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सप्तसरोज/उपदेश

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सप्तसरोज
प्रेमचंद, संपादक मन्नन द्विवेदी गजपुरी

ज्ञानवापी, काशी: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ८० से – ११५ तक

 

दी। इस आत्म-विजयपर एक जातीय ड्रामा खेला गया, जिसके नायक हमारे शर्माजी ही थे। समाज की उच्च श्रेणियोंमें इस आत्म त्यागकी चर्चा हुई और शर्माजी को अच्छी-खासी ख्याति प्राप्त हो गयी। इसीसे वह कई वर्षो से जातीय सेवामें लीन रहते थे। इस सेवाका अधिक भाग समाचार पत्रोंके अवलोकनमें बीतना था, जो जातीय सेवाका ही एक विशेष अङ्ग समझा जाता है। इसके अतिरिक्त वह पन्नोंके लिये लेख लिखते, सभाए करते और उनमें फडकते हुए व्याख्यान देते थे। शर्माजी "फ्री लाइब्रेरी" के सेक्रेटरी, "स्टुडेण्टस एसोसियेशन" के सभापति "सोसल सर्विस लीग" के सहायक मन्त्री और प्राइमरी एजूकेशन कमिटीके सस्थापक थे । कृषि-सम्बन्धी विषयोंसे उन्हें विशेष प्रेम था । पन्नों में जहा कहीं किसी नई खाद या किसी नवीन आविष्कारका वर्णन देखते, तत्काल उसपर लाल पेन्सिलसे निशान कर देते और अपने लेखोंमें उसकी चर्चा करते थे। किन्तु शहरसे थोडी दूरपर उनका एक बडा ग्राम होनेपर भी, वह अपने किसी असामी से परिचित न थे। यहातक कि कभी प्रयागके सरकारी भी सैर करने न गये थे। वे कड़वे तेल से उसकी सेवा किया करते, पर वह नीच स्वभावके अनुसार उन्हें काटनेसे न चूकता था। बेचारे को साल के ६ महीने पैरों में मरहम लगानी पड़ती। बहुधा नंगे पाव कचहरी जाते, पर कंजूस कहलानेके भय से जूतों को हाथ में ले जाते। जिस आगमे शर्माजीकी जमीदारी थी, उसमें कुछ थोड़ासा हिस्सा उनका भी था। इस नातेसे कभी-कभी उनके पास आया करते थे। हा, तातीलके दिनोंमें गांव चले जाते। शर्माजीको उनका पाकर बैठना नागवार मालूम होता, विशेषकर जब वह फैशनेबुल मनुष्यों की उपस्थिति मे आ जाते। मुन्शीजी भी कुछ ऐसी स्थूल दृष्टिके पुरुष थे कि उन्हें अपना अनमिलापन बिलकुल दिखाई न देता। जिससे बडी आपत्ति यह थी कि वे बराबर कुर्सीपर डट जाते। हंसोंमें कौवा। उस समय मित्रगण अड़्गरेजीमे बातें करने और बाबूलाालको क्षुद्रबुद्धि, झक्की, बौड़म, बुद्धू आदि पात्र बनाते। कभी कभी उनकी हंसी उडाते थे। इतनी सज्जनता अवश्य थी कि वे अपने विचारहीन निरादरसे बचाते थे। यथार्थमें बाबूलालकी दी। इस आत्म-विजयपर एक जातीय ड्रामा खेला गया, जिसके नायक हमारे शर्माजी ही थे। समाज की उच्च श्रेणियोंमें इस आत्म त्यागकी चर्चा हुई और शर्माजीको अच्छी-खासी ख्याति प्राप्त हो गयी। इसीसे वह कई वर्षों से जातीय सेवामें लीन रहते थे। इस सेवाका अधिक भाग समाचार पत्रोंके अवलोकनमें बीतता था, जो जातीय सेवाका ही एक विशेष अङ्ग समझा जाता है। इसके अतिरिक्त वह पत्रों के लिये लेख लिखते, सभाएँ करते और उनमें फड़कते हुए व्याख्यान देते थे। शर्माजी "फ्री लाइब्रेरी" के सेक्रेटरी, "स्टुडेण्टस एसोसियेशन" के सभापति, "सोसल सर्विस लीग" के सहायक मन्त्री और प्राइमरी एजूकेशन कमिटीके संस्थापक थे। कृषि-सम्बन्धी विषयोंसे उन्हें विशेष प्रेम था। पत्रोंमे जहा कहीं किसी नई खाद या किसी नवीन आविष्कार का वर्णन देखते तत्काल उसपर लाल पेन्सिलसे निशान कर देते और अपने लेखोमें उसकी चर्चा करते थे। किन्तु शहरसे थोड़ी दूरपर उनका एक बड़ा ग्राम होनेपर भी, वह अपने असामीसे परिचित न थे। यहांतक कि कभी प्रयोगके सरकारी कृषिक्षेत्रकी भी सैर करने न गये थे।

उसी मुहल्लेमें एक लाला बाबूलाल रहते थे। वह एक वकीलके मुहर्रिर थे। थोडी-सी उर्दू-हिन्दी जानते थे और उसीसे अपना काम भली-भांति चला लेते थे। सूरत शक्ल के कुछ सुन्दर न थे। उस शक्लपर मऊके चारखानेकी लम्बी अचकन और भी शोभा देती थी। जूता भी देशी ही पहनते थे। यद्यपि कभी-कभी के कड़वे तेलसे उसकी सेवा किया करते, पर वह नीच स्वभाव अनुसार उन्हें काटनेसे न चूकता था। बेचारेको सालके ६ महीने पैरोंमेें मरहम लगानी पड़ती। बहुधा नंगे पांव कचहरी जाते, पर कंजूस कहलानेके भय से जूतोंको हाथमें ले जाते। जिस ग्राममे शर्माजीकी जमीदारी थी, उसमें कुछ थोडासा हिस्सा उनका भी था। इस नातेसे कभी-कभी उनके पास आया करते थे। हां, तातीलके दिनोंमे गांव चले जाते। शर्माजीको उनका आकर बैठना नागवार मालूम होता, विशेषकर जब वह फैशनेवुल मनुष्योकी उपस्थितिमे आ जाते। मुन्शीजी भी कुछ ऐसी स्थूल दृष्टिके पुरुष थे कि उन्हें अपना अनमिलापन बिलकुल दिखाई न देता। सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि वे बराबर कुर्सीपर डट जाते। मानो हंसोंमे कौवा। उस समय मित्रगण अड़्गरेजीमे बातें करने लगते और बाबूलालको क्षुद्रबुद्धि, झक्की, बौड़म, बुध्दू आदि उपाधियों का पात्र बनाते। कभी कभी उनकी हंसी उड़ाते थे। शर्माजीमें इतनी सज्जनता अवश्य थी कि वे अपने विचारहीन मित्रको यथाशक्ति निरादरसे बचाते थे। यथार्थमे बाबूलालकी शर्माजीपर सच्ची भक्ति थी। एक तो वह बी० ए० पास थे, जिसका अर्थ यह होता है कि वह सरस्वती देवीके वरपुत्र थे। दूसरे वह देशभक्त थे। बाबूलाल जैसे विद्याविहीन मनुष्यका ऐसे रत्नको आदरणीय समझना कुछ अस्वाभाविक न था।

एक बार प्रयागमें प्लेगका प्रकोप हुआ। शहरके रईस लोग निकल भागे। बेचारे गरीब चूहों की भाँति पटापट मरने लगे। शर्माजीने भी चलने की ठानी। लेकिन "सोसल सर्विस लीग” के वे मन्त्री ठहरे। ऐसे अवसर पर निकल भागने में बदनामी का भय था। बहाना ढूंढा। "लीग" में प्रायः सभी लोग कालेजमें पढते थे। उन्हें बुलाकर इन शब्दों में अपना अभिप्राय प्रकट किया। मित्रवृन्द! आप अपनी जाति के दीपक हैं। आप ही इन मरणोन्मुख जाति के आशास्थल हैं। आज हमपर विपत्तिकी घटाएं छाई हुई हैं। ऐसी अवस्थामें हमारी आखें आपकी ओर न उठे तो किसकी ओर उठेगी। मित्रो, इस जीवन में देश-सेवा के अवसर बड़े सौभाग्य से मिला करते हैं। कौन जानता है कि परमात्माने तुम्हारी परीक्षाके लिये ही यह वज्र प्रहार किया हो! जनता को दिखा दो कि तुम वीरोंका हृदय रखते हो, जो कितने ही संकट पड़नेपर भी विचलित नहीं होता। हाँ, दिखा दो कि वह वीर प्रसविनि पवित्र भूमि, जिसने हरिश्चन्द्र और भरतको उत्पन्न किया, आज भी शून्यगर्भा नहीं है। जिस जातिके युवकोंमे अपने पीड़ित भाइयोंके प्रति ऐसी करुणा और यह अटल प्रेम है वह संसार में सदैव यश-कीर्तिकी भागी रहेगी। आइये, हम कमर बांधकर कर्मक्षेत्रमें उतर पड़ें। इसमें सन्देह नहीं कि काम कठिन है, राह बीहड़ है, आपको अपने आमोद-प्रमोद, अपने हाकी, टेनिस, अपने मिल और मिल्टनको छोडना पड़ेगा। तुम जरा हिचकोगे, हटोगे और मुंह फेर लोगे, परन्तु भाइयो। जातीय सेवा का स्वर्गीय आनन्द सहजमें ही नहीं मिल सकता। हमारा पुरुषत्व, हमारा मनोबल, हमारा शरीर, यदि जातिके काम न आवे तो वह व्यर्थ है। मेरी प्रबल आकांक्षा थी कि इस शुभ कार्यमे मैं तुम्हारा हाथ बटा सकता, पर आज ही देहातोंमें भी बीमारी फैलनेका समाचार मिला है। अतएव मैं यहांका काम आपके सुयोग्य, सुदृढ हाथोंमें सौंपकर देहातमें जाता हूँ कि यथासाध्य देहाती भाइयोंकी सेवा करूँ। मुझे विश्वास है कि आप सहर्ष मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य पालन करेंगे।

इस तरह गला छुड़ाकर शर्माजी सन्ध्या समय स्टेशन पहुचे। पर मन कुछ मलिन था। अपनी इस कायरता और निर्बलतापर मन ही मन लज्जित थे।

संयोगवश स्टेशनपर उनके एक वकील मित्र मिल गये। यह वही वकील ये जिनके आश्रयमें बाबूलालका निर्वाह होता था। यह भी भागे जा रहे थे। बोले, कहिये शर्माजी किधर चले? क्या भाग खड़े हुए?

शर्माजीपर घडों पानी पड़ गया, पर सँभलकर बोले, भागू क्यों?

वकील—सारा शहर क्यों भागा जा रहा है?

शर्माजी—मैं ऐसा कायर नहीं हूँ।

वकील—यार, क्यों बाते बनाते हो, अच्छा बताओ, कहाँ जाते हो?

शर्माजी—देहातों में बीमारी फैल रही है, वहां युद्ध "रिलीफ" ना काम करूँगा।

वकील—यह बिल्कुल झूठ है। अभी मैं डिस्ट्रिक्ट गजट देखके चला आता हूं। शहर के बाहर कहीं बीमारीका नाम नहीं। शर्माजी निरुत्तर होकर भी विवाद कर सकते थे। बोले—गजटको आप देववाणी समझते होंगे, मैं नहीं समझता।

वकील—आपके कान में तो आकाश के दूत कह गये होंगे? साफ साफ क्यों नहीं कहते कि जान के डर से भागा जा रहा हूँ।

शर्माजी—अच्छा, मान लीजिये यही सही। तो क्या पाप कर रहा हूँ? सबको अपनी जान प्यारी होती है।

वकील—हा, अब आये राहपर। यह मरदोंकी-सी बात है। अपने जीवन की रक्षा करना शास्त्र का पहला नियम है। लेकिन अब भूलकर भी देशभक्तिकी डींग न मारियेगा। इस काम के लिये बडी दृढ़ता और आत्मिक बलकी आवश्यकता है। स्वार्थ और देशभक्ति में विरोधात्मक अन्तर है। देशपर मिट जानेवाले को देश सेवकका सर्वोच्च पद प्राप्त होता है वाचालता और कोरी कलम घिसनेसे देशसेवा नहीं होती। कम से कम मैं तो अखबार पढ़ने को यह गौरव नहीं दे सकता। अब कभी बढ़-चढकर बात न कीजियेगा । आप लोग अपने सिवा सारे संसार को स्वार्थान्ध समझते हैं इसीसे कहता हूँ।

शर्माजीने उस उद्दण्डताका कुछ उत्तर न दिया। घृणा मे मुँह फेरकर गाड़ीमें बैठ गये।

तीसरे ही स्टेशनपर शर्माजी उतर पड़े। वकीलकी कठोर बातोंसे खिन्न हो रहे थे। चाहते थे कि उसकी आंख बचाकर निकल जाय। पर उसने देख ही लिया और हँसकर बोला, क्या आपके ही गांवमें प्लेगका दौरा हुआ है? शर्माजीने कुछ उत्तर न दिया। बहलीपर जा बैठे। कई बेगार हाजिर थे। उन्होंने असबाब उठाया। फागुनका महीना था। आमोंके बौरसे महकती हुई मन्द-मन्द वायु चल रही थी। कभी- कभी कोयलकी सुरीलीतान सुनाई दे जाती थी। खलिहानोंमे किसान आनन्दसे उन्मत्त हो होकर फाग गा रहे थे। लेकिन शर्माजीको अपनी फटकारपर ऐसी ग्लानि थी कि इन चित्ताकर्षक वस्तुओंका उन्हें कुछ ध्यान ही न हुआ।

थोड़ी देर बाद वे ग्राममें आ पहुचे। शर्माजीके स्वर्गवासी पिता एक रसिक पुरुष थे। एक छोटा सा बाग, छोटा-सा पक्का कुवां, बगला, शिवजीका मन्दिर यह सब उन्हींके कीर्ति चिन्ह थे। वह गर्मीके दिनोंमें यहीं रहा करते थे। पर शर्जीमाजीके यहां आनेका यह पहला ही अवसर था। बेगारियोने चारों तरफ सफाई कर रक्खी थी। शर्माजी बहलीसे उतरकर सीधे बगले में चले गये, सैकड़ों असामी दर्शन करने आये थे, पर वह उनसे कछ न बोले।

घडी रात जाते-जाते शर्माजीके नौकर टमटम लिये आ पहुँचे। कहार, साईम और रसोइया महाराज तीनोंने असामियोंको इस दृष्टिसे देसा मानो वह उनके नौकर हैं। साईस ने एक मोटे ताजे किसान से कहा, घोड़ेको सोल दो।

किसान बेचारा डरता डरता घोड़ेके निकट गया। घोड़ेने अनजान आदमीको देखते ही तेवर बदलकर कनौतियां खड़ी की। किसान डरकर लौट आया। तब साईसने उसे ढकेलकर कहा, बस,—निरे वछिया के गऊ ही हो। हल जोतनेसे क्या अक्ल भी चली जाती है। यह लो घोड़ेको टहलाओ। मुँह क्या बनाते हो, कोई सिंह है कि खा जायगा?

किसानने भयसे कांपते हुए राम पकड़ी, उसका घबराया हुआ मुख देखकर हँसी आती थी। पग पगपर घोड़ेको चौकन्नी दृष्टि से देखता, मानों वह कोई पुलिसका सिपाही है।

रसोई बनानेवाले महाराज एक चारपाईपर लेटे हुए थे। कड़ककर वोले, अरे नउआ कहाँ है। चल पानी-वानी ला, हाथ-पैर धो दे।

कहारने कहा, अरे किमीके पास जरा सुरती-चुना हो तो देना। बहुत देरसे तमाखू नहीं खाई।

मुख्तार (कारिन्दा) साहबने इन मेहमानोंकी दावतका प्रबंध किया। साईस और कहारके लिये पूरियां बनने लगीं, महाराजको सामान दिया गया। मुख्तार साहब इशारेपर दौड़ते थे और दीन किसानोंका तो पूछना ही क्या, वे तो बिना दामोंके गुलाम थे। सच्चे स्वतंत्र लोग इस समय सेवकों के सेवक बने हुए थे।

कई दिन बीत गये। शर्माजी अपने बगलेमें बैठे हुए पत्र और पुस्तके पढ़ा करते थे। रस्किनके कथनानुसार राजाओं और महात्माओंके सत्सङ्गका सुख लूटते थे। हालैंडके कृषिविधान, अमेरिका के शिल्प-वाणिज्य और जर्मनीकी शिक्षा-प्रणाली आदि गूढ़ विषयोंपर विचार किया करते थे। गांव में ऐसा कौन था जिसके साथ बैठते? किसानोंसे बातचीत करनेको उनका जी चाहता, पर न जाने क्यों वे उजड्ड, अक्खड़ लोग उनसे दूर रहते। शर्माजीका मस्तिष्क कृषि सम्बन्धी ज्ञानका भाण्डार था। हालैंड और डेनमार्क की वैज्ञानिक खेती, उसकी उपजका परिमाण और वहांके को-आपरेटिव बैंक आदि गहन विषय उनकी जिह्वापर थे। पर इन गवारों को क्या खबर? यह सब उन्हे झुककर पालागन अवश्य करते और कतराकर निकल जाते, जैसे कोई मरकहे चलसे बचे। यह निश्चय करना कठिन है कि शर्माजी की उनसे वार्तालाप करने की इच्छामे क्या रहस्य था, सच्ची सहानुभूति वा अपनी सर्वज्ञताका प्रदर्शन।

शर्माजीकी डाक शहर से लाने और ले जाने के लिये दो आदमी प्रतिदिन भेजे जाते। वह लूईकूने की जल चिकित्साके भक्त थे। मेवोंका अधिक सेवन करते थे। एक आदमी इस काम के लिये भी दौडाया जाता था। शर्माजीने अपने मुख्तारसे सख्त ताकीद कर दी थी कि किसी से मुफ्त काम न लिया जाय, तथापि शर्माजी को यह देखकर आश्चर्य होता था कि कोई इन कामोंके लिये प्रसन्नता से नहीं जाता। प्रतिदिन बारी-बारीमें आदमी भेजे‌ जाते थे। वह इसे भी बेगार समझते थे। मुख्तार साहबको प्राय: कठोरतासे काम लेना पडता था। शर्माजी किसानो की इस शिथिलता को मुटमरदीके सिवा और क्या समझते। कभी-कभी वह स्वयं क्रोध से भरे हुए अपने शान्ति कुटीर से निकल आते और अपनी तीव्र वाक्य शक्ति का चमत्कार दिखाने लगते थे। शर्माजी के घोड़े के लिये घास-चारेका प्रबन्ध भी कुछ कम कष्टदायक न था। रोज सन्ध्या समय दांट डपट और रोनेचिलाने की आवाज उन्हें सुनाई देती थी। एक कोलाहल-सा मच जाता था। पर यह इस सम्बन्ध मे अपने मन को इस प्रकार समझा लेते थे कि घोड़ा भूखों नहीं मर सकता, घास का दाम दे दिया जाता है, यदि इसपर भी यह हाय हाय होती है तो हुआ करे। शर्माजीको यह कभी नहीं सूझी कि जरा चमारों से पूछ लें कि घास का दाम मिलता है वा नहीं। यह सब व्यवहार देख देखकर उन्हे अनुभव होता जाता था कि देहाती बड़ी मुटमरदी, बदमाश हैं, इनके विषय में मुख्तार साहब जो कुछ कहते हैं वह यथार्थ है।पन्नों और व्याख्यानोंमें उनकी अवस्थापर व्यर्थ गुलगपाडा मचाया जाता है, यह लोग इसी बर्तावके योग्य हैं। जो इनकी दीनता और दरिद्रता का राग अलापते हैं वह सच्ची अवस्थासे परिचित नहीं हैं। एक दिन शर्माजी महात्माओं की सङ्गतिसे उकता कर सैरको निकले। घूमते-फिरते खलिहानोंकी तरफ निकल गये। वहां आमके वृक्षों के नीचे किसानोंकी गाढ़ी कमाईके सुनहरे ढेर लगे हुए थे। चारो ओर भूसेकी आँधी-सी उड़ रही थी। बैल अनाजका एक गाल खा लेते थे। यह सब उन्हीकी कमाई है, उनके मुँहमें आज जाबी देना बड़ी कृतघ्नता है। गांवके बढ़ई,चमार, धोबी और कुम्हार अपना वार्षिक कर उगाहने के लिए जमा थे। एक ओर नट ढोल बजा बजाकर अपने करतब दिखा रहा था। कवीश्वर महाराज की अतुल काव्य शक्ति आ उमंगपर थी।

शर्माजी इस दृश्य से बहुत प्रसन्न हुए। परन्तु इस उल्लास से उन्हें अपने कई सिपाही दिखाई दिये, जो लट्ठ लिये अनाजके ढ़ेर के पास जमा थे। पुष्प-वाटिका में ठूठ जैसा,भदा दिखाई देता अथवा ललित सङ्गीतमें जैसे कोई बेसुरी तान कानों को अप्रिय सी है, उसी तरह शर्माजी को सहृदयतापूर्ण दृष्टि में ये मँडराते सिपाही दिखाई दिये। उन्होंने निकट जाकर एक सिपाही को लाया। उन्हें देखते ही सब के सब पगड़िया सम्भालते दौड़े।

शर्माजीने पूछा, तुम लोग यहा इस तरह क्यों बैठे हो?

एक सिपाहीने उत्तर दिया, सरकार, हम लोग असामियों के सरपर सवार न रहे तो एक कौड़ी वसूल न हो। अनाज घरमें आने की देर है, फिर तो वह सीधे बात भी न करेंगे—बड़े सर लोग हैं। हम लोग रातकी रात बैठे रहते हैं। इतनेपर भी जहाँ आँख झपकी, ढेर गायब हुआ।

शर्माजीने पूछा, तुम लोग यहां कब तक रहोगे? एक सिपाही ने उत्तर दिया, हुजूर बनियों को बुलाकर अपने सामने अनाज तौलाते हैं। जो कुछ मिलता है उसमे से लगान काटकर बाकी असामीको दे देते हैं।

शर्माजी सोचने लगे, जब यह हाल है तो इन किसानों की अवस्था क्यों न खराब हो? यह बेचारे अपने धनके मालिक नहीं है। उसे अपने नाम रखकर अच्छे अवसरपर नहीं बेच सकते। इस कष्ट का निवारण कैसे किया जाय? यदि मैं इस समय इनके साथ रियायत कर दूँ तो लगान कैसे वसूल होगा।

दस विषयपर विचार करते हुए वह वहां से चल दिये। सिपाहियों ने साथ चलना चाहा, पर उन्होंने मना कर दिया। भीड़ भाड़ से उन्हें उलझन होतो थी। अकले ही गांवमें घूमने लगे। छोटा-सा गांव था। पर सफाईका कहीं नाम न था। चारों ओर से दुर्गन्ध उठ रही थी। किसीके दरवाजेपर गोबर सड़ रहा था, तो कहीं कीचड़ और कूड़ेका ही ढेर वायुको विषैली बना रहा था। घरोंके पास ही घूरपर खादके लिये गोबर फेंका हुआ था जिससे गाँवमे गन्दगी फैलनेके साथ-साथ खादका सार अंश धूप और हवाके साथ गायब होता था। गाँवके मकान तथा रास्ते बेसिलसिले, बेढंगे तथा टूटे फूटे थे। मोरियों के गन्दे पानी निकास का कोई प्रबन्ध न होने की वजहसे दुर्गन्धसे दम घुटता था। शर्माजीने नाक पर रूमाल लगा ली। सास रोककर तेजीसे चलने लगे। बहुत जी घबराया तो दौड़े और हांफते हुए एक सघन नीमके वृक्षकी छायामें आकर खड़े हो गए। अभी अच्छी तरह सास भी न लेने पाये थे कि बाबूलाल ने आकर पालागन किया और पूछा, क्या कोई सांड़ था?

शर्माजी सास खींचकर बोले, साड़से अधिक भयङ्कर विषैली हवा थी। ओह! यह यह लोग ऐसी गन्दगीमें कैसे रहते हैं?

बाबूलाल—रहते क्या हैं किसी तरह जीवनके दिन पूरे करते हैं।

शर्माजी—पर यह स्थान तो साफ है?

बाबूलाल—जी हां, इस तरफ गावके किनारेतक साफ जगह मिलेगी।

शर्माजी—तो उपर इतना मैला क्यों है?

बाबूलाल—गुस्ताखी माफ हो तो कहूँ।

शर्माजी हँसकर बोले,प्राणदान मांगा होता। सच बताओ,क्या बात है। एक तरफ ऐसी स्वच्छता और दूसरी तरफ वह गन्दगी। बाबूलाल—यह मेरा हिस्सा है और वह आपका हिस्सा है। मैं अपने हिस्सेकी देख रेख स्वयं करता हूं पर आपका हिस्सा नौकरोंकी कृपाके अधीन है।

शर्माजी—अच्छा, यह बात है। आखिर आप क्या करते हैं?

बाबूलाल—और कुछ नहीं, केवल ताकीद करता रहता हूँ। जहाँ अधिक मैलापन देखता हूँ स्वयं साफ करता हूँ। मैंने सफाई का एक इनाम नियत कर दिया है, जो प्रति मास सबसे साफ घर के मालिकको मिलता है। आइये बैठिये।

शर्माजीके लिये एक कुर्सी रख दी गई। वे उसपर बैठ गये और बोले—क्या आप आजही आये हैं?

बाबूलाल—जी हां, कल तातील है। आप जानते हैं कि तातीलके दिनोंमे मैं यहीं रहता हूँ।

शर्माजी—शहरका क्या रङ्ग-ढङ्ग है?

बाबूलाल—वही हाल, बल्कि और भी खराब। 'सोसल सर्विस लीग' वाले भी गायब हो गये। गरीबों के घरोंमें मुर्दे पड़े हुए हैं। बाजार बन्द हो गये। खानेको अनाज नहीं मिलता।

शर्माजी—भला बताओ तो ऐसी आगमें में वहां कैसे रहता? बस, लोगोंने मेरी ही जान सस्ती समझ रखी है। जिस दिन में यहां आ रहा था आपके वकील साहब मिल गये बेतरह गरम हो पड़े। मुझे देश भक्तिके उपदेश देने लगे। जिन्हें कभी भूलकर भी देशका ध्यान नहीं आता वे भी मुझे उपदेश देना अपना कर्तव्य समझते हैं। कुछ मुझे ही देश भाक्तिका दावा है? जिसे देखो, वही तो देशसेवक बना फिरता है। जो लोग सहस्रों रुपये अपने भोग-विलासमें फूंकते हैं उनकी गणना भी जाति-सेवकोंमें है। मैं तो फिर भी कुछ-न-कुछ करता ही हूँ। मै भी मनुष्य हूँ, कोई देवता नहीं, धनकी अभिलाषा अवश्य है। मैं जो अपना जीवन पत्रों के लिये लेख लिखनेमें काटता हूँ, देश हितकी चिन्तामें मग्न रहता हूँ, उसके लिये मेरा इतना सम्मान बहुत समझा जाता है। जब किसी सेठजी या किसी वकील साहब के दरेदौलतपर हाजिर हो जाऊँ तो वह कृपा‌ करके मेरा कुशल-समाचार पूछ लें। उसपर भी यदि दुर्भाग्यवश किसी चन्देके सम्बन्धमें जाता हैं तो लोग मुझे यमका दूत समझते हैं। ऐसी रुखाईका व्यवहार करते हैं जिससे सारा उत्साह भंग हो जाता है। यह सब आपत्तियां तो मैं झेलूं, पर जब किसी सभाके सभापति चुननेका समय आता है तो कोई वकील साहब इसके पात्र समझे जाते हैं, जिन्हें अपने धनके सिवा उक्त पदका कोई अधिकार नहीं। तो भाई, जो गुड़ खाय वह कान छिदावे। देश हितैषिताका पुरस्कार यही जातीय सम्मान है, जब वहांतक मेरी पहुँच ही नहीं तो व्यर्थ जान क्यों दूँ? यदि यह आठ वर्ष मैंने लक्ष्मीकी आराधनामें व्यतीत किये होते तो अब तक मेरी गिनती बड़े आदमियों में होती। अभी मैंने कितने परिश्रमसे देहाती बैंकोंपर लेख लिखा, महीनों उसकी तैयारीमें लगे, सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओंके पन्ने उलटने पड़े, पर किसीने उसके पढ़नेका कष्ट भी न उठाया। यदि इतना परिश्रम किसी और काममें किया होता तो कम-से-कम स्वार्थ सिद्ध होता। मुझे ज्ञात हो गया कि इन बातों को कोई नहीं पूछता। सम्मान और कीर्ति यह सब धनके नौकर हैं। बाबूलाल-आपका कहना यथार्थ ही है। पर आप जैसे महानुभाव इन बातोंको मनमे लावेगे तो यह काम कौन करेगा।

शर्माजी—वही करेंगे जो 'आनरेबल' बने फिरते हैं या नगरके पिता कहलाते हैं। मैं तो अब देशाटन करूँगा, संसारकी हवा खाऊँगा।

बाबूलाल—समझ गये कि यह महाशय इस समय आपेमें नहीं है। विषय बदलकर पूछा, यह तो बताइये, आपने देहातको कैसा‌ पसन्द किया? आप तो पहले ही पहल यहा आये हैं।

शर्माजी—बस, यही कि बैठे बैठे जी घबराता है। हां, कुछ नये अनुभव अवश्य प्राप्त हुए हैं। कुछ भ्रम दूर हो गये। पहले समझता था कि किसान बडे दीन-दुखी होते हैं। अब मालूम हुआ कि यह लोग बडे मुटमरदी, अनुदार और दुष्ट हैं। सीधे बात न सुनेगे, पर कड़ाईसे जो काम चाहे करा लो। बस निरे पशु हैं, और तो और, लगानके लिये भी उनके सिरपर सवार रहने की जरूरत है। टल जाओ तो कौड़ी वसूल न हो। नालिश कीजिये, बेदखली जारी कीजिये, कुर्की कराइये, यह सब मेरे लिए नई बात हैं। मुझे अबतक इनसे जो सहानुभूति थी वह अब नहीं है। पत्रों में उनकी हीनावस्थाके जो मरसिये गाये जाते हैं वह सर्वथा कल्पित हैं। क्यों, आप का क्या विचार है?

बाबूलालने सोचकर जवाब दिया। मुझे वो अबतक कोई शिकायत नहीं हुई। मेरा अनुभव यह है कि यह लोग बड़े शीलवान नम्र और कृतज्ञ होते हैैं। परन्तु उनके ये गुण प्रकट में नहीं दिखाई देते। उनसे मिलिये और उन्हे, मिलाइये तब उनके जौहर खुलते हैं। उनपर विश्वास कीजिये तब वह आपपर विश्वास करेगे। आप कहेगे इस विषयमे अग्रसर होना उनका काम है और आपका यह कहना उचित भी हैं, लेकिन शताब्दियोंसे वह इतने पीसे गये हैं इतनी ठोकरे खाई हैं कि उनमे स्वाधीन गुणोंका लोप-सा हो गया है। जमींदारको वह एक हौआ समझते हैं जिसका काम उन्हें निगल जाना है, वह उसका मुकाबिला नहीं कर सकते, इसलिये छल और कपटसे काम लेते हैं, जो निर्बलों का एकमात्र आधार है। पर आप एक बार उनके विश्वासपात्र बन जाइये, फिर आप कभी उनकी शिकायत न करेंगे।

बाबूलाल यह बाते कर ही रहे थे कि कई चमारों ने घासके बड़े बड़े गट्ठे लाकर डाल दिये और चुपचाप चले गये। शर्माजी को आश्चर्य हुआ। इसी घासके लिये इनके बगलेपर रोज हाय हाय होती है और यहां किसीको खबर भी नहीं हुई। बोले, आखिर अपना विश्वास जमाने का कोई उपाय भी है?

बाबूलालने उत्तर दिया, आप स्वयं बुद्धिमान है। सामने मेरा मुँह खोलना धृष्टता है। मैं इसका एक ही उपाय जानता हूँ। उन्हे किसी कष्टमें देखकर उनकी मदद कीजिये। मैंने उन्हींके लिये वैद्यक सीसा और एक छोटा मोटा औषधालय अपने साथ रखता हूँ। रुपया मांगते हैं तो रुपया, अनाज मांगते हैं तो अनाज देता हूँ, पर सूद नहीं लेता। इससे मुझे कोई हानि, नहीं होती, दूसरे रूपमें सूद अधिक मिल जाता है। गांव में दो अन्धी स्त्रियां और दो अनाथ लड़किया हैं, उनके निर्वाहका कर दिया है, होता सब उन्हीं की कमाईसे है, पर नेकनामी मेरी होती है।

इतने में कई असामी आये और बोले, भैया, पोत ले लो।

शर्माजीने सोचा, इसी लगानके लिये मेरे चपरासी खलिहानमें चारपाई डालकर सोते हैं और किसानोंको अनाजके ढेरके पास फटकने नहीं देते और वही लगान यहां इस तरह आपसे आप चला आता है। बोले, यह सब तो तर ही हो सकता है जब जमींदार आप गांवमें रहे।

बाबूलालने उत्तर दिया, जी हां और क्या? जमींदारके गांव मे न रहनेसे इन किसानोको घड़ी हानि होती है। कारिन्दो और नौकरोंसे यह आशा करनी भूल है कि वह इनके साथ अच्छा वर्ताव करेंगे क्योंकि उनको तो अपना उल्लू सीधा करनेसे काम रहता है। जो किसान उनकी मुट्ठी गरम करते हैं उन्हें मालिकके सामने सीधा और जो कुछ नहीं देते उन्हें बदमाश और सरकश बतलाते हैं। किसानोंको बात-बातके लिये चूसते हैं, किसान छान छवाना चाहे तो उन्हें दे, दरवाजेपर एक खूँटातक गाड़ना चाहे तो उन्हें पूजे, एक छप्पर उठानेके लिये दस रुपये जमींदार को नजराना दे तो दो रुपये मुंशीजीको जरूर ही देने होंगे। कारिंदे को घी दूध मुफ्त खिलावे, कहीं-कहीं तो गेहूँ चावल तक मुफ्तमें हजम कर जाते हैं। जमींदार तो किसानों को चूसते हैं, कारिंदे भी कम नहीं चूसते। जमींदार तीन पावके भावमें रुपये का सेरभर घी ले तो मुंशीजीको अपने घर अपने साले बहनोइयों के लिये अठारह छटांक चाहिये। तनिक तनिक सी बातके लिये डाड़ और जुर्माना देते-देते किसानोंके नाकमे दम हो जाता है। आप जानते हैं इसीसे और कहीं ३०) की नौकरी छोडकर भी जमींदारों की कारिन्दगिरी लोग ८), १०) में स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि ८), १०) का कारिन्दा सालमें ८००), १०००) ऊपरसे कमाता है। खेद तो यह है कि जमींदार लोगोंमें शिक्षाकी उन्नति के साथ-साथ शहरमें रहनेकी प्रथा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। मालूम नहीं आगे चलकर इन बेचारोंकी क्या गति होगी?

शर्माजीको बाबूलालकी बातें विचारपूर्ण मालूम हुईं। पर वह सुशिक्षित मनुष्य थे। किसी बातको चाहे वह कितनी ही यथार्थ क्यों न हो, बिना तर्कके ग्रहण नहीं कर सकते थे। बाबूलालको वह सामान्य बुद्धिका आदमी समझते आये थे। एकाएक परिवर्तन हो जाना असम्भव था। इतना ही नहीं इन बातोंका उल्टा प्रभाव यह हुआ कि वह बाबूलालसे चिढ़ गये। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि बाबूलाल अपने सुप्रबन्ध के अभिमानमें मुझे तुच्छ समझता है, मुझे ज्ञान सिखानेकी चेष्टा करता है। सदैव दूसरोंको सद्‌ज्ञान सिखाने और सम्मान दिखानेका प्रयत्न किया हो वह बाबूलाल जैसे आदमीके सामने कैसे सिर झुकाता? अतएव जब वहांसे चले तो शर्माजीकी तर्कशक्ति बाबूलालकी बातोंकी आलोचना कर रही थी। मैं गाँवमें क्योंकर रहूँ? क्या जीवनकी सारी अभिलाषाओंपर पानी फेर दूँ? गँवारोंके साथ बैठे बैठे गप्पे लड़ाया करूँ। घड़ी आध घड़ी मनोरंजनके लिये उनसे बातचीत करना सम्भव है, पर यह मेरे लिये असह्य है कि वह आठों पहर मेरे सिरपर सवार रहे । मुझे तो उन्माद हो जाय। माना कि उनकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है, पर यह कदापि नहीं हो सकता कि उनके लिये मैं अपना जीवन नष्ट कर दूँ। बाबूलाल वन जानेकी क्षमता मुझमे नहीं है कि जिससे विचारे इस गाँवकी सीमासे बाहर नहीं जा सकते। मुझे ससारमे बहुत काम करना है, बहुत नाम करना है। ग्राम्य जीवन मेरे लिये प्रतिकूल ही नहीं, बल्कि प्राणघातक भी है।

यही सोचते हुए वह बंगलेपर पहुचे तो क्या देखते हैं कि कई कांस्टेबल बंगलेके बरामदेमें लेटे हुए हैं। मुख्तार साहब शर्माजीको देखते ही आगे बढकर बोले, हुजुर। बडे दारोगाजी छोटे दारोगाजीके साथ आये हैं। मैंने उनके लिये पलंग कमरेमें ही बिछवा दिये हैं। ये लोग जब इधर आ जाते हैं तो यहीं ठहरा करते हैं। देहातमे इनके योग्य स्थान और कहा हैं? अब मैं इनसे कैसे कहता कि कमरा खाली नहीं है। हुजूरका पलंग ऊपर विछवा दिया है।

शर्माजी अपने अन्य देश हितचिन्तक भाइयोंकी भांति पुलिसके घोर विरोधी थे। पुलिसवालोंके अत्याचारोंके कारण उन्हें बडी घृणाकी दृष्टिसे देखते थे। उनका सिद्धान्त था कि यदि पुलिसका आदमी प्याससे मर भी जाय तो उसे पानी न देना चाहिये। अपने कारिन्देसे यह समाचार सुनते ही उनके शरीरमें आग सी लग गयी। कारिन्देकी ओर लाल आँखोसे देखा और लपककर कमरेको योर चले, कि बेईमानोंका बोरिया उठाके फेंक दें। वाह! मेरा घर न हुआ कोई होटल हुआ! आकर डट गये। तेवर बदले हुए बरामदे में जा पहुंचे कि इतने में छोटे दारोगा बाबू कोकिला सिंहने कमरे से निकलकर पालागन किया और हाथ बढाकर बोले––अच्छी साइतसे चला था कि आपके दर्शन हो गये। आप मुझे भूल तो न गये होंगे?

यह महाशय दो साल पहले "मोसल सर्विस लीग" के उत्साही सदस्य थे। इण्टरमिडियेट फेल हो जानेके बाद पुलिस में दाखिल हो गये थे। शर्माजी उन्हें देखते ही पहचान गये। क्रोध शान्त हो गया। मुस्कुराने की चेष्टा करके बोले, भूलना बड़े आदमियों का काम है। मैं तो आपको दूर ही से पहचान गया था। कहिये, इसी थाने में है क्या? कोकिला सिंह बोले, जी हा, आजकल यही हूँ।आइये, आपको दारोगाजीसे इंट्रोड्यूस(परिचित) करा दूं।

भीतर आराम कुरसीपर लेटे दारोगा जुल्फिकार अलीखा हुक्का पी रहे थे। बडे डीलडौलके मनुष्य थे। चेहरेसे रोब टपकता था।शर्माजी को देखते ही उठकर हाथ मिलाया और बोले,जनाब से नियाज हासिल करने का शौक मुद्दतसे था। आज खुशनसीबीसे मौका भी मिल गया। इस मुदासिलत वेजाको मुआफ फरमाइयेगा।

शर्माजी को आज मालूम हुआ कि पुलिसवालोको अशिष्ट कहना अन्याय है। हाथ मिलाकर बोले, यह आप क्या फरमाते हैं, यह तो आपका घर है।

पर इसके साथ ही पुलिसपर आक्षेप करनेका ऐसा अच्छा अवसर हाथसे नहीं जाने देना चाहते थे। कोकिलासिंहसे बोले,
आपने तो पिछले साल कालेज छोडा है लेकिन आपने नो भी की तो पुलिस की।

बडे दारोगाजी यह ललकार सुनकर सभल बैठे और वो क्यों जनाब। क्या पुलिस ही सारे मुहकमों से गया-गुजरा है ऐसा कौन सा सीमा है जहां रिश्वतका बाजार गर्म नहीं। अग आप ऐसे एक सीमेका नाम बता दीजिये तो मैं ता उम्र आपका गुलामी करूं। मुलाजमत करके रिश्वत न लेना मुहाल है तालीमके सीगेको बेलौस कहा जाता है मगर मुझको इसका खून तजरवा हो चुका। अब मैं किसीके रास्तवाजीके दावेको तस्लीम नहीं कर मक्ता और दूसरे सीगोंकी रिस्वत तो मैं नही कह सकता मगर पुलिसमें जो रिश्वत नहीं लेता उसे मैं अहमक समझता हूँ। मैंने दो एक दयानतदार सब इन्सपेक्टर देखे हैं पर उन्हे हमेशा तबाह देखा। कभी मातूब, कभी मुअत्तल। कभी बर्खास्त। चौकीदार और कास्टेबल वेचारे थोडी औकातके आदमी हैं, उनका गुजारा क्योकर हो? वही हमारे हाथ-पाव है, उन्हींपर हमारी नेकनामीका दारमदार है। जब वह खुद भूखों मरेंगे, तन हमारी मदद क्या करेगे? जो लोग हाथ बढ़ा कर लेते हैं,खुद खाते हैं, दूसरोको खिलाते हैं, अफसरोंको खुश रखते हैं, उनका शुमार कारगुजार नेकनाम आदमियोंमें होता है। मैंने तो यही अपना वसूल वना रखा है और खुदाका शुक्र है कि अफसर और मातहत सभी खुश हैं।

शर्माजीने कहाइसी वजहसे तो मैंने ठाकुर साहसे कहा थिाक आप क्यों इस सीगेमे आये? जुल्फिकार अलीखा गरम होकर बोले, आये तो मुहकमेपर कोई एहसान नहीं किया। किसी दूसरे सीगेमे होते तो अभीतक ठोकरें खाते होते, नही तो घोडेपर सवार नौशा बने घुमते हैं। मैं तो बात सच्ची कहता हूँ। चाहे किसीको अच्छी लगे या बुरी। इनसे पूछिये, हरामकी कमाई अकेले आज तक किसीको हजम हुई है? यह नये लोग जो आते हैं उनकी यह आदत होती है कि जो कुछ मिले अकेले ही हजम कर ले। चुपके-चुपके लेते हैं और थानेके अहलकार मुह ताक्ते रह जाते हैं। दुनियाकी निगाहमे ईमानदार बनना चाहते हैं पर खुदासे नहीं डरते। अरे, जब हम खुदा हीसे नहीं डरते तो आदमियों का क्या खौफ? ईमानदार बनना हो दिलसे बनो। सचाईका स्वांग क्यो भरते हो? यह हज़रत छोटी-छोटी रकमोंपर गिरते हैं। मारे गरूरके किसी आदमीसे राय तो लेते नहीं। जहा आसानीसे सौ रुपये मिल सकते हैं वहा पांच रुपयेमें बुलबुल हो जाते हैं। कहीं दूधवालेके दाम मार लिये, कहीं हज्जामके पैसे दवा लिये, कहीं वनियेसे निर्सके लिये झगड बैठे। यह अफसरी नहीं टुच्चापन है, गुनाह बेलज्जत, फायदा तो कुछ नहीं, बदनामी मुफ्त। मैं बड़े-बड़े शिकारोंपर निगाह रसता हू, यह पिद्दी और बटेर मातहतोंके लिये छोड देता हू। हलफसे कहता हूँ, गरज बुरी शै है। रिश्वत देनेवालोंसे ज्यादा अहमक अन्धे आदमी दुनियामें न होगे। ऐसे कितने ही उल्लू आते हैं जो महज यह चाहते है कि मैं उनके किसी पट्टीदार या दुश्मनको दो-चार खोटी खरी सुना दूं। कई ऐसे बेईमान जमीदार आते हैं जो यह चाहते हैं कि वह असामियोपर जुल्म करते रहें और पुलिस दखल न दे। इतने हीके लिये वह सैकडों रुपये मेरी नज़र करते हैं और खुशामद घालूमें। ऐसे अक्लके दुश्मनोंपर रहम करना हिमाकत है। जिलेमें मेरे इस इलाकेको सोनेको खान कहते है। इसपर सबके दात रहते हैं। रोज एक-न-एक शिकार मिलता रहता है। जमींदार निरे जाहिल, लएठ, जरा-जरा सी बातपर फौजदारिया कर बैठते हैं। मैं तो खुदासे दुआ करता रहता हूँ कि यह हमेशा इसी जहालतके गढेमे पडे रहें। सुनता हूँ, कोई साहब आमतालीमका सवाल पेश कर रहे हैं, उस भलेमानुसको न जाने यह क्या धुन है। शुक्र है कि हमारी आली फहम सरकारने उसे नामंजूर कर दिया। बस,इम सारे इलाकेमे एक यही आपका पट्टीदार अलबत्ता समझदार आदमी है। उसके यहां मेरी या और किसी की दाल नहीं गलती और लुत्फ यह कि कोई उससे नाखुश नहीं। वस मीठी-मीठी बातोंसे मन भर देता है। अपने असामियों के लिये जान देनेको हाजिर और हलफसे कहता है कि अगर मैं जमींदार होता तो इसी शख्सका तरीका अख्तियार करता। जमीन्दारका फर्ज है कि अपने असामियोंको जुल्मसे बचाये। उनपर शिकारियोंका वार न होने दे। बेचारे गरीब किसानोंकी जान के तो सभीगाहक होते हैं और हलफसे कहता हूँ, उनकी कमाई उनके काम नहीं आती। उनकी मेहनतका मजा हम लूटते हैं। यों तो जरूरतसे मजबूर होकर इन्सान क्या नहीं कर सकता, पर हक यह है कि इन बेचारोंकी हालत वाकई रहमके काबिल है और जो सख्स उनके लिये सीना-सिपर दो सके उसके कदम चूमने चाहिये। मगर मेरे लिये वो वही आदमी सबसे अच्छा है जो शिकारमें मेरी मदद करे।

शर्माजीने इस बकवाद को बड़े ध्यानसे सुना। वह रसिक मनुष्य थे। इसकी मार्मिकतापर मुग्ध हो गये। सहृदयता और कठोरता के ऐसे विचित्र मिश्रण से उन्हें मनुष्यों के मनोभावों का एक कौतूहल जनक परिचय प्राप्त हुआ। ऐसी वक्तृता का उत्तर देने की कोशिश करना व्यर्थ था। बोले—क्या कोई तहकीकात है या महज गश्त?

दारोगाजी बोले,जी नहीं, महज गश्त। आजकल किसानों के फसल के दिन हैं। यही जमाना हमारी फसलका भी है। शेर को भी तो मांदमें बैठे-बैठे शिकार नहीं मिलता। जंगलमें घूमता है। हम भी शिकारकी तलाशमें हैं। किसी पर खुफिया फरोसी का इलजाम लगाया, किसी को चोरी का माल खरीदने के लिये पकडा, किस को हमलहराम का झगड़ा उठाकर फांसा। अगर हमारे नसीब से डाका पड़ गया तो हमारी पांचों अगुली घी में समझिये। डाकू तो नोच-खसोटकर भागते हैं। असली डाका हमारा पड़ता है। आस-पास के गांवों में झाड़ू फेर देते हैं। खुदा से शबोरोज दुआ किया करते है कि या परवरदिगार! कहीं से रिजक भेज। झूठे सच्चे डाकेकी खबर आये। अगर देखा कि तकदीरपर शाकिर रहने से काम नहीं चलता तो तदबीर से काम लेते हैं। जरासे इशारेकी जरूरत है, डाका पडते क्या देर लगती है। आप मेरी साफगोईपर हैरान होते होंगे। अगर मैं अपने सारे हथकडे बयान करूं तो आप यकीन न करेंगे और लुत्फ यह कि मेरा शुमार जिलेके निहायत होशियार, कारगुजार, दयानतदार सब इन्सपेक्टरोंमें है। फर्जी डाके डलवाता हूँ। फर्जी मुल्जिम पकड़ता हूं। मगर सजाए असली दिलवाता हूँ। शहादतें ऐसी गढाता हूँ कि कैसा ही वैरिस्टरका चचा क्यों न हो, उनमें गिरफ्तार नहीं कर सकता।

इतने में शहर से शर्माजी की डाक आ गयी। उठ खडे हुए और बोले, दारोगाजी, आपकी बातें बडी मजेदार होती हैं। अब इजाजत दीजिये। डाक आ गई है। जरा उसे देखना है।

चादनी रात थी। शर्माजी खुली छतपर लेटे हुए एक समाचार पत्र पढ़नेमें मग्न थे। अकस्मात कुछ शोर-गुल सुनकर नीचे की तरफ झांका तो क्या देखते हैं कि गांवके चारो तरफसे कान्सटेबलो के साथ किसान चले आ रहे हैं? बहुतसे आदमी खलिहानकी तरफसे बड़बड़ाते आते थे। बीच बीचमें सिपाहियों की डांट-फटकार की आवाजें भी कानो मे आती थीं। यह सब आदमी बगलेके सामने सहनमें बैठते जाते थे। कहीं-कहीं स्त्रियों का आर्त्तनाद भी सुनाई देता था। शर्माजी हैरान थे कि मामला क्या है। इतनेमें दारोगाजीकी भयंकर गरज सुनाई पड़ी—हम एक न मानेगे, सब लोगों को थाने चलना होगा।

फिर सन्नाटा हो गया। मालूम होता था कि आदमियो में काना फूसी हो रही है। बीच बीच मुख्तार साहय और सिपाहियो के हृदय विदारक शब्द आकाश में गूंज उठते। फिर ऐसा जान पड़ा कि किसीपर मार पड़ रही है। शर्माजीसे भय न रहा गया। वह सीढ़ियोंके द्वारपर आये। कमरेमें झांककर देखा। मेजपर रुपये गिने जा रहे थे। दारोगाजीने फर्माया, इतने बडे गाँवमें सिर्फ यही?

मुख्तार साहब ने उत्तर दिया, अभी घबराइये नहीं। अबकी मुखियोंकी खबर ली जाय। रुपयोंका ढेर लग जाता है।

यह कहकर मुख्तारने कई किसानों को पुकारा, पर कोई न बोला, तब दारोगाजी का गगन-भेदी नाद सुनाई दिया, यह लोग सीधेसे न मानेगे। मुखियों को पकड लो। हथकड़िया भर दो। एक एकको डामल भिजवाऊगा।

यह नादिरशाही हुक्म पाते ही कान्सटेबलों का दल उन आदमियों पर टूट पडा। ढोल-सी पिटने लगी। क्रन्दनध्वनिसे आकाश गूज उठा। शर्माजीका रक्त खौल रहा था। उन्होंने सदैव न्याय और सत्यकी सेवा की थी। अन्याय और निर्दयताका यह करुणात्मक अभिमान उनके लिये असह्य था।

अचानक किसीने रोकर कहा, दोहाई सरकार की, मुख्तार साहब हम लोगनका हक नाहक मरवाये डारत हैं।

शर्माजी क्रोधसे कांपते हुए धम-धम कोठे से उतर पडे। यह दृढ़ सकल्प कर लिया कि मुख्तार साहब को मारे हटरोंको गिरा दू, पर जन-सेवामें मनोवेगोंके दबानेकी बडी प्रबल शक्ति होती है। रास्ते ही में संभल गये। मुख्तार को बुलाकर कहा, मुन्शीजी, आपने यह क्या गुलगपाड़ा मचा रखा है?

मुख्तारने उत्तर दिया, हुजूर दारोगाजीने इन्हें एक डाकेका तहकीकातमें तलब किया है। शर्माजी बोले, जी हां, इस तहकीकातका अर्थ मैं समझता हूँ। घण्टेभरसे इसका तमाशा देख रहा हूँ। तहकीम हो चुकी या अभी कुछ कसर बाकी है?

मुख्तारन कहा, हुजूर, दारोगाजी जाने, मुझे क्या मतलब दारोगाजी बड़े चतुर पुरुष थे। मुख्तार साहबकी बातों से उन्होंने समझा था कि शर्माजीका स्वभाव भी अन्य जमींदारोंके सदृश है। इसीलिये वह बेखटके थे, पर इस समय उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई। शर्माजीके तेवर देखे, नेत्रोंसे क्रोधाग्निकी ज्वाला निकल रही थी, शर्माजीकी शक्तिशालीनतासे भलीभांति परिचित थे। समीप आकर बोले, आपके इस मुख्तारने मुझे बड़ा धोखा दिया, वरना मैं हलफसे कहता हूँ कि यहां यह आग न लगती। आप मेरे मित्र बाबू कोकिला सिंहके मित्र हैं और इस नातेसे मैं आपको अपना मुरब्बी समझता हूँ, पर इस नामरदूद बदमाशने मुझे बडा चकमा दिया। मैं भी ऐसा अहमक था कि इसके चक्करमें आ गया। मैं बहुत नादिम हू कि हिमाकतके बाइस जनाबको इतनी तकलीफ हुई। मैं आपसे मुआफीका सायल हूँ। मेरी एक दोस्ताना इल्तमाश यह है कि जितनी जल्दी मुमकिन हो इस शख्सको बरतरफ कर दीजिये। यह आपकी रियासतको तबाह किये डालता है। अब मुझे भी इजाजत हो कि अपने मनहूस कदम यहासे ले जाऊँ। में इलफसे कहता हूं कि मुझे आपको मुँह दिखाते शर्म आती है।

यहां तो यह घटना हो रही थी, उधर बाबूलाल अपने

चौपालमें बैठे हुए इनके सम्बन्धमें अपने कई असामियों से बात-चीत कर रहे थे। शिवदीनने कहा, भैया, आप जाके दारोगाजी को काहे नाहीं समझावत हौ। राम राम! ऐसन अन्धेर।

बाबूलाल——भाई, मैं दूसरेके बीचमें बोलनेवाला कौन? शर्माजी तो वहीं है, वह आप ही बुद्धिमान हैं, जो उचित होगा करेंगे। यह आज कोई नई बात थोडे ही है। देखते तो हो कि आये दिन एक-न-एक उपद्रव मचा रहता है। मुख्तार साहब का इसमे भला होता है। शर्माजीसे मैं इस विषय में इसलिये कुछ नहीं कहता कि शायद वे यह समझे कि मैं ईर्षावश शिकायत कर रहा हूँ।

रामदासने कहा, शर्माजी हैं और नीचु कोठा पर बेचारनपर मार परत है। देखा नाहीं जात है। जिनसे मुराद पाय जात है उनका छोडे देत हैं। मोका तो जान परत है कि ई तहकिकात सहकिकात सब रुपैयन के खातिर कीन जात है।

बाबुलाल——और काहेके लिये की जाती है। दारोगाजी तो ऐसे ही शिकार दूढा करते हैं लेकिन देख लेना शर्माजी अबकी मुख्तार साहब की जरूर खबर लेगे। यह ऐसे वैसे आदमी नहीं हैं कि यह अन्धेर अपनी आंखोंसे देखें और मौन धारण कर लें? हां, यह तो बताओ, अबकी कितनी ऊख बोई है?

रामदास——ऊख बोये ढेर रहे मुदा दुष्टनके मारे बचै पावै। तू मानत नहीं हो भैया पर आखन देखी बात है कि कराह-क-कराह रस जर गवा और छटांको भर माल न परा। न जानी अस कौन मन्तर मार देत है।

बाबूलाल——अच्छा, अबकी मेरे कहनेसे

देखू ऐसा कौन बड़ा सिद्ध है जो कराहीका रस उड़ा देता है जरूर इसमें कोई न कोई बात है। इस गांवमें जितने कोल्हू जमीनमें गड़े पड़े हैं उनसे विदित होता है कि पहले यहां ऊख बहुत होती थी, किन्तु अब बेचारोंका मुँह भी मीठा नहीं होने पाता।

शिवदीन——अरे भैया! हमरे होसमें ई सब कोल्हू चलत रहे हैं। माघ-पूसमें रातभर गांवमें मेला लगा रहत रहा, पर जबसे ई नासिनी विद्या फैली है तबसे कोऊका ऊखके नेरे जायेका हियाव नाहीं परत है।

बाबूलाल——ईश्वर चाहेंगे तो फिर वैसी ही ऊख लगेगी। अबकी मैं इस मन्त्रको उलट दूंगा। भला यह तो बताओ अगर ऊख लग जाय और माल पड़े तो तुम्हारी पट्टीमें एक हजारका गुड़ हो जायगा?

हरखूने हँसकर कहा भैया, कैसी बात कहत हौ——हजार तो पांच बीघामें मिल सक्त है। हमरे पट्टीमें २५ बीघासे कम ऊख नहीं बा। कुछो न परै तौ अढ़ाई हजार कहूँ नहीं गये हैं।

बाबूलाल——तब तो आशा है कि कोई पचास रुपये बधाई में मिल जायँगे। यह रुपये गांव की सफाई में खर्च होंगे।

इतने में एक युवा मनुष्य दौड़ता हुआ आया और बोला, भैया! ऊह तहकिकात देखे गइल रहलीं। दरोगाजी सबका डांटत मारत रहे। देवी मुखिया बोला, मुख्तार साहब, हमय चाहे काट डारो मुदा हम एक कौड़ी न देबै। थाना कचहरी जहाँ कहौ चलैके तैयार हई। ई सुनके मुख्तार लाल हुइ गयेन। चार

चौपालमें बैठे हुए इनके सम्बन्धमे अपने कई असामियोंसे बातचीत कर रहे थे। शिवदीनने कहा, भैया, आप जाके दारोगाजी को काहे नाहीं समझावत हौ। राम राम! ऐसन अन्धेर।

बाबूलाल——भाई, मैं दूसरेके बीचमें बोलनेवाला कौन? शर्माजी तो वहीं है, वह आप ही बुद्धिमान हैं, जो उचित होगा करेगे। यह आज कोई नई बात थोडे ही है। देखते तो हो कि आये दिन एक-न-एक उपद्रव मचा रहता है। मुख्तार साहबका इसमें भला होता है। शर्माजीसे मैं इस विपयमें इसलिये कुछ नहीं कहता कि शायद वे यह समझे कि मैं ईषावश शिकायत कर रहा हूँ

रामदासने कहा, शर्माजी हैं और नीचु कोठापर बेचारनपर मार परत है। देखा नाहीं जात है। जिनसे मुराद पाय जात हैं उनका छोडे देत हैं। मोका तो जान परत है कि ई तहकिकात सहकिकात सब रुपैयनके खातिर कीन जात है।

बाबूलाल——और काहेके लिये की जाती है। दारोगाजी तो ऐसे ही शिकार दूढा करते हैं लेकिन देख लेना शर्माजी अबकी मुख्तार साहवकी जरूर खबर लेंगे। यह ऐसे वैसे आदमी नहीं है कि यह अन्धेर अपनी आंखोंसे देखें और मौन धारण कर लें? हां, यह तो बताओ, अबकी कितनी ऊख बोई है?

रामदास——ऊख बोये ढेर रहे मुदा दृष्टनके मारे बचै पावै। तू मानत नहीं हो भैया पर आंखन देखी बात है कि कराह-क-कराह रस जर गया और छटांको भर माल न परा। न जानी‌ इस कौन मन्तर मार देत है।

बाबूलाल——अच्छा, अबकी मेरे कहनेसे यह हानि उठा लो।

देखू ऐसा कौन बड़ा सिद्ध है जो कराहीका रस उड़ा देता है जरूर इसमें कोई न कोई बात है। इस गांवमें जितने कोल्हू जमीनमें गड़े पड़े हैं उनसे विदित होता है कि पहले यहां ऊख बहुत होती थी, किन्तु अब बेचारोंका मुँह भी मीठा नहीं होने पाता।

शिवदीन——अरे भैया! हमरे होसमें ई सब कोल्हू चलत रहे हैं। माघ-पूसमें रातभर गांवमें मेला लगा रहत रहा, पर जबसे ई नासिनी विद्या फैली है तबसे कोऊका ऊखके नेरे जायेका हियाव नाहीं परत है।

बाबूलाल——ईश्वर चाहेंगे तो फिर वैसी ही ऊख लगेगी। अबकी मैं इस मन्त्रको उलट दूंगा। भला यह तो बताओ अगर ऊख लग जाय और माल पड़े तो तुम्हारी पट्टीमें एक हजारका गुड़ हो जायगा?

हरखूने हँसकर कहा भैया, कैसी बात कहत हौ——हज़ार तो पांच बीघामें मिल सकत है। हमरे पट्टीमें २५ बीघासे कम ऊख नहीं बा। कुछो न परै तौ अढाई हजार कहूँ नहीं गये हैं।

इतने में एक युवा मनुष्य दौड़ता हुआ आया और बोला, भैया! ऊह तहकिकात देखे गइल रहलीं। दरोगाजी सबका डांटत मारत रहे। देवी मुखिया बोला, मुख़्तार साहब, हमय चाहे काट डारो मुदा हम एक कौड़ी न देबै। थाना कचहरी जहाँ कहौ चलैके तैयार हई। ई सुनके मुख़्तार लाल हुइ गयेन। चार

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सिपाहिन से कहेन कि एहिका पकरिके खूब मारो, तब देवी चिल्लाय चिल्लाय खूब रोवै लागल, एतने में सरमा जी कोठी पर से खट-खट उतरेन और मुख्तार के लगे डाँटे। मुख्तार ठाढ़ै झूर हो गयेन। दारोगा जी धीरे से घोड़ा मँगवाय के भागेन। मनई सरमा जी के असीसत चला जात हैं।

बाबूलाल——यह तो मैं पहले ही कहता था कि शर्मा जी से यह अन्याय न देखा जायगा।

इतने में दूर से एक लालटेन का प्रकाश दिखाई दिया। एक आदमी के साथ शर्मा जी आते हुए दिखाई दिये। बाबूलाल ने असामियों को वहाँ से हटा दिया, कुरसी रखवा दी और बढ़ कर बोले——आपने इस समय क्यों कष्ट किया, मुझको बुला लिया होता।

शर्मा जी ने नम्रता से उत्तर दिया——आपको किस मुँह से बुलाता, मेरे सारे आदमी वहाँ पीटे जा रहे थे, उनका गला दबाया जा रहा था कि आपके आस पास न फटके। मुझे आपसे मदद की आशा थी। आज हमारे मुख़्तार ने गाँव में लूट मचा दी थी। मुख़्तार की और क्या कहूँ। बेचारा थोड़े औक़ात का आदमी है। खेद तो यह है कि आपके दारोग़ा जी भी उनके सहायक थे। कुशल यह थी कि मैं वहाँ मौजूद था।

बाबूलाल——बहुत लज्जित हूँ कि इस अवसर पर आपकी कुछ सेवा न कर सका। पर बात यह है कि मेरे वहाँ जाने से मुख़्तार साहब और दारोग़ा दोनों अप्रसन्न होते। मुख़्तार मुझसे कई बार कह चुके हैं कि आप मेरे बीच में न बोला कीजिए। मैं आप

से कभी गांवकी यह दशा इस भयसे न कहता था कि शायद आप समझें कि मैं ईर्षा के कारण ऐसा कहता हूँ। यहाँ यह कोई नयी बात नहीं है। आये दिन ऐसी ही घटनाएं होती रहती हैं। और कुछ इसी गांवमे नहीं, जिस गांवको देखिये, यही दशा है। इन सब आपत्तियोंका एकमात्र कारण यह है कि देहातोंमे कर्मपरायण, विद्वान और नीतिज्ञ मनुष्योंका अभाव है। शहरके सुशिक्षित जमींदार जिनसे उपकारकी बहुत कुछ आशा की जाती है, सारा काम कारिन्दोंपर छोड़ देते हैं। रहे देहातके जमींदार, सो निरक्षर भट्टाचार्य हैं। अगर कुछ थोड़े-बहुत पढ़े भी हैं तो अच्छों संगति न मिलनेके कारण उनमें बुद्धि का विकास नहीं है। कानूनके थोड़ेसे दफे सुन-सुना लिये हैं, बस उसीकी रट लगाया करते हैं। मैं आपसे सत्य कहता हूँ, मुझे जरा भी खबर होती तो मैं आपको सचेत कर दिये होता।

शर्माजी——खैर, यह बला तो टली, पर मैं देखता हूँ कि इस ढङ्गसे काम न चलेगा। अपने असामियोंको आज इस विपत्तिमें देखकर मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरा मन बार-बार मुझको इस सारी दुर्घटनाओंका उत्तरदाता ठहराता है। जिसकी कमाई खाता हूँ जिनकी बदौलत टमटमपर सवार होकर रईस बना घूमता हूँ, उनके कुछ स्वत्व भी तो मुझपर हैं। मुझे अब अपनी स्वार्थान्धता स्पष्ट दीख पड़ती है। मैं आप अपनी ही दृष्टिमें गिर गया हूँ। मैं सारी जातिके उद्धारका बीड़ा उठाये हुए हूँ, सारे भारत वर्षके लिये प्राण देता फिरता हूँ, पर अपने घरकी खबर ही नहीं। जिनकी रोटियाँ खाता हूँ उनकी तरफसे इस तरह उदासीन

हू। अब इस दुरवस्थाको समूल नष्ट करना चाहता हूँ। इस काममें मुझे आपकी सहायता और महानुभूतिकी जरूरत है। मुझे अपना शिष्य बनाइये। मैं याचक भावसे आपके पास आया हूँ। इस भारको सँभालनेकी शक्ति मुझमे नहीं। मेरी शिक्षाने मुझे किताबोंका। कीडा बनाकर छोड़ दिया और मनके मोदक, खाना सिखाया। मैं मनुष्य नहीं, किन्तु नियमोंका पोथा हूँ। आप मुझे मनुष्य वनाइये, मैं अब यहीं रहूँगा, पर आपको भी यहीं रहना पड़ेगा। आपकी जो हानि होगी उसका भार मुझपर है । मुझे सार्थक जीवनका पाठ पढ़ाइये। आपसे अच्छा गुरु मुझे न मिलेगा। सम्भव है कि आपका अनुगामी बनकर मैं अपना कर्तव्य पालन करने योग्य हो जाऊँ।