साहित्यालाप/३—नई रोमन-लिपि के प्रचार का प्रयत्न
३-नई रोमन-लिपि के प्रचार का प्रयत्न ।
अभी तक भारत की धर्मान्धता, अधार्मिकता और मूर्ति- पूजा ही की तरफ़ देश और विदेश के कुछ अन्यधर्मावलम्बियों का अधिक ध्यान था;, अभी तक वे हिन्दुओं के धर्म और सदाचार ही पर आघात करके अपने धर्म की श्रेष्ठता को घोषणा करते थे; पर अब उन्होंने अपना क़दम और भी आगे बढ़ाया है। अब वे हमारी लिपि के भी दोष दिखा कर, उसके बदले, संशोधन की हुई अपनी रोमन लिपि का प्रचार करना चाहते हैं । ये लोग जहाँ जहाँ, जिस जिस देश में, जाते हैं, वहाँ वहाँ धर्म-प्रचार करते करते क्या क्या लीलायें करते हैं, इसके उल्लेख की ज़रूरत नहीं। उदाहरण के लिए आगरे के उन पादरी साहब का नाम ले लेना ही बस होगा जिन्होंने, कुछ ही समय पूर्व, प्रयाग में सर जेम्स म्यस्टन के उपस्थित रहते, कुछ बाते बहुत ही औदार्य दर्शक कह डाली थीं, जिनके विषय में उन्होंने पीछे से यह भी कहने की कृपा की थी कि मुझे न मालूम था कि मेरी कही हुई बातों की खबर अखबारवालों को लग जायगी । परन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि सभी पादरी ऐसे होते हैं। नहीं, अनेक ऐसे भी हैं जो दूसरोंके धर्म, नीति और आचार पर अनुचित आक्षेप किये बिना ही अपने धर्म का उपदेश और प्रचार करते हैं। पादरी जे नोल्स रोमन-लिपि के प्रचार के बड़े पक्षपाती हैं। उन्होंने अपने उद्देश की सिद्धि के लिए लन्दन के " राजपूत हेरल्ड" की शरण ली है * । उसके जून १९१३ के अङ्क में आपका एक लेख निकला है । लेख का नाम है-Reading and Writing in India -अर्थात् भारत में लिखना पढ़ना। यह वही राजपूत-हेरल्ड है, जिसके सम्पादक श्रीमान् ठाकुर श्रीज्यस्सराज सिंह जी सीलोदिया है। सीसोदिया जी विलायतवासी हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान में “सिविल-सरविस परीक्षा" ली जाने के विरोधी हैं । हिन्दुस्तान के न्याय और शासन-विभागों में बड़े बड़े ओहदे पाने के उम्मेदवारों को विलायत जा कर परीक्षा देनी पड़ती है। भारत के हितचिन्तक चाहते हैं कि यह परीक्षा अपने ही देश में हुआ करे, जिससे अधिक हिन्दुस्तानी बड़े बड़े ओहदों पर नियत हो सके। पर सीसोदियाजी, कुछ अन्य भारतवासियों की तरह, इसके खिलाफ हैं । अस्तु ।
पादरी साहब को इस बात का बड़ा अफसोस है कि
- वलकत्ते के पाक्षिक पत्र कालेजियन ( Collegian ) में भी पादरी साहब ने अपने वक्तव्य का सारांश प्रकाशित किया है। उसमें आपने यह भी लिखा है कि हमारी वर्तमान लिपियां अशोक या ब्राह्मी लिपि से निकली हैं । पर अशोव-लिपि भारतवर्षीय लिपि नहीं । वह बहुत कर के किसी विदेशी लिपि से उत्पन्न हुई है । अतएव भारतवासियों केा नई विदेशी लिपि, रोमन, स्वीकार कर लेने में कोई आपत्ति न होनी चाहिए !!! हिन्दुस्तान में फ़ी सदी केवल १० आदमी साक्षर हैं। शेष ९०
फ़ी सदी निरक्षर-भट्टाचार्य हैं। वे कहते हैं कि जो लड़के प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त भी कर लेते हैं वे भी कुछ दिनों में पढ़ा पढ़ाया सब भूल जाते हैं और मूर्ख के मूर्ख रह जाते हैं। स्त्रियां तो प्राय: सभी मूर्ख हैं। फ़ी सदी एक का साक्षर होना गिनती में नहीं आ सकता । यदि शिक्षा का यही ढंग रहा तो भारत की जातीय उन्नति हो चुकी। भारत में २०० के ऊपर भाषाये और बोलियां, तथा ५० से लेकर १०० तक भिन्न भिन्न प्रकार की लिपियाँ, प्रचलित है । परन्तु नाम लेने योग्य ("properly so-called") एक भी वर्णमाला नहीं। भारत के अविद्यान्धकार, निरक्षरता और जातीय अवनति का यही कारण है । देश की दशा सुधारने के लिए एक भाषा और एक लिपि की बड़ी आवश्यकता है । अधिकांश भारत में हिन्दुस्तानी (हिन्दी-उर्दू) तो एक भाषा का स्थान प्राप्त कर सकती है। पर एक लिपि के लिए रोमन अक्षरों के प्रचार के सिवा दूसरा इलाज ही नहीं। तथापि वर्तमान रोमन अक्षरों से भारत का काम नहीं चल सकता। अतएव उनमें ऐसा संशोधन होना चाहिए जिससे भारत के सभी प्रान्तों के शब्द- समूह उनमें लिखे जा सकें ।
यही पादरी नोल्स साहब के कथन का सारांश है । भारत की निरक्षरता दूर करने के लिए आपने जिस परिवर्तित रोमन वणमाला का आविष्कार किया है वह यहां पर दी जाती है (चित्र संख्या २ देखिये )। उसमें लिखने और छापने
वर्ण अलग अलग दिये हुए हैं और जो वर्ण देवनागरी के जिस वर्ण की जगह पर है वह भी दे दिया गया है। साथ ही वैदिक संस्कृत का कुछ अंश भी, उदाहरण के तौर पर, इस सुधरी हुई रोमन-लिपि में लिख कर बताया गया है ।
नोल्स साहब को राय है कि कुछ विद्वानों की एक कमिटी बना दी जाय । उलमें भारतवाली विद्वान भी शामिल किये जाँय । वे लोग इस विषय पर विचार कर के अपनी रिपोर्ट दें। फिर गवर्नमेंट इस सुधरो हुई रोमन-वर्णमाला को स्कूलों और कचहरियों में जारी कर दे। परन्तु इस विषय को वह ऐच्छिक रखे। अर्थात् जिसका जी चाहे इन अक्षरों में लिखे पढ़े, जिस का जी न चाहे वह अन्य प्रचलित अक्षरों से काम ले । ऐसा करने से, पादरी साहब की राय है, कि कुछ ही कालोपरान्त भारत में सर्वत्र साक्षरता का साम्राज्य हो जायगा । एक भी कुटुम्ब-नहीं, कुटम्ब का एक भी मनुष्य-निरक्षर न रहेगा।
अच्छा, अब पादरी साहब की दलील को तर्क की कसौटी पर कसिए। इसमें सन्देह नहीं कि अच्छी लिपि या वर्णमाला न होने से शिक्षा-प्रचार में रुकावट होती है, परन्तु यह रुकावट क्या रोमन अक्षरों के प्रचार ही से दूर हो सकती है ? और किसी तरह नहीं हो सकती ?
इंगलैंड में रोमन अक्षरों ही का प्रचार है और हज़ारोंवर्ष से है। क्या पादरी साहब वहां की मनुष्य-गणना की रिपोर्ट या किसी और सरकारी किताब से इस बात का प्रमाण
दे सकते हैं कि वहाँ की साक्षरता रोमन-अक्षरों ही की कृपा का फल है ? व्याकरण और उच्चारण के विचार से अंगरेजी
भाषा बहुत ही दोष पूर्ण और अस्वाभाविक है । पादरीसाहव का
नाम-Knowles है। परन्तु हम जैसे अल्पज्ञ विदेशी उसका
उच्चारण कमाल्यस, क्नैल्यस, नाउल्यस, नौल्ल, नोयल्यस,
नावल्यस, नोल्स आदि एक नहीं दस बारह तरह कर सकते हैं ।
परन्तु, फिर भी, इस बात का विश्वास नहीं होता कि इनमें से कोई उच्चारण सही भी है या नहीं। जिस भाषा में But' का उच्चारण ‘बट' 'Put' का 'पुट' होता है वह कभी स्वाभाविक, निर्दोष और सहज-बोध-गम्य होने का दावा नहीं कर सकती। परन्तु जिस इंगलैंड में ऐसी दोषपूर्ण और अण्ड-वण्ड भाषा प्रचलित है उसकी साक्षरता क्यों इतनी बढ़ी चढ़ी है ? जिस
की वर्णमाला भी सदोष, जिसकी भाषा भी सदोष वह इंगलैंड तो शिक्षा के शिखर पर आरूढ़ हो जाय। पर जिस भारत में देवनागरी के सदृश प्रायः निर्दोष वर्णमाला और हिन्दी के सदृश प्रायः निर्दोष भाषा प्रचलित हो उसमें शिक्षा-प्रचार की वृद्धि के लिए नये रोमन अक्षरों के प्रचार की आवश्यकता बताई जाय ? किमाश्चर्यमतः परम् !
योरप में प्रायः सर्वत्र ही रोमन अक्षरों का प्रचार है । परन्तु क्या योरप के सभी देश एक ही से साक्षर हैं ? क्या रूस का साइबेरिया और काकेशिया प्रान्त उतना ही शिक्षित है जितना कि इंगलैंड, या जर्मनी, या फ्रांस शिक्षित है ? यदि नहीं, तो यह कहां सिद्ध हुआ कि अच्छी वर्णमाला होने ही से
कोई देश शिक्षा में सर्वोन्नत हो सकता है ? इससे तो यही सिद्ध होता है कि शिक्षोन्नति के और भी कोई कारण हैं।
अच्छा, योरप को जाने दीजिए। जापान को लीजिए । वहां तो रोमन-लिपि का प्रचार नहीं ? वहां की लिपि तो देवनागरी और रोमन दोनों ही से बदतर है न ? फिर वहां भारत की अपेक्षा शिक्षा का अधिक प्रचार क्यों है ? पादरी साहब इसका क्या जवाव रखते हैं ?
अपने ही देश का एक उदाहरण क्यों न ले लीजिए । मध्य-प्रदेश में देवनागरी लिपि का प्रचार है और वङ्गाल में बंँगला का। बंँगला लिपि देवनागरी से अच्छी नहीं। वङ्ग-भाषा उच्चारण सम्बन्धी दोष भी है। पर मध्य-प्रदेश की अपेक्षा बङ्गाल अधिक शिक्षित है। यह क्यों ? इससे तो उल्टा यह साबित होता है कि सदोष लिपि और सदोष भाषावाले प्रान्त ही शिक्षा में अधिक उन्नति करते हैं। मदरास के विषय में भी यही बात कही जा सकती है।
पादरी साहब जिले “ National Progress " (जातीय
या राष्ट्रीय उन्नति ) कहते हैं उसका रोमन अक्षरों से क्या सम्बन्ध, यह समझ में नहीं आता । अपना वस्त्र-परिच्छद, अपना धर्म, अपनी भाषा और अपनी लिपि के स्वीकार से राष्ट्रीय उन्नति को सहायता पहुंँचती है या बहिष्कार से यदि बहिष्कार से, तो नोल्स साहब कुछ ऐसे उदाहरण दे कृपा करें जिनसे यह प्रमाणित हो कि योरप के किन किन देशों में इस तरह के बहिष्कार किये गये हैं। क्योंकि योरप आज-
कल अधिक सभ्य और शिक्षित गिना जाता है। जिस तरह
उसने शिक्षा की प्राप्ति की होगी उसी तरह हम भी करने को
तैयार हैं।
मान लीजिए कि हमारे प्रान्त में यह सुधरी हुई रोमन-लिपि-माला कचहरियों और स्कूलों में जारी कर दी गई और कह दिया गया कि जिसका जी चाहे इसे सीखे और इसीमें लिखे पढ़ें। आप जानते हैं, इसका क्या फल होगा। कुछ दिनों में अरबी और नागरी, दोनों लिपियों को अध्र्दचन्द्र मिल जायगा, क्योंकि अंगरेज़ अफसर इसी लिपि को सहज में लिख पढ़ सकेंगे। इसी कारण स्वभावतः वे इसीको पसन्द करेंगे । हाकिमों के सुभीते के लिए वकील, मुख्तार, अर्जीनवीस इत्यादि इसीसे काम लेने लगेंगे। जब इस प्रकार कचहरियों में इस लिपि का प्रायः आधिपत्य हो जायगा, तब देवनागरी और अरबी लिपि का कितना आदर होगा ? यदि यह सुधरी हुई वर्णमाला जारी हो जायगी तो लोगों को इसे भी सीखना पड़ेगा । जिस वर्तमान रोमन-लिपि में अँगरेजी लिखी जाती है उसेतो सीखना ही पड़ेगा। और, अपना अपना धर्म-कर्म जानने के लिए हिन्दुओं को देवनागरी और मुसलमानों को अरबी लिपि का भी अभ्यास करना होगा। अर्थात् अभी तक तीन ही लिपियां, इन प्रांतों में, प्रचलित हैं। पादरी साहब की बदौलत यदि एक और भी प्रचलित हो गई तो चार हो जायंगी। जब तीन सीखना पड़ती हैं तब तो शिक्षा का यह हाल है, चार हो जाने पर उसके प्रचार और विस्तार का क्या कहना है । सो यह नई
वर्णमाला शिक्षा-प्रचार के मार्ग को प्रशस्त तो करेगी नहीं, उसमें बबूल के काँटे अवश्य बखेरेगी। पादरी साहब, रहने दीजिए आप अपना यह कारुण्य-कोलाहल ।
रही यह बात कि रोमन-लिपि में भारतीय भाषायें शुद्ध शुद्ध लिखी जा सकती हैं या नहीं, सो अनेक विद्वान् अनेक लेखों द्वारा इस लिपि के दोष दिखला चुके हैं और यह सिद्ध कर चुके हैं कि इसके प्रचार से हमारा काम नहीं चल सकता । न हमारी भाषायें वर्तमान रोमन-लिपि ही में अच्छी तरह लिखी जा सकती हैं और न इस परिवर्तित लिपि ही में । नोल्स साहब की वर्णमाला में कहीं 'हल' का चिह्न नहीं। "ज्योतिर्गमय" को आपने अपनी लिपि में " Jyotir gamaya" लिखा है । पर आपका-r-र का वोधक है, र् का नहीं । आपने तो शायद वैदिक संस्कृत का एक छोटा सा उदाहरण यह दिखलाने के लिए दिया है कि वेद तक हमारी लिपि में लिखे जा सकते हैं। पर उन दो चार शब्दों को भी आप सही सही नहीं लिख सके । वैदिक संस्कृत में एक वर्ण है। उसका स्थानग्राही कौन सा वर्ण रोमन में होगा ? अच्छा, उदात्त और अनुदात्त के सूचक चिह्न आपकी लिपि में कहां हैं ? ज्ञ का उच्चारण कोई न्य करता है, कोई द+न+य, कोई ज यँ । इन सब उच्चारणों के बोधक वर्ण अपनी लिपि में बताइए। और भाषाओं की बात जाने दीजिए, आप अपनी लिपि में सही सही संस्कृत ही लिख कर दिखा दीजिए। यदि आप यह सिद्ध भी कर दें कि अपनी लिपि में आप सब कुछ लिख सकते हैं तो भी हम अपनी ही लिपि
में लिखना पढ़ना पसन्द करेंगे। अपनी वस्तु का आदर करना
स्वयं आप ही की जाति हमें सिखा रही है। आपकी पोशाक आप ही के शीत-प्रधान देश के अनुकूल है । पर आप उसे क्वेटा
और जैकवाबाद में भी नहीं छोड़ते। ११५ दर्जे की गरमी में भी
फुल बूट, मोज़े डबल पतलून और दो दो तीन तीन मोटे ऊनी
कपड़े डाँटे रहते हैं । उस समय आप उपयोगिता और अनुपयो-
गिता का ख्याल क्यों नहीं करते ? सो आपकी लिपि आप ही
को मुबारक रहे। हमारा काम हमारी दोष-पूर्ण लिपि ही से अच्छी तरह चल जायगा।
श्रीमन्, यदि हमारी मूर्खता लिपिपरिवर्तन ही से दूर हो जाती तो शिक्षा विभाग के किसी भी अधिकारी के मन में तो यह बात आती। आपने तो बोर्ड आफ एजुकेशन की रिपोर्टं पढ़ी हैं। डाइरेक्टर जेनरल आव इजुकेशन की रिपोर्टं पढ़ी हैं, गवर्नमेंट की ऐडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्टं पढ़ी हैं-किसीमें आपके बताये हुए इलाज का उल्लेख है ? क्या आप नहीं जानते कि भारत की निरक्षरता का क्या कारण है ? क्या ये जो सरकारी रिपोर्ट और रेजोल्यूशन्स निकलते हैं उनमें इस निरक्षरता का कारण सविस्तर नहीं लिखा रहता ? फिर आप यह एक नया अडङ्गा क्यों लगाने की चेष्टा कर रहे हैं ? आप विद्वान हैं, अत एव आप पर हम गज-निमीलना का दोषारोप नहीं कर सकते। आप ही बताइए, बात क्या है ? लिपि और भाषा चाहे कितनी ही सरल, सुबोध और निर्दोष क्यों न हो, यदि शिक्षा का समुचित प्रबन्ध न किया जायगा तो मूर्खता
दूर हो कैसे सकेगी? यदि आप ही की आविष्कृत लिपि का
प्रचार हो जाय तो क्या प्रचार की आज्ञा निकलते ही भारत की
निरक्षरता नष्ट हो जायगी ? कोस भर दूर षट्रस भोजन रख देने से क्या भूखे की भूख कभी जा सकती है ? स्कूलों और
कालेजों में भरती होने की इच्छा रखनेवाले लड़को को, जगह
को कमी बता कर, निकाल देने से निरक्षरता नहीं दूर हो सकती।
निरक्षरता दूर होगी गाँव गाँव में स्कूल खोलने और शिक्षा के लिए अधिक रुपया ख़र्च करने से। सम्राट् से ले कर साधारण सरकारी अफसर तक इस बात को जानते हैं । शिक्षा-प्रचार के लिए यदि काफ़ी रुपया खर्च किया जाय और शिक्षा की प्राप्ति अनिवार्य कर दी जाय तो देखिए फिर भारत की निरक्षरता कितने दिन टिकती है। पादरी साहब, यदि आप भारत के सच्चे शुभचिन्तक हैं और उसकी निरक्षरता से आप के दिल पर सचमुच ही चोट लगी है, तो नई रोमन-लिपि के आविष्कार और प्रचार की चेष्टा छोड़ दीजिए । चेष्टा इस बात की कीजिए जिससे प्रारम्भिक पाठशालाओं की संख्या की वृद्धि हो और सरकार इस समय शिक्षाप्रचार के लिए जितना रुपया खर्च करती है उससे अधिक खर्च करे। यह आपको मंजूर न हो तो मुनिव्रत ही धारण किये रहिये। हम इसीको अपनी बहुत बड़ी सहायता समझेंगे ।
यहां पर हम अपने मुसलमान भाइयों से एक प्रार्थना करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि वे पादरी साहब के उस
लेख को एक बार पढ़ लें जो “राजपूत हेरल्ड" में प्रकाशित
हुआ है। उससे उन्हें मालूम हो जायगा कि उनकी अरबी लिपि को पादरी साहब यहां की सार्वदेशिक लिपि होने योग्य नहीं समझते। इस दशा में, यदि वे हिन्दुस्तान को अपना देश समझते हों तो देवनागरी-लिपि को उन्हें भी आश्रय देना चाहिए, नहीं तो देवनागरी भी जायगी और अरबी-फ़ारसी भी। उनकी जगह रोमन ले लेगी, जो हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों, के लिए बड़े ही दुःख की बात होगी।
[जुलाई १९१३]