समर यात्रा/ठाकुर का कुआँ

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समर-यात्रा  (1941) 
द्वारा प्रेमचंद

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ठाकुर का कुआँ

जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख़्त बदबू आई। गंगी से बोला---यह कैसा पानी है ! मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा हुआ पानी पिलाये देती है !

गंगी प्रतिदिन शाम को पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था; बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लाई, तो उसमें बू बिलकुल न थी ; आज पानी में बदबू कैसी ? लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। ज़रूर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा ; मगर दूसरा पानी आये कहाँ से?

ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा ! दूर ही से लोग डाँट बतायेंगे। साहू का कुआँ गांव के उस सिरे पर है ; परन्तु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा ? चौथा कुआंँ गांव में है नहीं।

जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला---अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बन्द करके पी लूँ।

गंगी ने पानी न दिया। ख़राब पानी पीने से बीमारी बढ़ जायगी---इतना जानती थी; परन्तु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है। बोली---यह पानी कैसे पियोगे ! न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।

जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा---दूसरा पानी कहाँ से लायेगी?

'ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे ?

'हाथ-पांव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से । ब्राह्मन देवता आशिर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पांँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है ! हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर
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झाँकने नहीं पाता। कन्धा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे।'

इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती ; किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।

( २ )

रात के नौ बजे थे। थके-मादे मजदूर तो सो चुके थे। ठाकुर के दरवाज़े पर दस-पांच बे-फ़िक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब ज़माना रहा है न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक ख़ास मुकद्दमे में रिश्वत दे दी और साफ़ निकल गये। कितनी अक्लमन्दी से एक मार्के के मुकदमे की नक़ल ले आये। नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नक़ल नहीं मिल सकती। कोई पचास मांँगता, कोई सौ। यहाँ बे-पैसे-कौड़ी नक़ल उड़ा दी। काम करने का ढंग चाहिए।

इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुंची।

कुप्पी की धुंँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इन्तजार करने लगी। इस कुएँ का पानी गाँव पीता है। किसी के लिए रोक नहीं ; सिर्फ़ ये बदनसीब नहीं भर सकते।

गंगी का विद्रोही दिल रिवाज़ी पाबंदियों और मज़बूरियों पर चोटें करने लगा---हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों उँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ! यहाँ तो जितने हैं एक से-एक छटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फ़रेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इसी ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़ेरिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद को मारकर खा गया। इन्हीं पंडितजी के घर में तो बारहों मास जूआ होता है। यही साहूजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस बात में हैं हम से ऊँचे ! हाँ, मुँह में हम से ऊँचे हैं। हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रिस भरी आँखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है; परन्तु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं। [ ५८ ]
किसी के कुएँ पर आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख ले, तो गजब हो जाय! एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा लिया और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अँधेरे साये में जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर । बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनों खून थकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। ये लोग कहते हैं कि ऊँचे हैं!

कुएँ पर दो स्त्रियाँ पानी भरने आई थीं। इनमें बातें हो रही थीं।

'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताज़ा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं ?'

'हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।'

'हाँ यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुक्म चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडिया ही तो हैं !'

'लौंडियां नहीं तो और क्या हो तुम ? रोटी-कपड़ा नहीं पाती ?दस-पांँच रुपये भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियां कैसी होती हैं ?'

'मत जलाओ, दीदी। छिन भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम तो किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता। यहाँ काम करते करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही नहीं सीधा होता।'

दोनों पानी भरकर चली गईं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आई। बे-फ़िक्रे चले गये थे। ठाकुर भी दरवाजा बन्द करके अन्दर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की सांँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ़ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी ज़माने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानता के साथ और समझ-बूझकर न गया होगा। गंगी दबे पांँव कुएँ की जगत पर चढ़ी। विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।

उसने रस्सी का फन्दा गले में डाला। दायें-बायें खोज की दृष्टि से देखा, जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख करने लग रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफ़ी या रियायत की
[ ५९ ]रत्ती भर उम्मीद नहीं। अन्त में देवताओं को याद करके उसने कलेजा‘मज़बूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।

घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा भी आवाज़ न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे । घड़ा कुएँ के मुंह तक श्रा पहुँचा। कोई बड़ा शहज़ोर पहलवान भी इतनी तेज़ी से उसे न खींच सकता था।

गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।

गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में गति की आवाजें सुनाई देती रहीं।

ठाकुर 'कौन है ? कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ़ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।

घर पहुँचकर उसने देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला,गन्दा पानी पी रहा है।

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