समालोचना समुच्चय
महावीरप्रसाद द्विवेदी
लेखक
महावीरप्रसाद द्विवेदी
प्रकाशक
रामनरायन लाल
पब्लिशर और बुकसेलर
इलाहाबाद
निवेदन
इस संग्रह में निवेदनकर्त्ता की जो समालोचनायें प्रकाशित हैं वे सब, समय समय पर, "सरस्वती" में निकल चुकी हैं। जो समालोचना जिस समय निकली थी उसका उल्लेख उसी के नीचे कर दिया गया है। आलोचनायें अधिकतर हिन्दी ही की पुस्तकों की हैं। पर कुछ संस्कृत-पुस्तकों और उनके अंश-विशेषों की भी हैं। दो एक आलोचनाये अन्य भाषाओं की पुस्तकों की भी हैं। अधिकांश आलोचनायें ऐसी ही पुस्तकों की हैं जो लेखकों को समालोचना ही के लिए प्राप्त हुई थीं। हाँ, कई आलोचनायें ऐसी भी हैं जिनके प्रकाशन के लिए उससे किसी ने प्रेरणा न की थी, उन्हें उसने स्वयमेव प्रेरित होकर लिखा और प्रकाशित किया था।
जो लेख इसमें संग्रहित हैं उनमें से कई बहुत पुराने हैं। उनका प्रथम-प्रकाशन हुए बीस-बीस पच्चीस-पच्चीस वर्ष हो चुके। तब से हिन्दी-साहित्य बहुत कुछ उन्नत हो गया है। अतएव इन लेखों से तत्कालीन समालोचना-साहित्य की तुलना वर्तमानकालीन साहित्य से करने में बहुत कुछ सुभीता हो सकता है। बात यह है कि साहित्य की इस शाखा की ओर हिन्दी-लेखकों का ध्यान इधर कुछ ही समय से अधिक गया है। अब तो बड़े बड़े विद्वान् और पदवीधर पण्डित अपने पाण्डित्यपूर्ण लेखों से इस शाखा की समुन्नति कर रहे हैं। पर एक समय था जब हिन्दी-साहित्य में इस विषय के लेखों का प्रायः अभाव ही था। यदि किसी समाचारपत्र या पुस्तक का सम्पादक किसी पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ लिखता भी था तो दस पाँच सतरों से अधिक न लिखता था और उनमें समालोच्य पुस्तक के विषय में, परिचय के तौर पर, योंही कुछ लिख कर अपने कर्तव्य से छुट्टी पा जाता था।
किसी विषय-विशेष की ओर, प्रारम्भ में, सर्वसाधारण जनों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बहुत नहीं तो कुछ प्रयत्न और परिश्रम को अवश्य ही आवश्यकता होती है। यह प्रयत्न किसने और कितना किया है और उसे इस समालोचना-कार्य में कितनी सफलता मिली है, और मिली भी है या नहीं, इस बात का अनुमान, आशा है, इस पुस्तक से, थोड़ा बहुत, लग ही जायगा। प्रारम्भ के २० वर्षों में जो समालोचनायें "सरस्वती" में निकती हैं वे, किसी किसी की राय में, कठोर थीं। इस बात का निर्णय करने में कि यह आक्षेप, आजकल की आलोचनाओं की तुलना में, कहाँ तक न्यायसङ्गत है और है भी या नहीं, इस संग्रह से पाठकों को कुछ न कुछ सहायता मिलने की आशा है। यदि यह आक्षेप सःश में भी सच हो तो भी निवेदनकर्ता के लिए परिताप का कोई कारण नहीं। उसके लिए यही क्या कम सन्तोष की बात है कि उसके सदृश अल्पज्ञ द्वारा प्रदर्शित मार्ग, पहले की अपेक्षा अब अधिक प्रशस्त हो गया है और होता जा रहा है, तथा बड़े बड़े विज्ञ विद्वान् अब उस पथ के पथिक होकर उसकी उन्नति में दत्तचित्त हैं।
पुस्तकान्त में जो २० नम्बर का लेख है उसका विस्मरण ही संग्रहकार को हो गया था । स्मरण उसका एक मित्र ने कराया। उनसे मालूम हुआ कि जिन सजनों की पुस्तक की आलोचना उसमें है उन्होंने उसका प्रतिवाद भी किया है और बड़ी योग्यता से किया है-इतनी योग्यता से कि उन्होंने उस लेख में प्रयुक्त दलीलों की धजियाँ उड़ा दी हैं। सुना जाता है, उनका वह प्रतिवाद, उनकी किसी-संग्रह पुस्तक में, कहीं, अलग भी प्रकाशित किया गया है। यही कारण है जो हिन्दी-नवरत्न की समालोचना भी, इस संग्रह के अन्त में, रख देनी पड़ी। इससे यह लाभ होगा कि जहाँ पाठक प्रतिवादकर्ता महाशयों की योग्यता के ज्ञान से पुरस्कृत होंगे वहाँ, यदि वे इस संग्रह के अन्तिम लेख को पढ़ने का कष्ट उठावगे तो, उसके लेखक की अज्ञता या अल्पज्ञता और अयोग्यता या असमर्थता के ज्ञान से भी संस्कृत हुए बिना न रहेंगे।
दौलतपुर ( रायबरेली)। १४ जनवरी १९२८
महावीरप्रसाद द्विवेदी नपान
लेखाङ्कलेख-नाम | पृष्ठ | |
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१—गोपियों की भगवद्भक्ति | … | १ |
२—जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन | … | १४ |
३—भारतीय-चित्रकला | … | २५ |
४—भट्टिकाव्य | … | ३५ |
५—गायकवाड़ की पूर्वी भाषाओं की पुस्तकमाला | … | ४९ |
६—पृथ्वी-प्रदक्षिणा | … | ६७ |
७—वैदिक-कोष | … | ९१ |
८—विचार-विमर्श | … | ९६ |
९—हिन्दी-विश्वकोश | … | १०३ |
१०—पराक्रमनी प्रसादी | … | ११२ |
११—अक्षर-विज्ञान | … | १२० |
१२—ओंकार-महिमा-प्रकाष | … | १३५ |
१३—माथुर जी का रामायण-ज्ञान | … | १३८ |
१४—उर्दू-शतक | … | १४२ |
१५—रीडरों में ब्राकेटबन्दी | … | १४८ |
१६—पूर्वी हिन्दी | … | १५९ |
१७—अकबर के राजत्वकाल में हिन्दी | … | १६९ |
१८—आयुर्वेद-महत्व | … | १७७ |
१९—खोज-विषयक रिपोर्ट | … | १९१ |
२०—हिन्दी-नवरत्न | … | १९८ |
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