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सर्वोदय/१-सचाई की जड़

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सर्वोदय
मोहनदास करमचंद गाँधी

पृष्ठ ६ से – ३५ तक

 

 

सचाई की जड़

मनुष्य कितनी ही भूले करता है, पर मनुष्यो की पारस्परिक भावना— स्नेह, सहानुभूति के प्रभाव, का विचार किये बिना उन्हे एक प्रकार की मशीन मानकर उनके व्यवहार के नियम गढ़ने से बढ़कर कोई दूसरी भूल नही दिखाई देती। ऐसी भूल हमारे लिए लज्जाजनक कही जा सकती है। जैसे दूसरी भूलों में ऊपर-ऊपर से देखने से कुछ सचाई का आभास दिखाई देता है वैसे हो लौकिक नियमो के विषय में भी दिखाई देता है। लौकिक नियम बनाने वाले कहते है कि पारस्परिक स्नेह सहानुभूति तो एक आकस्मिक वस्तु हैं, और इस प्रकार की भावना मनुष्य की साधारण प्रकृति की गति मे बाधा पहुॅचाने वाली मानी जानी चाहिए; परन्तु लोभ और आगे बढ़ने की इच्चा सदा बनी रहने वाली वृत्तियां हैं। इसलिए आकस्मिक वस्तु से दूर रखने और मनुष्य को पैसा बटोरने की मशीन मानते हुए केवल इसी बात पर विचार करना चाहिए कि किस प्रकार के श्रम और किस तरह के लेन-देन के रोजगार से आदमी अधिक-से-अधिक धन एकत्र कर सकता है। इस तरह के विचारों के आधार पर व्यवहार की नीति निश्चित कर लेने के बाद चाहे जितनी पारस्परिक स्नेह-सहानुभूति से काम लेते हुए लोक-व्यवहार चलाया जाय।

यदि पारस्परिक स्नेह-सहानुभूति का बल लेन-देन के नियम जैसा ही होता तो ऊपर की दलील ठीक कही जा सकती थी। मनुष्य की भावना उसके अन्तर का बल है, लेन-देन का क़ायदा एक सांसारिक नियम है। अर्थात् दोनों एक प्रकार, एक वर्ग के नहीं है। यदि एक वस्तु किसी ओर जा रही हो और उस पर एक ओर से स्थायी-शक्ति लग रही हो और दूसरी ओर से आकस्मिक शक्ति तो हम पहले स्थायी-शक्ति का अन्दाजा लगायेगे, बाद को आकस्मिक का। दोनो का अन्दाजा मिल जाने पर हम उस वस्तु की गति का निश्चय कर सकेगे। हम ऐसा इसलिए कर सकेगे कि आकस्मिक और स्थायी दोनो शक्तियाॅ एक प्रकर की है, परन्तु मानव-व्यवहार मे लेन-देन के स्थायी नियम की शक्ति और पारस्परिक भावना रूपी आत्मिक शक्ति दोनो भिन्न-भिन्न प्रकार की है। भावना का असर दूसरे ही प्रकार का, दूसरी ही तरह से पडता है, जिससे मनुष्य का रूप ही बदल जाता है। इसलिए वस्तु-विशेष की गति पर पडने वाले भिन्न-भिन्न शक्तियो के असर का हिसाब जिस तरह हम साधारण जोड बाकी के नियम से लगाते है उस तरह भावना के प्रभाव का हिसाब नही लगा सकते। मनुष्य की भावना के प्रभाव की जांच-पड़ताल करने में लेन-देन ख़रीद-बिक्री या मांग और तैयारी के नियम का ज्ञान कुछ काम नहीं आता।

लौकिक शास्त्र के नियम गलत हैं, ऐसा कहने का कोई कारण नहीं। यदि व्यायाम-शिक्षक यह मान ले कि मनुष्य के शरीर में केवल मांस ही है, अस्थि-पञ्जर नहीं है और फिर नियम बनाये तो उसके नियम ठीक भले ही हों; पर वह अस्थि-पञ्जर वाले मनुष्य के लिए लागू नहीं हो सकते। उसी तरह लौकिक शास्त्र के नियम ठीक होने पर भी पारस्परिक भावना से बँधे हुए मनुष्य के लिए नहीं लागू हो सकते। यदि कोई व्यायाम कला विशारद कहे कि मनुष्य का मांस अलग कर उसके गेंद बनाये जा सकते हैं, उसे खींचकर उसकी डोरी बना सकते हैं और फिर यह भी कहे कि उस मांस में पुनः अस्थि-पञ्जर घुसा देने में क्या कठिनाई है, तो निःसन्देह हम उसे पागल कहेंगे, क्योंकि अस्थि-पञ्जर से मांस को अलग कर व्यायाम के नियम नहीं बनाये जा सकते। इसी तरह यदि मनुष्य की भावना की उपेक्षा करके लौकिक शास्त्र के नियम बनाये जायँ तो वे उसके लिए बेकार हैं। फिर भी वर्तमान लौकिक व्यवहार के नियमों के रचयिता उक्त व्यायाम शिक्षक के ही ढंग पर चलते हैं। उनके हिसाब से मनुष्य, उसका शरीर केवल कल है और इसी धारणा के अनुसार वह नियम बनाते हैं। वे जानते हैं कि उसमें जीव है, फिर भी वे उसका विचार नहीं करते। इस प्रकार के नियम मनुष्य पर जिसमें जीव—रूह, आत्मा की प्रधानता है—कैसे लागू हो सकता है?

अर्थ-शास्त्र कोई शास्त्र नहीं है। जब-जब हड़तालें होती हैं तब-तब हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि वह बेकार है। उस वक्त मालिक कुछ और सोचते हैं और नौकर कुछ और। उस समय हम लेन-देन का एक भी नियम लागू नहीं कर सकते। लोग यह दिखाने के लिए खूब सिरपच्ची करते है कि नौकर और मालिक दोनों का स्वार्थ एक ही ओर होता है; परन्तु इस विषय में वह कुछ नहीं समझते। सच तो यह है कि एक-दूसरे का सांसारिक स्वार्थ एक न होने पर भी एक-दूसरे का विरोधी होना या विरोधी बने रहना ज़रूरी नहीं है। घर में रोटी के लाले पड़े हैं। घर में माता और उसके बच्चे हैं। दोनों को भूख लगी है। खाने में दोनों के—माता और बच्चे के—स्वार्थ परस्पर विरोधी हैं। माता खाती है तो बच्चे भूखों मरते हैं और बच्चे खाते हैं तो माँ भूखी रह जाती है। फिर भी माता और बच्चों में कोई विरोध नहीं है। माता अधिक बलवती है तो इस कारण वह रोटी के टुकड़े को ख़ुद नहीं खा डालती। ठीक यही बात मनुष्य के परस्पर के सम्बन्ध के विषय में भी समझनी चाहिए।

थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं है। हमें पशुओं की तरह अपने-अपने स्वार्थ के लिए लड़ना ही चाहिए। तब भी बात नियम रूप में नहीं कही जा सकती कि मालिक और नौकर के बीच सदा ही मत-भेद रहना या न रहना चाहिए। अवस्था के अनुसार इस भाव में परिवर्तन हुआ करता है। जैसे अच्छा काम होने और पूरा दाम मिलने में तो दोनों का स्वार्थ है, परन्तु नफे के बटवारे की दृष्टि से देखने पर यह हो सकता है कि जहाँ एक का लाभ हो वहाँ दूसरे की हानि हो। नौकर को इतनी कम तनख्वाह देने में कि वह सुस्त और निरुत्साही रहे, मालिक का स्वार्थ नहीं सधता। इसी तरह कारखाना भली-भाँति न चल सकता हो तो भी ऊँची तनख्वाह मांगना नौकर के स्वार्थ का भी साधक नहीं है। जब मालिक के पास अपनी मशीन की मरम्मत कराने को भी पैसे न हों तब नौकर का ऊँची तनख्वाह मांगना स्पष्टतः अनुचित होगा।

इस तरह हम देखते हैं कि लेन-देन के नियम के आधार पर किसी शास्त्र की रचना नहीं की जा सकती। ईश्वरीय नियम ही ऐसा है कि धन की घटती-बढ़ती के नियम पर मनुष्य का व्यवहार न चलना चाहिए। उसका आधार न्याय का नियम है। इसलिए मनुष्य को समय देखकर नीति या अनीति जिससे भी बने, अपना काम निकाल लेने का विचार एकदम त्याग देना चाहिए। अमुक प्रकार से आचरण करने पर अन्त में क्या फल होगा इसे कोई भी सदा नहीं बतला सकता, परन्तु अमुक काम न्याय-संगत है या न्याय-विरुद्ध यह तो हम प्रायः सदा जान सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि नीति-पथ पर चलने का फल अच्छा ही होना चाहिए। हाँ, यह फल क्या होगा, किस तरह मिलेगा—यह हम नहीं कह सकते।

नीति-न्याय के नियम में पारस्परिक स्नेह-सहानुभूति का समावेश हो जाता है और इसी भावना पर मालिक-नौकर का सम्बन्ध अवलम्बित होता है। मान लीजिए, मालिक नौकरों से अधिक-से-अधिक काम लेना चाहता है। उन्हें जरा भी दम नही लेने देता, कम तनख्वाह देता है, दरवे जैसी कोठरियो मे रखता है। सार यह कि वह उन्हें इतना ही देता है कि वह किसी तरह अपना प्राण शरीर मे रख सके। कुछ लोग कह सकते है कि ऐसा करके वह कोई अन्याय नहीं करता। नौकर ने निश्चित तनख्वाह मे अपना सारा समय मालिक को दे दिया है और वह उससे काम लेता है। काम कितना कडा लेना चाहिए, इसकी हद वह दूसरे मालिकों को देखकर निश्चित करता है। नौकर को अधिक वेतन मिले तो दूसरी नौकरी कर लेने की उसे स्वतन्त्रता है। इसीको लेन-देन का नियम बनाने वाले अर्थशास्त्र कहते है। और उनका कहना है कि इस तरह कम-से-कम दाम मे अधिक-से- अधिक काम लेने मे मालिक को लाभ होता है और अन्त मे इससे नौकर को भी लाभ ही होता है।

विचार करने से हम देखेंगे कि यह बात ठीक नहीं है। नौकर अगर मशीन या कल होता और उसे चलाने के लिए किसी विशेष प्रकार की ही शक्ति की आवश्यकता होती तो यह हिसाब ठीक बैठ सकता था, परन्तु यहाँ तो नौकर को संचालित करने वाली शक्ति उसकी आत्मा है। और आत्मा का बल अर्थ-शास्त्रियों के मारे नियमों पर हड़ताल फेर देता है—उन्हें गलत बना देता है। मनुष्यरूपी मशीन में धन-रूपी कोयला झोंककर अधिक-से-अधिक काम नहीं लिया जा सकता। वह अच्छा काम तभी दे सकती है जब उसकी सहानुभूति जगाई जाय। नौकर और मालिक के बीच धन का नही, प्रीति का बन्धन होना चाहिए।

प्रायः देखा जाता है कि जब गालिक चतुर और मुस्तैद होता है नव नौकर अधिकतर दवाव के कारण ज्यादा काम करता है। इसी तरह जब मालिक आलसी और कमजोर होता है तब नौकर का काम जितना होना चाहिए उतना नही होता,पर सच्चा नियम तो यह है कि दो समान चतुर मालिक और दो समान नौकर भी लिये जायँ और तब हम देखेंगे कि सहानुभूति वाले मालिक का नौकर सहानुभूति-रहित मालिक के नौकर की अपेक्षा अधिक और अच्छा काम करता हैं।

कुछ लोग कह सकते है कि यह नियम ठीक नहीं है, क्योंकि स्नेह और कृपा का बदला अनेक बार उलटा ही मिलता है और नौकर सिर चढ़ जाता है, पर यह दलील ठीक नहीं है। जो नौकर स्नेह के बदले लापरवाही दिखाता है, सख्ती की जाय तो वह मालिक से द्वेप करने लगेगा। उदार हृदय मालिक के साथ जो नौकर बद्दयानती करता है वह अन्यायी मालिक का नुकसान कर डालेगा।

सार यह है कि हर समय हर आदमी के साथ परोपकार की दृष्टि रखने से परिणाम अच्छा ही होता है। यहां हम सहानुभूति को एक प्रकार की शक्ति मानकर ही उस पर विचार कर रहे हैं। स्नेह उत्तम वस्तु हैं,इस लिए उससे सदा काम लेना चाहिए। यह बिलकुल जुड़ी बात है और यहाँ हम उस पर विचार नहीं कर रहे हैं। यहाँ तो हमें केवल यही दिखाना है कि अर्थ शास्त्र के साधारण नियमों को,जिन्हें हम अभी देख चुके है,स्नेह-सहानुभृति रूपी शक्ति रद्द कर देती है। यही नहीं यह एक भिन्न प्रकार की शक्ति होने के कारण अर्थशास्त्र के अन्यान्य नियमों के साथ उसका मेल नहीं बैठता|वह तो उन नियमों को उठाकर अलग रख देने पर ही टिक सकती है। यदि मालिक कांटे की तौल का हिसाब रक्खे और बदला मिलने की आशा से भी स्नेह दिखाये तो सम्भव है कि उसे निराश होना पड़े। स्नेह स्नेह के लिए ही दिखाया जाना चाहिए बदला तो बिना मांगे अपने-आप ही मिल जाता है। कहते हैं कि जो खुद अपनी जान दे देता है वह तो उसे पा जाता है और जो उसे बचाता है बह उसे खो देता है।

सेना और सेनानायक का उदारण लीजिए। जो सेनानायक अर्थशास्त्र के नियमों का प्रयोग कर अपनी सेना के सिपाहियों से काम लेना चाहेगा वह निर्दृष्ट काम उनसे न ले सकेगा। इसके कितने ही दृष्टान्त मिलते है कि जिस सेना का सरदार अपने सिपाहियो से घनिष्ठता रखता है,उनके प्रति स्नेह का व्यवहार करता है,उनकी भलाई से प्रसन्न होता है,उनके सुख-ढुख में शरीक होता है,उनकी रक्षा करता है—सारांश यह है कि जो उनके साथ सहानुभति रखता है वह उनसे चाहे जैसा कठिन काम ले सकता है। ऐतिहासिक उदाहरणो में हम देखते हैं कि जहाँ सिपाही अपने सेनानायक से मुहब्बत नही रखते थे वहाँ युद्ध मे क्वचित््‌ही विजय मिली है। इस तरह सेनापति और सैनिकों के बीच स्नेह-सहानुभति का बल ही वास्तविक दल है। बात लुटरों के दालों में भी पाई जाती। ठाकुरों का दल भी अपने सरदार के प्रति पूर्ण स्नेह रखता हैं; लेकिन मिल आदि कारखानों 'मालिकों पर मजदूरों में हमें इस तरह की धनिष्ठना दिखलाई नहीं देती उसका एक करण तो यह है कि उस तरह कारखाने में मजदूरों की तनखावा का आधार लेन-लेन के, माग ओर प्राप्ति के नियमों पर रहता हैं। इसलिए मालिक और मजदूरों के सीन प्रीति के बदले 'प्रपश्नीति विध्यवान रा्नी है ओर की जगह उनके सम्बन्ध मे विसोन, प्रतिदावनितआ दिखाई देती है। ऐसी व्यवस्था में हमें दो प्रभो पर विचार फरता है।

पहला प्रश्न यह है कि मांग का '्र प्राप्त का विचार किए बिना नौकरी कीvतनस्च्बाद किस है मेक स्थिर फी गठ

दूसरा यह हैकि जिस सरद्र पूरने परिवारोंमें मालिश नौकर का या सेना में सेनापति "सौर सिपाहियों का स्थायी सम्बन्ध होता है,उसी तरह कारखानो मे नौकरों की नियत संख्या,बराबर कैसा ही समय आने पर भी कमीवेशी किये बिना, किस तरह रखी जा सकती है?

पहले प्रश्न पर विचार करे। आश्चर्य की बात है कि अर्थशास्त्री इसका उपाय नहीं निकालते कि कारखानेके मजदूरों कीतनख्वाह की एक दर निश्चित हो जाय। फिर भी हम देखते हैंकि इंग्लैण्ड के प्रधान मन्त्री का पद बोली बोलवाकर बेचा नहीं जाता। उस पद पर चाहे जैसा मनुष्य हो उसे वही तनख्वाह दी जाती है। इस तरह जो आदमी कम-से-कम तनख्वाह ले उसे हम पादरी (विशप) के पद पर नहीं बैठाते डाक्टरों और वकीलों के साथ भी साधारणत इस तरह का सम्बन्ध नहीं रक्खा जाता। इस प्रकार हम देखते है कि उक्त उदाहरण में हम बंधी उजरत ही देते है। इसपर कोई पूछ सकता है कि क्या अच्छे और बुरे मजूर की उजरत एक ही होनी चाहिए? वास्तव में होना तो यही चाहिए। इसका फल यह होगा कि जिस तरह हम सब चिकित्सकों और वकीलों की फीस एक ही होने से अच्छे वकील, डॉक्टरों के ही पास जाते हैं, उसी तरह सब मजदूरों की मज़दूरी एक ही होने पर हम लोग अच्छे राज और बढ़ई से ही काम लेना पसन्द करेंगे। अच्छे कारीगर का इनाम यही है कि वह काम के लिए पसन्द किया जाय। इसलिए स्वाभाविक और सच्चे वेतन की दर निश्चित हो जानी जानी चाहिए। जहाँ अनाड़ी आदमी कम तनख़्वाह लेकर मालिक को धोखा दे सकता है वहाँ अन्त में बुरा ही परिणाम होता है।

अब दूसरे प्रश्न पर विचार करें। वह यह है कि व्यापास की चाहे जैसी अवस्था हो, कारखाने में जितने आदमियों को आरम्भ में रक्खा हो उतने को सदा रखना ही चाहिए। जब कर्मचारियों को अनिश्चित रूप से काम मिलता है तब उन्हें ऊँची तनख्वाह मांगनी ही पडती है,किन्तु यदि्‌ उन्हे किसी तरह यह विश्वास हो जाय कि उनकी नौकरी आजीवन चलती रहेगी तो वह बहुत थोडी तनख्वाह मे काम करेगे। इस तरह यह स्पष्ट हैकि जो मालिक अपने कर्मचारियों को स्थायी रूप से नौकर रखता हैउसे अन्त मे लाभ ही होता है ओर जो आदमी स्थायी नौकरी करते है उन्हे भी लाभ होता है। ऐसे कारखानों मे ज्यादा नफा नहीं हो सकता। वह्‌ कोई बडा जोखिम नहीं ले सकते। भारी प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। सिपाही सेनापति के खातिर मरने को तैयार होता हैं और सिपाहिगिरी साधारण मजदूरी के पेशे से ज्यादा इज्जत की चीज मानी गई है। सच पृछिए तो सिपाही का काम कत्ल करने का नहीं, बल्कि दूसरो की रक्षा करते हुए खुद कत्ल हो जाने का है। जो सिपाही बनता है वह अपनी जान अपने राज्य को सौप देता है। यही बात हम वकील, डाक्टर और पटजी के मंतव्य में भी मानते है, इसलिए उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं। बकील को अपने प्राण निकलने सके भी न्याय ही करना चाहिए। वैग को अनेफ सफद सहकर भी अपने रोगी का उपचार करना उचित हैं। और पादरी धर्मापदेसक को चाहिए कि उसपर कुछ भी क्यो न घिनो पर अपने समुदाय वालो को ज्ञान देता और सच्चा रास्ता बताता रहे।

    यदि उपयक्त पेशों मे ऐसा हो सकता है तो व्यापार मे क्‍यों नहीं हो सकता? आखिर व्यापार के साथ प्यनीति का नित्य सम्बन्ध मान लेने का क्या कारण हैं? विचार फरने से दिखाई देता है कि व्यापारी सम के लिए स्वार्थी ही मान लिया गया है। ब्यापारी का कास भी जनता के लिए जरूरी हैं। पर हमने मान लिया है कि इसका उद्देश्य केबल अपना घर भरना है। कानन भी इसी दृष्टि से बनाये जाते है कि व्यापारी 

भापाटे के साथ धन बटोर सके। चाल भी ऐसी ही पड़ गई है कि ग्राहक कस-से-कम दाम दे ओर व्यापारी जहॉाँतक हो सके अधिक मांगे और ले। लोगो ने खुद दी व्यापार मे ऐसी आदत डाली और अच उसे उसकी बेइमानी के कारण नीची निगाह से देखते है। इस प्रथा को बदलने की जरूरत है। यह कोई नियम नहीं होगया है कि व्यापारी को अपना स्वार्थ ही साधना--धव ही वटोरना चाहिए। इस तरह के व्यापार को हस व्यापार न कहकर चोरी कहेंगे। जिस तरह सिपाही राज्य के लिए जान देता है उसी तरह व्यापारी को जनता के सुख के लिए धन गवा देना चाहिए, प्राण भी दे देने चाहिएँ। सभी राज्यों मे--

  सिपाही का पेशा जनता की रक्षा करना है,
  धर्मोपदेशक का, उसको शिक्षा देना है,
  चिकित्सक का, उसे स्वस्थ रखना है;
  वकील का,उससे न्याय का प्रचार करना है, 
  और व्यापारी का उसके लिए आवश्यक मॉल ज़ुटाना है।

इन सब लोगों का कर्तव्य समय आने पर अपने प्राण भी दे देना हैं। अधात--

  पैर पीछे हटाने के चदले सिपाही को "अपनी

जगह पर बड़े बड़े मृत्यु स्वीकार कर लेनी चाहिए।

  प्लेग के समय भाग जाने के बदले चाहे खुद

प्लेग का शिकार होजाय तो भी चिकित्सक को वहां मौजूद रहकर रोगियों का इलाज करने रहना चाहिए।

  सत्य फी शिक्षा दने मे लोग मार डाले तो

भी मरते दमतक धर्मपदेंशक फो भूठ के बदले सत्य ही की सिक्ष्या देते रहना चाहिए।

 न्याय फे लिए मरना पड़े तय भी वकील को

इसका यत्न करना चाहिए कि न्याय ही हो।

  इस प्रकार उपयुक्त पेशे वालों के लिए मरने 

का उपयुक्त समय कोन-सा है,यह प्रश्न व्यापारियों तथा दूसरे सब लोगो के लिए भ॑ विचारणीय है।जो मनुष्य समय पर मरने के तैयार नहीं है वह, जीना किसे कहते है,यह नही जानता । हम देख चुके दैकि व्यापारी का काम जनता के लिए जरूरी सामान जुटान हैं। जिस तरह धर्मोपढेशक का काम तनख्वाह लेना नहीं,बल्कि उपदेश देना है, उसी तरह व्यापारी का काम नफा कमाना नहीं, किन्तु माल जुटाना है। धर्मोपदेश देने वाले को रोटी ओर व्यापारी कोनफा तो मिल ही जाता है।पर दोनों मे से एक को भी कास तनख्वाह या नफे पर नजर रखना नही है ।उन्हे तनख्बाह या मुनाफा मिले या न मिले फिर भी अपना काम अपना कत्तंग्य करते रहना ही है।यदि यह विचार ठीक हो तो व्यापारी को ऊँचा दरज मिलना चाहिए, क्योकि उसका काम बढ़िय माल तेयार कराना और जिससे जनता का ला हो उसे प्रकार उसे जुटाना, पहुंचना है। उसे काम में जो सैकड़ों या हजारों आदमी उसके मानहत हो उसकी रक्षा और बीमार होने पर दवा इलाज करना भी उसका कर्त्तव्य है। यह करने के लिए बहुत धीरज, बहुत स्नेह-सहानुभूति ओर बहुत चतुराई चाहिए।

भिन्न-भिन्न काम करते हुए औरों की तरह व्यापारी के लिए भी जान दे देने का अवसर आवे तो वह प्राण समर्पण कर दे। ऐसा व्यापारी चाहे उसे पर कैसा ही संकट आ पड़े, चाहे वह भिखारी हो जाय, पर ना तो ख़राब माल बेचेगा और ना लोगों को धोखा ही देगा। काम करने वालों के साथ अत्यन्त स्नेह का व्यवहार करेगा। अक्सर बड़े कारखानों या कारोबार में नवयुवक नौकरी करते हैं। उनमें से कितनों को घर-बार छोड़कर दूर जाना होता है। वहां तो मलिक को ही उनके मां-बाप बना होता है। मालिक इस में विषय में लापर्वाह होता है तो बेचारे नवयुवक बिना माँ बाप के होजाते हैं। इसलिए पद-पद पर व्यापारी या मालिक को अपने-आपसे यही प्रश्न करते रहना चाहिए कि "में जिस तरह अपने लड़कों को रखता हूँ वैसा ही वर्ताव नौकरों के साथ भी करता हूँ या नहीं?"

जहाज़ के कप्तान के नीचे जो खलासी होते है उनमें कभी उसका लड़का भी हो सकता है। सब खलासियों को लड़के के समान मानना कप्तान का कर्त्तव्य है। उसी तरह व्यापारी के यहाँ अनेक नौकरों में यदि उसका लड़का भी हो तो काम-काज के बारे मे वह जैसा व्यवहार अपने लडके साथ करता है वैसा ही दूसरे नौकरों के साथ भी उसे करना होगा। इसीको सच्चा अर्थशास्त्र कहना चाहिए। और जिस तरह जहाज़ के खतरे में पड़ जाने पर कप्तान का कर्त्तव्य होता है कि वह स्वयं सबके बाद जहाज़ से उतरे, उसी तरह अकाल इत्यादि संकटों में व्यापारियों का कर्त्तव्य है कि अपने आदमियों की रक्षा अपने से पहले करे। इस प्रकार के विचार, सम्भव है, कुछ लोगों को विचित्र मालूम हो, परंतु ऐसा मालूम हो जमाने की विशेषता—नवीनता है, क्योंकि विचार करके यह सभी देख सकते हैं की सच्ची नीति तो वही हो सकती है जो अभी बतलाई गई है। जी समाज को ऊपर उठना है उसमें दूसरे प्रकार की नीति कदापि नहीं चल सकती। अंग्रेज़ जाती आज तक कायम है, तो इसका कारण यही है कि उसने अर्थशास्त्र के नियमों का अनुसरण किया है, बल्कि यह है कि थोड़े लोगों ने उन नियमों का भंग करके उपर्युक्त नैतिक नियमों का पालन किया है। इसीसे यह नीति अब तक अपना अस्तित्व क़ायम रख सकी है। इन नीति नियमों का भंग करने से कैसी हानियाँ होती है किस तरह समाज को पीछे हटाना पड़ता है, इसका विचार हम आगे चलकर करेंगे।

हम सचाई के मूल के सम्बन्ध में पहले ही कह चुके है। कोई अर्थशास्त्री उसका जवाब इस प्रकार दे सकता है—"यह ठीक है कि पारस्परिक स्नेह-सहानुभूति से कुछ लाभ होता है, परन्तु अर्थशास्त्री इस तरह के लाभ का हिसाब नहीं लगाते। वह जिस शास्त्री की विवेचना करते है वह केवल इसी बात का विचार करता है कि मालदार बनने का क्या उपाय है। यह शास्त्र गलत नहीं है, बल्कि अनुभव से इसके सिद्धान्त प्रभावकारी पाये गये है। जो इस शास्त्र के अनुसार चलते है वह निश्चय ही धनवान होते है और जो नही चलते है वह कङ्गाल हो जाते है। यूरोप के सभी धनिकों ने इसी शास्त्र के अनुसार चलकर पैसा पैदा किया है। इसके विरुद्ध दलीले उपस्थित करना व्यर्थ है। हरेक तजरबेकार जानता है कि पैसा किस तरह आता और किस तरह जाता है।"

पर यह उत्तर ठीक नहीं है। व्यापारी रुपये कमाते हैं, पर वे यह नहीं जान सकते कि उन्होंने सचमुच कमाया या नहीं और उससे राष्ट्र का कुछ भला हुआ है या नहीं। "धनवान" शब्द का अर्थ भी वे अक्सर नहीं समझते। वह इस बात को नहीं जान पाते कि जहाँ धनवान होंगे वहाँ गरीब भी होंगे। कितनी ही बार वे भूल से यह मान लेते हैं कि किसी निर्दिष्ट नियम के अनुसार चलने से सभी आदमी धनी हो सकते हैं। सच पूछिए तो यह मामला कुएँ के रहट जैसा है। एक के खाली होने पर दूसरा भरता है। आपके पास जो एक रुपया होता है उका अधिकार उसपर चलता है जिसके पास उतना नहीं होता। अगर आपके सामने या पास वाले आदमी को आपके रुपये की गरज न हो तो आपका रुपया बेकार है। आपके रुपये की शक्ति इस बात पर अवलंबित है कि आपके पड़ोसी को रुपये की कितनी तङ्गी है। जहाँ गरीबी है वहीं अमीरी चल सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि एक आदमी को धनवान् होना हो तो उसे अपने पड़ोसियों को गरीब बनाये रहना चाहिए।

सार्वजनिक अर्थशास्त्र का अर्थ है ठीक समय पर ठीक स्थान मे आवश्यक और सुखदायक वस्तुये उत्पन्न करना, उनकी रक्षा करना और उनका अदल-बदल करना। जो किसान ठीक समय पर फसल काटता है, जो राज ठीक-ठीक चुनाई करता है, जो बढ़ई लकड़ी का काम ठीक तौर से करता है, जो स्त्री अपना रसोईघर ठीक रखती है, उन सबको सच्चा अर्थशास्त्री मानना चाहिए। ये लोग सारे राष्ट्र की सम्पत्ति बढ़ाने वाले है। जो शास्त्र इसका उलटा है वह सार्वजनिक नहीं कहा जा सकता। उसमें तो केवल एक मनुष्य धातु इकट्ठी करता है और दूसरों को उसकी तङ्गी में रखकर उसका उपभोग करता है। ऐसा करनेवाले यह सोच कर कि उनके खेत और ढोर वगैरा के कितने रुपये मिलेंगे, अपने को उतना ही पैसे वाला मानते हैं। वे यह नहीं सोचते कि उनके रुपयों का मूल्य उससे जिनसे खेत और पशु मिल सकें उतना ही है। साथ ही वे लोग धातु का, रुपयों का संग्रह करते है। वे यह भी हिसाब लगाते हैं कि उससे कितने मजदूर मिल सकेंगे। एक आदमी के पास सोना-चाँदी या अन्न आदि मौजूद है। ऐसे आदमी को नौकरी की क्या जरूरत होगी। परन्तु यदि उसके पड़ोसियों में से किसी को सोने-चाँदी या अन्न की जरूरत न हो तो उसे नौकर मिलना कठिन होगा। अतः उसे सालभर को अपने लिए रोटी पकानी पड़ेगी, खुद अपने कपड़े सीने पड़ेंगे और खुद ही अपना खेत जोतना होगा। इस दशा में उसके लिए उसके सोने का मूल्य उसके खेत के पीले फसल से अधिक न होगा। उसका अन्न सड़ जायेगा, क्योंकि वह अपने पड़ोसी से ज्यादा खा न सकेगा। फल यह होगा कि उसको भी दूसरों की तरह कडी मेहनत करके ही गुजर करना पडेगा| ऐसी अवस्था में अधिक आदमी सोना-चॉदी एकत्र करना पसन्द न करेगे| गहरा विचार करने पर हमे मालूस होगा कि धन प्राप्त करने का अर्थ दूसरे आदमियो पर अधिकार प्राप्त करना--अपने आगस के लिए नोकर व्यापार या कारीगरी--मेहनत पर अधिकार प्राप्त करना है। और यह अविकार पडोसियों की गरीबी जितनी कम-ज्यादा होगी उसी हिसाव से सिल् सकेगा |यदि एक चढ़ई से काम लेने की इच्छा रखनेवाला एक ही आदमी हो तो उसे जो मजदूरी मिलेगी वही वह ले लेगा। यदि एसे दो-चार आदमी हो तो उसे जहां अधिक सजदूरी मिलेगी वहां जायगा। निचोड यह निकला कि धनवान होने का अर्थ जितने अबधिक आदमियो को हो सके उतने को अपने से ज्यादा गरीबी से रखना है। अर्थशास्त्र अनेक बार यह मान लेते है कि इस तरह लोगो को तंगी में रखने से राष्ट्रका लाभ होता है। सब बराबर हो जायँ, यह तो हो नहीं सकता, परन्तु अनुचित रूप से लोगों में गरीबी पैदा करने से जनता दुःखी हो जाती है, उसका अपकार होता है। कङ्गाली और मालदारी स्वाभाविक रूप से हो तो राष्ट्र सुखी होता है।