सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय/३७/२ शिक्षा विषयक प्रश्न ५

विकिस्रोत से

[  ]

२. शिक्षा‒विषयक प्रश्न - ५[१]

प्रश्न : जबसे आपने हिन्दुस्तानके सार्वजनिक जीवनमें प्रवेश किया है, तभी से नीति-विषयक समस्याओंके उठने पर आपसे निर्णय माँगे जा रहे हैं। लोग आपसे यह जाननेकी अपेक्षा रखते हैं कि अमुक प्रसंगमें अमुक बात उचित है या नहीं। यह वस्तुस्थिति प्रकट करती है कि आपके आन्दोलनका स्वरूप धार्मिक है। क्या आपकी अनुपस्थितिमें ऐसे फैसले बहुमतसे दिये जाना उचित माना जायेगा? और अगर यह उचित न हो तो क्या धर्मविद् लोगोंकी परम्परा खड़ी नहीं करनी पड़ेगी?

उत्तर : मुझसे नीति-विषयक निर्णयोंका माँगा जाना मेरी समझमें सन्तोषकारक स्थिति नहीं है। मेरे किसी भी आन्दोलनका स्वरूप चाहे जैसा भी क्यों न हो, मगर मेरे आन्दोलनोंमें से एक भी ऐसा नहीं है जो धर्म पर आधारित न हो। फिर भी लोग मुझसे हर विषय में प्रश्न करते रहते हैं। इससे मुझे ऐसा जान पड़ता है कि जिन सिद्धान्तोंके अनुसार मैं चलता हूँ, या तो वे समझमें नहीं आते, या लोगोंको उनके औचित्यके बारेमें शंका रहती है या मैं महात्मा कहलाता हूँ और भला आदमी समझा जाता हूँ, इसलिए और चूँकि हमारे लोग श्रद्धालु हैं, और स्वयं विचार करनेका कष्ट नहीं उठाते, इस कारण भी वे मुझसे सवाल पूछते रहते हैं। इससे मेरा 'अहम्' भले ही तुष्ट होता हो, मेरा काम भी भले ही कुछ आगे बढ़ जाता हो, मगर मुझे ऐसा नहीं लगता कि इससे जनताको या पूछनेवाले को बहुत लाभ होता है। बहुत बार मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैं फतवे देना बन्द कर सकूं और मुझे जो काम सूझे या प्राप्त हो जाये उसे चुपचाप करता रह सकूँ तो कितना अच्छा हो। किन्तु तब तो मैं जो अखबार निकालता हूँ, सो भी बन्द कर दिये जाने चाहिए। बहुत-सा पत्र-व्यवहार बन्द कर देना चाहिए । मगर अभीतक इतनी हिम्मत मुझमें नहीं आई है। जब आ जायेगी तब यह हो सकेगा। किन्तु यदि ऐसी हिम्मत नहीं आई तो   [  ]सबके परममित्र यमराज मौतको भेंटके रूपमें भेजकर मेरी अनिच्छासे ही सही फतवोंका यह क्रम बन्द कर देंगे।

मेरी गैरहाजिरी और हाजिरीमें मेरे सिद्धान्तोंको स्वीकार करनेवाले व्यक्तियोंका कोई समुदाय बहुमतसे निर्णय करे तो इसमें मुझे कुछ अनुचित दिखाई नहीं देता। किन्तु व्यक्तिको भाँति ऐसे समुदायोंमें भी धर्मकी भावना होनी चाहिए।

प्रश्न: विद्यापीठमें प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षाकी तीन कक्षाएँ हैं। इन्हींको क्रमानुसार अगर हम गाँवों, शहरों और समाजकी सेवाकी शिक्षाका नाम दें तो यह कहाँ तक उचित होगा?

उत्तर: मुझे तो प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षाके ये अर्थ जरा भी नहीं रुचते। हम यह क्यों चाहें कि गाँवोंके रहनेवाले प्राथमिक शिक्षा लेकर ही सन्तुष्ट हो जायें? उनमें से भी जो लोग माध्यमिक और उच्च शिक्षा लेना चाहें, उन्हें ऐसा करनेका अधिकार है। नगर निवासियोंके बालकोंका काम प्राथमिक शिक्षाके बिना नहीं चल सकता। तीनों प्रकारकी शिक्षाओंका उद्देश्य गाँवोंकी उन्नति होना चाहिए।

प्रश्न: आप संगीतको हमेशा इतना महत्त्व किस उद्देश्यसे देते हैं?

उत्तर: यह दुःखकी बात है कि आज इस देशमें सामान्य तौर पर संगीतकी अवगणना होती है। मुझे तो संगीतके बिना सारी शिक्षा ही अधूरी लगती है। संगीत व्यक्तिगत और सामाजिक जीवनको मधुर बनाता है। श्वास पर काबू पाने के लिए जैसे प्राणायामकी जरूरत है, उसी तरह कण्ठके विकासके लिए संगीतकी जरूरत है। यदि लोगोंमें सामाजिक संगीतका पर्याप्त प्रचार हो, तो सभाओंमें होनेवाले कोलाहलको शान्त करनेमें उससे बहुत मदद मिल सकती है। संगीत क्रोधको शान्त करता है और उसका सदुपयोग ईश्वरका दर्शन कराने में बहुत सहायक होता है। संगीतका अर्थ तान-पलटोंके साथ राग या नाटकके गीत गाना ही नहीं है। मैंने ऊपर संगीतका सामान्य अर्थ बताया है; उसका गहरा अर्थ तो यह है कि हमारा सारा जीवन संगीतमय, सुरीला होना चाहिए। सत्यादि गुणोंकी आराधना किये बिना जीवन ऐसा बन ही नहीं सकता। जीवनको संगीतमय बनानेका अर्थ है, उसे ईश्वरके साथ एकतार करना। जिसने राग-द्वेषका दमन नहीं किया है, जिसने सेवाके रसको नहीं चखा है, वह इस दिव्य संगीतको पहचानता ही नहीं है। जिस संगीतकी शिक्षा में इस गूढ़ अर्थका समावेश नहीं है, मेरे निकट उस संगीतका मूल्य बहुत ही कम है या है ही नहीं।

प्रश्न: चित्रकलाका तात्पर्य है चित्रकारके हृदय में उठनेवाली भावनाकी लहरोंको काव्यमय रेखाओं और रंगों द्वारा व्यक्त करना। अगर इस नयी व्याख्याको स्वीकार कर लिया जाये तो आप क्या उक्त चित्रकलाको राष्ट्रीय शिक्षणमें सभी जगह अनिवार्य स्थान देंगे?

उत्तर : मैंने कभी चित्रकलाका विरोध नहीं किया है। किन्तु मैंने चित्रकलाके नामपर प्रचलित मनमानीकी अवगणना हमेशा की है। मुझे इसमें शंका है कि प्रश्नमें दी गई व्याख्याके अनुसार चित्रकला सभीको सिखाई जा सकती है। संगीत और चित्र[  ] कलामें एक बहुत बड़ा भेद यह है कि चित्रकला कोई व्यक्तिविशेष ही सीख सकता है, जबकि संगीत सभीको सीखना चाहिए और यह हो सकता है। चित्रकलाके अन्तर्गत सीधी रेखाएँ खींचने, स्थावर-जंगम वस्तुओंके नमूने उतारने की कला सबको सिखलाई जा सकती है। उसकी आवश्यकता है और मैं बहुत चाहता हूँ कि हरएक बालकको अक्षर कला सिखलानेके पहले ही इस हदतक चित्रकला सिखलाई जाये।

प्रश्न: व्याकरण, चक्रवृद्धि ब्याज, उच्च भूमिति वगैरह जिन विषयोंके आगे चलकर भूल जानेकी ही अधिक सम्भावना है, कुछ लोग उन्हें राष्ट्रीय शिक्षामें न रखने की सलाह देते हैं। आप भी इससे सहमत होंगे। अगर बात ऐसी हो तो फिर उर्दूको इसी कोटिमें क्यों न रखें? हिन्दू और मुसलमान, जब एक-दूसरेसे परिचय करनेको उत्सुक होंगे, और जब उन्हें एक-दूसरेकी संस्कृतिको समझनेकी उत्कंठा होगी, तभी संस्कृत या उर्दूका ज्ञान काममें आयेगा या स्थायी होगा। आजका अनुभव भी ऐसा है कि विद्यार्थी थोड़ी-सी उर्दू सीखते हैं और फिर भूल जाते हैं। उर्दूके जरिये व्यक्त होनेवाली संस्कृतिके प्रति जब आदर और उसे सीखनेका भाव होगा तभी उर्दू के ज्ञानका इस्तेमाल होगा और तभी वह बढ़ेगा। ऐसा होने तक तो वह गणेश-पूजाके समान धार्मिक विधि ही बना रहेगा।

उत्तर: व्याकरण, चक्रवृद्धि ब्याज और उच्च भूमिति —— इन तीनोंको एक साथ क्यों रखा गया है, यह मैं नहीं समझा। मैं यह बात मानता आया हूँ कि भाषाके ज्ञानके लिए व्याकरण अत्यावश्यक है और व्याकरण तथा उच्च भूमिति बहुत दिलचस्प विषय हैं। दोनों बुद्धिके निर्दोष विनोद हैं। इसलिए उच्च शिक्षा लेनेवाले और भाषाशास्त्र जाननेवाले के लिए इन दोनों विषयोंको में राष्ट्रीय शिक्षामें स्थान दूंगा। जिन्हें हिसाब वगैरह करना पड़ता है, उनका तो चक्रवृद्धि ब्याजके बिना काम चल ही नहीं सकता। इसलिए प्रश्नमें सुझाये गये तीनों विषयोंका अपना-अपना स्थान राष्ट्रीय शिक्षामें है ही। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शिक्षा के लिए कुछ विषय तो संसार-भरमें सामान्य होने चाहिए और वे हैं भी। आज सरकारी और राष्ट्रीय शिक्षा, इस तरहके दो भेद करने पड़ते हैं, क्योंकि सरकारी शिक्षाका झुकाव राष्ट्रके विकासके लिए विघातक है। किन्तु सरकारी शाला में बहुत कुछ ऐसा है जो हमारी शालामें हो सकता है और होना चाहिए। ऐसा होने पर भी इन सरकारी शालाओंका वातावरण पराधीनताका पोषक है और संकटके समय उनका उपयोग राष्ट्रको दबानेमें होता है। इसलिए वे सर्वथा त्याज्य हैं। और यह तो हम देख ही चुके हैं कि उनमें कुछ शिक्षा बिलकुल अनावश्यक है और कुछ बोझ-रूप है; किन्तु मैं विषयसे बाहर चला गया। इस प्रश्नके पीछे क्या है, उसे मैंने शायद ठीकसे न समझा हो, इस भयसे इतना कहना जरूरी लगा।

इन तीनों विषयोंके साथ उर्दूकी तुलना नहीं की जा सकती। हिन्दुओं और मुसलमानोंको जब एक होना होगा, तब वे एक हो लेंगे; किन्तु राष्ट्रीय शालाओं में तो हमें एक-दूसरेके प्रति प्रेमका ही पोषण करना चाहिए। ऐसा करनेके लिए एक-दूसरेके धर्मका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। विद्यार्थी अगर थोड़ी-सी उर्दू सीख[  ] कर भूल जाते हों तो यह बेगार टालना हुआ। मगर गुजरात विद्यापीठमें यह तो हिन्दीके लिए भी कहा जायेगा। हिन्दी अथवा उर्दूके बारेमें दिलचस्पी उत्पन्न करनेका उपाय तो परमात्मा जाने, मगर मुझे इसमें जरा भी शंका नहीं है कि राष्ट्रकी उन्नतिके लिए यह ज्ञान अत्यावश्यक है।

प्रश्न: विद्यार्थियोंकी स्वतन्त्रता पूर्णतः सुरक्षित रहे और उनके स्वाभाविक रुझानमें किसी तरहकी रुकावट न आये, इसलिए शिक्षकोंको तटस्थ, निराग्रही रहना चाहिए। विद्यार्थियोंसे किसी तरहके नियम, टेव, सिद्धान्त या सद्गुणका आग्रह न रखते हुए, और अपनी हृदतक उनको निभानेकी जिम्मेदारी मानते हुए और स्वयं तटस्थ रहकर शिक्षा देनेका आदर्श कई जगह रूढ़ होता जाता है। आप इस आदर्शको कहाँ तक स्वीकार करते हैं?

उत्तर : ऊपरके प्रश्नमें निहित आदर्शका समर्थन और विरोध दोनों सम्भव हैं। अगर मूल बातकी रक्षा न हो तो प्रश्नमें निहित बातका विरोध ही किया जाना चाहिए और अगर मूल बातकी रक्षा हो सकती हो तो विद्यार्थियोंको पूरी तरह स्वतन्त्र छोड़ा जा सकता है और शिक्षक इतना तटस्थ रह सकता है कि वह वर्गमें जाकर सो जाये। विद्यार्थियोंकी स्वतंत्रताकी रक्षा करनेवाला शिक्षक विद्यार्थीके जीवनमें घुलमिल जानेकी शर्तपर जैसा चाहे करे। मैं तो शिक्षकसे अखाके शब्दोंमें यह कहूँगा:

सूतर आवे त्यम तुं रहे, ज्यम त्यम करीने हरीने लहे।

आदर्श शिक्षक के पास इसके सिवाय न तो कोई दूसरा आदर्श था और न होना चाहिए।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १-७-१९२८

 

  1. इससे पहले के प्रश्नोत्तरोंके लिए देखिए खण्ड ३६, पृष्ठ ३८३-८४, ४०५-६, ४४२-४४ और ४७८-८१।