समर यात्रा/जुलूस

विकिस्रोत से
समर-यात्रा  (1941) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ७९ ]

जुलूस

पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था। कुछ युवक, कुछ बूढ़े, कुछ बालक झण्डियां और झण्डे लिये वन्दे मातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ़ दर्शकों की दीवारे खड़ी थीं, मानो उन्हें इस जत्थे से कोई सरोकार नहीं है, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है।

शंभूनाथ ने दुकान की पटरी पर खड़े होकर अपने पड़ोसी दीनदयाल से कहा -- सब-के-सब काल के मुंँह में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल मार-मार भगा देगा।

दीनदयाल ने कहा -- महात्माजी भी सठिया गये हैं। जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता, तो अब तक कवका मिल गया होता। और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो-लौंडे, लफंगे, सिर-फिरे। शहर का कोई बड़ा आदमी नहीं।

मैकू चट्टियों और स्लीपरों की माला गरदन में लटकाये खड़ा था। इन दोनों सेठों की बातें सुनकर हँसा।

शंभू ने पूछा -- क्यों हँसे मैकू ? आज रंग चोखा मालूम होता है।

मैकू--हँसा इस बात पर जो तुमने कही कि कोई बड़ा आदमी जुलूस में नहीं है। बड़े आदमी क्यों जुलूस में आने लगे, उन्हें इस राज में कौन आराम नहीं है। बँगलों और महलों में रहते हैं, मोटरों पर घूमते हैं, साहबों के साथ दावतें खाते हैं, कौन तकलीफ़ है। मर तो हम लोग रहे हैं, जिन्हें रोटियों का ठिकाना नहीं। इस बखत कोई टेनिस खेलता होगा, कोई चाय पीता होगा, कोई ग्रामोफ़ोन लिये गाना सुनता होगा, कोई पारिक की सैर करता होगा, यहाँ आयें पुलीस के कोड़े खाने के लिए ? तुमने भी भली कही!

शंभू-तुम यह बात क्या समझोगे मैकू, जिस काम में चार बड़े आदमी [ ८० ]अगुवा होते हैं, उसकी सरकार पर भी धाक बैठ जाती है। लफंगों-लौंडों का गोल भला हाकिमों की निगाह में क्या जँचेगा।

मैकू ने ऐसी दृष्टी से देखा,जो कह रही थी-इन बातों के समझने का ठीका कुछ तुम्हीं ने नहीं लिया है और बोला-बड़े आदमी को तो हमी लोग बनाते-बिगाड़ते हैं या कोई और ? कितने ही लोग,जिन्हें कोई पूछता भी न था,हमारे ही बनाये बड़े आदमी बन गये और अब मोटरों पर निकलते हैं और हमें नीच समझते हैं। यह लोगों की तक़दीर की खूबी है कि जिसकी ज़रा बढ़ती हुई और उसने हमसे आँखे फेरी। हमारा बड़ा आदमी तो,वही है, लँगोटी बाँधे नंगे पाँव घूमता है, जो हमारी दशा को सुधारने के लिए अपनी जान हथेलो पर लिये फिरता है। और हमें किसी बड़े आदमी की परवाह नहीं है। सच पूछो, तो इन बड़े आदमियों ने ही हमारी मिट्टी खराब कर रखी है। इन्हें सरकार ने कोई अच्छी-सी जगह दे दी, बस उसका दम भरने लगे।

दीनदयाल -- नया दारोग़ा बड़ा जल्लाद है। चौरस्ते पर पहुँचते ही हंटर लेकर पिल पड़ेगा। फिर देखना,सब कैसे दुम दबाकर भागते हैं। मज़ा आयेगा।

जुलूस स्वाधीनता के नशे में चूर चौरस्ते पर पहुँचा,तो देखा,आगे सवारों और सिपाहियों का एक दस्ता रास्ता रोके खड़ा है।

सहसा दारोग़ा बीरबलसिंह घोड़ा बढ़ाकर जुलूस के सामने आ गये और बोले-तुम लोगों को आगे जाने का हुक्म नहीं है।

जुलूस के बूढ़े नेता इब्राहिमअली ने आगे बढ़कर कहा-मैं आपको इतमिनान दिलाता हूँ,किसी किस्म का दंगा-फ़साद न होगा। हम दूकानें लूटने या मोटरें तोड़ने नहीं निकले हैं। हमारा मक़सद इससे कहीं ऊँचा है।

वीरबल -- मुझे यह हुक्म है कि जुलूस यहाँ से आगे न जाने पाये।

इब्राहीम -- आप अपने अफसरों से ज़रा पूछ न लें।

वीरबल -- मैं इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझता।

इब्राहीम -- तो हम लोग यहीं बैठते हैं। जब आप लोग चले जायेंगे तो हम निकल जायँगे। [ ८१ ]वीरबल -- यहांँ खड़े होने का भी हुक्म नहीं है। तुमको वापस जाना पड़ेगा।

इब्राहिम ने गंभीर भाव से कहा-वापस तो हम न जायँगे। आपको या किसी को भी, हमें रोकने का कोई हक नहीं है। आप अपने सवारों, संगीनों और बन्दूकों के ज़ोर से हमें रोकना चाहते हैं,रोक लीजिए;मगर आप हमें लौटा नहीं सकते। न जाने वह दिन कब आयेगा,जब हमारे भाई-बन्दः ऐसे हक्मों की तामील करने से साफ इन्कार कर देगें,जिनकी मंशा महज कौम को गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े रखना है।

बीरबल ग्रेजुएट था। उसका बाप सुपरिंटेडेण्ट पुलीस था। उसकी नस-नस में रोब भरा हुआ था। अफसरों की दृष्टि में उसका बड़ा सम्मान था। ख़ासा गोरा चिट्टा,नीली आँखों और भरे बालोंवाला तेजस्वी पुरुष था। शायद जिस वक्त वह कोट पहनकर ऊपर से हैट लगा लेता तो वह भूल जाता था कि मैं भी यहीं का रहनेवाला हूँ। शायद वह अपने को राज्य करनेवाली जाति का अंग समझने लगता था ; मगर इब्राहिम के शब्दों में जो तिरस्कार भरा हुआ था, उसने जरा देर के लिए उसे लजित कर दिया;पर मुअमला ना जुक था। जुलूस को रास्ता दे देता है,तो जवाब तलब हो जायगा ; वहीं खड़ा रहने देता है,तो यह सब न-जाने कब तक खड़े रहे ; इस संकट में पड़ा हुआ था कि उसने डी० एस० पी० को घोड़े पर आते देखा। अब सोच-विचार का समय न था। यही मौका था कारगुज़ारी दिखाने का। उसने कमर से बेटन निकल लिया और घोड़े को एड़ लगाकर जुलूस पर चढ़ाने लगा। उसे देखते ही और सवारों ने भी घोड़ों को जुलस पर चढ़ाना शुरू कर दिया। इब्राहिम दारोगा के घोड़े के सामने खड़ा था। उसके सिर पर एक बेटन ऐसे ज़ोर से पड़ा कि उसकी आँखें तिलमिला गई। खड़ा न रह सका। सिर पकड़कर बैठ गया। उसी वक्त दारोगाजी के घोड़े ने दोनों पांँव उठाये और जमीन पर बैठा हुआ इब्राहिम उसके टापों के नीचे आ गया। जुलूस अभी तक शान्त खड़ा था। इब्राहिम को गिरते देखकर कई आदमी उसे उठाने के लिए लपके;मगर कोई आगे न बढ़ सका। उधर सवारों के डंडे बड़ी निर्दयता से पड़ रहे थे। लोग हाथों पर [ ८२ ]डण्डों को रोकते थे और अविचलित रूप से खड़े थे। हिंसा के भावों में प्रवाहित न हो जाना उनके लिए प्रतिक्षण कठिन होता जाता था।.जब श्राघात और अपमान ही सहना है,तो फिर हम भी इस दीवार को पार करने की क्यों न चेष्टा करें ? लोगों को ख़याल आया,शहर के लाखों श्राद-"मियों की निगाहें हमारी तरफ़ लगी हुई हैं। यहां से यह झण्डा लेकर हम लौट जाय, तो फिर किस मुह से आजादी का नाम लेंगे;मगर प्राणरक्षा के लिए भागने का किसी को ध्यान भी न पाता था। यह पेट के भक्तों, किराये के टटुओं का दल न था। यह स्वाधीनता के सच्चे स्वयसेवकों का,आजादी के दीवानों का संगठित दल था-अपनी ज़िम्मेदारियों को खूब समझता था। कितनों ही के सिरों से खून जारी था, कितनों ही के हाथ जख्मी हो गये थे। एक हल्ले में यह लोग सवारों की सफ़ों को चीर सकते थे;मगर पैरों में बेड़ियां पड़ी हुई थीं -- सिद्धान्त की, धर्म की, आदर्श की।

दस-बारह मिनट तक यों ही डण्डों की बौछार होती रही और लोग शान्त खड़े रहे।

( २ )

इस मार-धाड़ की ख़बर एक क्षण में बाज़ार में जा पहुँची। इब्राहिम घोड़े से कुचल गये,कई आदमी जख्मी हो गये, कई के हाथ टूट गये ; मगर न वे लोग पीछे फिरते हैं और न पुलीस उन्हें आगे जाने देती है।मैकू ने उत्तजित होकर कहा -- अब तो भाई,यहाँ नहीं रहा जाता। मैं भी चलता हूँ।

दीनदयाल ने कहा -- हम भी चलते हैं भाई,देखी जायगी!

शंभू एक मिनट तक मौन खड़ा रहा। एकाएक उसने भी दूकान बढ़ाई और बोला-एक दिन तो मरना ही है,जो कुछ होना है,हो। आखिर वे लोग सभी के लिए तो जान दे रहे हैं। देखते-देखते अधिकांश दुकानें बन्द हो गई। वह लोग,जो दस मिनट पहले तमाशा देख रहे थे,इधर-उधर से दौड़ पड़े और हज़ारों आदमियों का एक विराट् दल घटनास्थल की ओर चला। यह उन्मत्त, हिंसामद से भरे हुए मनुष्यों का समह था,जिसे सिद्धान्त और आदर्श की परवाह न थी। जो मरने के लिए ही नहीं,मारने के लिए [ ८३ ]भी तैयार थे। कितनों ही के हाथों में लाठियां थीं, कितने ही जेबों में पत्थर भरे हुए थे। न कोई किसी से कुछ बोलता था, न पूछता था। बस सब-के-सब मन में एक दृढ़ संकल्प किये लपके चले जा रहे थे, मानो कोई घटा उमड़ी चली आती हो।

इस दल को दूर से देखते ही सवारों में कुछ हलचल पड़ी। बीरबलसिंह के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। डी० एस० पी० ने अपनी मोटर आगे बढ़ाई। शांत और अहिंसा के व्रतधारियों पर डण्डे बरसाना और बात थी, एक उन्मत्त दल से मुकाबला करना दूसरी बात। सवार और सिपाही पीछे खिसक गये।

इब्राहिम की पीठ पर घोड़े ने टाप रख दी। वह अचेत ज़मीन पर पड़े थे। इन आदमियों का शोर-गुल सुनकर आप ही आप उनकी आँखें खुल गई। एक युवक को इशारे से बुलाकर कहा -- क्यों कैलाश, क्या कुछ लोग शहर से आ रहे हैं ?

कैलाश ने उस बढ़ती हुई घटा की ओर देखकर कहा -- जी हाँ, हज़ारों आदमी है।

इब्राहिम-तो अब ख़ैरियत नहीं है। झण्डा लौटा दो। हमें फ़ौरन लौट चलना चाहिए, नहीं तूफ़ान मच जायगा। हमें अपने भाइयों से लड़ाई नहीं करना है। फौरन् लौट चलो।

यह कहते हुए उन्होंने उठने की चेष्टा की,मगर उठ न सके।

इशारे की देर थी। संगठित सेना की भांति लोग हुक्म पाते ही पीछे फिर गये। झण्डियों के बासों, साफों और रूमालों से चटपट एक स्ट्रेचर तैयार हो गया। इब्राहिम को लोगों ने उस पर लिटा दिया और पीछे फिरे; मगर क्या वह परास्त हो गये थे ! अगर कुछ लोगों को उन्हें परास्त मानने में ही सन्तोष होता हो, तो हो ; लेकिन वास्तव में उन्होंने एक युगान्तरकारी विजय प्राप्त की थी। वे जानते थे, हमारा संघर्ष अपने ही भाइयों से है, जिनके हित परिस्थितियों के कारण हमारे हितों से भिन्न हैं। हमें उनसे वैर नहीं करना है। फिर, वह यह भी नहीं चाहते थे कि शहर में लूट और दंगे का बाज़ार गर्म हो जाय और हमारे धर्मयुद्ध का अन्त लुटी हुई दूकानें और [ ८४ ]टूटे हुए सिर हो। उनकी विजय का सबसे उज्ज्वल चिह्न यह था कि उन्होंने जनता की सहानुभति प्राप्त कर ली थी। वही लोग, जो पहले उन पर हँसते थे, उनका धैर्य और साहस देखकर उनकी सहायता के लिए निकल पड़े थे। मनोवृत्ति का यह परिवर्तन हो हमारी असली विजय है। हमें किसी से लड़ाई करने की ज़रूरत नहीं,हमारा उद्देश्य केवल जनता की सहानुभति प्राप्त करना है,उसकी मनोवृत्तियों को बदल देना है। जिस दिन हम इस लक्ष्य पर पहुँच जायेंगे,उसी दिन स्वराज्य-सूर्य उदय होगा।

तीन दिन गुज़र गये थे। बीरबल सिंह अपने कमरे में बैठे चाय पी रहे थे और उनकी पत्नी मिटुन बाई शिशु को गोद में लिये सामने खड़ी थीं। बीरबल सिंह ने कहा-मैं क्या करता उस वक्त। पीछे डी० एस० पी० खड़ा था। अगर उन्हें रास्ता दे देता, तो अपनी जान मुसीबत में फँसती।

मिट्रन बाई ने सिर हिलाकर कहा-तुम कम से कम इतना तो कर ही सकते थे कि उन पर डण्डे न चलाने देते। तुम्हारा काम आदमियों पर डण्डे चलाना है ? तुम ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें रोक सकते थे। कल को तुम्हें अपराधियों को बेत लगाने का काम दिया जाय,तो शायद तुम्हें बड़ा आनन्द आयेगा, क्यों ?

बीरबल सिंह ने खिसियाकर कहा -- तुम तो बात नहीं समझनी हो!

मिट्रन बाई--मैं खूब समझती हूँ। डी० एस० पी० पीछे खड़ा था। तुमने सोचा होगा,ऐसी कारगुज़ारी दिखाने का अवसर शायद फिर कभी मिले या न मिले। क्या तुम समझते हो,उस दल में कोई भला आदमी न था ? उसमें कितने ही श्रादमी ऐसे थे,जो तुम्हारे जैसों को नौकर रख ..सकते हैं। विद्या में तो शायद अधिकांश तुमसे बढ़े हुए होंगे;मगर तुम उन पर डण्डे चला रहे थे और उन्हें घोड़े से कुचल रहे थे, वाह री जामर्दी !

बीरबल ने बेहयाई की हँसी के साथ कहा--डी० एस० पी० ने मेरा नाम नोट कर लिया है। सच !

दारोगा ने समझा था,यह सूचना देकर वह मिट्ठन बाई को खुश कर देंगे। सजनता और भलमनसी आदि ऊपर की बातें हैं, दिल से नहीं, ज़बान [ ८५ ]
से कही जाती हैं। स्वार्थ दिल की गहराइयों में बैठा होता है। वही गम्भीर विचार का विषय है।

मगर मिट्रन बाई के मुख पर हर्ष की कोई रेखा न नज़र आई,ऊपर की बातें शायद गहराइयों तक पहुंच गई थीं। बोलीं-ज़रूर कर लिया होगा और शायद तुम्हें जल्द तरकी भी मिल जाय ; मगर बेगुनाहों के खून से हाय रँगकर तरक्की पाई, तो क्या पाई! यह तुम्हारी कारगुज़ारी का इनाम नहीं,तुम्हारे देश-द्रोह की कीमत है। तुम्हारी कारगुजारी का इनाम तो तब मिलेगा,जब तुम किसी खूनी को खोज निकालोगे, किसी डूबते हुए आदमी को बचा लोगे।

एकाएक एक सिपाही ने बरामदे में खड़े होकर कहा-हुजूर,यह लिफ़ाफ़ा लाया हूँ। वीरबलसिंह ने बाहर निकल कर लिफ़ाफ़ा ले लिया और भीतर की सरकारी चिट्ठी निकालकर पढ़ने लगे। पढ़कर उसे मेज़ पर रख दिया।

मिट्ठन ने पूछा--क्या तरक्की का परवाना आ गया?

वीरबल सिंह ने झंपकर कहा--तुम तो बनाती हो ! आज फिर कोई जुलूस निकलनेवाला है। मुझे उसके साथ रहने का हुक्म हुआ है।

मिट्ठन-फिर तो तुम्हारी चाँदी है, तैयार हो जाओ। श्राज फिर वैसे ही शिकार मिलेंगे। खूब बढ़कर हाथ दिखाना! डी. एस. पी. भी ज़रूर आयेंगे। अबकी तुम इन्सपेक्टर हो जानोगे। सच!

वीरबल सिंह ने माथा सिकोड़कर कहा--कभी-कभी तुम बे-सिर-पैर की बातें करने लगती हो। मान लो,मैं जाकर चुपचाप खड़ा रहूँ,तो क्या नतीजा होगा। मैं नालायक समझा जाऊँगा और मेरी जगह कोई दूसरा आदमी भेज दिया जायगा। कहीं शुबहा हो गया कि मुझे स्वराज्य-वादियों से सहानुभति है,तो कहीं का न रहूँगा। अगर बर्खास्त न हुआ तो लैन की हाजिरी तो हो ही जायगी। आदमी दुनिया में रहता है,उसी का चलन देखकर काम करता है। मैं बुद्धिमान् न सही ; पर इतना जानता हूँ कि ये लोग देश और जाति का उद्धार करने के लिए ही कोशिश कर रहे हैं। यह भी जानता हूँ कि सरकार इस ख़याल को कुचल डालना चाहती है। ऐसा

[ ८६ ]
ग़धा नहीं हूँ कि गुलामी की ज़िन्दगी पर गर्व करूँ; लेकिन परिस्थिति से मज़बूर हूँ।

बाजे की आवाज़ कानों में आई। वीरबल सिंह ने बाहर जाकर पूछा। मालूम हुआ, स्वराज्यवालों का जुलूस आ रहा है। चटपट वर्दी पहनी, साफा बांधा और जेब में पिस्तौल रखकर बाहर आये। एक क्षण में घोड़ा तैयार हो गया। कांस्टेबल पहले ही से तैयार बैठे थे। सब लोग डबल मार्च करते हुए जुलूस की तरफ़ चले।

( ४ )

लोग डबल मार्च करते हुए कोई पन्द्रह मिनट में जुलूस के सामने पहुँच गये। इन लोगों को देखते ही अगणित कंठों से 'वन्दे मातरम्' की एक ध्वनि निकली, मानो मेघमण्डल में गर्जन शब्द हुआ हो, फिर सन्नाटा छा गया। उस जुलूस में और इस जुलूस में कितना अन्तर था! वह स्वराज्य के उत्सव का जुलूस था, यह एक शहीद के मातम का। तीन दिन के भीषण ज्वर के और वेदना के बाद आज उस जीवन का अन्त हो गया, जिसने कभी पद की लालसा नहीं की, कभी अधिकार के सामने सिर नहीं झुकाया। उन्होंने मरते समय वसीयत की थी कि मेरी लाश को गंगा में नहलाकर दफ़न किया जाय और मेरे मज़ार पर स्वराज्य का झंडा खड़ा किया जाय। उनके मरने का समाचार फैलते ही सारे शहर पर मातम का पर्दा-सा पड़ गया ! जो सुनता था, एक बार इस तरह चौंक पड़ता था, जैसे उसे गोली लग गई हो और तुरन्त उनके दर्शनों के लिए भागता था। सारे बाज़ार बन्द हो गये, इक्को और तांगों का कहीं पता न था जैसे शहर लुट गया हो। देखते-देखते सारा शहर उमड़ पड़ा। जिस वक्त जनाज़ा उठा, लाख-सवा लाख आदमी साथ थे। कोई आंख ऐसी न थी, जो आँसुओं से लाल न हो ।

वीरबलसिंह अपने कांस्टेबलों और सवारों को पांँच-पांँच गज के फासले पर जुलूस के साथ चलने का हुक्म देकर खुद पीछे चले गये। पिछली सफ़ों में कोई पचास गज़ तक महिलाएँ थीं। दारोगा ने उनकी तरफ़ ताका। पहली ही कतार में मिट्टनबाई नज़र आई। वीरबल को विश्वास न आया। फिर ध्यान से देखा, वही थीं। मिट्टन ने उनकी तरफ एक बार देखा और
[ ८७ ]
आँखें फेर ली; पर उसके एक चितवन में कुछ ऐसा धिक्कार, कुछ ऐसी लज्जा, कुछ ऐसी व्यथा, कुछ ऐसी घृणा भरी हुई थी कि वीरवलसिंह की देह में सिर से पांव तक सनसनी-सी दौड़ गई। वह अपनी दृष्टि में कभी इतने हल्के, इतने दुर्बल, इतने ज़लील न हुए थे।

सहसा एक युवती ने दारोग़ाजी की तरफ देखकर कहा--कोतवाल साहब, कहीं हम लोगों पर डण्डे न चला दीजिएगा ! आपको देखकर भय हो रहा है।

दूसरी बोली--आपही के कोई भाई तो थे, जिन्होंने उस दिन माल के चौरस्ते पर इस वीर पुरुष पर आघात किये थे !

मिट्ठन ने कहा--आपके कोई भाई न थे, आप खुद थे।

बीसियों ही मुहों से आवाजें निकलीं--अच्छा, यह वही महाशय हैं ? महाशय, आपको नमस्कार है ! यह आप ही की कृपा का फल है कि आज हम भी आपके डण्डे के दर्शनों के लिए आ खड़ी हुई हैं !

वीरबल ने मिटुन बाई की ओर आँखों का भाला चलाया; पर मुंह से कुछ न बोले। एक तीसरी महिला ने फिर कहा-हम एक जलसा करके आपको जयमाल पहनायेंगे और आपका यशोगान करेंगे।

चौथी ने कहा-आप बिलकुल अँगरेज मालूम होते हैं, जभी इतने गोरे हैं !

एक बुढ़िया ने आँखें चढ़ाकर कहा--मेरी कोख में ऐसा बालक जन्मा होता, तो उसकी गर्दन मरोड़ देती!

एक युवती ने उसका तिरस्कार करके कहा--आप भी खूब कहती हैं माताजी, कुत्ते तक तो नमक का हक़ अदा करते हैं, यह तो आदमी हैं ।

बुढ़िया ने झल्लाकर कहा-पेट के गुलाम, हाय पेट ! हाय पेट !

इस पर कई स्त्रियों ने बुढ़िया को आड़े हाथों लिया और वह बेचारी लज्जित होकर बोली--अरे, मैं कुछ कहती थोड़े ही हूँ ; मगर ऐसा आदमी भी क्या, जो स्वार्थ के पीछे अन्धा हो जाय ।

वीरबलसिंह अब और न सुन सके। घोड़ा बढ़ाकर जुलूस से कई गज़ पीछे चले गये। मर्द लजित करता है, तो हमें क्रोध आता है। स्त्रिया
[ ८८ ]लज्जित करती हैं, तो ग्लानि उत्पन्न होती है। वीरबलसिंह की, इस वक्त इतनी हिम्मत न थी कि फिर उन महिलाओं के सामने जाते। अपने अफसरों पर क्रोध आया। मुझी को बार-बार क्यों इन कामों पर तैनात किया जाता है। और लोग भी तो हैं, उन्हें क्यों नहीं लाया जाता? क्या मैं ही सबसे गया बीता हूँ? क्या मैं ही सबसे भावशन्य हूँ ?

मिट्ठो इस वक्त मुझे दिल में कितना कायर और नीच समझ रही होगी। शायद इस वक्त मुझे कोई मार डाले, तो वह ज़बान भी न खोलेगी। शायद मन में प्रसन्न होगी कि अच्छा हुआ। अभी कोई जाकरे साहब से कह दे, कि वीरबल सिंह की स्त्री जुलूस में निकलती थी, तो कहीं का न रहूँ। मिट्ठो जानती है, समझती है, फिर भी निकल खड़ी हुई। मुझसे पुछा तक नहीं। कोई फ़िक्र नहीं है न, जभी ये बातें सूझती हैं। वहाँ सभी बेफ़ि हैं, कॉलेजों और स्कूलों के लड़के, मज़दूर, पेशेवर, इन्हें क्या चिन्ता ! मरन तो हम लोगों की है, जिनके बाल-बच्चे हैं, और कुल-मर्यादा का ध्यान है। सब-की-सब मेरी तरफ़ कैसा घूर रही थीं, मानो खा जायँगी।

जुलूस शहर की मुख्य सड़कों से गुज़रता हुआ चला जा रहा था। दोनों ओर छतों पर, छज्जों पर, जंँगलों पर, वृक्षों पर दर्शकों की दीवारें-सी खड़ी थीं। वीरबलसिंह को आज उनके चेहरों पर एक नई स्फूर्ति, एक नया उत्साह, एक नया गर्व झलकता हुआ मालूम होता था। स्फूर्ति थी वृद्धों के चेहरों पर, उत्साह युवकों के और गर्व रमणियों के। यह स्वराज्य के पथ पर चलने का उल्लास था। अब उनकी यात्रा का लक्ष्य अज्ञात न था, पथ भ्रष्टों की भाँति इधर-उधर भटकना न था, दलितों की भाति सिर झुकाकर रोना न था। स्वाधीनता का सुनहला शिखर सुदूर आकाश में चमक रहा था। ऐसा जान पड़ता था, लोगों को बीच के नालों और जंगलों की परवा नहीं है, सब उस सुनहले लक्ष्य पर पहुँचने के लिए उत्सुकं हो रहे हैं।

ग्यारह बजते-बजते जुलूस नदी के किनारे जा पहुँचा, जनाज़ा उतारा और लोग शव को गगास्नान कराने के लिए चले। उसके शीतल, शान्त, पीले मस्तक पर लाठी की चोट साफ़ नज़र आ रही थी। रक्त जमकर काला हो गया था। सिर के बड़े-बड़े बाल खून जम जाने से किसी चित्रकार
[ ८९ ]की तूलिका की भांति चिमट गये थे। कई हज़ार आदमी इस शहीद के अन्तिम दर्शनों के लिए मण्डल बांधकर खड़े हो गये। बीरबलसिंह पीछे घोड़े पर सवार खड़े थे। लाठी की चोट उन्हें भी नज़र आई। उनकी आत्मा ने ज़ोर से धिक्कारा। वह शव की ओर न ताक सके। मुँह फेर लिया। जिस मनुष्य के दर्शनों के लिए, जिसके चरणों को रज मस्तक पर लगाने के लिए लाखों आदमी विकल हो रहे हैं, उसका मैंने इतना अपमान किया। उनकी आत्मा इस समय स्वीकार कर रही थी कि उस निर्दय प्रहार में कर्त्तव्य के भाव का लेश भी न था—केवल स्वार्थ था, कारगुज़ारी दिखाने की हवस और अफ़सरों को खुश करने की लिप्सा। हजारों आंखें क्रोध से भरी हुई उनकी ओर देख रही थीं; पर वह सामने ताकने का साहस न कर सकते थे।

एक कांस्टेबल ने आकर प्रशंसा की—हुजूर का हाथ गहरा पड़ा था। अभी तक खोपड़ी खुली हुई है। सबकी आंखें खुल गई।

बीरबल ने उपेक्षा की—मैं इसे अपनी जवांमर्दी नहीं, अपना कमीनापन समझाता हूँ।

कांस्टेबल ने फिर खुशामद की—बड़ा सरकश आदमी था हुजूर!

बीरबल ने तीव्र भाव से कहा—चुप रहो! जानते भी हो, सरकश किसे कहते हैं? सरकश वे कहलाते हैं, जो डाके मारते हैं, चोरी करते हैं, खून करते हैं; उन्हें सरकश नहीं कहते, जो देश की भलाई के लिए अपनी जान हथेली पर लिये फिरते हों। हमारी बदनसीबी है कि जिनकी मदद करनी चाहिए, उनका विरोध कर रहे हैं। यह घमंड करने और खुश होने की बात नहीं है, शर्म करने और रोने की बात है।

स्नान समाप्त हुआ। जुलूस यहाँ से फिर रवाना हुआ।

(५)

शव को जब ख़ाक के नीचे सुलाकर लोग लौटने लगे, तो दो बज रहे थे। मिट्ठन बाई स्त्रियों के साथ-साथ कुछ दूर तक तो आई; पर क्वीन्स-पार्क में आकर ठिठक गई। घर जाने की इच्छा न हुई। वह जीर्ण, आहत, रक्तरंजित शव, मानो उसके अन्तस्तल में बैठा उसे धिक्कार रहा था। पति से उसका मन इतना विरक्त हो गया था कि अब उसे धिक्कारने की भी उसकी [ ९० ]इच्छा न थी। ऐसे स्वार्थी मनुष्य पर भय के सिवा और किसी चीज़ का असर हो सकता है, इसका उसे विश्वास ही न था।

वह बड़ी देर तक पार्क में घास पर बैठी सोचती रही; पर अपने कर्तव्य का कुछ निश्चय न कर सकी। मैके जा सकती थी; किन्तु वहां से महीने-दो महीने में फिर इसी घर में आना पड़ेगा। नहीं, मैं किसी की आश्रित न बनूँगी। क्या मैं अपने गुज़र-बसर को भी नहीं कमा सकती? उसने स्वयं भांति-भांति की कठिनाइयों की कल्पना की; पर आज उसकी आत्मा में न जाने इतना बल कहाँ से आ गया था। इन कल्पनाओं का ध्यान में लाना ही उसे अपनी कमज़ोरी मालूम हुई।

सहसा उसे इब्राहिमअली की वृद्धा विधवा का ख़याल आया। उसने सुना था, उसके लड़के-बाले नहीं हैं। बेचारी अकेली बैठी रो रही होंगी। कोई तसल्ली देनेवाला भी पास न होगा। वह उनके मकान की ओर चली। पता उसने पहले ही अपने साथ की औरतों से पूछ लिया था। वह दिल में सोचती जाती थी—मैं उनसे कैसे मिलूँगी, उनसे क्या कहूँगी, उन्हें किन शब्दों में समझाऊँगी। इन्हीं विचारों में डूबी हुई वह इब्राहिमअली के घर पर पहुँच गई। मकान एक गली में था, साफ़-सुथरा; लेकिन द्वार पर हसरत बरस रही थी। उसने धड़कते हुए हृदय से अन्दर क़दम रखा। सामने बरामदे में एक खाट पर वह वृद्धा बैठी हुई थी, जिसके पति ने आज स्वाधीनता की वेदी पर अपना बलिदान दिया था। उसके सामने सादे कपड़े पहने एक युवक खड़ा, आँखों में आंसू भर वृद्धा से कुछ बातें कर रहा था।‌ मिट्ठन उस युवक को देखकर चौंक पड़ी—वह बीरबलसिह थे।

उसने क्रोधमय आश्चर्य से पूछा—तुम यहां कैसे आये?

बीरबलसिंह ने कहा—उसी तरह, जैसे तुम आई। अपने अपराध क्षमा कराने आया हूँ।

मिट्ठन के गोरे मुखड़े पर आज गर्व, उल्लास और प्रेम की जो उज्ज्वल विभूति नज़र आई, वह अकथनीय थी। ऐसा जान पड़ा, मानो उसके जन्म-जन्मान्तर के क्लेश मिट गये हैं; वह चिन्ता और माया के बन्धनों से मुक्त हो गई है।