साहित्यालाप/९—भारतीय भाषायें और अँगरेज़

विकिस्रोत से
[ १६३ ]

९—भारतीय भाषायें और अँगरेज़

अँगरेज़ लोग इस बात पर अक्सर दिल्लगी उड़ाया करते हैं कि हिन्दुस्तानियों को अच्छी अँगरेज़ी लिखना और बोलना नहीं आता। अँगरेज़ी अखबारों में बहुधा "बाबू इँगलिश' अर्थात् बाबू लोगों की अँगरेज़ी की दिल्लगी रहती है। अँगरेज़ी के समान अपूर्ण, अनियमित और उच्चारण-नियमहीन विदेशी भाषा में यदि इस देशवाले अँगरेज़ों ही की वैसी विज्ञता न प्राप्त कर सकें तो विशेष आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि अँगरेज़ों में आज तक हिन्दी भाषा का एक भी अच्छा विद्वान् नहीं हुआ। जो विद्वान् माने जाते हैं वे भी हिन्दी लिखते घबराते हैं। अँगरेजों का इस देश से सम्बन्ध हुए दो सौ वर्ष होगये।परन्तु इतने दिनों में कितने अंगरेज़ों ने हिन्दुस्तानी भाषा में खूब लिख पढ़ लेने लायक विज्ञता प्राप्त की? जेता को विजित की भाषा का अच्छा ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। उसके बिना प्रजा के आन्तरिक भाव राजा अच्छी तरह नहीं जान सकता।

अँगरेज़ी भाषा बहुत क्लिष्ट है। उसका व्याकरण और उच्चारण बिलकुल ही वाहियात और अनियमित है। तिस पर भी सैकड़ों हिन्दुस्तानी विद्वानों ने अँगरेज़ी में बड़ी बड़ी [ १६४ ]
किताबें लिखी हैं । उनको देख कर अँगरेज़ विद्वान तक चकित होते हैं। स्त्रियों तक ने बड़ी बड़ी किताबें अँगरेज़ी में लिख डाली हैं। इस समय कितने ही हिन्दुस्तानी विद्वान् अँगरेज़ी में अखबारों का सम्पादन बड़ी ही योग्यता से कर रहे हैं। और कौंसिल में बैठ कर अपनी अँगरेज़ी वक्ताओं से अँगरेज़ श्रोताओं को आश्चर्य में डाल रहे हैं। अँगरेज़ों की विलायत तक में हिन्दुस्तानियों ने वक्तताओं की धूम मचा दी है। सेकड़ों अँगरेज़ों के साथ परीक्षा में बैठ कर कितने ही हिन्दुस्तानी अँगरेज़ों को हर साल नीचा दिखा रहे हैं । परन्तु कितने साहब ऐसे हैं जो हिन्दुस्तान की भाषाओं में अनबार या पुस्तकें लिखते हो या पढ़े लिखे हिन्दुस्तानियों के सामने व्याख्यान देते हों ? यदि देश भर में कहीं एक दो हों भी तो वे न होने के बराबर हैं। बीम्स, हार्नली और ग्राउन साहब आदि हिन्दी के बहुत बड़े जाननेवाले माने जाते हैं । परन्तु हिन्दी में उन्होंने कितनी कितावें लिखी हैं ? जो कुछ हिन्दी के विषय में उन्होंने लिखा है प्रायः सभी अँगरेज़ी में।

मोक्षमूलर, वेबर, रोट, बूलर, पिटर्सन, कीलहार्न, विलपन और विलियम्स संस्कृत के प्राचार्य समझे जाते हैं। पर आप लोगों के कलम से निकली हुई संस्कृत की पुस्तकें शायद ही किसीने देखी हो। हां, संस्कृत की पुस्तकों का सम्पादन इन लोगों ने धड़ाके से किया है और आलोचना प्रत्यालोचना के रूप में संस्कृत-साहित्य-सम्बन्धी किताबें अँगरेज़ी में खब
[ १६५ ]
लिखी हैं। पूर्वोक्त साहबों में से एक साहब अपनी संस्कृत- विद्वत्ता के लिए बेतरह मशहूर थे। वे बहुत दिनों बाद एक दफे बम्बई आये । बम्बई के पण्डितों ने उनको एक अभिनन्दन-पत्र संस्कृत में सुनाया। जब साहब उत्तर देने को खड़े हुए तब लोगों की आशा आसमान छूने लगी। उन्होंने समझा अब धाराबाहिनी संस्कृत भाषा सुनने को मिलेगी। परन्तु साहब लगे कर्णकटु अँगरेज़ी शब्दों से अभिनन्दन-कर्ताओं के कान कोंचने । इसपर उन्हें बेहद्द निराशा हुई। इसी तरह अरबी जानने में अरबवालों के भी कान काटनेवाले एक अँगरेज को उस साल, मुसलमानों ने,नागपुर में या कहीं और अरबी में एक प्रशंसापूर्ण लेख सुनाया, पर जबाब में इस अरबी के भी प्रचण्ड पण्डित ने अँगरेज़ी ही बूकी । एक साहब ने फारसी में सबसे ऊँचे दरजे का इम्तिहान पास किया था। विकट फारसीदाँ होने के कारण एक वार वे फारिस भेजे गये । वहां आपको एक निहायत ही अजीब बात मालूम हुई । आपने देखा कि फारिस में आपके कदम पड़ते ही फारसवाले फारसी बोलना ही भूल गये।

यदि और लोग हिन्दुस्तानी भाषा न सीखें तो न सही,पर जिन अफसरों को हिन्दुस्तानियों से दिन रात काम पड़ता है उन्हें तो ज़रूर हो सीखना चाहिए, विशेष करके ज़िले के हाकिमों को। उन्हें हिन्दी में उच्च परीक्षा पास करने पर हज़ारों रुपये इनाम भी मिलता है। तिस पर
[ १६६ ]
भी यह दशा ! एक बार कलकत्ते के किसी अँगरेज़ी अखबार में हमने पढ़ा कि उसी तरफ़ किसा जिले के एक मैजिस्ट्रेट साहब अपने इजलास में बैठे हुए एक मुकद्दमा सुन रहे थे। उस समय मुकद्दमेवालों में से किसीने कहा कि "इस ज़मान पर मेरा चिर दिन ( बहुत रोज़ ) से कब्जा है"। साहब ने समझा चिर दिन किसी आदमी का नाम है । इससे आपने चिर दिन के हाजिर किये जाने का हुक्म दिया। ऐसी ऐसी बातें कहीं न कहीं प्राय: रोज़ ही हुआ करती हैं । अतएव साहब लोगों का चाहिए कि ज़रा अपनी तरफ़ एक नज़र देख कर तब बाबुओं की अँगरेज़ी पर हँसें। बाबू लोगों की अँगरेज़ी उस हिन्दी से हज़ार दर्जे अच्छी होती है जो साहब लोग अपने दरजी, भिस्ती, बहरा और खानसामा से बोलते हैं।

लेफ्टिनेंट कर्नल डब्ल्यू० एच० स्लीमन ने इस देश के सम्बन्ध में कई किताबें लिखी है । उन्नीसवें शतक के आरम्भ में आप इस देश में थे। फ़ौजी महकमे में भी आपने बहुत दिनों तक काम किया और मुल्की में भी। कई जिलों में आप जिले के प्रधान हाकिम के पद पर रहे । १८३५ ईस्वी में आप जबलपुर में थे। वहां से छुट्टी ले कर आप आबोहवा बदलने हिमालय की तरफ़ गये। और इस सफ़र से सम्बन्ध रखनेवाली बातों पर आपने दो जिल्दों में एक किताब लिखी। उसे आपने अपनी बहन को समर्पण किया है। उसके एक अध्याय में आपने अँगरेज़ों के हिन्दी न जानने के कई उदाहरण दिये हैं । उदाहरण
[ १६७ ]
बहुत मज़ेदार हैं । जिस अध्याय में ये उदाहरण हैं उसमें और भी दो एक बातें जानने लायक हैं। इससे हम उनको यहां लिखना चाहते हैं। अच्छा, तो, अब, इसके आगे, जो बातें हम सुनाना चाहते हैं वे स्लीमन साहब ही के मुंँह से सुनिए ।

एक दिन आगरे में पादरी ग्रगरी ने हम लोगों के साथ खाना खाया। मेजर गाड बाई ने उनसे पूछा---कहिए हमारे धर्म ने यहां कितनी उन्नति की?

पादरी साहब ने कहा उन्नति ! उन्नति की आशा करना बहुत दूर की बात है। अजी, यहां तो ईसा की करामाते बयान करना शुरू करते ही इस देशवाले कृष्ण की उनसे भी सौगुनी अधिक अद्भुत करामातें उल्टा हमें सुनाने लगते हैं। वे कहते हैं कि हमारे कृष्ण ने गोवर्धन पहाड़ को छाते की तरह अपनी उँगली पर उठा लिया और जब तक पानी बरसता रहा उसे वैसे ही उठाये रहे । यदि कोई पादरी हिन्दुओं से यह कहे कि हमारे सेंटपाल नामक साधु ने कारिंथवालों के किसी धर्म विषयक सन्देह को दूर करने के लिए आसमान से सूर्य और चन्द्रमा को जमीन पर उतार लिया और काम हो जाने पर गेंद के समान उछाल कर उनको फिर अपनी अपनी जगह पर बिना चोट लगे पहुंचा दिया तो सय लोग खुशी से उस की बात पर विश्वास कर लेंगे। पर हां, यह सुन कर एक बात वे करेंगे। गोपियों का दिल बहलाने के लिए या और किसी कारण से कृष्ण की उससे भी अधिक अद्भुत और अलौकिक करामातो को वे सच्चे विश्वास से बयान करेंगे। [ १६८ ]इस समय देहली के तख़्त पर अकबर शाह नंबर २ है अकबरशाह के भाई के बड़े बेटे का नाम सुलेमाँ शिकोह है । आगरे में उनके बड़े बेटे मिर्ज़ा काम बखश से मेरी मुलाकात हुई। योरपवालों में जिनका तजुरुबा सबसे अधिक है वे भी ऊँचे दरजे के मुसलमानों के साथ अच्छी तरह बातचीत नहीं कर सकते । एक पढ़ा लिखा अच्छे घर का मुसलमान टालमी की ज्योतिष विद्या का ज्ञान रखता है, अरिस्टाटल और फ्लेटो के न्याय शास्त्र और दर्शन शास्त्र से परिचय रखता है,और योरप के कितने ही प्रसिद्ध प्रसिद्ध पणिडतों की किताबों की बातों को जानता है। क्योंकि उसने इन सब विषयों को अरबी और फ़ारसी में पढ़ा है। तत्वविद्या, साहित्य, विज्ञान और कलाकौशल सम्बन्धी बातों में उसे अच्छा शान रहता है और वह घण्टों इन विषयों पर बातचीत कर सकता है। हमलोग इन बातों को अपनी भाषा में चाहे जितनी योग्यता से कर सके, पर हिन्दुस्तानियों के साथ उनकी भाषा में बातें करना हमारे लिए इस समय बिलकुल ही असम्भव है। हम उनकी भाषा नहीं जानते और उसे अच्छी तरह नहीं बोल सकते । जितना मैं हिन्दुस्तानियों के बीच में रहा हू,और मैंने उनके साथ जितना अधिक वार्तालाप किया है उतना और किसी अँगरेज़ ने न किया होगा । पर जब मैं इस मुल्क में पढ़े लिखे आदमियों के साथ और और मुल्कों की राजपद्धति के विषय में बातचीत करता हूं तब मुझे अपनी भाषा-सम्बन्धिनी अयोग्यता पर बेहद
[ १६९ ]
अफसोस होता है। इसके सिवा विद्या, विज्ञान और कला कौशल आदि विषयों पर जब मैं बातचीत करता हूं तब भी मुझे रंज होता है । मैं इस काम के लिए भी अपने को योग्य नहीं पाता ह । मुझे आशा है कि यदि मेरे पास अपने खयालात जाहिर करने के लिए काफ़ी शब्द हो तो मैं इन विषयों पर जो कुछ कहूं उसे यहां के लोग अच्छी तरह समझलें । पर क्या करूं, मेरे पास इनकी भाषा के उतने शब्द ही नहीं हैं। यह न समझना कि इन लोगों की भाषा में सब तरह के खयालात ज़ाहिर करने के लिए शब्द ही नहीं हैं । शब्द ज़रूर हैं, पर मैं उनको जानता ही नहीं और न मैंने आज तक किसी ऐसे योरप-निवासी को देखा जो उन सबको जानता हो । जिन लोगों की पैदायश यहीं की है उनके पास शब्द तो अक्सर मतलब के लिए काफ़ी होते हैं, पर उन बेचारों के पास ख़यालात की कमी रहती है। शब्द हैं तो ख़यालात नहीं, और ख्यालात हैं तो शब्द नहीं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे देशवासी इस मुल्क में उन लोगों से अच्छी तरह नहीं मिलते जुलते, जिनके सामने इन सब विषयों पर, अज्ञानता ज़ाहिर करने में हमें शरम मालूम होनी चाहिए, बस यही भेद है। इसे सब लोग जानते हैं और मानते भी हैं।

इस देश के रहनेवाले जो हमारे कर्मचारी हे उनको असभ्य और ग्राम्य भाषा में हुक्म देते हमें शरम नहीं आती
[ १७० ]
फ़ौजी अफसरों को सिर्फ हथियार और कवायद इत्यादि के विषय में अपने सिपाहियों और नोकरों से बातचीत करनी पड़ती है। और महकमेवालों को विशेष करके अपने ही अपने महकम या खेल तमाशे के विषय में कहना सुनना पड़ता है। अपने मतलब को किसी तरह ज़ाहिर कर देना ही वे अपना परम पुरुषार्थ समझते हैं ।

ये लोग इस बात की तिनके के बराबर भी परवा नहीं करते कि ये किस तरह की भाषा बोलते हैं। सुनकर तअज्जुब होगा, पर मैं सच कहता हूं, मैंने बड़े बड़े साहय है.गों को राजा महाराजों तक से ऐसी भाषा बोलते सुना है जिसे सिवा उनके, आदमी के आकार का और कोई जीव, न समझ सकता । पर ये लोग इस कारण न तो रत्ती भर घबराते हैं और न शरमिन्दा ही होते हैं। हमें चाहिए कि या तो हम उनकी भाषा सीखें या अपनी भाषा उन्हें लिखावें । इस देशवालों को खुश करने और अपना पक्षपाती बनाने के लिए इस बात की बड़ी ज़रूरत है । इनका और हमारा परस्पर में मेल चाहे भले हो हो जाय, पर जो बातें इनमें बुरी हैं वे उस तरह की भाषा में बातचीत करने से हरगिज़ नहीं सुधर सकतीं, जिस तरह की भाषा आजकल योरपवाले यहां बोलते हैं। जब तक हम लोग परस्पर एक दूसरेको भाषा न बोल सकेंगे तब तक न्यायाधीश के आसन पर अथवा कौंसिल के दीवान खाने के भीतर, अथवा वारिस्टरों और वकीलों की कुर्सी पर हम कभी एक दूसरेकी बराबरी न कर सकेंगे । [ १७१ ]स्लीमन सहाब के वक्तव्य को हम यहीं समाप्त करते हैं। इस देशवालों के साथ बातचीत करने में योरपवाले जैसी हास्य-जनक गलतियाँ करते हैं उसके कई नमूने स्लीमन साहब ने अपनी किताब में दिये हैं। परन्तु उन्हें हम यहां पर नहीं देते । टेलर, ह् वीलर और फीलर साहब की दिल्लगी उड़ाने से क्या लाभ?

[ जनवरी १९०८