चाहता हूं कि इसमें मांस है या नहीं?"

"ऐसा जंगलीपन इस भोजनालयमें नहीं चल सकता। यदि तुमको अब भी यह चख-चख करनी हो तो बाहर जाकर किसी ऐरे-गैरे भोजनालयमें खालो और वहीं बाहर मेरी राह देखो।"

मुझे उस प्रस्तावसे बड़ी खुशी हुई; और मैं तुरंत दूसरे भोजनालयकी
खोजमें चला। पास ही एक अन्नाहारवाला भोजनालय था तो, पर वह बंद हो गया था। तब क्या करना चाहिए? कुछ न सूझ पड़ा। अंतको भूखा ही रहा। हम लोग नाटक देखने गये। पर मित्रने उस घटनाके बारेमें एक शब्दतक न कहा। मुझे तो कुछ कहना ही क्या था?

परंतु हमारे दरमियान यह आखिरी मित्र-युद्ध था। इससे हमारा संबंध न तो टूटा, न उसमें कटुता ही आई। मैं उनके तमाम प्रयत्नोंके मूलमें उनके प्रेमको देख रहा था, इससे विचार और आचारकी भिन्नता रहते हुए भी मेरा आदर उनके प्रति बढ़ा, घटा रत्तीभर नहीं।

पर अब मेरे मनमें यह आया कि मुझे उनकी भीति दूर कर देनी चाहिए। मैंने निश्चय किया कि मैं अपनेको जंगली न कहलाने दूंगा, सभ्योंके लक्षण प्राप्त करूंगा और दूसरे उपायोंसे समाजमें सम्मिलित होनेके योग्य बनकर अपनी अन्नाहार की विचित्रताको ढक लूंगा।

मैंने 'सभ्यता' सीखनेका रास्ता इख्तियार तो किया; पर वह था मेरी पहुंचके परे और बहुत संकड़ा। अस्तु।

मेरे कपड़े थे तो विलायती; परंतु बंबईकी काट के थे। अतएव वे अच्छे अंग्रेजी समाजमें न फबेंगे, इस विचारसे 'आर्मी और नेवी स्टोर' में दूसरे कपड़े बनवाये। उन्नीस शिलिंगकी (यह दाम उस जमानेमें बहुत था) 'चिम्नी' टोपी लाया। इससे भी संतोष न हुआ। बांड स्ट्रीटमें शौकीन लोगोंके कपड़े सिये जाते थे। यहां शामके कपड़े दस पौंडपर बत्ती रखकर, बनवाये। अपने भोले और दरियादिल बड़े भाईसे खास तौरपर सोनेकी चेन बनवाकर मंगवाई, जो दोनों जेबोंमें लटकाई जा सकती थी। बंधी-बंधाई तैयार टाई पहननेका रिवाज न था। इसलिए टाई बांधनेकी कला सीखी। देश में तो आइना सिर्फ बाल बनवानेके दिन देखते हैं, पर यहां तो बड़े आइनेके सामने खड़े रहकर टाई ठीक-ठीक बांधनेमें और बालकी पट्टियां पाड़ने और ठीक-ठीक मांग निकालनेमें रोज दसेक मिनट बरबाद होते। फिर बाल मुलायम न थे। उन्हें ठीक-ठीक संवारे रखनेके लिए ब्रुश (यानी झाडू ही न?) के साथ रोज लड़ाई होती। और टोपी देते और उतारते हाथ तो मानो मांग-संवारेके लिए सिरपर चढ़े रहते और बीच-बीचमें जब कभी समाजमें बैठे हों तब मांगपर हाथ फेरकर बालोंको संवारते
रहनेकी एक और सभ्य क्रिया होती रहती थी, सो अलग।

परंतु इतनी तड़क-भड़क काफी न थी। अकेले सभ्य लिबास पहन लेनेसे थोड़े ही कोई सभ्य हो जाता है? इसलिए सभ्यताके और भी कितने ही ऊपरी लक्षण जान लिये थे। अब उनके अनुसार करना बाकी था। सभ्य पुरुषको नाचना आना चाहिए; फिर फ्रेंच भाषा ठीक-ठीक जानना चाहिए। क्योंकि फ्रेंच एक तो इंग्लैंडके पड़ोसी फ्रांसकी भाषा थी, और दूसरे सारे यूरोपकी राष्ट्रभाषा भी थी। मुझे यूरोप-भ्रमण करनेकी इच्छा थी। फिर सभ्य पुरुषको लच्छेदार व्याख्यान देनेकी कलामें भी निपुण होना चाहिए। मैंने नाचना सीख लेनेका निश्चय किया। नाचनेके एक विद्यालयमें भरती हुआ। एक सत्रकी फीस कोई तीनेक पौंड दी होगी। कोई तीन सप्ताहमें पांच-छ: पाठ पढ़े होंगे। पर ठीक-ठीक तालपर पांव नहीं पड़ता था। पियानो तो बजता था, पर यह न जान पड़ता था कि यह क्या कह रहा हैं, 'एक, दो, तीन' का क्रम चलता, पर इनके बीचका अंतर तो वह बाजा ही दिखाता था, सो कुछ समझ न पड़ता। तो अब? अब तो बाबाजीकी लंगोटीवाला किस्सा हुआ; लंगोटीको चूहोंसे बचानेके लिए बिल्ली, और बिल्लीके लिए बकरी-इस तरह बाबाजीका परिवार बढ़ा। सोचा, वायोलिन बजाना सीखलूं तो सुर और तालका ज्ञान हो जावेगा। तीन पौंड वायोलिन खरीदने में बिगड़े और उसे सीखनेके लिए भी कुछ दक्षिणा दी। व्याख्यानकला सीखनेके लिए एक और शिक्षकका घर खोजा। उसे भी एक गिन्नी भेंट की। उसकी प्रेरणासे 'स्टैंडर्ड एलोक्युशनिस्ट' खरीदा। पिटके भाषणसे श्रीगणेश हुआ।

पर, इन बेल साहबने मेरे कानमें 'बेल' (घंटा) बजाया। मैं जगा, सचेत हुआ।

मैंने कहा, "मुझें सारी जिंदगी तो इंग्लैंडमें बिताना है नहीं; लच्छेदार व्याख्यान देना सीखकर भी क्या करूंगा? नाच-नाचकर मैं सभ्य कैसे बनूंगा? वायोलिन तो देशमें भी सीख सकता हूं। फिर मै तो ठहरा विद्यार्थी। मुझे तो विद्या-धन बढ़ाना चाहिए; मुझे अपने पेशेके लिए आवश्यक तैयारी करनी चाहिए; अपने सद्व्यवहार के द्वारा यदि मैं सभ्य समझा जाऊं तो ठीक है, नहीं तो मुझे यह लोभ छोड़ देना चाहिए।"

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