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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय/३७/७ सन्देश: भड़ौच जिला परिषद् को

विकिस्रोत से
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
मोहनदास करमचंद गाँधी

दिल्ली: प्रकाशन विभाग, दिल्ली, पृष्ठ ९ से – १५ तक

 

७. सन्देश: भड़ौच जिला परिषद्को[]

[१ जुलाई, १९२८]

बारडोलीकी सहायता करनेवाले लोग वास्तव में स्वयं अपनी ही सहायता करेंगे।

[अंग्रेजी से]
बॉम्बे क्रॉनिकल, ३-७-१९२८
 


८. पत्र: मणिलाल और सुशीला गांधीको

साबरमती आश्रम
१ जुलाई, १९२८

चि॰ मणिलाल और सुशीला,

तुम्हारे पत्र मिले। सुशीला यह मानती है कि उसमें पत्र लिखनेकी योग्यता नहीं है। जो इस प्रकार अपनी अयोग्यताको सचमुच स्वीकार करता हो उसे योग्य बननेका भरसक प्रयत्न करना चाहिए। जिस हफ्ते तुमने यहाँके पावनेके बारेमें लिखा लगता है, उसी हफ्ते यहाँसे मेरी फटकार भी गई होगी।[] मैं तो जो लिखना चाहता था, वह लिख चुका था। मैं चाहता हूँ कि तुम सावधान रहो। आखिर सामान्य व्यक्ति भी कुछ नियमोंका पालन तो करता ही है।

यहाँ सभी लोग स्वस्थ हैं।

यह पत्र मैंने सुबह चार बजे लिखवाया है।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी॰ एन॰ ४७४०) की फोटो-नकलसे।

 

९. पत्र: गोवर्धनभाई आई॰ पटेलको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१ जुलाई, १९२८

प्रिय गोवर्धनभाई,

आपका पत्र[] मिला। मुझे तो नहीं लगता कि मैंने सचमुच कोई नई शर्त जोड़ी थी। मैं आपको बता ही चुका हूँ कि आपने अपने पत्र में जो कुछ लिखा था उसीको मेरी भाषामें फिरसे लिख दिया जा सकता है। यदि दाताओंकी ऐसी ही इच्छा है कि निरीक्षण-समितिको निर्बाध अधिकार प्राप्त[] हों तो मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत गोवर्धनभाई आई॰ पटेल
लालावासा स्ट्रीट, साँकरी शेरी
अहमदाबाद

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४४६) की माइक्रोफिल्मसे।

 


१०. पत्र: आर॰ एम॰ देशमुखको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१ जुलाई, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका २३ जूनका पत्र मिला।

आपका सुझाव[] मुझे व्यवहार्य नहीं लगता। खादी-कार्यकर्त्ताओंने तो अनुभव से यही जाना है कि जबतक हाथ-कताईका संगठन कुशल लोग नहीं करें, तबतक वह सफल नहीं हो सकती। संघको जो भी सूत दिया जाये, उसे वह यों ही स्वीकार   नहीं कर लेगा। वह तो केवल ऐसा हाथ-कता सूत ही ले सकता है जो जाँच करने पर ठीक पाया गया हो, जो काफी समान और निर्देशके अनुसार गुंडियोंमें लपेटा गया हो। और मैं नहीं समझता कि आप संघको ऐसा सूत दे सकेंगे जो इन शर्तोंको पूरा कर सके। इसके अलावा, यदि आप छुटपुट प्रयत्नों और प्रचारके बल पर हाथ-कताईको लोक-प्रिय बनानेकी आशा रखते हैं तो वह आशा विफल ही होगी। इसलिए मेरा सुझाव यह है कि आप उन परिस्थितियोंका अध्ययन करें जिनमें मैसूरमें हाथ-कताईका संगठन किया जा रहा है और फिर मैसूरके ढंग पर ही हाथ-कताईके कामको आगे बढ़ाइए। उस संगठनकी मुख्य विशेषता यह है कि कोई एक जिला संघको हाथ-कताईके संगठनके निमित्त सौंप दिया गया है। संगठनका खर्च मैसूर राज्य उठाता है। अगर आप संघके सामने ऐसा कोई प्रस्ताव रखेंगे तो वह उसे स्वीकार करेगा या नहीं, इस सवाल पर अभी मैंने विचार नहीं किया है और न तबतक विचार करनेका कोई सवाल उठता है जबतक आप कोई ठोस प्रस्ताव लेकर आगे न आयें।

हृदयसे आपका,

माननीय आर॰ एम॰ देशमुख
कृषि-मन्त्री, मध्य प्रान्त
नागपुर

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३६३१-ए) की माइक्रोफिल्मसे।

 


११. पत्र: मुल्कराजको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१ जुलाई, १९२८

प्रिय लाला मुल्कराज,

आपके दो पत्र मिले, जिनमें से एक पण्डित मालवीयजी को लिखे उस पत्रकी नकल है जिसमें आपने सिखों और समितिके[] बीच पैदा हुई गलतफहमीकी[] चर्चा की है। मेरी सलाह यह है कि आप शीघ्र ही अन्तिम रूपसे इसका समाधान कर डालिए। और मैं नहीं समझता कि केवल बाड़ा[] लगानेसे ही बात बन जायेगी,   यद्यपि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि बाड़ा लगाना भी जरूरी है। सिखों और समितिके बीच इस मामलेका कोई उचित और संतोषजनक निबटारा हो जाना चाहिए।

और दूसरे पत्रके सम्बन्धमें, मैं स्मारक-पटल पर अंकित करनेके लिए अभिलेखका मसविदा[] साथमें भेज रहा हूँ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत लाला मुल्क राज
मन्त्री, जलियाँवाला बाग-स्मारक कोष
अमृतसर

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १५३६९) की माइक्रोफिल्मसे।

 


१२. पत्र: शाह मुहम्मद कासिमको[१०]

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१ जुलाई, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। जबतक मैं आपके पत्र में लिखी बातकी सचाईकी छान-बीन[११] न कर लूं तबतक उसके बारेमें 'यंग इंडिया' में कुछ नहीं लिख सकता। अभी मैं छान-बीन कर रहा हूँ और यदि मुझे लगा कि आपका पत्र प्रकाशित करने या उसके सम्बन्ध में लिखनेसे किसी भी तरहसे कोई लाभ हो सकता है तो मैं बेशक उसके बारेमें लिखूंगा।[१२]

हृदयसे आपका,

शाह मुहम्मद कासिम साहब
मार्फत–सैयद मुहम्मद हुसैन
डाकघर–नरहट
गया

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १२३९५ ए) की माइक्रोफिल्मसे।

 

१३. पत्र: जोधपुर राज्यके मन्त्रीको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१ जुलाई, १९२८

प्रिय महोदय,

संलग्न पत्र[१३] मुझे प्रकाशनार्थ भेजा गया है। लेकिन राज्यकी ओरसे इसका कोई उत्तर पाये बिना मैं इसे नहीं छापना चाहूँगा। यदि आप एक छोटा-सा उत्तर[१४] भेजनेकी कृपा करें तो आभारी होऊँगा।

इस पत्रकी प्राप्ति सूचित करते समय संलग्न पत्र लौटा देनेकी कृपा करें।

हृदयसे आपका,

संलग्न: १० सफे

अंग्रेजी (एस० एन० १२३९६) की माइक्रोफिल्मसे ।

१४. तार : जमनादास गांधोको

साबरमती
२ जुलाई, १९२८

जमनादास गांधी
मिडल स्कूलके सामने
राजकोट

दो दिनोंके लिए शीघ्र आ जाओ।

बापू

अंग्रेजी (सी॰ डब्ल्यू॰ ८६९८) से।
सौजन्य: नारणदास गांधी
 

१५. पत्र: बेचर परमारको

२ जुलाई, १९२८

भाईश्री बेचर परमार,

आप जिन दोषोंको नाईके धन्धेसे जुड़ा हुआ मानते हैं वे दोष तो शायद सभी धन्धोंमें हैं। किन्तु यदि सभी अपने-अपने धन्धोंमें लगकर अपनी रोजी-रोटी कमायें तो कमसे-कम संघर्ष होगा।

मोहनदास गांधीके वन्देमातरम्

गुजराती (जी॰ एन॰ ५५६७) की फोटो-नकलसे।

१६. पत्र: रामनारायण पाठकको

२ जुलाई, १९२८

भाई रामनारायण,

जरा फुरसत मिलने पर तुम्हें पत्र लिखने के विचारसे मैंने तुम्हारा १८ अप्रैलका पत्र अब तक सँभालकर रख छोड़ा था। तुम्हारे विद्यापीठ[१५] छोड़ देनेसे मुझे दुःख तो अवश्य हुआ। हालाँकि तुमने अपना प्रत्यक्ष सम्बन्ध तोड़ लिया है, फिर भी मैं यही मानता हूँ कि जिस संस्थाकी तुमने सेवा की है, भविष्य में भी यथाशक्ति उसकी सहायता करते रहोगे। आशा है, तुम स्वस्थ होगे।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी॰ एन॰ ६११०) की फोटो-नकलसे।

 

१७. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

२ जुलाई, १९२८

 
भाई घनश्यामदासजी,

आपका पत्र और रु० २७०० की हुंडी मीले हैं। मैं चीनके साथ संबंध तो रखता ही हुं परंतु उन लोगोंको तार भेजनेको दिल नहीं चाहता। उसमें कुछ अभिमानका अंश आता है। यदि आयु है तो चीन जानेका इरादा अवश्य है। कुछ शांति होनेके बाद वह लोग मुझको बुलाना चाहते हैं।

आप सब भाईयोंके पाससे आर्थिक मदद मांगने में मुझको हमेशा संकोच रहता है। क्योंकि जो कुछ मांगता हुं आप मुझे दे देते हैं। दक्षिणामूर्तिके बारेमें मैं समजा हुं। बात यह है कि मुलकमें अच्छे काम तो बहोत हैं परंतु दान देनेवाले कुछ कम हैं। अच्छा काम रुकता नहिं है परंतु नये देनेवाले उत्पन्न नहिं होते हैं। नये काम तो हमेशा बढ़ते जाते हैं।

ठीक कहते हो नियमावलीकी किम्मत केवल नियमोंके पालन करनेवालों पर निर्भर है। रुपये आस्ट्रीयाके मित्रोंको[१६] भेज दीये हैं।

आपका,
मोहनदास

मूल पत्रकी नकल (सी॰ डब्ल्यू॰ ६१५८) से।
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला

 

  1. परिषद् १ जुलाई को हुई थी और इसको अध्यक्षता के॰ एफ॰ नरीमनने की थी। उपस्थित लोगोंमें वल्लभभाई पटेल, जमनालाल बजाज, अब्बास तैयबजी और एच॰ जे॰ अमीन भी शामिल थे। रिपोर्ट में बताया गया था कि "परिषद्ने कई प्रस्ताव पास किये, जिनमें बारडोलीकी जनताके पक्षका समर्थन किया गया; एक ऐसे मामले में, जो उनकी दृष्टिमें सिद्धान्तका मामला था, डटकर लड़नेके लिए उस ताल्लुकेके लोगोंको बधाई दी गई; भडौचके लोगोंसे सरकार द्वारा जब्त की गई जमीन न खरीदनेके लिए अनुरोध किया गया, बारडोलीके मामलेको लेकर बम्बई विधान परिषद्की सदस्यता छोड़नेवाले पार्षदोंको बधाई दी गई और माननीय दीवान बहादुर हरिलाल देसाई, माननीय श्री देहलवी, माननीय सर चुन्नीलाल मेहता तथा केरवाड़ाके ठाकुर साहबसे त्यागपत्र देनेका अनुरोध किया गया।"
  2. यह पत्र १९ जूनको लिखा गया था; देखिए खण्ड ३६, पृष्ठ ४५३।
  3. २९ जून का पत्र, यह गांधीजी के २७ जूनके पत्र के उत्तरमें लिखा गया था; देखिए खण्ड ३६, पृष्ठ ४८९-९०।
  4. गोवर्धनभाईने लिखा था: "निरीक्षण समितिपर ऐसी कोई बाध्यता नहीं होगी कि वह अपने सुझाव आदि पहले दाताओंके सामने रखकर उनपर उन लोगोंकी सहमति ले ले और तभी मजदूर संघसे उन्हें स्वीकार करने को कहे..." (एस॰ एन॰ १३४४२)
  5. हाथ कते सूतको बेचनेकी कठिनाई समझाते हुए देशमुखने अपने पत्र (एस॰ एन॰ १३६२७) में कहा था कि सहकारिता विभाग, मध्य प्रान्तमें हाथ कताईको एक सहायक धन्धा बना सके, इसके लिए केन्द्रीय बैंकके बजाय अखिल भारतीय चरखा संघको सहकारी समितियोंके सदस्यों द्वारा काते गये तमाम सूतको खरीद लेनेकी जिम्मेदारी ले लेनी चाहिए।
  6. जलियांवाला बाग-स्मारक कोष समिति।
  7. सीमा रेखाके बारेमें।
  8. जलियांवाला बाग-स्मारक स्थलके चारों ओर पहले बाँसकी जाफरी लगा दो गई थी, किन्तु कुछ एक अकालियों तथा अन्य लोगोंने उसे जबरदस्ती हटा दिया। अब वहाँ लोहेका बाड़ा लगाने की बात चल रही थी (एस॰ एन॰ १५३६७)।
  9. देखिए "जलियाँवाला बाग-स्मारकके लिए अभिलेखका मसविदा", १-७-१९२८।
  10. शाह मुहम्मद कासिमके ९ जून, १९२८ के पत्रके उत्तरमें; शाह मुहम्मद कासिमने अपने पत्र में शिकायत करते हुए कहा था कि किस प्रकार ईदके अवसरपर मुसलमानोंको बकरोंको कुरबानीसे रोका गया।
  11. देखिए अगला शीर्षक।
  12. देखिए "पत्र: शाह मुहम्मद कासिमको", ११-७-१९२८।
  13. देखिए पिछले पृष्ठकी पा॰ टि॰ २।
  14. अपने ५ जुलाई, १९२८ के पत्रमें मन्त्रीने लिखा था: "राज्यके स्थायी आदेशको भंग करके दो मुसलमान कुरबानीके एक बकरेको एक खुली सड़कसे होकर लिये जा रहे थे। उस सड़कके आसपास रूढ़िवादी हिन्दुओंकी बस्ती है। इस राज्यके हिन्दू बहुत समयसे ऐसा करते आ रहे हैं कि जब-कभी उनके इलाकेसे कुरबानीके किसी बकरेको खुले आम ले जाया जाता है, वे उसे रोक रखते हैं और उसके कान में लोहेका छल्ला ढालकर उसे अमर करार दे देते हैं और फिर जीवन-भर उसे खिलाते-पिलाते हैं। उस बकरेको भी हिन्दुओंने उपर्युक्त परिस्थितियोंमें ही रोका और उसे उक्त रीतिसे अमर करार देकर पुलिसके संरक्षण में सौंप दिया, क्योंकि मुसलमान लोग उनके इस धार्मिक व्यवहारसे बहुत उत्तेजित हो गये थे। पुलिसने बकरेको सिटी पुलिस स्टेशन में रखा, लेकिन कोई ३,००० मुसलमानोंने स्टेशनको घेर लिया और मार-काटका डर दिखा बकरेको लौटा देनेको कहा। लाठियों और तलवारोंसे लैस इन आक्रमणकारियोंने पुलिस स्टेशनकी दीवारोंको चारों ओरसे बिलकुल घेर लिया और वे पुलिसपर धावा ही बोलनेवाले थे कि उन्हें भगाने के लिए सेनाको बुला लिया गया। कोई भी हताहत नहीं हुआ।" (एस॰ एन॰ १२३९७-ए)।
  15. गुजरात विद्यापीठ।
  16. फ्रेडरिक स्टैंडेनेथ और उनकी पत्नी।