सर्वोदय

विकिस्रोत से

[ प्रकाशक ] 

प्रकाशक—
मार्तण्ड उपाध्याय, मन्त्री,
सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली

 




संस्करण
मई,१९३० : ५०००
अप्रैल,१९३८ : २०००
जून,१९३९ : ३०००
मूल्य
एक आना





 

मुद्रक—
हरनामदास गुप्ता,
भारत प्रिंटिंग प्रेस,

नया बाजार, दिल्ली

[ विषय-सूची ] 
विषय-सूची
प्रस्तावना ...
१—सचाई की जड़ ...
२—दौलत की नसें ... ३५
३—अदल इन्साफ़ ... ४५
४—सत्य क्या है? ... ५७
५—उपसंहार ... ६३
[ मुखपृष्ठ ] 
 

सर्वोदय

 
[ प्रस्तावना ] 

प्रस्तावना

पश्चिम के देशो में साधारणतः यह माना जाता है कि बहुसंख्यक लोगों का सुख—उनका अभ्युदय—बढ़ाना मनुष्य का कर्तव्य है। सुख का अर्थ केवल शारीरिक सुख, रुपये-पैसे का सुख किया जाता है। ऐसा सुख प्राप्त करने में नीति के नियम भंग होते हों तो इसकी ज्यादा परवाह नहीं की जाती। इसी तरह बहुसंख्यक लोगों को सुख देने का उद्देश्य रखने के कारण पश्चिम के लोग थोड़ों को दुख पहुँचा कर भी बहुतों को सुख दिलाने में कोई बुराई नहीं मानते। इसका फल हम पश्चिम के सभी देशों में देख रहे हैं।

किन्तु पश्चिम के कितने ही विचारवानों का [  ]कहना है कि बहुसंख्यक मनुष्यों के शारीरिक और आर्थिक सुख के लिए यत्न करना ही ईश्वर का नियम नहीं है, और केवल इतने ही के लिए यत्न करना नैतिक नियमों को भंग करना ईश्वर के नियम के विरुद्ध चलना है। ऐसे लोगो में स्वर्गीय जान रस्किन मुख्य थे। वह अँग्रेज थे और बड़े विद्वान थे। उन्होंने कला, चित्रकारी आदि विषयों पर अनेक उत्तम पुस्तकें लिखी हैं। नीति के विषयों पर भी उन्होंने बहुत-कुछ लिखा है। उसमें से एक छोटी-सी पुस्तक "अन्टु दिस लास्ट" है। इसे उन्होंने अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना माना है। जहाँ-जहाँ अँग्रेजी बोली जाती है वहाँ इस पुस्तक का बहुत प्रचार है। इसमें ऊपर बताये विचारों का जोरों से खण्डन किया गया है और दिखाया गया है कि नैतिक नियमों के पालन में ही मनुष्य जाति का कल्याण है।

आजकल भारत में हम पश्चिम वालों की बहुत नकल कर रहे हैं। कितनी ही बातों में हम इसकी [  ]जरूरत भी समझते हैं; पर इसमें सन्देह नहीं कि पश्चिम की बहुत सी रीतियाँ ख़राब हैं। और यह तो सभी स्वीकार करेंगे कि जो ख़राब है उससे दूर रहना उचित है।

दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की अवस्था बहुत की करुणाजनक है। हम धन के लिए विदेश जाते हैं। उसकी धुन में नीति को, ईश्वर को, भूल जाते हैं। स्वार्थ में सन जाते हैं। उसका नतीजा यह होता है कि हमें विदेश में रहने से लाभ के बदले उलटे बहुत हानि होती है, अथवा विदेश यात्रा का पूरा-पूरा लाभ नहीं मिलता। सभी धर्मों में नीति का अंश तो रहता ही है, पर साधारण बुद्धि में देखा जाय तो भी नीति का पालन आवश्यक है। जान रस्किन ने सिद्ध किया है कि सुख इसी में है। उन्होंने पश्चिम वालों की आँखें खोल दी हैं और आज यूरोप, अमेरिका के भी कितने ही लोग उनकी शिक्षा के अनुसार चलते हैं। भारत की जनता भी उनके [  ]विचारो से लाभ उठा सके, इस उद्देश्य से हमने उक्त पुस्तक का इस ढ़ंग से साराश देने का विचार किया है जिसमे अंग्रेजी न जानने वाले भी उसे समझ ले।

सुकरात ने, मनुष्य को क्या करना उचित है इसे संक्षेप मे बताया है। कह सकते है कि उसने जो-कुछ कहा है, रस्किन ने उसीका विस्तार कर दिया है—रस्किन के विचार सुकरात के ही विचारो का विस्तृत रूप है। सुकरात के विचारो के अनुसार चलने की इच्छा रखनेवालो को भिन्न-भिन्न व्यवसायो मे किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, रस्किन ने इसे बहुत अच्छी तरह बता दिया है। हम उनकी पुस्तक का सार दे रहे है, उलथा नही कर रहे है। उलथा कर देने से, सम्भव है, बाइबिल आदि ग्रन्थो के कितने हो दृष्टान्त पाठक न समझ पाये। इसीसे हम रस्किन की रचना का सार मात्र दे रहे है। हमने पुस्तक के नाम का भी [  ]उलया नहीं किया है; क्योकि उसका मतलब भी वही पा सकते है जिन्होंने अँग्रेजी में बाइबिल पढ़ी है; परन्तु उसके लिखे जाने का उद्देश्य सबका कल्याण, सबका (केवल अधिकांश का नहीं) उदय, उत्कर्ष होने के कारण हमने इस का नाम "सर्वोदय" रक्खा है।

मो०क०गाँधी

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