समर यात्रा/शराब की दूकान

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समर-यात्रा  (1941) 
द्वारा प्रेमचंद

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शराब की दुकान

कांग्रेस-कमेटी में यह सवाल पेरा था-शराब और ताड़ी को दूकानों पर कौन धरना देने जाय ! कमेटी के पच्चीस मेम्बर सिर झुकाये बैठे थे ; पर किसी के मुंह से बात न निकलती थी। मुआमला बड़ा नाजुक था। पुलीस के हाथों गिरफ्तार हो जाना, तो ज़्यादा मुश्किल बात न थी। पुलीस के कर्मचारी अपनी ज़िम्मेदारियों को समझते हैं। क्यों अच्छे और बुरे तो सभी जगह होते हैं ; लेकिन पुलीस के अफ़सर कुछ लोगों को छोड़कर,सभ्यता से इतने खाली नहीं होते कि जाति और देश पर जान देनेवालों के साथ दुर्व्यवहार करें; लेकिन नशेबाज़ों में यह जिम्मेदारी कहाँ ? उनमें तो अधिकांश ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें घुड़की-धमकी के सिवा और किसी शक्ति के सामने झुकने की आदत नहीं। मारपीट से नशा हिरन हो सकता है; शांतिवादियों के लिए तो वह दरवाज़ा बन्द है। तब कौन इस ओखली में सिर दे ? कौन पियक्कड़ों की गालियां खाय ? बहुत सम्भव है कि वे हाथा-पाई कर बैठे। उनके हाथों पिटना किसे मंजूर हो सकता था ? फिर पुलीसवाले भी बैठे तमाशा न देखेंगे। उन्हें और भी भड़काते रहेंगे। पुलीस की शह पाकर ये नशे के बन्दे जो कुछ न कर डाले, वह थोड़ा! ईट का जवाब पत्थर से दे नहीं सकते और इस समुदाय पर विनती का कोई असर नहीं!

एक मेम्बर ने कहा---मेरे विचार में तो इन जातों में पंचायतों को फिर सँभालना चाहिए। इधर हमारी लापरवाही से उनकी पंचायतें निर्जीव हो गई हैं। इसके सिवा मुझे तो और कोई उपाय नहीं सूझता।

सभापति ने कहा---हाँ, यह एक उपाय है। मैं इसे नोट किये लेता हूँ,पर धरना देना ज़रूरी है।

दुसरे महाशय बोले---उनके घरों पर जाकर समझाया जाय, तो अच्छा असर होगा।

सभापति ने अपनी चिकनी खोपड़ी सहलाते हुए कहा--- यह भी अच्छा उपाय है ; मगर धरने को हम लोग त्याग नहीं सकते। [ ६१ ]

फिर सम्राट हो गया।

पिछली कतार में एक देवी भी मौन बैठी हुई थीं। जब कोई मेम्बर बोलता, वह एक नज़र उसकी तरफ़ डालकर फिर सिर झुका लेती थीं। कांग्रेस की लेडी मेम्बर थीं। उनके पति महाशय जी० पी० सकसेना कांग्रेस के अच्छे काम करनेवालों में थे। उनका देहान्त हुए तीन साल हो गये थे।मिसेज सकसेना ने इधर एक साल से कांग्रेस के कामों में भाग लेना शुरू कर दिया था और कांग्रेस-कमेटी ने उन्हें अपना मेम्बर चुन लिया था। वह शरीफ़ घरानों में जाकर स्वदेशी और खद्दर का प्रचार करती थीं। जब कभी कांग्रेस के प्लेटफार्म पर बोलने खड़ी होती,तो उनका जोश देखकर ऐसा मालूम होता था,आकाश में उड़ जाना चाहती हैं। कुन्दन का-सा रंग लाल हो जाता था,बड़ी-बड़ी करुण आँखें-जिनमें जल भरा हुआ मालूम होता था-चमकने लगती थीं। बड़ी खुशमिजाज़ और उसके साथ बला की निर्भीक स्त्री थीं। दबी हुई चिनगारी थी, जो हवा पाकर दहक उठती है। उनके मामूली शब्दों में इतना आकर्षण कहाँ से आ जाता था,कह नहीं सकते। कमेटी के कई जवान मेम्बर, जो पहले कांग्रेस में बहुत कम आते थे, अब बिला नागा श्राने लगे थे। मिसेज़ सकसेना कोई भी प्रस्ताव करें,उसका अनुमोदन करनेवालों की कमी न थी। उनकी सादगी, उनका उत्साह, उनकी विनय,उनकी मृदु वाणी कांग्रेस पर उनका सिक्का जमाये देती थी। हर प्रादमी उनकी खातिर सम्मान की सीमा तक करता था ; पर उनकी स्वाभाविक नम्रता उन्हें अपने दैवी साधनों से पूरा-पूरा फायदा न उठाने देती थी। जब कमरे में बाती,लोग खड़े हो जाते थे ; पर वह पिछली सफ़ से आगे न बढ़ती थीं।

मिसेज़ सकसेना ने प्रधान से पूछा - शराब की दुकानों पर औरते धरना दे सकती हैं?

सबकी आँखे उनकी ओर उठ गई। इस प्रश्न का आशय सब समझ गये।

प्रधान ने कातर स्वर में कहा-महात्माजी ने तो यह काम औरतों ही। को सुपुर्द करने पर जोर दिया है ; पर...। मिसेज सकसेना ने उन्हें अपना
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वाक्य पूरा न करने दिया। बोलीं--तो फिर मुझे इस काम पर भेज दीजिए।

लोगों ने कुतूहल की आँखों से मिसेज़ सकसेना को देखा। यह सुकुमारी,जिसके कोमल अंगों में शायद हवा भी चुभती हो, गन्दी गलियों में, ताड़ी और शराब की दुर्गन्ध-भरी दूकानों के सामने जाने और नशे से पागल आदमियों की कलुषित आँखों और बाहों का सामना करने को कैसे तैयार हो गई !

एक महाशय ने अपने समीप के आदमी के कान में कहा---बला की निडर औरत है !

उन महाशय ने जले हुए शब्दों में उत्तर दिया---हम लोगों को काटों में घसीटना चाहती हैं और कुछ नहीं। यह बेचारी क्या पिकेटिंग करेंगी। दूकान के सामने खड़ा तक तो हुआ न जायगा।

प्रधान ने सिर झुकाकर कहा---मैं आपके साहस और उत्सर्ग की प्रशंसा करता हूँ, लेकिन मेरे विचार में अभी इस शहर की दशा ऐसी नहीं है कि देवियाँ पिकेटिंग कर सकें। आपको ख़बर नहीं नशेबाज लोग कितने मुंहफट होते हैं। विनय तो वह जानते ही नहीं !

मिसेज़ सकसेना ने व्यंग्य भाव से कहा---तो क्या आपका विचार है कि कोई ऐसा ज़माना भी आयगा,जब शराबी लोग विनय और शील के एतले बन जायेंगे ? यह दशा तो हमेशा ही रहेगी। आखिर महात्माजी ने कुछ समझकर ही तो औरतों को यह काम सौंपा है ? मैं नहीं कह सकती कि मुझे कहाँ तक सफलता होगी;पर इस कर्त्तव्य को टालने से काम न चलेगा।

प्रधान ने बशोपेश में पड़कर कहा---मैं तो आपको इस काम के लिए घसीटना उचित नहीं समझता, आगे आपको अख्तियार है।

मिसेज सकसेना ने जैसे विजय का आलिंगन करते हुए कहा---मैं आपके पास फ़रियाद लेकर न आऊँगी कि मुझे फ़ला आदमी ने मारा या गाली दी। इतना जानती हूँ कि अगर मैं सफल हो गई, तो ऐसी स्त्रियों की कमी न रहेगी, जो सोलहो पाने अपने हाथ में न ले लें। [ ६३ ]

इस पर एक नौजवान मेम्बर ने कहा-मैं सभापतिजी से निवेदन करूँगाःकि मिसेज सकसेना को यह काम देकर आप हिंसा का सामान कर रहे हैं।इससे यह कहीं अच्छा है कि आप मुझे यह काम सौंपें।

मिसेज़ सकसेना ने गर्म होकर कहा-आपके हाथों हिंसा होने का डर और भी ज्यादा है।

इस नौजवान मेम्बर का नाम था जयराम।एक बार एक कड़ा व्याख्यान देने के लिए जेल हो पाये थे ; पर उस वक्त उनके सिर गृहस्थी का भार न था। कानून पढ़ते थे। अब उनका विवाह हो गया था,दो-तीन बच्चे भी हो गये थे, दशा बदल गई थी। दिल में वही जोश, वही तड़प, वही ददै था ; पर अपनी हालत से मज़बूर थे।

मिसेज़ सकसेना की ओर नम्र आग्रह से देखकर बोले-आप मेरी ख़ातिर से इस गन्दे काम में हाथ न डालें। मुझे एक सप्ताह का अवसर दीजिए। अगर इस बीच में कहीं दंगा हो जाय, तो आपको मुझे निकाल देने का अधिकार होगा।

मिसेज़ सकसेना जयराम को खूब जानती थीं। उन्हें मालूम था कि यह त्याग और साहस का पुतला है और अब तक सिर्फ परिस्थितियों के कारण पीछे दबका हुआ था। इसके साथ ही वह यह भी जानती थीं कि इसमें वह धैर्य और बर्दाश्त नहीं है,जो पिकेटिंग के लिए लाजमी है। जेल में उसने दारोगा को अपशब्द कहने पर चांटा लगाया था और उसकी सज़ा तीन महीने और बढ़ गई थी। बोलीं-आपके सिर गृहस्थी का भार है। मैं, घमण्ड नहीं करती ; पर जितने धैर्य से मैं यह काम कर सकती हूँ, आप नहीं कर सकते।

जयराम ने उसी नम्र आग्रह के साथ कहा-आप मेरे पिछले रेकार्ड पर फैसला कर रही हैं। आप भूलती जाती हैं कि आदमी की अवस्था के साथ उसकी उद्दडता घटती जाती है।

प्रधान ने कहा-मैं चाहता हूँ, महाशय जयराम इस काम को अपने हाथों में लें। [ ६४ ]
जयराम ने प्रसन्न होकर कहा--मैं सच्चे हृदय से आपको धन्यवाद देता हूँ।

मिसेज़ सकसेना ने निराश होकर कहा-महाशय जयराम, आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है और मैं इसे कभी क्षमा न करूँगी। आप लोगों ने इस बात का आज नया परिचय दे दिया कि पुरुषों के अधीन स्त्रियाँ अपने देश की सेवा भी नहीं कर सकतीं।दूसरे दिन,तीसरे पहर जयराम पांच स्वयंसेवकों को लेकर बेगमगंज के शराबखाने का पिकेटिंग करने जा पहुँचा। ताड़ी और शराब-दोनों की दूकानें मिली हुई थीं। ठीकेदार भी एक ही था। दूकान के सामने,सड़क की पटरी पर, अन्दर के आंगन में नशेबाज़ों की टोलियाँ विष में अमत का आनन्द लूट रही थीं। कोई वहाँ अफ़लातून से कम न था। कहीं अपनी-वीरता की डींग थीं, कहीं अपने दान-दक्षिणा के पचड़े, कहीं अपने बुद्धि-कौशल का पालाप। अहंकार नशे का मुख्य रूप है।

एक बूढ़ा शराबी कह रहा था-भैया, जिन्दगानी का भरोसा नहीं;हाँ, कोई भरोसा नहीं ; मेरी बात मान लो, जिन्दगानी का कोई भरोसा नहीं। बस यही खाना-खिलाना याद रह जायगा। धन-दौलत, जगह-जमीन-सब धरी रह जायगी!

दो ताड़ीबाज़ों में एक दूसरी बहस छिड़ी हुई थी--

'हम-तुम रिाया हैं भाई। हमारी मजाल है कि सरकार के सामने सिर उठा सकें'

'अपने घर में बैठकर बादशाह को गालियां दे लो ; लेकिन मैदान में आना कठिन है।

'कहाँ की बात भैया,सरकार तो बड़ी चीज़ है, लाल पगड़ी देखकर तो घर में भाग जाते हो।'

'छोटा आदमी भर पेट खा के बैठता है,तो समझता है,अब बादशाह हमी हैं ; लेकिन अपनी हैसियत को भूलना न चाहिए।'

'बहुत पक्की बात कहते हो खां साहब ! अपनी असलीयत पर डटे रहो। [ ६५ ]
जो राजा है, वह राजा है ; जो परजा है, वह परजा है। भला परजा कहीं राजा हो सकता है

इतने में जयराम ने आकर कहा-राम राम ! भाइयो राम राम !!

पांच-छः खद्दरधारी मनुष्यों को देखकर सभी लोग उनकी ओर शंका और कुतूहल से ताकने लगे। दुकानदार ने चुपके से अपने एक नौकर के कान में कुछ कहा और नौकर दूकान से उतरकर चला गया।

जयराम ने झंडे को ज़मीन पर खड़ा करके कहा-भाइयो, महात्मा गांधी का हुक्म है कि श्राप लोग ताडी-शराब न पिये। जो रूपये आप यहाँ' उड़ा देते हैं, बह अगर अपने बाल-बच्चों को खिलाने-पिलाने में खर्च करें, तो कितनी अच्छी बात हो ! जरा देर के नशे के लिए आप अपने बाल-बच्चों को भखों मारते हैं, गंदे घरों में रहते हैं, महाजन की गालियां खाते हैं। सोचिए, इस रुपये से आप अपने प्यारे बच्चों को कितने आराम से रख सकते हैं!

एक बूढ़े शराबी ने अपने साथी से कहा-भैया, है तो बुरी चीज़, घर तबाह करके छोड़ देती है। मुदा इतनी उमिर पीते कट गई, तो अब मरते दम क्या छोड़ें। उसके साथी ने समर्थन किया-पक्की बात कहते हो चौधरी ! जब इतनी उमिर पीते कट गई, तो अब मरते दम क्या छोड़ें ?

जयराम ने कहा-वाह! चौधरी ! यही तो उमिर है छोड़ने की । जवानी तो दीवानी होती है, उस वक्त सब कुछ मुश्राफ़ है।

चौधरी ने तो कोई जवाब न दिया, लेकिन उसके साथी ने जो काला मोटा, बड़ी-बड़ी मूंछोवाला आदमी था, सरल आपत्ति के भाव से कहा- अगर पीना बुरा है, तो अँगरेज़ क्यों पीते हैं ?

जयराम वकील था, उससे बहस करना भिड़ के छत्ते को छेड़ना था। बोला-यह तुमने बहुत अच्छा सवाल पूछा भाई। अँगरेजों के बाप-दादा अभी डेढ़-दो सौ साल पहले लुटेरे थे। हमारे-तुम्हारे बाप दादा ऋषिमुनि थे। लुटेरों की सन्तान पिये, तो पीने दो। उनके पास न कोई धर्म है, न नीति ; लेकिन ऋषियों की सन्तान उनकी नकल क्यों करे ? हम और तुम उन महात्माओं की सन्तान हैं, जिन्होंने दुनिया को सिखाया, जिन्होंने दुनिया
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को आदमी बनाया। हम अपना धर्म छोड़ बैठे, उसी का फल है कि आज हम गुलाम हैं , लेकिन अब हमने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का फैसला कर लिया है और... एकाएक थानेदार और चार-पांच कांस्टेबल आ खड़े हुए। थानेदार ने चौधरी से पूछा-यह लोग तुमको धमका रहे हैं ? चौधरी ने खड़े होकर कहा-नहीं हुजूर, यह तो हमें समझा रहे हैं। कैसे प्रेम से समझा रहे हैं कि वाह ! थानेदार ने जयराम से कहा-अगर यहाँ फसाद हो जाय, तो आप ज़िम्मेदार होंगे ?

जयराम-मैं उस वक्त तक ज़िम्मेदार हूँ, जब तक आप न रहें।

'आपका मतलब है कि मैं फसाद कराने आया हूँ।'

'मैं यह नहीं कहता; लेकिन आप आये हैं, तो अंग्रेजी साम्राज्य की अतुल शक्ति का परिचय जरूर ही दीजिएगा। जनता में उत्तेजना फैलेगी। तब आप पिले पड़ेंगे और दस-बीस आदमियों को मार गिरायेंगे। यही सब जगह होता है और यहाँ भी होगा।

सब इन्स्पेक्टर ने ओंठ दबा कर कहा--मैं आपसे कहता हूँ, यहां से चले जाइए, वरना मुझे जाबते की कार्रवाई करनी पड़ेगी।

जयराम ने अविचल भाव से कहा-और मैं आप से कहता हूँ कि आर मुझे अपना काम करने दीजिए। मेरे बहुत से भाई यहाँ जमा हैं और मुझे उनसे बात-चीत करने का उतना ही हक़ है जितना आपको।

इस वक्त तक सैकड़ों दर्शक जमा हो गये थे। दारोगा ने अफ़सरों से पूछे बगैर और कोई कार्रवाई करना उचित न समझा। अकड़ते हुए दूकान पर गये और कुसी पर पांव रखकर बोले-..ये लोग तो माननेवाले नहीं हैं।

दुकानदार ने गिड़गिड़ा कर कहा-हुजूर, मेरी तो बधिया बैठ जायगी !

दारोगा-दो-चार गुण्डे बुलाकर भगा क्यों नहीं देते ? मैं कुछ न बोलूंगा। हो, जरा एक बोतल अच्छी-सी भेज देना। कल न-जाने क्या भेज दिया, कुछ मज़ा ही नहीं पाया।

थानेदार चला गया, तो चौधरी ने अपने साथी से कहा-देखा कल्लू,
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थानेदार कितना बिगड़ रहा था। सरकार चाहती है कि हम लोग खूब शराब पियें और कोई हमें समझाने न पाये। शराब का पैसा भी तो सरकार ही में जाता है?

कल्लू ने दार्शनिक भाव से कहा—हरएक बहानेसे पैसा खींचते हैं सब।

चौधरी-तो फिर क्या सलाह है ? है तो बुरी चीज़ ?

कल्लू-बहुत बुरी चीज़ है भैया, महात्माजी का हुक्म है, तो छोड़ ही देना चाहिए।

चौधरी-अच्छा तो यह लो आज से अगर पिये तो दोगला !

यह कहते हुए चौधरी ने बोतल जमीन पर पटक दी। आधी बोतल शराब ज़मीन पर बहकर सूख गई।

जयराम को शायद ज़िन्दगी में कभी इतनी खुशी न हुई थी। ज़ोर-ज़ोर से तालियांँ बजाकर उछल पड़े।

उसी वक्त दोनों ताड़ी पीनेवालों ने भी 'महात्माजी जय' की पुकारी और अपनी हांड़ी जमीन पर पटक दी। एक स्वयंसेवक ने लपककर फूलों की माला ली और चारों आदमियों के गले में डाल दी।

( ३ )

सड़क की पटरी पर कई नशेबाज़ बैठे इन चारों आदमियों की तरफ़ उस दुर्बल भक्ति से ताक रहे थे, जो पुरुषार्थहीन मनुष्यों का लक्षण है। वहाँ एक भी ऐसा व्यक्ति न था, जो अंगरेज़ों की मांस-मदिरा या ताड़ी को ज़िंदगी के लिए अनिवार्य समझता हो और उसके बगैर ज़िन्दगी की कल्पना भी न कर सके। सभी लोग नशे को दूषित समझते थे, केवल दुब दुर्बलेद्रिय होने के कारण नित्य आकर पी जाते थे। चौधरी-जैसे घाघ पियक्कड़ को बोतल पटकते देखकर उनकी आँखें खुल गई।

एक मरियल, दाढीवाले आदमी ने आकर चौधरी की पीठ ठोंकी। चौधरी ने उसे पीछे ढकेलकर कहा-पीठ क्या ठोंकते हो जी, जाकर अपनी बोतल पटक दो।

दाढ़ीवाले ने कहा-आज और पी लेने दो चौधरी ! अल्लाह जानता है, कल से इधर भूलकर भी न आऊँगा। [ ६८ ]
चौधरी--जितनी बची हो, उसके पैसे हमसे ले लो। घर जाकर बच्चों को मिठाई खिला देना।

दाढ़ीवाले ने जाकर बोतल पटक दी और बोला-लो, तुम भी क्या कहोगे ? अब तो हुए खुश!

चौधरी-अब तो न पियोगे कभी ?

दाढ़ीवाले ने कहा-अगर तुम न पियोगे, तो मैं भी न पिऊँगा। जिस दिन तुमने पी, उसी दिन मैंने फिर शुरू कर दी।

चौधरी की तत्परता ने दुराग्रह की जड़ें हिला दीं। बाहर अभी पाँच-छः आदमी और थे। वे सचेत निर्लजता से बैठे हुए अभी तक पीते जाते थे। जयराम ने उनके सामने जाकर कहा---भाइयो, आपके पांँच भाइयों ने अभी आपके सामने अपनी-अपनी बोतल पटक दी। क्या आप उन लोगों को बाज़ी जीत ले जाने देंगे ?

एक ठिगने, काले आदमी ने, जो किसी अँगरेज़ का खानसामा मालूम होता था, लाल-लाल आँखे निकालकर कहा-हम पीते हैं, तो तुमसे मतलब? तुमसे भीख मांँगने तो नहीं जाते ?

जयराम ने समझ लिया, अब बाज़ी, मार ली। गुमराह आदमी जब विवाद करने पर उतर पाये, तो समझ लो, वह रास्ते पर आ जायगा। चुप्पा ऐब वह चिकना घड़ा है, जिसपर किसी बात का असर नहीं होता।

जयराम ने कहा-अगर मैं अपने घर में आग लगाऊँ, तो उसे देखकर क्या आप मेरा हाथ न पकड़ लेंगे? मुझे तो इसमें रत्ती भर संदेह नहीं है कि आप मेरा हाथ ही पकड़ लेंगे ; बल्कि मुझे यहां से ज़बरदस्ती खींचते जायेंगे।

चौधरी ने खानसामा की तरफ़ मुग्ध आँखों से देखा, मानो कह रहा है-इसका तुम्हारे पास क्या जवाब है ? और बोला-जमादार, अब इसी बात पर बोतल पटक दो।

ख़ानसामा ने जैसे काट खाने के लिए दाँत तेज़ कर लिये और बोला-बोतल क्यों पटक दूँ, पैसे नहीं दिये हैं ?

चौधरी परास्त हो गया। जयराम से बोला- इन्हें छोड़िए बाबूजी,
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यह लोग इस तरह माननेवाले असामी नहीं हैं। आप इनके सामने जान भी दे दें, तो भी शराब न छोड़ेंगे। हाँ, पुलीस की एक घुड़की पा जायँ तो फिर कभी इधर भूलकर भी न आयें।

खानसामा ने चौधरी की ओर तिरस्कार के भाव से देखा, जैसे कह रहा हो—क्या तुम समझते हो कि मैं ही मनुष्य हूँ, यह सब पशु हैं ? फिर बोला—तुमसे क्या मतलब है जी, क्यों बीच में कूद पड़ते हो ? मैं तो बाबूजी से बात कर रहा हूँ। तुम कौन होते हो बीच में बोलनेवाले ? मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ कि बोतल पटककर वाह-वाह कराऊँ। कल फिर मुँह में कालिख लगाऊँ, या घर पर मँगवाकर पिऊँ? यहाँ जब छोड़ेंगे, तो सच्चे दिल से छोड़ेंगे। फिर कोई लाख रुपये भी दे, तो आँख उठाकर न देखें।

जयराम—मुझे आप लोगों से ऐसी ही आशा है।

चौधरी ने ख़ानसामा की ओर कटाक्ष करके कहा—क्या समझते हो, मैं कल फिर पीने आऊँगा?

खानसामा ने उद्दण्डता से कहा—हाँ-हाँ, कहता हूँ, तुम आओगे और बदकर आओगे! कहो पक्के कागज़ पर लिख दूँ!

चौधरी—अच्छा भाईं, तुम बड़े धर्मात्मा हो, मैं पापी सही। तुम छोड़ोगे, तो जिन्दगी भर के लिए छोड़ोगे, मैं आज छोड़कर कल फिर पीने लगूँगा, यही सही। मेरी एक बात गाँठ बाँध लो, तुम उस बखत छोड़ोगे, जब जिन्दगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते।

खानसामा—तुम मेरे दिल का हाल क्या जानते हो?

चौधरी—जानता हूँ, तुम्हारे-जैसे सैकड़ों आदमी को भुगत चुका हूँ।

ख़ानसामा—तो तुमने ऐसे-वैसे बेशर्मों को देखा होगा। हयादार आदमियों को न देखा होगा।

यह कहते हुए उसने जाकर बोतल पटक दी और बोला—अब अगर तुम इस दुकान पर देखना, तो मुँह में कालिख लगा देना।

चारों तरफ़ तालियाँ बजने लगीं। मर्द ऐसे होते हैं!

ठीकेदार ने दूकान से नीचे उतरकर कहा—तुम लोग अपनी-अपनी दूकान पर क्यों नहीं जाते जी? मैं तो किसी की दुकान पर नहीं जाता? [ ७० ]
एक दर्शक ने कहा-खड़े हैं, तो तुमसे मतलब ? सड़क तुम्हारी नहीं है। तुम गरीबों को लूटे जाओ। किसी के बाल-बच्चे भूखों मरें, तुम्हारा क्या बिगड़ता है। ( दूसरे शराबियों से ) क्या यारो, अब भी पीते जाओगे! जानते हो, यह किसका हुक्म है ? अरे कुछ भी तो शर्म हो !

जयराम ने दर्शकों से कहा-आप लोग यहां भीड़ न लगायें और न किसी को भला-बुरा कहें।

मगर दर्शकों का समूह बढ़ता जाता था। अभी तक चार-पांच आदमी बेग़म बैठे हुए कुल्हड़-पर-कुल्हड़ चढ़ा रहे थे। एक मनचले आदमी ने जाकर उस बोतल को उठा लिया, जो उनके बोच में रखी हुई थी और उसे पटकना चाहता था कि चारों शराबी उठ खड़े हुए और उसे पीटने लगे। जयराम और उनके स्वयंसेवक तुरत वहाँ पहुँच गये और उसे बचाने की चेष्टा करने लगे कि चारों उसे छोड़कर जयराम की तरफ लपके। दर्शकों ने देखा कि जयराम पर मार पड़ा चाहती है, तो कई आदमी झल्लाकर उन चारों शराबियों पर टूट पड़े। लातें, घूँसे और डण्डे चलने लगे। जयराम को इसका कुछ अवसर न मिलता था कि किसी को समझाये। बस, दानों हाथ फैलाये उन चारों के वारों से बच रहा था। वह चारों भी पारे से बाहर होकर दर्शकों पर डण्डे चला रहे थे। जयराम दोनों तरफ से मार खाता था। शराबियों के वार भी उसी पर पड़ते थे, तमाशाइयों के वार भी उसी पर पड़ते थे; पर वह उनके बीच से हटता न था। अगर वह इस वक्त अपनी जान बचाकर हट जाता, तो शराबियों की ख़ैरियत न थी। इसका दोष कांग्रेस पर पड़ता। वह कांग्रेस को इस आक्षेप से बचाने के लिए अपने प्राण देने पर तैयार था। मिसेज़ सकसेना को अपने ऊपर हँसने का मौक़ा वह न देना चाहता था।

आख़िर उसके सिर पर एक डण्डा ज़ोर से पड़ा कि वह सिर पकड़कर बैठ गया। आँखों के सामने तितलियां उड़ने लगीं। फिर उसे होश न रहा।

( ४ )

जयराम सारी रात बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन सुबह को जब उसे होश आया, तो सारी देह में पीड़ा हो रही यो और कमज़ोरी इतनी थी कि रह-
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रहकर जी डूबा जाता था। एकाएक सिरहाने की तरफ़ आँख उठ गई, तो मिसेज़ सकसेना बैठी नज़र आई। उन्हें देखते ही वह स्वयंसेवकों के मना करने पर भी उठ बैठा। दर्द और कमज़ोरी दोनों जैसे गायब हो गई। एक-एक अंग में स्फूर्ति दौड़ गई।

मिसेज़ सकसेना ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा-आपको बड़ी चोट आई। इसका सारा दोष मुझ पर है।

जयराम ने भक्तिमय कृतज्ञता के भाव से देखकर कहा-चोट तो ऐसी ज़्यादा न थी, इन लोगों ने बरबस पट्टी-सट्टी बांधकर जख्मी बना दिया।

मिसेज़ सकसेना ने ग्लानित होकर कहा--मुझे आपको न जाने देना चाहिए था।

जयराम--आपका वहाँ जाना उचित न था। मैं आपसे अब भी यही अनुरोध करूँगा कि उस तरफ़ न जाइएगा।

मिसेज़ सकसेना ने जैसे उन बाधाओं पर हँसकर कहा--वाह ! मुझे आज से वही पिकेट करने की आज्ञा मिल गई है।

'आप मेरी इतनी विनय मान जाइएगा। शोहदों के लिए आवाज़ कसना बिलकुल मामूली बात है।'

'मैं आवाज़ों की परवाह नहीं करती।'

'तो फिर मैं भी आपके साथ चलूँगा।'

'आप ! इस हालत में ?' -- मिसेज़ सकसेना ने आश्चर्य से कहा।

'मैं बिलकुल अच्छा हूँ, सच !'

'यह नहीं हो सकता। जब तक डाक्टर यह न कह देगा कि अब आप वहाँ जाने के योग्य हैं, मैं आपको न जाने दूंँगी। किसी तरह नहीं।'

'तो मैं भी आपको न जाने दूंँगा।'

मिसेज़ सकसेना ने मृदु-व्यंग्य के साथ कहा-आप भी अन्य पुरुषों ही की भांति स्वार्थ के पुतले हैं। सदा यश खुद लूटना चाहते हैं, औरतों को कोई मौक़ा नहीं देना चाहते। कम से कम यह तो देख लीजिए कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ या नहीं ?

जयराम ने व्यथित कंठ से कहा--जैसी आपकी इच्छा ! [ ७२ ]

( ५ )

तीसरे पहर मिसेज़ सकसेना चार स्वयंसेवकों के साथ बेगमगंज चलीं। जयराम आँखें बन्द किये चारपाई पर पड़ा था। शोर सुनकर चौंका और अपनी स्त्री से पूछा--यह कैसा शोर है ?

स्त्री ने खिड़की से झांककर देखा और बोली -- वह औरत, जो कल आई थी, झण्डा लिये कई आदमियों के साथ जा रही है। इसे शर्म भी नहीं आती?

जयराम ने उसके चेहरे पर क्षमा की दृष्टि डाली और विचार में डूब गया। फिर वह उठ खड़ा हुआ और बोला-मैं भी वहीं जाता हूँ।

स्त्री ने उसका हाथ पकड़ कर कहा -- अभी कल मार खाकर आये हो,आज फिर जाने की सूझी !

जयराम ने हाथ छुड़ाकर कहा - उसे मार कहती हो, मैं उसे उपहार समझता हूँ।

स्त्री ने उसका रास्ता रोक लिया -- कहती हूँ, तुम्हारा जी अच्छा नहीं है, मत जाओ, क्यों मेरी जान के गाहक हुए हो। उसकी देह में हीरे नहीं जड़े हैं, जो वहाँ कोई नोच लेगा?

जयराम ने मिन्नत करके कहा-मेरी तबीयत बिलकुल अच्छी है चम्मू, अगर कुछ कसर है तो वह भी मिट जायगी। भला सोचो, यह कैसे मुमकिन है कि एक देवी उन शोहदों के बीच में पिकेटिग करने जाय और मैं बैठा रहूँ। मेरा वहाँ रहना ज़रूरी है। अगर कोई बात आ पड़ी, तो कम से कम मैं लोगों को समझा तो सकूँगा।

चम्मू ने जलकर कहा -- यह क्यों नहीं कहते कि कोई और ही चीज़ खींचे लिये जाती है।

जयराम ने मुसकिराकर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो -- यह बात तुम्हारे दिल से नहीं, कंठ से निकल रही है और कतराकर निकल गया। फिर द्वार पर खड़ा होकर बोला-शहर में तीन लाख से कुछ ही कम आदमी हैं, कमेटी में भी ३० मेम्बर हैं; मगर सब-के-सब जी चुरा रहे हैं। लोगों को अच्छा बहाना मिल गया कि शराब-खानों पर धरना देने के लिए स्त्रियों ही
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की जरूरत है। आखिर क्यों स्त्रियों ही को इस काम के लिए उपयुक्त समझा जाता है ! इसी लिए कि मरदों के सिर भूत सवार हो जाता है और जहाँ नम्रता से काम लेना चाहिए, वहाँ लोग उग्रता से काम लेने लगते हैं। वे देवियां क्या इसी योग्य हैं कि शोहदों के फ़िक़रे सुनें और उनकी कुदृष्टि का निशाना बने ? कम-से-कम मैं यह नहीं देख सकता।

वह लँगड़ाता हुआ घर से निकल पड़ा । चम्मू , ने फिर उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। रास्ते में एक स्वयंसेवक मिल गया। जयराम ने उसे साथ लिया और एक तांगे पर बैठकर चला। शराबखाने से कुछ दूर इधर एक लेमनेड-बर्फ की दूकान थी। उसने तांगे को छोड़ दिया और वालंटियर को शराबखाने भेजकर खुद उसी दूकान में जा बैठा।

दूकानदार ने लेमनेड का एक ग्लास उसे देते हुए कहा -- बाबूजी, कलवाले चारों बदमाश आज फिर आये हुए हैं। आपने न बचाया होता तो आज शराब या ताड़ी की जगह हल्दी-गुड़ पीते होते।

जयराम ने ग्लास लेकर कहा-तुम लोग बीच में न कूद पड़ते, तो मैंने उन सबों को ठीक कर लिया होता।

दुकानदार ने प्रतिवाद किया -- नहीं बाबूजी, वह सब छटे हुए गुण्डे हैं। मैं तो उन्हें अपनी दूकान के सामने खड़ा भी नहीं होने देता। चारो तीन- तीन साल काट आये हैं।

अभी बीस मिनट भी न गुज़रे होंगे कि एक स्वयंसेवक आकर खड़ा हो गया। जयराम ने सचिंत होकर पूछा-कहो, वहाँ क्या हो रहा है ? स्वयंसेवक ने कुछ ऐसा मुँह बना लिया, जैसे वहां की दशा कहना वह उचित नहीं समझता और बोला-कुछ नहीं, देवीजी आदमियों को समझा रही हैं।

जयराम ने उसकी ओर अतृप्त नेत्रों से ताका, मानो कह रहे हो, बस इतना ही ! इतना तो मैं जानता ही था।

स्वयंसेवक ने एक क्षण के बाद फिर कहा- देवियों का ऐसे शोहदों के सामने जाना अच्छा नहीं। [ ७४ ]जयराम ने अधीर होकर पूछा -- साफ़ - साफ़ क्यों नहीं कहते, क्या बात है!

स्वयंसेवक डरते-डरते बोला -- सब-के-सब उनसे दिल्लगी कर रहे हैं।देवियों का यहाँ आना अच्छा नहीं।

जयराम ने और कुछ न पूछा। डंडा उठाया और लाल-लाल आँखें निकाले बिजली की तरह कौंधकर शराबखाने के सामने जा पहुँचा और मिसेज़ सकसेना का हाथ पकड़कर पीछे हटाता हुआ शराबियों से बोला-अगर तुम लोगों ने देवियों के साथ ज़रा भी गुस्ताख़ी की,तुम्हारे हक़ में अच्छा न होगा। कल मैंने तुम लोगों की जान बचाई थी। आज इसी डंडे से तुम्हारी खोपड़ी तोड़कर रख दूंँगा।

उसके बदले हुए तेवर देखकर सब-के-सब नशेबाज़ घबड़ा गये। वे कुछ कहना चाहते थे कि मिसेज़ सकसेना ने गम्भीर भाव से पूछा-आप यहाँ क्यों आये ? मैंने तो आपसे कहा था, अपनी जगह से न हिलिएगा। मैंने तो आपसे मदद न मांगी थी ?

जयराम ने लज्जित होकर कहा -- मैं इस नीयत से यहां नहीं आया था ! एक ज़रूरत से इधर निकला था। यहाँ जमाव देखकर आ गया। मेरे ख़याल में आप अब यहां से चलें। मैं आज कांग्रेस कमेटी में यह सवाल पेश करूँगा कि इस काम के लिए पुरुषों को भेजें।

मिसेज़ सकसेना ने तीखे स्वर में कहा -- आपके विचार में दुनिया के सारे काम मरदों ही के लिए हैं ?

जयराम -- मेरा यह मतलब न था।

मिसेज़ सकसेना -- तो आप जाकर आराम से लेटें और मुझे अपना काम करने दें।

जयराम वहीं सिर झुकाये खड़ा रहा।

मिसेज़ सकसेना ने पूछा-अब आप क्यों खड़े हैं ?

जयराम ने विनीत स्वर में कहा -- मैं भी यहीं एक किनारे खड़ा रहूँगा।

मिसेज़ सकसेना ने कठोर स्वर में कहा-जी नहीं,आप जायँ।

जयराम धीरे-धीरे लदी हुई गाड़ी की भांति चला और पाकर फिर
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उसी लेमनेड की दुकान पर बैठ गया। उसे ज़ोर की प्यास लगी थी। उसने.एक ग्लास शर्बत बनवाया और सामने मेज़ पर रखकर विचार में डूब गया;मगर आँखें और कान उसी तरफ़ लगे हुए थे।

जब कोई आदमी दूकान पर प्राता,वह चौंककर उसकी तरफ़ ताकने लगता-वहाँ कोई नई बात तो नहीं हो गई ?

कोई आध घंटे बाद वही स्वयंसेवक फिर डरा हुआ-सा आकर खड़ा हो गया। जयराम ने उदासीन बनने की चेष्टा करके पूछा -- वहाँ क्या हो रहा है जी ?

स्वयंसेवक ने कानों पर हाथ रखकर कहा -- मैं कुछ नहीं जानता बाबूजी,मुझसे कुछ न पूछिए।

जयराम ने एक साथ ही नम्र और कठोर होकर पूछा -- फिर कोई छेड़-छाड़ हुई ?

स्वयंसेवक -- जी नहीं,कोई छेड़-छाड़ नहीं हुई। एक आदमी ने देवी-जी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़ी।

जयराम निःस्पन्द बैठा रहा;पर उनके अन्तराल में भूकम्म-सा मचा हुआ था। बोला-उनके साथ के स्वयं सेवक क्या कर रहे हैं ?

'खड़े हैं,देवीजी उन्हें बोलने ही नहीं देतीं।"

'तो क्या बड़े ज़ोर से धक्का दिया ?'

‘जी हां,गिर पड़ीं। घुटनों में चोट आ गई। वे आदमी साथ पी रहे थे। जब एक बोतल उड़ गई, तो उनमें से एक आदमी दूसरी बोतल लेने चला। देवीजी ने रास्ता रोक लिया। बस, उसने धका दे दिया। वही, जो काला-काला मोटा-सा आदमी है। कलवाले चारों आदमियों की शरारत है।'

जयराम उन्माद की दशा में वहाँ से उठा और दौड़ता हुआ शराबखाने के सामने आया। मिसेज़ सकसेना सिर पकड़े जमीन पर बैठी हुई थी और वह काला, मोटा आदमी दूकान के कठघरे के सामने खड़ा था। पचासों आदमी जमा थे। जयराम ने उसे देखते ही लपककर उसकी गर्दन पकड़ [ ७६ ]ली और इतने ज़ोर से दबाई कि उसकी आखें बाहर निकल आई। मालूम होता था,उसके हाथ फ़ौलाद के हो गये हैं।

सहसा मिसेज़ सकसेना ने आकर उसका फ़ौलादी हाथ पकड़ लिया और भवें सिकोड़कर बोलीं-छोड़ दो इसकी गर्दन ! क्या इसकी जान ले लोगे ?

जयराम ने और ज़ोर से उसकी गर्दन दबाई और बोला -- हाँ,ले लूँगा।ऐसे दुष्टों की यही सज़ा है।

मिसेज़ सकसेना ने अधिकार-गर्व से गर्दन उठाकर कहा -- आपको यहाँ आने का कोई अधिकार नहीं है।

एक दर्शक ने कहा-ऐसा दबाओ बाबूजी कि साला ठण्डा हो जाय। इसने देवीजी को ऐसा ढकेला कि बेचारी गिर पड़ीं। हमें तो बोलने का हुक्म नहीं है, नहीं तो हड्डी तोड़कर रख देते।

जयराम ने शराबी की गर्दन छोड़ दी। वह किसी बाज़ के चंगुल से छुटी हुई चिड़िया की तरह सइमा हुआ खड़ा हो गया। उसे एक धक्का देते हुए उसने मिसेज़ सकसेना से कहा-आप यहाँ से चलती क्यों नहीं ? आप जायँ,मैं बैठता हूँ ; अगर छटाँक शराब बिक जाय, तो मेरा कान पकड़ लीजिएगा।

उसका दम फूलने लगा। आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था। वह खड़ा न रह सका। ज़मीन पर बैठकर रूमाल से माथे का पसीना पोंछने लगा।

मिसेज़ सकसेना ने परिहास करके कहा-आप कांग्रेस नहीं हैं कि मैं आपका हुक्म मानूँ। अगर आप यहाँ से न जायँगे, तो मैं सत्याग्रह करूँगी।

फिर एकाएक कठोर होकर बोलीं -- जब तक कांग्रेस ने इस काम का भार मुझ पर रखा है,आपको मेरे बीच में बोलने का कोई हक़ नहीं है। आप मेरा अपमान कर रहे हैं। कांग्रेस-कमेटी के सामने आपको इसका जवाब देना होगा।

जयराम तिलमिला उठा। बिना कोई जवाब दिये लौट पड़ा और वेग से घर की तरफ़ चला ; पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था,उसकी गति मन्द [ ७७ ]होती जाती थी। यहां तक कि बाज़ार के दूसरे सिरे पर आकर वह रुक गया। रस्सी यहाँ ख़तम हो गई। उसके आगे जाना उसके लिए असाध्य हो गया। जिस झटके ने उसे यहाँ तक भेजा था, उसकी शक्ति अब शेष हो गई थी। उन शब्दों में जो कटुता और चोट थी, उसमें अब उसे सहानुभूति और स्नेह की सुगन्ध आ रही थी ?

उसे फिर चिन्ता हुई,न जाने वहाँ क्या हो रहा है। कहीं उन बदमाशों ने और कोई दुष्टता न की हो,या पुलीस न आ जाय।

वह बाज़ार की तरफ़ मुड़ा ; लेकिन एक कदम ही चलकर फिर रुक गया। ऐसे पशोपेश में वह कभी न पड़ा था।

सहसा उसे वही स्वयंसेवक दौड़ा आता दिखाई दिया। वह बदहवास होकर उससे मिलने के लिए खुद भी उसकी तरफ़ दौड़ा। बीच में दोनों मिल गये।

जयराम ने हांफते हुए पूछा -- क्या हुआ? क्यों भागे जा रहे हो ?

स्वयंसेवक ने दम लेकर कहा--बड़ा गज़ब हो गया बाबूजी! आपके आने के बाद वह काला शराबी बोतल लेकर दूकान से चला,तो देवीजी दरवाज़े पर बैठ गई। वह बार-बार देवीजी को हटाकर निकलना चाहता है ; पर वह फिर आकर बैठ जाती हैं। धक्कम-धक्के में उनके कपड़े फट गये हैं और कुछ चोट भी...

अभी बात पूरी न हुई थी कि जयराम शराबख़ाने की तरफ़ दौड़ा।

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जयराम शराबख़ाने के सामने पहुँचा तो देखा मिसेज़ सकसेना के चारों स्वयंसेवक दूकान के सामने लेटे हुए हैं और मिसेज़ सकसेना एक किनारे सिर झुकाये खड़ी हैं। जयराम न डरते-डरते उनके चेहरे पर निगाह डाली। आँचल पर रक्त की बू दें दिखाई दीं। उसे फिर कुछ सुध न रही। खून की वह चिन्गारियाँ, जैसे उसके रोम-रोम में समा गई। उसका खून खौलने लगा,मानो उसके सिर खून सवार हो गया हो। वह उन चारों शराबियों पर टूट पड़ा और पूरे ज़ोर के साथ लकड़ी चलाने लगा। एक-एक बूंद क जगह [ ७८ ]वह एक-एक घड़ा खून बहा देना चाहता था। खून उसे कभी इतना प्यारा न था। खून में इतनी उत्तेजना है, इसकी उसे ख़बर न थी।

वह पूरे जोर से लकड़ी चला रहा था। मिसेज़ सकसेना कब आकर उसके सामने खड़ी हो गई,उसे कुछ पता न चला। जब वह जमीन पर गिर पड़ी,तब उसे जैसे होश आ गया। उसने लकड़ी फेंक दी और वहीं निश्चल,निःस्पन्द खड़ा हो गया, मानो उसका रक्त-प्रवाह रुक गया है।

चारों स्वयंसेवकों ने दौड़कर मिसेज सकसेना को पंखा झलना शुरू किया। दुकानदार ठण्डा पानी लेकर दौड़ा। एक दर्शक डाक्टर को बुलाने भागा;पर जयराम वहीं बेजान था,जैसे स्वयं अपने तिरस्कार-भाव का पुतला बन गया हो। अगर इस वक्त कोई उसके दोनों हाथ काट डालता,कोई उसकी आँखें लाल लोहे से फोड़ देता,तब भी वह चूँ न करता।

फिर वहीं सड़क पर बैठकर उसने अपने लज्जित, तिरस्कृत,पराजित मस्तक को भूमि पर पटक दिया और बेहोश हो गया।

उसी वक्त उस काले मोटे शराबी ने बोतल ज़मीन पर पटक दी और उसके सिर पर ठंडा पानी डालने लगा।

एक शराबी ने लैसंसदार से कहा--तुम्हारा रोज़गार अन्य लोगों की जान लेकर रहेगा। श्राज तो अभी दसरा ही दिन है।

लैसंसदार ने कहा-कल से मेरा इस्तीफ़ा है। अब स्वदेशी कपड़े का रोज़गार करूँगा,जिसमें जस भी है और उपकार भी।

शराबी ने कहा -- घाटा तो बहुत रहेगा।

दुकानदार ने किस्मत ठोककर कहा-घाटा-नफा तो ज़िन्दगानी के साथ है।