समर यात्रा/लांछन

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समर-यात्रा  (1941) 
द्वारा प्रेमचंद
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लांछन

अगर संसार में कोई ऐसा प्राणी होता, जिसकी आँखें लोगों के हृदयों के भीतर घुस सकतीं, तो ऐसे बहुत कम स्त्री या पुरुष होंगे, जो उसके सामने सीधी आँखें करके ताक सकते। महिला-आश्रम की जुगनूबाई के विषय में लोगों की धारणा कुछ ऐसी ही हो गई थी। वह बेपढ़ी-लिखी, ग़रीब, बूढ़ी औरत थी, देखने में बड़ी सरल, बड़ी हँसमुख; लेकिन जैसे किसी चतुर प्रूफ़-रीडर की निगाह ग़लतियों ही पर जा पड़ती है, उसी तरह उसकी आँखें भी बुराइयों ही पर पहुँच जाती थीं। शहर में ऐसी कोई महिला न थी, जिसके विषय में दो-चार लुकी-छिपी बातें उसे न मालूम हों। उसका ठिंगना स्थूल शरीर, सिर के खिचड़ी बाल, गोल मुँह, फूले-फूले गाल, छोटी-छोटी आँखें उसके स्वाभाव की प्रखरता और तेज़ी पर परदा-सा डाले रहती थीं,लेकिन जब वह किसी की कुत्सा करने लगती, तो उसकी आकृति कठोर हो जाती, आंखें फैल जाती और कंठ-स्वर कर्कश हो जाता। उसकी चाल में बिल्लियों का-सा संयम था, दबे पांव धीरे-धीरे चलती; पर शिकार की आहट पाते ही जस्त मारने को तैयार हो जाती थी। उसका काम था, महिला-आश्रम में महिलाओं की सेवा-टहल करना; पर महिलाएँ उसकी सूरत से कांपती थीं। उसका ऐसा आतंक था कि ज्यों ही वह कमरे में क़दम रखती, ओठों पर खेलती हुई हँसी, जैसे रो पड़ती थी। चहकनेवाली आवाज़ें, जैसे बुझ जाती थीं, मानो उसके मुख पर लोगों को अपने पिछले रहस्य अंकित नज़र आते हों। पिछले रहस्य! कौन है, जो अपने अतीत को किसी भयंकर जंतु के समान कठघरों में बन्द करके न रखना चाहता हो। धनियों को चोरों के भय से निद्रा नहीं आती; मानियों को उसी भांति मान की रक्षा करनी पड़ती है। वह जंतु, जो पहले कीट के समान अल्पाकार रहा होगा, दिनों के साथ दीर्घ और सबल होता जाता है, यहाँ तक कि हम उसकी याद ही से कांप उठते हैं। और अपने ही कारनामों की बात होती, तो अधिकांश [ ४३ ]
देवियाँ जुगनू को दुत्कारती; पर यहाँ तो मैके और ससुराल, ननिहाल और ददियाल, फुफियाल और 'मौसियाल, चारों ओर की रक्षा करनी थी और जिस किले में इतने द्वार हों, उसकी रक्षा कौन कर सकता है। वहाँ तो हमला करनेवाले के सामने मस्तक झुकाने में ही कुशल है। जुगनू के दिल में हज़ारों मुरदे गड़े पड़े थे और वह ज़रूरत पड़ने पर उन्हें उखाड़ दिया करती थी। जहाँ किसी महिला ने दून की ली या शान दिखाई, वहीं जुगनू की त्योरियाँ बदलीं। उसकी एक बड़ी निगाह अच्छे-अच्छों को दहला देती थी; मगर यह बात न थी कि स्त्रियांँ उससे न मिलती और न उसका आदर-सत्कार करतीं। अपने पड़ोसियों की निन्दा सनातन से मनुष्य के लिए मनोरंजन का विषय रही है और जुगनू के पास इसका काफ़ी सामान था।

( २ )

नगर में इंदुमती-महिला-पाठशाला नाम का एक लड़कियों का हाई स्कूल था। हाल में मिस खुरशेद उसकी हेड मिस्ट्रेस होकर आई थीं। शहर‌ में महिलाओं का दूसरा क्लब न था। मिस खुरशेद एक दिन आश्रम में आई। ऐसी ऊँचे दर्जे की शिक्षा पाई हुई आश्रम में कोई देवी न थीं। उनकी बड़ी आवभगत हुई। पहले ही दिन मालूम हो गया कि मिस खुरशेद के आने से आश्रम में एक नये जीवन का संचार होगा। कुछ इस तरह दिल खोलकर हरेक से मिलीं, कुछ ऐसी दिलचस्प बातें कीं कि सभी देवियाँ मुग्ध हो गई। गाने में भी चतुर थीं। व्याख्यान भी खूब देती थीं और अभिनय-कला में तो उन्होंने लदन में नाम कमा लिया था। ऐसी सर्वगुण-सम्पन्ना देवी का आना अश्रम का सौभाग्य था। गुलाबी गोरा रंग, कोमल गात,मद भरी अखि, नये फैशन के कटे हुए केश, एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ, मादकता की इससे अच्छी प्रतिमा न बन सकती थी।

चलते समय मिस खुरशेद ने मिसेज़ टंडन को, जो आश्रम की प्रधान थीं, एकान्त में बुलाकर पूछा---वह बुढ़िया कौन है ?

जुगनू कई बार कमरे में आकर मिस खुरशेद को अन्वेषण की आँखों से देख चुकी थी, मानो कोई शह सवार किसी नयी घोड़ी को देख रहा हो। [ ४४ ]
मिसेज़ टंडन ने मुसकिराकर कहा-यहाँ ऊपर का काम करने के लिए नौकर है। कोई काम हो तो बुलाऊँ ? मिस खुरशेद ने धन्यवाद देकर कहा-जी नहीं, कोई विशेष काम नहीं है। मुझे चालबाज़ मालूम होती है। यह भी देख रही हूँ कि यहाँ की वह सेविका नहीं, स्वामिनी है। मिसेज़ टण्डन तो जुगनू से जली बैठी ही थीं। इनके वैधव्य को लांछित करने के लिए, वह इन्हें सदासोहागिन कहा करती थी। मिस खुरशेद से उसकी जितनी बुराई हो सकी, वह की, और उससे सचेत रहने का आदेश दिया।

मिस खुरशेद ने गंभीर होकर कहा-तब तो भयंकर स्त्री है। जभी सब देवियाँ इससे कापती हैं। आप इसे निकाल क्यों नहीं देतीं। ऐसी चुडैल को एक भी दिन न रखना चाहिए।

मि० टण्डन ने अपनी मजबूरी जताई-निकाल कैसे दूं। जिन्दा रहना मुश्किल हो जाय। हमारा भाग्य उसकी मुट्ठी में है। आपको दो-चार दिन में उसके जौहर खुलेंगे। मैं तो डरती हूँ, कहीं आप भी उसके पंजे में न फँस जायें। उसके सामने भलकर भी किसी पुरुष से बातें न कीजिएगा। इसके गोयंदे न-जाने कहाँ-कहाँ लगे हुए हैं। नौकरों से मिलकर भेद यह ले, डाकियों से मिलकर चिट्ठियां यह देखे, लड़कों को फुसलाकर घर का हाल यह पूछे। इस रोड को तो खुफ़िया पुलीस में जाना चाहिए था। यहां न जाने क्यों श्रा मरी।

मिस खुरशेद चिन्तित हो गई, मानो इस समस्या को हल करने की फ़िक में हों। एक क्षण बाद बोलीं-अच्छा मैं इसे ठीक करूँगी, अगर निकाल न दूं, तो कहना।

मि० टण्डन-निकाल देने ही से क्या होगा। उसकी जबान तो न बन्द होगी। तब तो वह और भी निडर होकर कीचड़ फेंकेगी।

मिस खुरशेद ने निश्चित स्वर में कहा-मैं उसकी जबान भी बन्द कर दूँगी बहन ! आप देख लीजिएगा। टके की औरत यहाँ बादशाहत कर रही है। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती।

वह चली गई, तो मिसेज़ टण्डन ने जुगनू को बुलाकर कहा-इस नई मिस साहब को देखा। यहाँ प्रिंसिपल हैं। [ ४५ ]
जुगनू ने द्वेष से भरे हुए स्वर में कहा-आप देखें। मैं ऐसी सैकड़ों छोकरियाँ देख चुकी हूँ। आँखों का पानी जैसे मर गया हो।

मि० टण्डन - धीरे से बोलो। तुम्हें कच्चा ही खा जायँगी। उनसे डरती रहना। कह गई हैं, मैं इसे ठीक करके छोड़ें गी । मैंने सोचा, तुम्हें चेता हूँ। ऐसा न हो, उनके सामने कुछ ऐसी-वैसी बातें कह बैठो।

जुगनू ने मानो तलवार खींचकर कहा-मुझे चेताने का काम नहीं, उन्हें चेता दीजिएगा। यहां का आना न. बन्द कर दूं, तो अपने बाप की नहीं। वह घूमकर दुनियाँ देख भाई हैं, तो यहाँ घर बैठे दुनिया देख चुकी हूँ।

मिसेज टण्डन ने पीठ ठोंकी-मैंने समझा दिया भाई, आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।

जुगन--आप चुपचाप देखती जाइए। कैसा तिगनी का नाच नचाती हूँ। इसने अब तक ब्याह क्यों नहीं किया ? उमिर तो तीस के लगभग होगी।

मिसेज टण्डन ने रद्दा जमाया-कहती हैं, मैं शादी करना ही नहीं चाहती। किसी पुरुष के हाथ क्यों अपनी आज़ादी बेचूँ।

जुगन ने आँखें नचाकर कहा-कोई पूछता ही न होगा। ऐसी बहुत- सी क्वारियाँ देख चुकी हूँ। सत्तर चूहे खाकर, बिल्ली चली हज्ज को और कई लेडिया आ गई, बात का सिलसिला बन्द हो गया।

( ३ )

दूसरे दिन सबेरे जुगनू मिस खुरशेद के बंगले पर पहुँची। मिस खुरशेद हवा खाने गई हुई थीं। खानसामा ने पूछा-कहाँ से श्राती हो ?

जुगन- यहीं रहती हूँ बेटा ! मेम साहब कहाँ से आई हैं, तुम तो इनके पुराने नौकर होगे?

खान-नागपूर से आई हैं। मेरा घर भी वहीं है। दस साल इनके साथ हूँ।

जुगनू-किसी ऊँचे ख़ानदान की होगी। वह तो रंग-ढग से ही मालूम होता है।

ख़ान०-ख़ानदान तो कुछ ऐसा ऊँचा नहीं है ; हाँ, तकदीर की अच्छी हैं। इनकी माँँ अभी तक मिशन में ३०) पाती हैं। यह पढ़ने में तेज़ थीं,
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वज़ीफ़ा मिल गया, विलायत चली गई, बस तकदीर खुल गई। अब तो अपनी मा को बुलानेवाली हैं। लेकिन वह बुढ़िया शायद ही आये। यह गिरजे-विरजे नहीं जातीं, इससे दोनों में पटती नहीं।

जुगनू -- मिजाज़ की तेज़ मालूम होती हैं।

खानसामा -- नहीं, यों तो बहुत नेक हैं ; हाँ, गिरजे नहीं जातीं। तुम क्या नौकरी की तलाश में हो। करना चाहो, तो कर लो, एक आया रखना चाहती हैं।

जुगनू -- नहीं बेटा, मैं अब क्या नौकरी करूँगी। इस बंगले में पहले जो मेम साहब रहती थीं, वह मुझपर बड़ी निगाह रखती थीं। मैंने समझा चलूँ, नई मेम साहब को आसिरवाद दे पाऊँ।

खानसामा -- यह आसिरवाद लेनेवाली मेम साहब नहीं हैं । ऐसों से बहुत चिढ़ती हैं। कोई मँगता आया और उसे डांट बताई। कहती हैं, बिना काम किये किसी को ज़िन्दा रहने का हक नहीं है। भला चाहती हो, तो चुपके से राह लो।

जुगनू--तो यह कहो, इनका कोई धरम-करम नहीं है। फिर भला गरीबों पर क्यों दया करने लगीं।

जुगनू को अपनी दीवार खड़ी करने के लिए काफ़ी सामान मिल गया-' नीचे ख़ानदान की हैं। माँँ से नहीं पटती, धर्म से विमुख हैं।' पहले धावे में इतनी सफलता कुछ कम न थी। चलते-चलते खानसामा से इतना और पूछा--इनके साहब क्या करते हैं। खानसामा ने मुसकिराकर कहा--इनकी तो अभी शादी ही नहीं हुई ! साहब कहाँ से होंगे।

जुगन ने बनावटी आश्चर्य से कहा-अरे! अब तक ब्याह ही नहीं हुआ ! हमारे यहाँ तो दुनिया हँसने लगे।

खान-अपना-अपना रिवाज़ है। इनके यहाँ तो कितनी ही औरतें उम्न-भर ब्याह नहीं करतीं।

जुगन ने मार्मिक भाव से कहा-ऐसी क्वारियों को मैं भी बहुत देख चुकी। हमारी बिरादरी में कोई इस तना रहे ; तो थुड़ी-थुड़ी हो जाय। मुदा इनके यहाँ जो जी में आये करो, कोई नहीं पूछता। [ ४७ ]
इतने में मिस खुरशेद आ पहुँची। गुलाबी जाड़ा पड़ने लगा था। मिस साहब साड़ी के ऊपर श्रोवर कोट पहने हुए थीं। एक हाथ में छतरी थी, दूसरे में छोटे कुत्ते की जंजीर। प्रभात की शीतल वायु में व्यायाम ने कपोलों को ताज़ा और सुख कर दिया था। जुगनू ने झुककर सलाम किया ; पर उन्होंने उसे देखकर भी न देखा। अन्दर जाते ही खानसामा को बुलाकर पूछा-यह औरत क्या करने आई है ?

खानसामा ने जूते का फीता खोलते हुए कहा-भिखारिन है हुजूर ! पर औरत समझदार है। मैंने कहा यहां नौकरी करेगी, तो राज़ी नहीं हुई। पूछने लगी, इनके साहब क्या करते हैं। जब मैंने बता दिया, तो इसे बड़ा ताज़्जुब हुआ और होना ही चाहिए। हिन्दुत्रों में तो दुध-मुँहे बालकों तक का विवाह हो जाता है।

मिस खुरशेद ने जांच की- और क्या कहती थी ?

'और तो कोई बात नहीं हुजूर ।'

'अच्छा उसे मेरे पास भेज दो।'

( ४ )

जुगन ने ज्यों ही कमरे में कदम रखा, मिस खुरशेद ने कुरसी से उठकर स्वागत किया-आइए माजी ! मैं जरा सैर करने चली गई थी। आपके आश्रम में तो सब कुशल है ! जुगन एक कुरसी का तकिया पकड़कर खड़ी- खड़ी बोली-सब कुशल है मिस साहब ! मैंने कहा आपको आसिरवाद दे पाऊँ। मैं आपकी चेरी हूँ। जब कोई काम पड़े, मुझे याद कीजिएगा। यहाँ अकेले तो हुजूर को अच्छा न लगता होगा।

मिस० -- मुझे अपने स्कूल की लड़कियों के साथ बड़ा आनन्द मिलता है, वे सब मेरी ही लड़किया हैं।

जुगन ने मातृ-भाव से सिर हिलाकर कहा-यह ठीक है मिस साहब पर अपना अपना ही है। दूसरा अपना हो जाय, तो अपनों के लिए कोई क्यों रोये।

सहसा एक सुन्दर सजीला युवक रेशमी सूट धारण किये, जूते चरमर करता हुआ अन्दर आया। मिस खुरशेद ने इस तरह दौड़कर प्रेम से उसका
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अभिवादन किया, मानो जामे में फूली न समाती हों। जुगनू उसे देखकर कोने में दबक गई।

मिस खुरशेद ने युवक से गले मिलकर कहा-प्यारे, मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ। (जुगनू से) माजी, आप जायँ, फिर कभी आना। यह हमारे परम-मित्र विलियम किंग हैं। हम और यह बहुत दिनों तक साथ-साथ पढ़े हैं।

जुगनू चुपके से निकलकर बाहर आई। खानसामा खड़ा था। पूछा- यह लौडां कौन है ?

खानसामा ने सिर हिलाया -- मैंने इसे आज ही देखा है। शायद अब क्वारेपन से जी ऊबा। अच्छा तरहदार जवान है।

जुगन - दोनों इस तरह टूटकर गले मिले हैं कि मैं तो लाज के मारे गड़ गई। ऐसी चूमा-चाटी तो जोरू-ख़सम में भी नहीं होती। दोनों लिपट गये। लौंडा तो मुझे देखकर कुछ झिझकता था; पर तुम्हारी मिस साहब तो जैसे मतवाली हो गई थीं।

खानसामा ने मानो अमंगल के आभास से कहा- मुझे तो कुछ बेढब मामला नज़र आता है।

जुगनू तो यहाँ से सीधे मिसेज़ टण्डन के घर पहुंची। इधर मिस खुर-शेद और युवक में बातें होने लगी।

मि० खुरशेद ने क़हक़हा मारकर कहा-तुमने अपना पार्ट खूब खेला 'लीला, बुढ़िया सचमुच चौंधिया गई।

लीला -- मैं तो डर रही थी कि कहीं बुढ़िया भांप न जाय ।

मि० खुरशेद-मुझे विश्वास था, वह आज ज़रूर आयेगी। मैंने दूर ही से उसे बरामदे में देखा और तुम्हें सूचना दी। आज आश्रम में बड़े मज़े रहेंगे। जी चाहता है, महिलाओं की कनफुसकियाँ सुनूँ ।देख लेना सभी उसकी बातों पर विश्वास करेंगी।

लीला -- तुम भी तो जान-बूझकर दलदल में पांव रख रही हो।

मि० खुरशेद-मुझे अभिनय में मज़ा आता है बहन ! ज़रा दिल्लगी रहेगी। बुढ़िया ने बड़ा जुल्म कर रखा है। ज़रा उसे सबक़ देना चाहती हूँ। [ ४९ ]
कल तुम इसी वक्त इसी ठाट से फिर आ जाना। बुढ़िया कल फिर पायेगी।उसके पेट में पानी न हजम होगा। नहीं ऐसा क्यों। जिस वक्त वह आयेगी,मैं तुम्हें ख़बर दूँगी। बस तुम छैला बनी हुई पहुँच जाना।

आश्रम में उस दिन जुगनू को दम मारने की फुर्सत न मिली। उसने सारा वृत्तान्त मिसेज़ टण्डन से कहा। मिसेज टण्डन दौड़ी हुई आश्रम पहुँची और अन्य महिलाओं को ख़बर सुनाई। जुगन उसकी तस्दीक़ करने के लिए बुलाई गई। जो महिला आती, वह जुगनू के मुँह से यह कथा सुनती। हरेक रिहर्सल में कुछ-कुछ रंग और चढ़ जाता। यहां तक कि दोपहर होते होते सारे शहर के सभ्य-समाज में यह ख़बर गूंज उठी।

एक देवी ने पूछा -- यह युवक है कौन ?

मि० टण्डन -- सुना तो, उनके साथ का पढ़ा हुआ है। दोनों में पहले से कुछ बातचीत रही होगी। वही तो मैं कहती थी कि इतनी उम्र हो गई,यह क्वारी कैसे बैठी है। अब कलई खुली।

जुगनू -- और कुछ हो या न हो, जवान तो बांका है।

टंडन -- यह हमारी विद्वान् बहनों का हाल है।

जुगनू -- मैं तो उनकी सूरत देखते ही ताड़ गई थी। धूप में बाल नहीं सुफ़ेद किये हैं।

टंडन -- कल फिर जाना।

जुगनू -- कल नहीं, मैं आज रात ही को जाऊँगी। लेकिन रात को जाने के लिए कोई बहाना ज़रूरी था। मिसेज टण्डन ने आश्रम के लिए एक किताब मँगवा भेजी। रात के नौ बजे जुगनू मि० खुरशेद के बँगले पर जा पहुँची। संयोग से लीलावती उस वक्त मौजूद थी। बोली-यह बुढ़िया तो बेरतह पीछे पड़ गई।

खुरशेद -- मैंने तो तुमसे कहा था, उसके पेट में पानी न पचेगा। तुम जाकर रूप भर आओ। तब तक इसे मैं बातों में लगाती हूँ। शराबियों की तरह अंट-संट बकना शुरू करना। मुझे भगा ले जाने का प्रस्ताव भी करना। बस यों बन जाना, जैसे अपने होश में नहीं हो। [ ५० ]
लीला मिशन में डाक्टर थी। उसका बँगला भी पास ही था। वह चली गई, तो मि० खुरशेद ने जुगनू को बुलाया।

जुगन ने एक पुरजा उसको देकर कहा-मिसेज टंडन ने यह किताब मांगी है। मुझे आने में देर हो गई। मैं इस वक्त आपको कष्ट न देती; पर सबेरे ही वह मुझसे मांगेंगी। हज़ारों रुपये महीने की आमदनी है मिस साहब ; मगर एक-एक कौड़ी दांत से पकड़ती हैं। इनके द्वार पर भिखारी को भीख तक नहीं मिलती।

मि० खुरशेद ने पुरजा देखकर कहा--इस वक्त तो यह किताब नहीं मिल सकती, सुबह ले जाना। तुमसे कुछ बातें करनी हैं। बैठो, मैं अभी आती हूँ।

वह परदा उठाकर पीछे के कमरे में चली गई और वहां से कोई पंद्रह मिनट में एक सुन्दर रेशमी साड़ी पहने, इत्र में बसी हुई, मुँह पर पाउडर लगाये निकली। जुगनू ने उसे आँखे फाड़कर देखा। ओह ! यह श्रृंगार ! शायद इस समय वह लौंडा पानेवाला होगा; तभी यह तैयारियां हैं। नहीं सोने के समय क्वारियों के बनाव-सवार की क्या ज़रूरत। जुगन की नीति में स्त्रियों के श्रृंगार का केवल एक उद्देश्य था, पति को लुभाना। इसलिए सोहागिनों के सिवा, श्रृंगार और सभी के लिए वर्जित था। अभी खुरशेद कुरसी पर बैठने भी न पाई थी, कि जूतों का चरमर सुनाई दिया और एक क्षण में विलियम किंग ने कमरे में कदम रखा। उसकी आँखें चढ़ी हुई मालूम होती थीं और कपड़ों से शराब की गन्ध आ रही थी। उसने बेधड़क मिस खुरशेद को छाती से लगा लिया और बार-बार उसके कपोलों का चुम्बन लेने लगा।

मिस खुरशेद ने अपने को उसके कर-पाश से छुड़ाने की चेष्टा करके कहा--चलो हटो, शराब पीकर आये हो।

किंग ने उसे और चिमटाकर कहा--आज तुम्हें भी पिलाऊँगा प्रिये। तुमको पीना होगा। फिर हम दोनों लिपटकर सोयेंगे। नशे में प्रेम कितना सजीव हो जाता है, इसकी परीक्षा कर लो।

मिस खुरशेद ने इस तरह जुगनू की उपस्थिति का उसे संकेत किया कि
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जुगनू की नज़र पड़ जाय। पर किंग नशे में मस्त था। जुगनू की तरफ देखा ही नहीं।

मिस खुरशेद ने रोष के साथ अपने को अलग करके कहा---तुम इस वक्त श्रापे में नहीं हो। इतने उतावले क्यों हुए जाते हो। क्या मैं कहीं भागी जा रही हूँ।

किंग---इतने दिनों चोरों की तरह आया हूँ, आज से मैं खुले खजाने आऊँगा।

खुरशेद---तुम तो पागल हो रहे हो। देखते नहीं हो, कमरे में कौन बैठा हुआ है।

किंग ने हकबकाकर जुगनू की तरफ़ देखा और झिझककर बोला---यह बुढ़िया यहाँ कब आई। तुम यहाँ क्यों आई बुड्ढी! शैतान की बच्ची! यहाँ भेद लेने आती है। हमको बदनाम करना चाहती है। मैं तेरा गला घोट दूंँगा। ठहर, भागती कहाँ है। तुझे ज़िन्दा न छोडूगा !

जुगनू बिल्ली की तरह कमरे से निकली और सिर पर पांँव रखकर भागी। उधर कमरे से कह-कहे उठ-उठकर छत को हिलाने लगे।

जुगनू उसी वक्त मिसेज़ टण्डन के घर पहुँची। उसके पेट में बुलबुले उठ रहे थे ; पर मिसेज़ टण्डन सो गई थीं। वहां से निराश होकर उसने कई दूसरों के घरों की कुण्डी खटखटाई। पर कोई द्वार न खुला और दुखिया को सारी रात इस तरह काटनी पड़ी, मानो कोई रोता हुआ बच्चा गोद में हो। प्रातःकाल वह आश्रम में जा कूदी। कोई आध घंटे में मिसेज़ टण्डन भी आई। उन्हें देखकर उसने मुह फेर लिया।

मि० टण्डन ने पूछा---रात क्या तुम घर गई थीं ? इस वक्त मुझसे महाराज ने कहा।

जुगनू ने विरक्त भाव से कहा---प्यासा ही तो कुएं के पास जाता है। कुआँ थोड़े ही प्यासे के पास आता है। मुझे आग में झोंककर आप दूर हट गई। भगवान ने रक्षा की, नहीं कल जान ही गई थी।

मि० टण्डन ने उत्सुकता से कहा--क्यों, हुआ क्या, कुछ कहो तो। मुझे
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तुमने जगा क्यों न लिया। तुम तो जानती हो, मेरी आदत सबेरे सो जाने की है।

'महाराज ने घर में घुसने ही न दिया। जगा कैसे लेती। आपको इतना तो सोचना चाहिए था कि वह वहाँ गई है, तो आती होगी। घड़ी भर बाद ही सोतीं, तो क्या बिगड़ जाता। पर आपको किसी की क्या परवाह !'

'तो क्या हुआ, मिस खुरशेद मारने दौड़ी ?'

'वह नहीं मारने दौड़ी, उनका वह ख़सम है, वह मारने दौड़ा लाल आँखे निकाले आया और मुझसे कहा---निकल जा। जब तक मैं निकलूँ-निकलूंँ, तब तक हंटर खींचकर दौड़ ही तो पड़ा। मैं सिर पर पांव रखकर न भागती, तो चमड़ी उधेड़ डालता। और वह रोड़ बैठी तमाशा देखती रही। दोनों में पहले से सधी-बदी थी। ऐसी कुलटाओं का मुंह देखना पाप है। वेश्या भी इतनी निर्लज न होगी।

ज़रा देर में और देवियां आ पहुँची। यह वृत्तान्त सुनने के लिए सभी उत्सुक हो रही थीं। जुगनू की कैंची अविश्रान्त रूप से चलती रही। महिलाओं को इस वृत्तान्त में इतना आनन्द आ रहा था कि कुछ न पूछो। एक-एक बात को खोद-खोदकर पूछती थीं। घर के काम-धन्धे भूल गये,खाने-पीने की भी सुधि न रही। और एक बार सुनकर ही उनकी तृप्ति न होती थी। बार-बार वही कथा नये आनन्द से सुनती थीं।

मिसेज़ टण्डन ने अन्त में कहा---इस आश्रम में ऐसी महिलाओं को लाना अनुचित है। आप लोग इस प्रश्न पर विचार करें।

मिसेज़ पंडन्या ने समर्थन किया---हम आश्रम को आदर्श से गिराना नहीं चाहते। मैं तो कहती हूँ, ऐसी औरत किसी संस्था की प्रिंसिपल बनने के योग्य नहीं।

मिसेज़ बांगड़ा ने फ़रमाया---जुगनूबाई ने ठीक कहा था। ऐसी औरत का मुँह देखना भी पाप है। उससे साफ़ कह देना चाहिए, आप यहाँ तशरीफ़ न लायें।

अभी यह खिचड़ी पक ही रही थी कि आश्रम के सामने एक मोटर
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आकर रुकी। महिलाओं ने सिर उठा-उठाकर देखा, गाड़ी में मिस खुरशेद और विलियम किंग बैठे हुए थे।

जुगन ने हाथ फैलाकर हाथ से इशारा किया---वही लौंडा है ! महिलाओं का सम्पूर्ण समूह चिक के सामने आने के लिए विकल हो गया।

मिस खुरशेद ने मोटर से उतरकर हूड बन्द कर दिया और आश्रम के द्वार की ओर चलीं। महिलाएँ भाग-भागकर अपनी-अपनी जगह आ बैठीं।

मिस खुरशेद ने कमरे में कदम रखा। किसी ने स्वागत न किया। मिस खुरशेद ने जुगनू की ओर निस्संकोच आँखों से देखकर मुसकिराते हुए कहा---कहिए बाईजी, रात आपको चोट तो नहीं आई।

जुगनू ने बहुतेरी दीदा-दिलेर स्त्रियां देखी थीं, पर इस ढिठाई ने उसे चकित कर दिया। चोर हाथ में चोरी का माल लिये, साह को ललकार रहा था।

जुगनू ने ऐंठकर कहा--जी न भरा हो, तो अब पिटवा दो। सामने ही तो हैं।

खुरशेद---वह इस वक्त तुमसे अपना अपराध क्षमा कराने आये हैं ! रात वह नशे में थे।

जुगनू ने मिसेज़ टण्डन की ओर देखकर कहा---और आप भी तो कुछ कम नशे में नहीं थीं।

खुरशेद ने व्यंग समझकर कहा---मैंने आज तक कभी नहीं पी, मुझ पर झूठा इलज़ाम मत लगायो।

जुगनू ने लाठी मारी---शराब से भी बड़े नशे की चीज़ है कोई, वह उसी का नशा होगा। उन महाशय को परदे में क्यों ढँक दिया। देवियां भी तो उनकी सूरत देखतीं।

मिस खुरशेद ने शरारत की---सूरत तो उनकी लाख दो लाख में एक है।

मिसेज़ टण्डन ने आशंकित होकर कहा---नहीं, उन्हें यहाँ लाने की कोई ज़रूरत नहीं। आश्रम को हम बदनाम नहीं करना चाहते। [ ५४ ]मिस खुरशेद ने आग्रह किया---मुआमले को साफ़ करने के लिए उनका आप लोगों के सामने आना जरूरी है। एकतरफ़ी फ़ैसला आप क्यों करती हैं।

मिसेज टंडन ने टालने के लिए कहा---यहाँ कोई मुक़दमा थोड़े ही पेश है।

मिस खुरशेद--वाह ! मेरी इतज्ज़़में बट्टा लगा जा रहा है और आप कहती हैं---कोई मुकदमा नहीं है । मिस्टर किंग आयेंगे और आपको उनका बयान सुनना होगा।

मिसेज टण्डन को छोड़कर और सभी महिलाएँ किंग को देखने के लिए उत्सुक थीं। किसी ने विरोध न किया।

खुरशेद ने द्वार पर आकर ऊँची आवाज़ से कहा--- तुम ज़रा यहाँ चले आओ।

हूड खुला और मिस लीलावती रेशमी साड़ी पहने मुसकिराती हुई निकल आईं।

आश्रम में सन्नाटा छा गया। देवियाँ विस्मित आँखों से लीलावती को देखने लगीं।

जुगनूं ने आँखें चमकाकर कहा---उन्हें कहाँ छिपा दिया आपने ?

खुरशेद--छू मन्तर से उड़ गये। जाकर गाड़ी देख लो।

जुगनू लपककर गाड़ी के पास गई और खूब देख-भालकर मुँह लटकाये हुए लौटी।

मिस खुरशेद ने पूछा---क्या हुआ, मिला कोई ?

जुगनू---मैं यह तिरिया-चरित्तर क्या जानूं। (लीलावती को ग़ौर से देखकर ) और मरदों को साड़ी पहनाकर आँखों में धूल झोंक रही हो । यही तो हैं, वह रातवाले साहब।

खुरशेद---खूब पहचानती हो ?

जुगनू---हा-हाँ, क्या अन्धी हूँ।

मिसेज़ टण्डन---क्या पागलों-सी बातें करती हो जुगनू, यह तो डाक्टर लीलावती हैं। [ ५५ ]
जुगनू---(उँगली चमकाकर ) चलिए-चलिए, लीलावती हैं। साड़ी पहनकर औरत बनते लाज नहीं पाती। तुम रात को नहीं इनके घर थे?

लीलावती ने विनोद-भाव से कहा---मैं कब इनकार कर रही हूँ। इस वक्त लीलावती हूँ। रात को विलियम किंग बन जाती हूँ। इसमें बात ही क्या है।

देवियों को अब यथार्थ की लालिमा दिखाई दी। चारों तरफ क़हक़हे पड़ने लगे। कोई तालियां बजाती थी, कोई डाक्टर लीलावती की गरदन से लिपटी जाती थी, कोई मिस खुरशेद की पीठ पर थाकियां देती थी। कई मिनट तक हू-हा मचा रहा । जुगनू का मुँह उस लालिमा में बिलकुल जरा-सा निकल आया । जबान बन्द हो गई। ऐसा चरका उसने कभी न खाया था। इतनी ज़लील कभी न हुई थी।

मिसेज़ मेहरा ने डाँट बताई---अब बोलो दाई, लगी मुँह में कालिख कि नहीं?

मिसेज़ बांगड़ा---इसी तरह यह सबको बदनाम करती है।

लीलावती---आप लोग भी तो जो यह कहती है, उसपर विश्वास कर लेती हैं।

इस हरबोंग में जुगनू को किसी ने जाते न देखा। अपने सिर पर यह तूफ़ान उठते देखकर, उसे चुपके से सरक जाने ही में अपनी कुशल मालूम हुई। पीछे के द्वार से निकली और गलियों-गलियों भागी।

मिस खुरशेद ने कहा---जरा उससे पूछो, मेरे पीछे क्यों पड़ गई थी!

मिसेज़ टण्डन ने पुकारा ; पर जुगनू कहाँ ! तलाश होने लगा। जुगनू गायब!

उस दिन से शहर में फिर किसी ने जुगनू की सूरत नहीं देखी। आश्रम के इतिहास में यह मुआमला आज भी उल्लेख और मनोरंजन का विषय बना हुआ है।

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