समालोचना समुच्चय/१ गोपियों की भगवद्भक्ति

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समालोचना समुच्चय

गोपियों की भगवद्भक्ति

[ १ ]

शरत्काल है। धरातल पर धूल का नाम नहीं। मार्ग रजोरहित है। नदियों का औद्धत्य जाता रहा है; वे कृश हो गई हैं। सरोवर और सरिताएँ निर्मल जल से परिपूर्ण हैं। जलाशयों में कमल खिल रहे हैं। भूमि-भाग काशांसुकों से शोभित हैं। धनोपवन हरे हरे लाल पल्लवों से आच्छादित हैं। आकाश स्वच्छ है; कहीं बादल का लेश नहीं। प्रकृति को इस प्रकार प्रफुल्लवदना देखकर एक दफे, रात के समय, श्रीकृष्ण को एक दिल्लगी सूझी-

दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं
रमाननाभं नवकुङ्कमारुणम्।
वनञ्च तत्कोमलगोभिरञ्जितं।
जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्॥

उस दिन शरत्पूर्णिमा थी। श्रीकृष्ण ने देखा, भगवान् निशानायक का बिम्ब अखण्ड-भाव से उदित है; वह अपनी सोलहों कलाओं से परिपूर्ण है। नवीन कुङ्कुम के समान उसका अरुणबिम्ब रमा के मुखमण्डल को भी मात कर रहा है। उसकी कोमल-किरणमाला वन में सर्वत्र फैली हुई है। ऐसे उद्दीपनकारी समय में उन्होंने अपनी मुरली की मधुर तान छेड़ दी। उसकी ध्वनि ने, [  ]गोपियों के मानस को बलात् अपनी ओर खींच लिया। वे उस लोकोत्तर निनाद को सुनकर मोहित हो गईं।

वंशी की ध्वनि सुनकर गोपियों की अन्य समस्त इन्द्रियाँ कर्णमय हो गईं। अन्य इन्द्रियों के धर्म्म लोप हो गये। अकेली श्रवणेन्द्रिय अक्षुण्ण रही। श्रीकृष्ण के द्वारा बनाई गई वंशी को ध्वनि उससे सुन कर गोपियाँ आकुल हो उठीं। उन्होंने घर के सारे काम छोड़ दिये। शिशुओं को स्तन्यपान कराना और पतियों की शुश्रूषा करना भी वे भूल गईं। वे सहसा घर से निकल पड़ीं और उसी तरफ दौड़ीं जिस तरफ से वह मनो मुग्धकारिणी ध्वनि आ रही थी। आकर उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण जी अपने नटवर-वेश में खड़े वंशी बजा रहे हैं। धीरे धीरे उनके पास एक दो नहीं, सैकड़ों, गोपियाँ एकत्र हो गईं। इतनी आतुर होकर, हड़बड़ी में, वे घर से निकल पड़ी थीं कि उन्होंने अपने वस्त्राभूषण तक ठीक ठीक―जिसे जहाँ पर और जिस तरह पहिनना चाहिए था―नहीं पहना था। उन्हें इस तरह आई देख श्रीकृष्ण को फिर एक दिल्लगी सूझी। आपने वंशी बजाना बन्द कर दिया और बोले―

स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः।
ब्रजस्यानामयं कञ्चिद् व्रूतागमनकारणम्॥

स्वागत! स्वागत! ख़ूब आईं। कहिये, क्या हुआ है? कुशल तो है? व्रज पर कोई विपत्ति तो नहीं आई? किस लिए रात को यहाँ आगमन हुआ?

ज़रा इन प्रश्नों को तो देखिए। स्वागत-सत्कार के ढङ्ग पर तो विचार कीजिए। आप ही ने तो बुलाया और आप ही आने का कारण पूछ रहें हैं! यह दिल्लगी नहीं तो क्या है? और दिल्लगी भी बड़ी ही निष्करुण। बात यहीं तक रहती तो ग़नीमत थी। कृष्ण ने तो, इसके आगे, गोपियों को कुछ उपदेश भी दिया। [  ] उपदेश क्या दिया, जले पर नमक छिड़का। आपके व्याख्यान का कुछ अंश सुनिए।

रात बड़ी ही भयावनी है। जङ्गल बेहद घना है। हिंस्र जीव इधर उधर घूम रहे हैं। भला यह समय भी क्या स्त्रियों के बाहर निकलने का है? तुम्हारे बाल-बच्चे रोते होंगे। तुम्हारे पति, पुत्र, पिता आदि कुटुम्बी तुम्हें ढूँढ़ते होंगे। राका-शशी की किरणों से रञ्जित कुसुमित-कानन की सैर हो चुकीं। रविनन्दिनी यमुना को तरल तरङ्गों की शोभा तुम देख चुकीं। यदि प्रेम-परवशता के कारण मेरे दर्शनार्थ तुम चली आईं तो तुम्हारी वह दर्शन-पिपासा भी पूर्ण हो गई। हो चुका। बस, अब तुम पधारो; अपने अपने घर लौट जाव; जाकर अपने अपने स्वामियों को शुश्रूषा करो―

दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जड़ो रोग्यधनोऽपि वा।
पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्लुभिरपातकी॥

देखो, अपना पति दुःशील, दुर्भग, वृद्ध, जड़, रोगी और निर्धन ही क्यों न हो, स्त्रियों को उसका त्याग कदापि न करना चाहिए। तुम जिस अभिप्राय से यहाँ आई हो वह अत्यन्त निन्द्य है। उससे तुम्हारे दोनों लोक बिगड़ जायँगे।

श्रीकृष्ण के इस व्याख्यान पर ध्यान दीजिए और फिर उनके उस प्रश्न पर विचार कीजिए। प्रश्न था कि तुम आई क्यों? इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं ही दे रहे हैं। फिर भी आपने प्रश्न करने की ज़रूरत समझी! इसी से हम कहते हैं कि यह सारी दिल्लगी थी। दिल्लगी पर दिल्लगी।

प्रियतम कृष्ण का यह रुख़ देख कर और उनकी यह प्रश्नावली तथा उपदेशमाला सुन कर गोपियों के होश उड़ गये। उन्हें स्वप्न में भी यह ख़याल न हुआ होगा कि उनके साथ इतना कठोर [  ]बर्ताव किया जायगा। वे थीं अबला और अबलावों का विशेष बल होता है रोना और आक्रोश करना, सिसकना और सिर धुनना। उसी का अवलम्ब उन्होंने किया। वे लगीं रोने। बड़े बडे आँसुओं के साथ, लगा उनकी आँखों का काजल बहने। मुँँह उनके सूख गये। अत्युष्ण श्वासोच्छ्वासों की मार से उनके बिम्बाधर कुम्हला गये। बड़ी देर तक वे अपने पैर के अँगूठों से ज़मीन कुरेदती हुई ठगी सी खड़ी रहीं। हाय, बड़ा धोखा हुआ। यह निष्ठुरता! हमारे अनन्य और निर्व्याज प्रेस का यह बदला! हमने जिसे अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया उसका यह निष्कृप व्यवहार! इसी तरह की बातें उन्होंने मन ही मन कीं। भगवान् कृष्ण स्वयं ही जान सकें होंगे कि उनके उस धर्म्ममूलक ढकोसले की दुहाई ने गोपियों के कमल-कोमल हृदयों पर कितना निष्ठुर व्रजपात किया होगा। खै़र, अपने होश किसी तरह थोड़ा बहुत सँभाल कर उनमें से कुछ प्रगल्भा गोपियों ने कृष्ण के सदुपदेश का इस प्रकार सत्कार किया। वे बोलीं―

सरकार, आप तो बहुत बड़े पण्डित-प्रवर निकले। पण्डित ही नहीं, धर्मशास्त्री भी आप बन बैठे हैं। हमें आपके इन गुणों की अब तक ख़बर ही न थी। आपकी इन परमपावन कल्पनाओं का ज्ञान तो हमें आज ही हुआ। प्रार्थना यह है कि आप आदि-पुरुष भगवान् को भी जानते हैं या नहीं। मोक्ष की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु जन, अपना घर-द्वार, स्त्री-पुत्र, धन-वैभव, सभी सांसारिक पदार्थों का परित्याग करके जब उनकी शरण जाते हैं तब, आप ही की तरह, क्या वे भी उन मुमुक्षुओं को वैसा ही शुष्क उपदेश देते हैं जैसा कि आपनें हम लोगों को दिया? क्या कभी कोई पुरुष भगवान् के दरबार या द्वार से उसी तरह दुरदुराया गया है जिस तरह कि आप हमें दुरदुरा रहे हैं? आपको सर्वेश और सर्वात्मा [  ]समझ कर ही हम आपकी सेवा में उपस्थित हुई हैं। अतएव, हे पण्डित-शिरोमणे! आप हमसे पण्डिताई न छाँटिए। आप अपने पाण्डित्य का संवरण कीजिए। कठोरता का अवतार न बनिए। नृशंस वाक्यों को मुख में न लाइए। समस्त विषयों को तृणवत् समझ कर हम आप के पादपद्म का आश्रय लेने आई हैं। हमारा स्वीकार कीजिए। व्यर्थ की बातें न बनाइए। पुरुषवचनावली और नृशंसता आपको शोभा नहीं देती।

हाँ, आपकी एक बात का जवाब रह गया! आपकी धर्मभीरुता हमें बिलकुल नहीं जँची। मनु, याज्ञवल्क्य और पराशर आदि धर्म-शास्त्रकारों के मत का मनन आपने ख़ूब ही किया, मालूम होता है। परन्तु, सरकार, इन ऋषियों से भी बड़े नहीं तो समकक्ष अन्य ऋषियों ने जो कुछ कह या लिख रक्खा है उस पर आपका ध्यान क्यों नहीं गया? उन्होंने तो हाथ उठा उठा कर, ज़ोरों से, यह कहा है कि जो जिस भाव से भगवान् की शरण जाता है उसका ग्रहण वे उसी भाव से करते हैं। यदि यह ठीक है तो आपके धर्म-शास्त्र हमारे लिए रद्दी नहीं तो कोरे क़ाग़ज के टुकड़े अवश्य हैं। हमने सुन रक्खा है कि आप ही समस्त प्राणियों की आत्मा हैं। बता दीजिए, यह सच है या झूठ? यदि सच है तो हमारे उस हार्दिक भाव के ग्रहण के लिए भी जिस पर आपका आक्षेप है, आपके विशाल हृदय में कुछ स्थान मिल सकता है या नहीं। बताइए, आप ही इसका निर्णय कर दीजिए। बोलिए, बोलिए―

यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरङ्ग,
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्म्मविदा त्वयोक्तम्।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा॥

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धर्म्मशास्त्रज्ञ बन कर आपने यही फरमाया है न कि पति पुत्र, सुहृद् और अन्य कुटुम्बियों के विषय में स्त्रियों को अपना धर्म्म-पालन करना चाहिए ―अर्थात् उनके प्रति स्त्रियों का जो कर्तव्य है उससे उन्हें च्युत न होना चाहिए? यही न? अच्छा तो अब आप यह भी फरमा दीजिए कि जितने देहधारी हैं उन सब के ईश्वर, उन सब की आत्मा उन सब के बन्धु भी आप ही हैं या नहीं? अगर हैं और अगर दिव्यदृष्टि वाले ऋषियों का यह सिद्धान्त भी सच है कि "कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्” तो बस हो चुका। तो हम अपने पति, पुत्र, सखा और सहोदर आदि की भावनायें सब आप ही में करती हैं। आप ही हमारे पिता, आप ही हमारे पुत्र, आप ही हमारे पति और आप ही हमारे सब कुछ हो। हमारी भावनाओं पर आपका क्या ज़ोर! हम मिट्टी को यदि सुवर्ण समझ लें, पत्थर को यदि रत्न समझ लें, विष को यदि अमृत मान लें, तो इससे किसी का क्या हर्ज? यदि आप तनुभृज्जनों की आत्मा हैं―यदि आप घट घट में व्यापक हैं―तो किसी के पिता, किसी के पति, किसी के पुत्र आप स्वयं ही बन चुके। फिर भला किस युक्ति से आप अपने में हमारी पति-भावना से छुटकारा पा सकते हैं? आप अपनी धर्म्मज्ञता का अम्बर या आडम्बर समेटिए। उसे औरों के लिए रख छोड़िए―

कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्
नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम्।
तन्नः प्रसीद परमेश्वर मास्म छिन्द्दा
आशालतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र॥

हे कमललोचन, सर्वदर्शी विद्वान् तो आप ही को सब का भोक्ता और सब का ईश्वर समझते हैं। इसी से आप अन्तर्यामी आत्मा [  ] ही प्रेम करते हैं और उसी को हर तरह नित्यप्रति रिझाने की चेष्टा में रत रहते हैं। आपके मुक़ाबले में पति, सुत, बन्धु, आदि जन कोई चीज़ नहीं। उनको रिझाना व्यर्थ ही नहीं, नाना प्रकार के क्लेशों का कारण भी है। जिसने उन्हें रिझाया―जिसने उनसे विशेष प्रेम किया-वह तो भवबन्धन से सर्वथा ही बँध गया। उसका छुटकारा कहाँ? उसके लिए तो आप अपने को दुर्लभ ही समझिए। इससे आप अब दया कीजिए। हम आपको अपना परमाराध्य ईश्वर ही समझ कर आपकी सेवा में उपस्थित हुई हैं। आपकी इस प्रकार सेवा करने की लालसा चिरकाल से हमारे हृदय में जागृत है। उसे पूर्ण कर दीजिए, हमारी आशालता के टुकड़े टुकड़े न कर डालिए। हमें निराश न कीजिए। अपने विरुद को सँभालिए। अपना पाण्डित्य और किसी मौक़े के लिए रख छोड़िए। हम तो अपना सर्वस्व-तन और मन-आपके अर्पण कर चुकीं। अतएव, अब, यथायोग्यं तथा कुरु।

कहने की ज़रूरत नहीं, गोपियों का अनन्य प्रेम और उनकी निर्व्याज भक्ति देख कर भगवान् कृष्ण ने उनकी सेवा को स्वीकार करके उन्हें कृतकृत्य कर दिया। परन्तु उन्होंने उन प्रेयसी गोपियों के साथ दिल्लगी करना फिर भी न छोड़ा। एक बार, उसी रात को, वे अचानक उनके बीच से अन्तर्धान हो गये। परन्तु वह दूसरा क़िस्सा है। इससे उसे जाने दीजिए।

श्रीकृष्ण की इस लीला पर कुछ लोगों के द्वारा बड़ी ही कड़ी टीकायें की गई हैं और अब तक की जाती हैं। स्वयं पुराणकारों ही ने गोपियों को "व्यभिंचारिणी" बना कर फिर उनके इस कलङ्क का परिमार्जन किया है। इस लीला की असलियत क्या थी, यह जानना तो सर्वथैव असम्भव है। जो कुछ इस विषय में कहा जा सकता है केवल अनुमान और तर्क ही की सहायता से कहा जा [  ] सकता है। पुराणों की रचना चाहे वेदव्यास ने की हो, चाहे बादरायण ने की हो, चाहे कृष्णद्वैपायन ने की हो, चाहे और किसी ने की हो, उनका कर्त्ता आत्मदर्शी ऋषि न भी हो तो बहुत बड़ा पण्डित या ज्ञानी ज़रूर हो रहा होगा। इस दशा में पुराणोक्तियों का खण्डन करना महज़ मामूली आदमियों का काम नहीं। फिर भी यदि कोई अनधिकारी पुरुष उन उक्तियों की प्रतिकूलता करने का साहस करेगा तो उसका कथन पागल का प्रलाप समझ लेने में क्या हर्ज? अतएव कुछ कुछ इसी तरह का प्रलाप आप सुन लेने की उदारता दिखाइए। श्रीमद्भागवत के कर्ता का कहना है―

तमेव परमात्मानं जारबुद्धयापि सङ्गताः।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः॥

अर्थात् जारबुद्धि से भी श्रीकृष्ण परमात्मा को सङ्गति करने के कारण गोपियों के सांसारिक बन्धन क्षीण होगये और उन्होंने अपनी गुणमयी देह का त्याग कर दिया। इस पर निवेदन है कि गोपियाँ बहुत पहले ही से कृष्ण को ईश्वर, परमेश्वर, सर्वात्मा, परमात्मा कहती चली आ रही हैं। पुराणप्रणेता ने स्वयं ही उनके मुँह से ये बातें कहलाई हैं। फिर उनकी जार-बुद्धि कहाँ रही? वे तो उन्हें परमात्मा ही समझ कर, उनके पास, उनकी सेवा, अपने मनोनुकूल करने के लिए, उपस्थित हुई थीं। परमात्मा होकर भी श्रीकृष्ण जार नहीं हो सकते। श्रीमद्भागवत में उनके कर्ता ने एक नहीं, अनेक स्थलों में, श्रीकृष्ण को परमपुरुष, आदि पुरुष, परमात्मा आदि शब्दों से याद किया है। परन्तु ऐसे स्थलों में भी उसने बेचारी गोपियों को, लगे हाथ, व्यभिचारदुष्ट भी कह डालने की कृपा की है।

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः
कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः।

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इन वनवासिनी नारियों के कृष्ण-परमात्माविषयक अलौकिक भावों की प्रशंसा करके उन पर लौकिक लाञ्छन का भी आरोप करना कहाँ तक सङ्गत हो सकता है, इसका निर्णय यदि कोई ऋषि-मुनि ही करे तो वह सर्वमान्य हो सकता है। हमारी प्रार्थना या निवेदन को तो पाठक हमारा प्रलाप-मात्र समझें। हाँ, एक बात को याद रक्खें। व्यभिचारी शब्द के वि+अभि+चर को ध्यान में रख कर उसका धात्वर्थ न करें; लोक में उसका जो अर्थ समझा जाता है वही करें।

पुराणकारों ने श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर, सर्वसाक्षी, सर्वान्तर्यामी, परमात्मा जब मान लिया तब भक्तों, प्रणयियों और दास्यभाव से प्रणेदित जनों के लिए क्या उन्होंने कुछ ऐसे भी नियम कर दिये हैं कि तुम इसी भाव से अपने उपास्य या इष्टदेव की भावना या भक्ति करो? जहाँ तक हम जानते हैं, ऐसा तो कोई नियम नहीं। जो भाव जिसे अच्छा लगता है उसी भाव से वह ईश्वर की अर्चना करता है। कोई उन्हें सखी समझता है, कोई उन्हें स्वामी समझता है, कोई उन्हें बालक समझता है। यहाँ तक कि किसी किसी ने शत्रु-भाव से भी उनकी उपासना की है। इस दशा में यदि गोपियों ने श्रीकृष्ण को पति-भाव से भजा तो उन पर कलङ्क का आरोप क्यों? या तो कृष्ण को यः कश्चित् साधारण मनुष्य समझिए या गोपियों पर वैसा आरोप करना छोड़िए। दोनों बातें साथ साथ नहीं हो सकतीं। यदि श्रीकृष्ण परमात्मा थे और गोपियों ने उन्हें पति-भाव से ग्रहण किया तो वे सर्वथा निर्दोष ही नहीं, मङ्गलमूर्ति समझी जाने योग्य और समस्त संसार की दृष्टि में पूजनीय हो चुकीं। आप श्रीमद्भागवत को सरसरी ही दृष्टि से पढ़िए। आप देखेंगे कि गोपियों ने अपने इष्टदेव को जहाँ प्रिय, प्रियतम, अङ्ग, सखा इत्यादि शब्दों से सम्बोधन किया है वहाँ [ १० ] उन्हें वे बराबर ईश्वर, परमेश्वर और परमात्मा भी कहती आई हैं। अतएव उनके प्रेम के सम्बन्ध में दुर्भावना के लिए मुतलक़ ही जगह नहीं। जिस भगवद्गीता का परम पण्डित भी संसार में सबसे अधिक महत्व की पुस्तक समझते हैं उसी में कृष्णा भगवान् खुद ही कहा है―

मे यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

अतएव गोपियों ने यदि पतिभाव से उनका भजन किया तो क्या कोई गज़ब की बात होगई? उन्हें वही भाव प्रिय था। कंस और शिशुपाल आदि ने उन्हें और भाव से देखा था। कृष्ण ने उनके उस भाव का भी आदर ही किया और उन्हें वही फल दिया जो अन्य भाव के साधकों को प्राप्त होता है। परमात्मा होकर कृष्ण जब स्वयं ही कह रहे हैं कि जो जिस भाव से मेरा भजन करता है मैं उसे उसी भाव से ग्रहण करता हूँ तब शङ्का और सन्देह के लिए जगह कहाँ?

अच्छा, इन गोपियों के पिता, पुत्र, पति आदि कुटुम्बी कृष्ण को क्या समझते थे? जिस कुमार कृष्णा ने बड़े बड़े दैत्यों को न सही, अपने से अनेक गुने बली और पराक्रमी केशी, बक, अघ आदि प्राणियों को पछाड़ दिया; जिसने कालिय के सदृश महाविषधर विकराल नाग का दर्प-दलन कर दिया; और जिसने गोबर्द्धन पर्वत को हाथ पर उठा लिया उसे यदि वे परमात्मा न समझते थे तो कोई बहुत बड़ा पराक्रमी, प्रभुतावान और महत्वशाली पुरुष जरूर ही समझते थे। तभी उन्होंने अपने कुटुम्ब की स्त्रियों को कृष्ण से प्रेम करते देख उनकी विशेष रोकटोंक नहीं की। यदि करते तो यह कदापि सम्भव न था कि सैकड़ों स्त्रियाँ उस रात को इस तरह अपने अपने [ ११ ] घरों से वन को दौड़ जातीं। शायद ही कुछ स्त्रियाँ उस रात को वहाँ जाने से रह गई होंगी। अच्छा, जो वहाँ गई उनके लौटने पर भी, उनके सम्बन्ध में, कोई घटना या दुर्घटना नहीं हुई। कम से कम पुराणों में इसका उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया कि उन गोपियों को उनके कुटुम्बियों ने घर से निकाल दिया, या उनका त्याग कर दिया, या उन्हें और ही कोई सज़ा दी। इससे सूचित होता है कि गेापियों के कुटुम्बी भी श्रीकृष्ण को कोई अलौकिक पुरुष नहीं तो महात्मा ज़रूर ही समझते थे। अतएव अपनी स्त्रियों को उनसे प्रेम करते देखकर भी या तो उन्होंने उनके उस काम को बुरा नहीं समझा या यदि बुरा भी समझा तो उनके उस आचरण को देखा-अनदेखा कर दिया।

परन्तु यदि आप यही मान लें कि गोपियों का व्यवहार लोकदृष्टि से निन्द्द था तो परतीक-दृष्टि से तो वह प्रशंसनीय ही माना जायगा। भगवद्भक्त अपनी धुन के पक्के होते हैं। उन्हें उनके निश्चित मार्ग से कोई हटा नहीं सकता। उन्हें निन्दा और स्तुति की परवा भी नहीं होती। वे रूढि और लोकाचार के दास नहीं होते। मीरा की क्या कम निन्दा हुई? उन पर क्या लाञ्छन नहीं लगाये गये? उनके कुटुम्बियों ने क्या उनका परित्याग नहीं किया? परन्तु यह सब होने पर भी मीरा ने यह कहना न छोड़ा―

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई।

कुछ कुछ यही दशा तुलसीदास, कबीर, चैतन्य, रैदास, पलटू आदि की भी हुई है। जो "आर्यपथ" कहा जाता है उसे छोड़ने वाले किस साधु पर कलंक नहीं लगा? कलंक लगाने और निष्ठुर आक्षेप करने वाले कुटुम्बियों का त्याग इन साधुओं ने तृणवत् [ १२ ] कर दिया; परन्तु अपने अभीष्ट पथ का परित्याग नहीं किया। इसीमें इन्होंने अपना कल्याण समझा और इनको यह समझ सर्वथा ठीक भी थी। तुलसीदास ने कहा भी है―

तज्यो पिता प्रह्लाद विभीषण बन्धु भरत महतारी।
बलि गुरु ब्रज बनितन पति त्यागो भे जग मङ्गलकारी॥

प्रेमी को पूरा अधिकार है कि वह अपने उपास्य देव का आराधन जिस भाव से चाहे करे। ज्ञानयोग और राजयोग आदि के द्वारा भगवान् का सान्निध्य या मोक्ष प्राप्त कर लेना साधारण साधकों का काम नहीं। वह मार्ग बहुत बहुत कठिन है। पर प्रेम और भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखसाध्य है। आप नारद-भक्तिसूत्र देखिए। उनमें इस मार्ग की कितनी महिमा गाई गई है। गोपियों के लिए योगसाधन अथवा ज्ञान-प्राप्ति करना असम्भव नहीं तो महाकठिन अवश्य था। उनके लिए वही साधन उपयुक्त था जिसका आश्रय उन्होंने लिया। अतएव ये कल्याणी गोपिकायें ज्ञानियों और योगियों के भी वन्दन और प्रणमन के पात्र हैं।

ब्रज छोड़ आने पर एक बार श्रीकृष्ण ने इन गोपियों का समाचार मँगाना चाहा। एतदर्थ उन्होंने उद्धव को चुना। उन्हीं उद्धव को जिन्होंने श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में बेढब वेदान्त बूँ का है और महाभारत में राजनीति पर बड़े बड़े लेक्चर झाड़े हैं। आप अपनी ज्ञान-गरिमा की गठरी बाँध कर व्रज पहुँचे और लगे गोपियों को ज्ञानोपदेश करने। परन्तु वहाँ गोपियों ने उन्हें इतनी कड़ी फटकार बताई कि उनका ज्ञान-सागर बिलकुल ही सूख गया। गोपियों की प्रेम की आंधी में उनका ज्ञानयोग यहाँ तक उड़ गया

कि वे उलटा उन्हीं "व्यभिचारदुष्ट" वनचरी नारियों के चेले हो गये। उन्हें अन्त में भगवान् से प्रार्थना करनी पड़ी― [ १३ ]

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथञ्च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्॥

इन गोपियों के चरणों की रज वृन्दावन के जिन पेड़-पौधों और लता-गुल्मादिकों पर पड़ती है वे धन्य हैं―उनके सदृश पावन और कोई चीज़ नहीं। ये गोपियाँ साधारण स्त्रियाँ नहीं। अपने दुस्त्यज कुटुम्बियों और सर्व-सम्मत तथा परम्परागत पथ का परित्याग करके ये उस पथ से चलने वाली हैं जिसे श्रुतियाँ ढूँँढ़ती फिरती हैं, पर उन्हें ढूँढ़े नहीं मिलता। इसी पथ की बदौलत ये भगवान् की पदवी को प्राप्त करने में समर्थ हुई हैं। अतएव मेरी कामना है कि मैं इसी ब्रज के किसी पेड़, पौधे, लता या गुल्म के रूप में कभी जन्म लेकर अपने को कृतार्थ करूँ। उद्धव की यह उक्ति सुनकर कौन ऐसा भगवत्प्रेमी है जिसका शरीर कण्टकित और कण्ठ गद्गद हो जाय?

हमने अपने इस जन्म में न तो कभी साधु-समागम किया, न किसी सुकृत ही का सम्पादन किया और न किसी तरह का और ही कोई सत्कर्म किया। इस कारण उद्धव के सदृश कामना करने के हम अधिकारी नहीं। अतएव हमारी प्रार्थना इतनी ही है कि यदि पूर्वजन्मों में हमने कभी कोई सत्कार्य्य किया हो तो भगवान् हमें ब्रजमण्डल के करीर का काँटा ही बना देने की कृपा करें।

[जनवरी १९२७]
 

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[ १४ ]
जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन
[ २ ]

काश्मीर के महाकवि जगद्धर भट्ट कृत स्तुतिक़ुसुमाञ्जलि बड़ी ही भव्य पुस्तक है। इस कुसुमाञ्जलि में ३८ स्तोत्र हैं। उन सब की श्लोक-संख्या १,४०० के ऊपर है। किसी स्तोत्र का विस्तार बड़ा है, किसी का कम। कुछ स्तोत्रों में तो सौ सौ डेढ़ डेढ सौ श्लोक हैं। जगद्धर महाकवि थे, परन्तु उन्होंने अपनी कवित्व-शक्ति का उपयोग केवल शिव-स्तुति करने में किया; और किसी विषय पर उन्होंने कविता नहीं की। यह बात उनको इस पुस्तक के अन्त की उक्तियों से स्पष्ट मालूम होती है। उन्होंने वाग्देवी को सम्बोधन करके कहा है कि तू भीत और त्रस्त हो रही होगी कि और कवियों के सदृश कहीं यह भी छोटे छोटे नरेशों और ग्रामपतियों की मिथ्या प्रशंसा करके मुझे और भी अधिक कलुषित न करे। तू अपने इस डर को छोड़ दे। आनन्द से प्रसन्न-वदन हो जा। देख, मैंने तेरा प्रयोग शिवस्तुति में करके तुझे कृतार्थ कर दिया।

संस्कृत-भाषा में स्तुति-विषयक साहित्य बहुत बड़ा है। सैकड़ों नहीं, हज़ारों स्तोत्र, भिन्न भिन्न देवों की स्तुति में, पाये जाते हैं। परन्तु जो रस, जो भाव और जो उक्तिवैलक्षण्य जगद्धर-भट्ट की कविता में है वह हमें तो कहीं भी अन्यत्र नहीं मिला। इनकी कविता का बार बार पाठ करने पर भी जी नहीं ऊबता। यही मन में आता है कि सदा ही उसका पाठ करते रहें। एकान्त में आँखें बन्द करके भक्ति-भाव पूर्वक इनकी स्तुतियों का पाठ करने से जिस आनन्द की प्राप्ति होती है उसका अन्दाज़ा सहृदय भावुक ही कर सकते हैं। यह सम्भव ही नहीं कि पाठक सहृदय हो और उसके नेत्रों से आँसू न टपकने लगें। जगद्धर ने स्तुति[ १५ ] कुसुमाञ्जलि के अन्त में इन स्तोत्रों की सरसता के विषय में जो कुछ कहा है वह अक्षरशः सत्य है। उनका कथन है―

इमां घनश्रेणिमिवोन्मुखः शिखी
चकोरकः कार्तिकचन्द्रिकामिव।
रथाङ्गनामा तरणेरिव त्विषं
स्तवावलीं वीक्ष्य न कः प्रमोदते॥

वर्षाकाला न मेघमाला को देख कर, आकाश की ओर उद्ग्रीव हुआ मयूर आनन्द से जैसे पुलकित हो उठता है; कार्तिक के महीने में पूर्ण चन्द्र की चन्द्रिका के अवलोकन से चकोर पक्षी जैसे प्रमोदमत्त हो उठता है; प्रातःकाल सूर्य्य की प्रभा के दर्शन करके चक्रवाक का चित्त जैसे आनन्द-मग्न हो उठता है―वैसे ही मेरी इस स्तवावली का पाठ करके ऐसा कौन सचेतन जन होगा जो इसके अलौकिक रस और सौन्दर्य पर मुग्ध न हो जाय?

मनस्विनीनामिव साचि वीक्षितं
स्तनन्धयानामिव मुग्धजल्पितम्।
अवश्यमासां मधु सूक्तिवीरुधांं
मनीषिणां मानसमार्द्रयिष्यति॥

मानिनी कुल-कामिनियों के कुटिल कटाक्ष जिस तरह कामुकों के हृदय को आर्द्र कर देते हैं और शिशुओं के मधुर वचन जिस तरह मनुष्यों के हृदय को हिला देते हैं उसी तरह मेरी इन सुन्दर उक्तिरूपिणी लताओं के फूलों का मधु, अर्थात् रसायन, भी सहृदय जनों के अन्तःकरण को अवश्य ही आर्द्र किये बिना न रहेगा।

बहुत ठीक। जगद्धर-भट्ट के प्रयुक्त "अवश्य" शब्द को तो देखिए। उन्हें विश्वास था कि उनको सूक्तियाँ सरस-हृदयों के हृदय पर असर किये बिना न रहेंगी। उनकी यह भावना सोलहो आने [ १६ ] सच है। महृदयों को रुलाने वालो-उनके हृदयों को आर्द करने वाली-जगद्धर की कविता के कुछ नमूने इस लेख में दिये जाते हैं।

स्तुति कुसुमाञ्जलि के दसवें स्तोत्र का नाम है―करुणाक्रन्दन! उसमें ९१ पद्य हैं। उसमें उसके नामानुसार कवि ने बड़ा ही करुणाजनक क्रन्दन किया है। स्तुति, प्रशंसा, उपालम्भ-सभी कुछ करके उसने शिव जी के हृदय में करुणा उत्पन्न करने की चेष्टा की है। उसके आगे वाले ग्यारहवेंं स्तोत्र का नाम उसने रक्खा है―दीनाक्रन्दन। उसकी पद्य-संख्या १४१ है। उसमें भी साद्यन्त रोना ही रोना है। कुछ पद्य तो उसके इतने कारुणिक हैं कि कठोर-हृदयों को भी हिलाने की शक्ति रखते हैं।

करुणाक्रन्दनस्त्रोत्र जब समाप्ति को पहुँचने पर हुआ तब जगद्धर-भट्ट कहते हैं।

अज्ञानान्धमबान्धव कवलितं रक्षोभिरक्षाभिधैः
क्षिप्तं मोहमहान्धकुपकुहरे दुर्हृद्भिराभ्यन्तरै:।
क्रन्दन्तं शरणागतं गतधृति सर्वापदामास्पदं
मा मा मुञ्च महेश पेशलढूशा सत्रासमाश्वासय॥

इसका भावार्थ समझ में आवे चाहे न आवे, इसकी शब्द- स्थापना, इसका शब्द-सौष्ठव, इसके सानुप्रास-पदों से ही बहुत कुछ आनन्द की प्राप्ति हो जाती है और बार बार पढ़ने को जी चाहता है। बड़ी ही कोमल रचना-बड़ी ही कोमल-कान्त-पदावली है। इसका अर्थ―

मैं अज्ञान से अंधा हो रहा हूँ; मेरी सदसद्विचार-शक्ति जाती रही है। बन्धु-बान्धवों से मैं रहित हूँ; मेरा कोई सहायक नहीं; मुझे आश्वासन देने वाला कोई नहीं। इन्द्रिय-नामधारी राक्षस [ १७ ] मुझे खाये जाते हैं। शरीरान्तर्गत काम-क्रोधादि शत्रुओं ने मुझे मोहरूपी महा अन्धे कुवे के भीतरी गढ़े में ढकेल दिया है। इसी से मैं वहाँ पड़ा हुआ रो रहा हूँ। मेरा धीरज छूट गया है। जन्म-जरा-मरण-रूपिणी सारी आपदाओं ने मुझे घेर रक्खा है। मैं बेहद विकल हूँ; बहुत घबरा गया हूँ। अतएव आपकी शरण आया हूँ। मुझे और कहीं ठिकाना नहीं। जैसे बने, मेरी रक्षा कीजिए। मुझे छोड़िए नहीं। मुझ भयार्त और त्रस्त पापी की ओर अपनी कोमल और करुणापूर्ण दृष्टि से देखकर मुझे कुछ तो दिलास दीजिए।

मगर उधर से जब कुछ भी दिलासा-उलासा न मिला तब आप फरमाते हैं―

यद्विश्वोद्धरणक्षमाप्यशरणत्राणैकशीलापि ते
मामार्त्त दृगुपेक्षते स महिमा दुष्टस्य मे कर्म्मण:।
देव्यां दिव्यतमैः पयोधरभृतैः पृथ्वीं पृणत्यां कण
द्वित्राश्चेन मुखे पतन्ति शिखिनः किं वाच्यमेतद्दिवः।

आपकी दृष्टि कुछ ऐसी वैसी नहीं। वह मेरा ही नहीं, सारे विश्व तक का उद्धार कर सकती है। उसने तो अशरणों को शरण देने―जिनका कहीं ठिकाना नहीं उनकी भी रक्षा करने―का बीड़ा ही उठा रक्खा है। ऐसा होने पर भी वह जो मेरी उपेक्षा कर रही है, सो यह उसकी कृपणता नहीं। इसमें उसका कोई दोष नहीं। यह सारा दोष मेरे ही कुकर्मों का है। जो आकाश मेघों के द्वारा अमृतवत् जलराशि, की वृष्टि करके सारी पृथ्वी को आप्लावित कर देता है उसकी उस वृष्टि के दो चार बूँद भी यदि मयूर के मुख में न पड़ें तो इसमें उसका क्या दोष? दोष उस अभागे मयूर ही का समझना चाहिए। [ १८ ]इस प्रकार रो-धो कर जगद्धर-भट्ट ने अपना करुणा-क्रन्दन समाप्त किया। तदनन्तर उन्होंने दीनाक्रन्दन का आरम्भ करके अपनी दीनता दिखाने का उपक्रम किया। १३२ श्लोकों तक उन्होंने अपना यह क्रम जारी रक्खा। जब स्तोत्र समाप्त होने को आया तब आपने अपने क्रन्दन की अति कर दी। इस स्तोत्र के पिछले कुछ श्लोक, चुन चुन कर, नीचे दिये जाते हैं―

नाथ प्राथमिकं विवेकरहितं तिर्यग्वदस्तं वय-
स्तारुण्यं विहतं विराधितवधूविरम्भणारम्भणैः।
स्वामिन् सम्प्रति जर्जरस्य जरसा यावन्न धावन्नयं
मृत्युः कर्णमुपैति तावद्वशं पादाश्रितं पाहि माम्॥

नाथ, मैं अपनी दुर्गति का क्या हाल बयान करूँ। शैशवावस्था तो मेरी खेल-कूद में गई। उस वय में तो कार्य्याकार्य का कुछ भी ज्ञान मुझे न था। इस कारण पशु-पक्षियों के सदृश खाने, पीने और दौड़ने-धूपने में मैंने उसे खो दिया। उसके बाद यौवन आया। उस वय का नाश मैंने प्रणय-कुपित प्रेयसी नारियों को प्रसन्न करने―उन्हें मनाने―पथाने―में कर दिया। अब, इस समय, मैं जरावस्था को प्राप्त हो गया हूँ। शरीर मेरा जीर्ण हो गया है; अङ्ग-प्रत्यङ्ग शिथिल हो गये हैं। मौत दौड़ी चली आ रही है। अतएव, जब तक उसके आक्रमण की आवाज़ मेरे कान तक नहीं पहुँचती तभी तक मेरे रोग का इलाज हो सकता है। आपके पैरों पर पड़े हुए मुझ विवश और विह्वल को उसके आगमन के पहले ही आप बचा लीजिए। दौडिए। देर मत कीजिए।

आसीद्यावदखर्वगर्वकरणग्रामाभिरामाकृति-
स्तावन्मोहतमोहतेन न मया श्वभ्रं पुरः प्रेक्षितम्।
अद्याकस्मिकपातकातरमतिः कं प्रार्थये कं श्रये
किं शन्कोमि करोमि किं कुरु कृपामात्मद्रुहं माहि माम्।

[ १९ ]जब तक मेरी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हुई थी―जब तक वे अपनी स्वाभाविक अवस्था में थीं―तब तक मेरे गर्व का ठिकाना न था। मैं अपने को बड़ा ही अभिरामाकृति―बड़ा ही रूपवान्-समझता था। उस समय अज्ञानरूपी अन्धकार में पड़ जाने से मैं अन्धा हो रहा था, और, अन्धे को आगे की भी चीज़ नहीं सूझती। इस कारण अपनी आँखों के सामने ही विद्यमान ख़न्दक़ मुझे न दिखाई दिया। फल यह हुआ कि मैं उसमें अकस्मात् गिर गया और अब अत्यन्त कातर हुआ रो रहा हूँ। हाय! अब इस समय में किसे पुकारूँ? किसका आसरा करूँ? किससे प्रार्थना करूँ? कुछ भी मुझे नहीं सूझता। भगवन्, अब आप ही मेरा उद्धार करें तो हो सकता है। कृपा कर कीजिए। मुझ आत्मशत्रु―मुझ आत्मद्रोही―को बचा लीजिए।

जात्यन्धः पथि संकटे प्रतिचरन्हस्तावलम्बं विना
यातश्चेदवटे निपत्य विपदं तत्रापराधोऽस्य कः।
धिग्धिङ्मांं सति शास्त्रचक्षुषि सति प्रज्ञाप्रदीपे सति
स्निग्धे स्वामिनि मार्गदर्शिनि शठः श्वभ्रे पतत्येव यः॥

कल्पना कीजिए कि किसी जन्मान्ध मनुष्य को किसी बड़े ही ज़रूरी काम से एक महाबीहड़ मार्ग से जाना पड़ा। अभाग्यवश उसे हाथ का सहारा देकर कोई उस मार्ग से लिवा ले जाने वाला भी न मिला। बिना मार्ग-दर्शक ही के उसे उस रास्ते जाना पड़ा। चलते चलते राह में उसे एक गहरा गर्त या प्रपात मिला। उसी में गिर कर वह मर गया। इस दशा में उस बेचारे का क्या अपराध? क्या उसे कोई दोष दे संकता है? परन्तु मुझ शठ को तो देखिए। मैं अन्धा नहीं। दो स्वाभाविक आँखों के सिवा तीसरी शास्त्ररूपी आँख भी मुझे प्राप्त है। बुद्धि-विवेकरूपी दीपक भी मेरे हाथ में है। आपके सदृश द्यामय स्वामी मेरे मार्गदर्शी भी मौजूद हैं। [ २० ] फिर भी मैं दौड़ कर गंभीर गर्त में जा गिरा हूँ। अतएव मुझ महामूद को धिक्कार! बार बार धिक्कार!

त्राता यत्र न कश्चिदस्ति विषमे तत्र प्रहर्तुं पथि
द्रोग्धारो यदि जाग्रति प्रतिविधिः कस्तत्र शक्यक्रियः।
यत्र त्वं करुणार्णवस्त्रिभुवनत्राणप्रवीणः प्रभु-
स्तत्रापि प्रहरन्ति चेत्परिभवः कस्यैष गविहः॥

मान लीजिए कि किसी को किसी ऐसे विषम मार्ग से जाना है जहाँ वधिकों, चारों या डाकुओं का बड़ा भय है और रक्षा का कोई उपाय नहीं। इस दशा में यदि पथिक लुट जाय या जान से हाथ धो बैठे तो कोई क्या करे? क्योंकि ऐसी आपदाओं का कुछ भी प्रतिकार नहीं। परन्तु करुणा के महासागर और एक ही का नहीं, तीनों भुवनों का परित्राण करने में परम प्रवीण आप जिस पथ के मालिक और रक्षक हों उसी पथ पर गमन करनेवाला पथिक यदि लूट लिया जाय या जान से मार डाला जाय तो इसमें लाघव किसका? इसमें निन्दा किसकी? उस पथिक को नहीं। इस पराभव का उत्तरदाता वह कदापि नहीं। उत्तरदाता तो रक्षक ही समझा जायगा और यह पराभव भी उसी का समझा जायगा।

किं शक्तेन न यस्य पूर्णकरुणापोयूषसिक्तं मनः
किं वा तेन कृपावता परहितं कर्तुं समर्थो न यः।
शक्तिश्चास्ति कृपा च ते यमभयाद्भीतोपि दीनोजनः
प्राप्तो निःशरणःपुरःपरमतःस्वामी स्वयं ज्ञास्यति॥

जिस पुरुष का मन पूर्ण-करुणारूप पीयूप से आर्द्र नहीं उसका शक्तिमान होना बिलकुल ही बेकार है और कृपालु होकर भी जो परार्थ-साधन न कर सका―जो परहित की सिद्धि करने में समर्थ न हो सका―उसकी वह कृपालुता भी बेकार है। आप में तो