साहित्यालाप/१०—मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट में हिन्दी उर्दू
१०---मदुमशुमारी को रिपोर्ट में हिन्दो उर्दू।
१९११ ईस्वी की १० मार्च को जो मर्द मशुमारी हुई थी। उसकी रिपोर्ट प्रकाशित हुए एक वर्ष हो गया । इस रिपोर्ट से मतलब संयुक्त प्रान्त की रिपोर्ट से है । यह दो भागों में विभक्त है । अर्थात् इसकी दो जिल्दें है । पहली जिल्द में सिर्फ रिपोर्ट है; दूसरी जिल्द में सिर्फ नक्शे हैं । इन दोनों जिल्दों में सैकड़ो बातें ऐसी हैं जिनका जानना इस प्रान्त में रहनेवालों के लिए बहुत ही ज़रूरी है। समाचारपत्रों और मासिक पुस्तकों के सम्पादकों को इसका अवलोकन ही न करना चाहिए, किन्तु इसका अध्ययन कर के इसमें कही गई बातों पर खूब विचार भी करना चाहिए । धर्म, समाज, शिक्षा, व्यवसाय,तन्दुरुस्ती और भाषाओं से सन्बन्ध रखनेवाली ऐसी कितनी ही बातें इसमें हैं जो हम लोगों के जीवन और मरण से सम्बन्ध रखती हैं । परन्तु एक तो ये रिपोर्ट अँगरेज़ी में हैं, दूसरे इनकी कीमत बहुत है। संयुक्त प्रान्त की मर्दुमशुमारी से सम्बन्ध रखनेवाली इन दो जिल्दों ही की कीमत १५) रुपये है।
इसीसे इन प्रान्तों के हिन्दी-पत्रों में इन पुस्तकों में कही गई बातों की विशेष चर्चा नहीं हुई। अँगरेज़ी के पत्रों में जो कुछ प्रकाशित हुआ है उसीके आधार पर किसी किसी पत्र में कुछ लिख दिया गया है। जब तक गवर्नमेंट इनका खलासा देशी भाषाओं में न प्रकाशित करेगी और हिन्दी-उर्दू के समाचारपत्रों
को ये रिपोर्ट देने की अधिक उदारता न दिखावेगी तब तक
हम लोग इनसे यथेष्ट लाभ नहीं उठा सकते । जिस सूबे की चार करोड़ अस्सी लाख आबादी में से चार करोड़ सैंतीस लाख आदमी हिन्दी बोलते हैं उस सूबे के सिर्फ़ एक ही हिन्दी पत्र को गवर्नमेंट यह रिपोर्ट देने की कृपा करती है। परन्तु जिसमें सिर्फ़ इकतालीस लाख आदमी उर्दू बोलते हैं उसमें उर्दू के तीन अखबारों को वह यह रिपोर्ट मुफ़्त दे डालती है ! गवर्नमेंट को ऐसा न करना चाहिए। इस विषय में उसे अपनी नीति को, जहाँ तक हो सके, शीघ्र ही बदल देना चाहिए। यह तो हुई इन प्रान्तों की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट की बात । गेट साहब ने सारे हिन्दुस्तान की मर्दुमशुमारी पर जो रिपोर्ट लिखी है वह भी अब प्रकाशित हो गई है । उसे
पढ़ना, उसकी महत्व-पूर्ण बातों पर विचार करना और उससे
लाभ उठाना हम लोगों के लिए और भी अधिक ज़रूरी है। परन्तु, अफ़सोस है, वह भी हम लोगों के लिए सुलभ नहीं।
आज हम इस नोट में अपने ही प्रान्त की रिपोर्ट की केवल उन बातों पर विचार करते हैं जिनका सम्बन्ध हमारी भाषा से है । इस रिपोर्ट से एक बात का फ़ैसिला हो गया। वह यह कि जिसे गवर्नमेंट तथा उर्दू के अनेक पक्षपाती हिन्दुस्तानी कहते हैं वह और कुछ नहीं; वह ख़ालिस उर्दू है । लक्षण उसका चाहे जो किया जाय; बिठाई वह उर्दू ही के घर में जाती है । इस रिपोर्ट में पहले तो उर्दू कोई अलग भाषा ही नहीं मानी गई । वह सिर्फ़ हिन्दी की एक शाखा या एक बोली-
विशेष मात्र मानी गई है । परन्तु रिपोर्ट के नक्शों में उर्दू
और हिन्दुस्तानी एक ही खाने में रख दी गई हैं।
मर्दुमशुमारी के सुपरिंटेंडेंट ब्लन्ट साहब ने इन प्रान्तों की भाषाओं के सिर्फ़ चार भाग किये हैं। यथा---
१ पश्चिमी हिन्दी।
२ पूर्वी हिन्दी।
३ बिहारी।
४ पहाड़ी।
पश्चिमी हिन्दी को उन्होंने चार शाखाओं या बोलियों में विभक्त किया है---(१) हिन्दुस्तानी (२) ब्रज की बोली (३) कन्नौजिया (४) बुंदेली । पूर्वी हिन्दी के उन्होंने दो ही विभाग किये हैं---(१) अवधी (२) बघेली । अब माननीय मुंशी असग़र अली खाँ साहब कृपा करके देखें कि जिस हिन्दी का आस्तित्व तक वे नहीं कबूल करते उसी हिन्दी को इन प्रान्तों की गवर्नमेंट यहाँ की प्रधान भाषा मानती है। मुंशी जी की प्यारी उर्दू, या हिन्दुस्तानी, उसकी एक बोली मात्र है । उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी नामों पर ब्लन्ट साहब ने बहुत कुछ बहस की है, और, अन्त में यह सिद्ध किया है कि उर्दू, हिन्दुस्तानी,हिन्दी और उच्च हिन्दी कोई जुदा भाषायें नहीं। वे एक ही भाषा के रूपान्तर हैं।
अच्छा, अब देखिए, देवनागरा अक्षरों का प्रचार इन प्रान्तों में कितना है और उनके मुकाबले में जिन फ़ारसी अक्षरों में उर्दू लिखी जाती है उनका कितना है। फ़ी सैकड़े कितने
मनुष्य देवनागरी लिपि लिखते हैं और कितने फारसी, यह आत नीचे के नक्शे से अच्छी तरह प्रकट हो जायगीः—
देवनागरी | फारसी | |
हिन्दू | ८४ | १५ |
मुसलमान | १४ | ८१ |
आर्य | ५६ | ३६ |
जैन | ७९ | १९ |
किरानी | ३६ | ५२ |
देख लीजिए, देवनागरी अतरों का कितना व्यापक प्रचार इन प्रान्तों में है। १०० में १४ मुसलमान तक यही अक्षर व्यवहार में लाते हैं। श्रायौँ, जैनों और हिन्दुओं का तो कहना ही क्या है। सिर्फ मुसलमान और देशी किरिस्तान ही फारसी अक्षरों से अधिक काम लेते हैं। पर उनको संख्या इन प्रान्तों में दाल में नमक के बराबर है। फिर एक बात और भी विचार करने योग्य है। वह यह कि फारली अतरों का सबसे अधिक प्रचार केवल रुहेलखण्ड की कमिश्नरी में है, जहाँ १०० में ५५ आदमी फ़ारसी अक्षर लिखते हैं। इस कमिश्नरी को छोड़ कर और कहीं भी फारली अतर लिखने वालों की संख्या देवनागरी अक्षर लिखनेवालों से अधिक क्या, उनके बराबर भी नहीं। कमाऊ में तो फ़ीसदी ७ अदमी भी फ़ारसी अक्षर नहीं लिखते। सारे सूबे में ७२ आदमी अगर देवनागरी लिपि लिखते हैं तो सिर्फ २५ फारसी लिपि और ३ अन्य लिपि, इससे यह निर्विवाद सिद्ध है कि इन प्रान्तों में देवनागरी
वर्णमाला ही का प्रचार सबसे अधिक है। अतएव प्रजा के काम की जितनी पुस्तकें गवर्नमेंट देशी भाषाओं में प्रकाशित करती है उन सबको विशेष कर देवनागरी ही अक्षरों में प्रकाशित करना चाहिए।
रिपोर्ट तैयार करनेवाले सुपरिंटेडेंट साहब न मालम क्यों उर्दू भाषा और फ़ारसी अक्षरों की तरफ़ कुछ झुके हुए मालूम होते हैं। आपका करना है कि यद्यपि देवनागरी-लिपि ही को इन प्रान्तों के निवासी अधिक पसन्द करते हैं,तथापि जो आदमी फ़ारसी और नागरी दोनों लिपियां जानते हैं वे नागरी की अपेक्षा फ़ारसी लिपि में अधिक योग्यता रखते हैं । आप कहते है कि नागरी और फ़ारसी लिपि जाननेवालों में ५६ आदमी फ़ी सदी ऐसे हैं जो देव-
नागरी की अपेक्षा फ़ारसी लिपि अधिक अच्छी लिख सकते हैं। इस हिसाब से फ़ारसी लिपि की अपेक्षा नागरी विशेष अच्छी तरह लिख सकनेवालों की संख्या फ़ी सदी ४४ ही हुई । इससे शायद आप यह अर्थ निकालना चाहते हैं कि जो लोग दोनों लिपियाँ जानते हैं वे फ़ारसी लिपि को विशेष महत्व की लिपि समझ कर उसीमें विशेष अभ्यास करते हैं । यदि आपका यही आशय हो तो हमारी राय में आपने भूल की है। हम तो यह समझते हैं कि
जिन लोगों ने लड़कपन ही से उर्दू पढ़ी है और फ़ारसी लिपि का व्यवहार किया है उन लोगों ने भी अब पीछे से देवनागरी लिपि सीख ली है । परन्तु वे इस लिपि में
इतने प्रवीण नहीं हुए जितने कि वे अपनी आजन्म अभ्यस्त
फ़ारसी लिपि लिखने में हैं। यही कारण है जो दोनों लिपियाँ
जाननेवालों में फ़ारसी लिपि अधिक अच्छी तरह जाननेवालों का औसत अधिक है। इससे तो देवनागरी लिपि के प्रचाराधिक्य ही का सबूत मिलता है। कचहरियों में जो लोग शुरू ही से फ़ारसी लिपि में काम करते आ रहे हैं उन्हें देवनागरी भी सीखने की आज्ञा है। यह इसी आज्ञा का फल है जो वे नागरीलिपि सीख गये हैं, पर
उसमें वे इतने अभ्यस्त नहीं जितने कि फ़ारसी लिपि में हैं।
उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि का प्रचार बढ़ने के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते । इस बात को ब्लन्ट साहब भी स्वीकार करते हैं । आपने कबूल किया है कि उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि का जो प्रचार इन प्रान्तों में है उसका कारण उनका कचहरियों में जारी होना है । कचहरी के कर्मचारी अर्ज़ीनवीस, मुख्तार और वकीलों के मुहर्रिर लड़कपन से यही भाषा और यही लिपि लिखते आते हैं। यही लोग इस भाषा और इस लिपि के विशेष प्रेमी हैं । पर ये लोग भी अब हिन्दी सीखते जाते हैं, और, आशा है, अगली मर्दुमशुमारी में हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के प्रचाराधिक्य के और भी अधिक प्रमाण मिलेंगे।
मर्दुमशुमारी के सुपरिंटेंडेंट ब्लन्ट साहब की शिकायत है कि हम लोग संस्कृत के अपरिचित और अनावश्यक शब्द
हिन्दी में लिख लिख कर उसे देतरह क्लिष्ट बना देते हैं।
संस्कृत-शब्द जिसमें अधिक होते हैं उसे आप उच्च हिन्दी कहते हैं । आपकी राय है कि ऐसी हिन्दी को लोग बिलकुल ही नहीं पसन्द करते और इसकी मौत जितना ही शीघ्र हो जाय उतना ही अच्छा है। आप हिन्दुस्तानी भाषा के बड़े पक्षपाती हैं । आप चाहते हैं कि हिन्दी-उर्दू का झमेला दूर हो जाय एक मात्र हिन्दुस्तानी भाषा ही इन प्रान्तों में रह जाय । क्लिष्ट हिन्दी को आप इस लिए दोष देते हैं कि ऐसी हिन्दी विद्या और ज्ञानवृद्धि में बाधक हो रही है। परन्तु आश्चर्य है, आपने फ़ारसी और अरबी के शब्दों से लदी हुई उर्दू को ज्ञान और विद्या की वृद्धि का वाधक
नहीं समझा। कम से कम इस बाधा का उल्लेख उन्होंने अपनी रिपोर्ट में नहीं किया। बड़ी नरमी से आपने सिर्फ़ इतना ही कह दिया है कि अच्छी शिक्षा पाये हुए मुसलमान और कुछ हिन्दू भी विशेष करके मुसल्मान फ़ारसी के शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं । इसका कारण,आपकी समझ के अनुसार, और कुछ नहीं; केवल बड़े बड़े और क्लिष्ट शब्द प्रयोग करने की पूर्वी देशों में जो चाल पड़ गई है उसीका फल है। अच्छा, तो फिर हिन्दी में
संस्कृत के क्लिष्ट शब्द प्रयोग करनेवालों के लिए भी यही बात क्यों न कही जाय ? हिन्दी लिखनेवाले क्या पूर्वी देश के रहनेवाले नहीं ? रिपोर्ट के लेखक चाहे जो कहें, यदि हिन्दी के कुछ लेखक क्लिष्ट भाषा लिखते हैं तो उर्दू के
भी वैसा ही करते हैं। इस दशा में किसी एक ही पक्ष को अधिक दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं। इसमें सन्देह नहीं कि भाषा सीधी सादी होने ही से लोग उसे अधिक पसन्द करते हैं। अतएव विषय का लिहाज़ रखते हुए यथासम्भव सरल ही भाषा लिखना चाहिए।
ब्लन्ट साहब के अनुसार पढ़े लिखे आदमी अधिकतर उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि ही को पसन्द करते हैं। परन्तु आपने उर्दू और हिन्दी के अखबारों और पुस्तकों की जो तालिका प्रकाशित की है उससे यह बात बिलकुल ही नहीं साबित होती। उससे तो उलटा यह साबित होता है कि वनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी बराबर उन्नति करती चली जा रही है और उसकी यह उन्नति उर्दू की उन्नति से बहुत अधिक है। नीचे की तालिका देखिए।
अखबार और सामयिक पुस्तकें।
साल | उर्दू | हिन्दी | ||
अख़बारों आदि कि संख्या |
कापियों का संख्या |
अख़बारों आदि कि संख्या |
कापियों की संख्या | |
१८६१ | ६८ | २६२५६ | २८ | ८००२ |
१९०१ | ६६ | २३७५७ | ३४ | १७४१६ |
१६९१ | ११६ | ७६६०८ | ८६ | ७७७३१ |
० वर्ष पहले हमारी जिस क्लिष्ट हिन्दी में सिर्फ़ २४ अख़बार निकलते थे उसमें अब ८६ निकल रहे हैं—अर्थात् उनकी संख्या बढ़ कर कुछ कम चौगुनी हो गई है। परन्तु उर्दू के अख़बारों की संख्या इतने समय में दृनी भी नहीं हुई। २० वर्ष पहले हिन्दी के अख़बारों और सामयिक पुस्तकों की कापियों की संख्या सिर्फ पाठ हज़ार थी। वह अब सतहत्तर हज़ार से भी अधिक हो गई है। यह बढ़ती १० गुने से कुछ ही कम है। परन्तु इतने ही समय में उर्दू-अख़बारों और सामयिक पुस्तकों की कापियों की संख्या सोलह हज़ार से सिर्फ छिहत्तर हज़ार हुई है, अर्थात् वह ५ गुना भी नहीं बढ़ी। सो ब्लन्ट साहब के अनुसार हिन्दी क्लिष्ट होने पर भी दस गुना उन्नति कर गई और उर्दू प्रामफ़हम होने पर भा, सिर्फ ५ गुना! इससे तो यह कदापि नहीं सिद्ध होता कि लोग उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि को अधिक और हिन्दी-भाषा और नागरी-लिपि को कम पसन्द करते हैं।
अब पुस्तकों का भी लेखा देखिए:—
साल | उर्दू | हिन्दी |
१९०१ | ४८८ | ४२६ |
१९१० | ४३५ | ८०६ |
१९०१ में उर्दू की सिर्फ ४८८ पुस्तकें निकली थीं। इस संख्या में वृद्धि होना तो दूर रहा, १९१० में घट कर वह ४३५ ही रह गई। परन्तु हिन्दी की पुस्तकों की संख्या ४२६ से ८०७-अर्थात् दूनी हो गई। बताइए, क्या इससे यह नहीं सूचित होता कि क्लिष्ट होने पर भी हिन्दी की पुस्तकों की चाह उर्दू की पुस्तकों की अपेक्षा अधिक है? गत ३० वर्षों का समय लेखा देखने से तो उर्दू की पुस्तकों के प्रचार की दुर्दशा और हिन्दी की पुस्तकों के प्रचार की उन्नति का चित्रसा सामने दिखाई देने लगता है। उसे भो देख लीजिए:—
१८८१ से १८९० तक |
१८९१ से १९०० तक |
१९०१ से १९१० तक | |
उर्दू | ४३८० | ४२१८ | ३५४७ |
हिन्दी | २७६३ | ३१८६ | ५०६३ |
उर्दू की पुस्तकों की संख्या बराबर घटतीही चली आती है और हिन्दी की पुस्तकों की संख्या बढ़ती ही जाती है। बात यह है कि इन प्रान्तों की प्रधान भाषा हिन्दी ही है, उर्दू नहीं। हिन्दी क्लिष्ट ही सही, फारसी और अरबी के शब्दों से लदी हुई उर्दू की अपेक्षा वह अधिक क्लिष्ट नहीं। 'हिन्दी-भाषा और देवनागरी-लिपि के गुण अबधीरे धीरे लोगों की समझ में आ रहे हैं। इसीसे उनकी वृद्धि हो रही है। ऊपर दी गई तालिकाओं से यह भी सिद्ध है कि कचहरा के कर्मचारी और आजन्म उर्दू के प्रमी यदि देवनागरी लिपि की अपेक्षा फ़ारसी लिपि को अधिक अच्छी तरह लिख सके
तो २ से फ़ारसी-लिपि की उत्कृष्टता कदापि नहीं साबित
हो सकती। उत्कृष्ट वस्तु को सभी पसन्द करते हैं। यदि फारसी की लिपि उत्कृष्ट होती तो उस लिपि में छपी हुई उर्द्रू की पुस्तकों का प्रचार अवश्य ही बढ़ता। पर नहीं बढ़ा। अतएव वह उत्कृष्ट नहीं । मुट्ठी भर मुसलमानों और कुछ कायस्थों और काश्मीरियों को छोड़ कर उसका कोई पुरसाँ नहीं।
मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट के लेखक हाशय की एक और शिकायत है। वे कह हैं कि मदमशुमारी के पहले,१९०२ ईस्वी की तरह, इस दफे भी हिन्दी-उदू का झगड़ा खड़ा हो गया था। इस झगड़े का यह नतीजा हुआ कि हिन्दी और उर्दू बोलनेवालों की ठीक ठीक संख्या न मालूम हो सकी। मुसलमान कर्मचारियों ने हिन्दी बोलनेवालों को भी उर्दू बोलनेवाला लिख दिया; हिन्दू कर्मचारियों ने ठीक इसका उलटा किया। फल यह हुआ कि दोनों भाषायें या बोलियां बोलनेवालों की संख्या में कमी-बेशी हो गई। यह सब लिख कर आपने राय दी है कि उर्दू बोलनेवालों की संख्या जो
इकतालीस लाख दी गई है वह बहुत कम है। उसमें कम से कम एक पञ्चमांश और बढ़ाना चाहिए। अर्थात् आपने यह सूचित किया है कि हिन्दू कर्मचारियों ने उर्दू के साथ कुछ अधिक अन्याय किया। ऐसा कहने का प्रमाण आपके पास अवश्य ही होगा। पर आपने दिया नहीं। अलीगढ़ के उर्दू-प्रोमियों के पक्षपात का उदाहरण आपने अवश्य दिया है और लिखा है कि वहाँवालों ने उर्दू बोलनेवालों की संख्या उस
ज़िले के निवासी मुसलमानों की संख्या से भी बढ़ा दी। उर्दू,हिन्दी की इस कमी-बेशी के सम्बन्ध में एक बात यह भी तो
कही जा सकती है। वह यह कि सन् १९०१ की मर्दुमशुमारी
में अनेक हिन्दुओं को, सम्भव है, यह भी ज्ञान न रहा हो
कि वे उर्दू बोलते हैं या हिन्दी। इस दशा में, सम्भव है,उन्होंने भूल से अपनी भाषा उर्दू बता दी हो अथवा कर्मचारियों ही ने उनको भाषा उर्दू लिख दी हो । १९०१ से १९११ तक हिन्दी-उर्दू के सम्बन्ध में जो चर्चा हुई उससे यदि हिन्दुओं को इस दफ़े हिन्दी-उर्दू का भेद मालूम हो गया हो और उन्होंने अपनी भाषा उर्दू के बदले यदि हिन्दी लिखा दी हो तो उर्दू बोलनेवालों की संख्या में कमी होनी ही चाहिए! यह कमी यथार्थ कमी मानी जा सकती है, अयथार्थ नहीं। परन्तु इस बात को इस दृष्टि से रिपोर्ट लेखक ने नहीं देखा। अस्तु।
यदि हम ब्लन्ट साहब ही की बात मान लें और यह स्वीकार कर लें कि उर्दू बोलनेवालों की संख्या ४१ लाख नहीं,किन्तु ५०-६० लाख है, तो भी तो उर्दू का प्रचाराधिक्य नहीं साबित होता। कहाँ चार करोड़ हिन्दी बोलनेवाले और कहाँ साठ लाख उर्दू बोलनेवाले ! फ़ी दस हज़ार आदमियों में अंगर ९११६ श्रादमी हिन्दी बोलते हैं तो सिर्फ ८५३ आदमी उर्दू बोलते हैं !!! उर्दू बोलनेवालों की संख्या १५-२० लाख बढ़ा देने पर भी हिन्दी बोलनेवालों की संख्या
संख्या उर्दू बोलने वालों की संख्या से सात आठ गुना अधिक रह जाती है। जिस उर्दू के
बोलनेवालों की संख्या इतनी थोड़ी है उन्हींकी भाषा और
उन्हींकी लिपि का सरकारी कचहरियों और दफ़तरों में इतना
अधिक प्रचार होना प्रजा के सुभीते की बात नहीं मानी जा सकती। सरकार को कृपा करके इसका प्रतीकार करना चाहिए।
एक वात और है। ब्लन्ट साहब ने पहले तो उर्दू को कोई भाषा नहीं माना; उसे पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा या बोली मात्र स्वीकार किया है। फिर हिन्दुस्तानी भाषा का लक्षण आपने यह बताया है कि जिसमें न फ़ारसी ही के शब्दों की भरमार हो और न संस्कृत ही के---अर्थात् जो भाषा फारसी और नागरी दोनों लिपियों में लिखी जा सके वही हिन्दुस्तानी है। इसके बाद फ़ारसी शब्दों की अधिकता से परिपूर्ण भाषा का नाम आपने उर्दू और संस्कृत शब्दों से परिपूर्ण भाषा का नाम उच्च हिन्दी बताया है। परन्तु यह सब कर के भी जिस उर्दू को आपने फ़ारसी-मिश्रित भाषा बताया है उसीको हिन्दुस्तानी मान कर उर्दू या हिन्दुस्तानी बोलनेवालों की संख्या एक ही खाने में लिख दी है। आप ही के
लिखे हुए लक्षण के अनुसार हिन्दुस्तानी भाषा उर्दू की कक्षा में नहीं शामिल की जा सकती। हिन्दुस्तानी चाहे जिस लिपि में लिखी जाय उसे अलग ही दिखाना चाहिए था। उर्दू के मुक़ाबले की भाषा तो आपके अनुसार संस्कृत-शब्द-पूर्ण हिन्दी हो सकती है। इस दशा में इस प्रकार के लक्षण बता कर भी---उर्द को हिन्दुस्तानी समझना, अथवा हिन्दु-
स्तानी को उर्दू मान लेना और फिर उनके बोलनेवालों की
संख्या एक ही खाने में दिखाना न युक्ति ही से सङ्गत मालूम होता
है और न न्याय ही से। आपके लेखानुसार तो हिन्दुस्तानी भाषा उर्दू हो ही नहीं सकती। यदि आपके किये हुए लक्षणों वो इन प्रान्तों के लाट साहब भी स्वीकार कर ले तो क़ानून की जो पुस्तकें उन्हों ने देवनागरी अक्षरों में प्रकाशित कराई हैं उनकी भाषा, जैसा कि उन्होंने कहा है, कदापि हिन्दुस्तानी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि वह फ़ारसी और अरबी के शब्दों से भरी हुई है। वह तो मर्दुमसुमारी के सुपरिन्टेण्डेन्ट श्रीयुत ई० ए० एच० ब्लन्ट साहब आइ० सी० एस० के लक्षणानुसार ख़ालिस उर्दू है।
[मार्च १९१४