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साहित्यालाप/४—देशव्यापक भाषा

विकिस्रोत से
साहित्यालाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ २९ से – ६२ तक

 

४--देशव्यापक भाषा।

(१)

विषय-प्रवेश।

कुछ दिनों से दो एक सज्जनों का मन देश में एक भाषा करने की ओर आकर्षित हुआ है। पहले पहल परिडत वामन राव पेठे ने एक लेख, इस विषय पर, मराठी में लिख कर प्रकाशित किया। उन पर दक्षिण के अनेक विद्वानी और समाचारपत्रोंने अनुकूल सम्मति दी। पण्डित गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने उस लेख का हिन्दी में अनुवाद किया। यह अनुवाद नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के तीसरे भाग में छपा है। यह लेख पड़ने योग्य है। इस लेख ने कुछ लोगों के हृदय में देश में एक भाषा होने की आवश्यकता का बीज अंकुरिल कर दिया। मराठी और गुजराती के समाचारपत्रों में, कभी कभी, इस विषय पर लेख निकलने लगे। एक आध मराठी और गुजराती समाचारपत्र ने तो मराठी और गुजराती के साथ साथ हिन्दी के लेख भी प्रकाशित करना स्वीकार किया। ये सब शुभ लक्षण हैं। विद्यानुराग में बढ़ा हुआ वङ्गदेश अभी तक बिलकुल चुप है। जहां तक हम जानते हैं, इस सम्बन्ध में, किसी वङ्गवासी ने चकार तक नहीं

लिखी। आशा है, वे, इस मौनावलम्बन को छोड़ कर, वङ्गदेश में भी, देश में एक भाषा होने के लाभालाभ का विचार लोगों के मन में जागृत करेंगे।

बरोदा से “ श्रीसयाजी-विजय " नामक एक समाचारपत्र निकलता है। उसकी भाषा मराठी है। वह मराठी के अच्छे समाचारपत्रों में से है। कुछ काल हुआ उसमें “हिन्दुस्थान की राष्ट्र-भाषा " नामक एक लम्बा लेख कई अंकों में निकला था। उसे पण्डित भास्कर विष्णु फड़के ने जयपुर से लिखा है। यह लेख पढ़ने योग्य है ; विचार करने योग्य है। वामनराव पेठे के समान भास्कर राव फड़के ने भी इस देश में एक भाषा होने की बड़ी आवश्यकता दिखाई है। देश-व्यापी भाषा होने के योग्य उन्होंने अपनी मातृभाषा मराठी को नहीं बतलाया ; और न गुजराती ही को बतलाया। वङ्गभाषा को भी उन्होंने इस योग्य नहीं समझा ! स्मरण रखिए, ये तीनों भाषायें इस देश में, इस समय, बहुत अच्छी अवस्था में हैं; उन्नत है; प्रतिदिन अधिक अधिक उन्नत होती जाती हैं , और यथाक्रम एक दूसरेसे अधिक ऊर्जित दशा में हैं। यद्यपि ये भाषायें इतनी उन्नत हैं, तथापि पूर्वोक्त पण्डितों ने इनको देश भर की भाषा होनेकी योग्यता से खाली पाया है ! देशव्यापक भाषा होने की योग्यता उन्होंने पाई किसमें है ? हिन्दी में! वही हिन्दी, जिसे इन प्रान्तों के प्रवीण पण्डित और विद्वान् बाबू लोग निरादर की दृष्टि से देखते हैं; जिसमें छपे हुए समाचारपत्र पढ़ना वे पातक समझते हैं; जिसमें अपना

नाम लिखने की बहुत ही बड़ी आवश्यकता पड़ने पर वे "वशेशर-परशाद ” और “किकन-सरूप" आदि लिख कर अपनी मातृ-भाषा के प्रेम की पराकाष्ठा दिखलाते हैं ! जिनकी मातृ-भाषा हिन्दी है ; जो अपनी माता से, जो अपनी स्त्री से, जो अपने लड़के लड़कियों से हिन्दी बोलते हैं ; और जो हिन्दी ही में स्वप्न देखते हैं, उनको मानो लजित करने ही के लिए अथवा धिक्कारने ही के लिए, आगरा, इलाहाबाद और बनारस से सैकड़ों कोस दूर दूर बसनेवाले महाराष्ट्र और गुजरात देश के पण्डितों ने हिन्दी की महिमा गाई है ! धन्य उनकी सत्य-प्रीति और उदारता ! और धिक् हिन्दी बोलनेवालों की कृतघ्नता!

पण्डित भास्कर विष्णु फड़के का लेख बहुत उपयोगी है। जिनकी भाषा हिन्दी है उनके लिए वह विशेष उपयोगी है; पढ़ने योग्य है ; मनन करने योग्य है। इसलिए, हम, भास्कर-राव के लेख के आधार पर यह लेख लिख रहे हैं।

देशब्यापक भाषा की आवश्यकता ।

वाणी और अर्थ का जो सम्बन्ध हैं ; जल और तरङ्ग का जो सम्बन्ध है; शरीर और आत्मा का जो सम्बन्ध है-देश और देशत्व का वही सम्बन्ध है। देश का जो धर्म है, देश का जो गुण है, देश का जो भाव है उसीको देशत्व कहते हैं । जिसके बिना देश कोई चीज़ ही नहीं रह जाता वही देशत्व है। आत्मा के बिना शरीर मिट्टी है ; अर्थ के बिना वाणी मिट्टी है; देशत्व के बिना देश भी मिट्टी है। जिस देश से देशत्व निकाल

लिया गया है वह देश केवल देखने अथवा केवल कहने के लिए देश है। उसमें सार नहीं। आत्मा-हीन शरीर प्रेत कहलाता है। देशत्वहीन देश भी प्रेत-तुल्य है। जिस शरीर में चेतना है; जिसमें नाना प्रकार के विकार अपनी अपनी सत्ता चला रहे हैं; जिसे सुख दुःख का ज्ञान है अर्थात--जो सजीव है-उसीको शरीर संज्ञा दी जा सकती है। इसी प्रकार जिस देश में देशाभिमान है, देशप्रीति है, देशभक्ति है, देशलेवा है, उसी का नाम देश है। जिसमें देशाभिमान नहीं है; जिसमें आत्मभिमान नहीं है; जिसमें रहनेवाले स्वार्थत्याग के बिलकुल ही भूल गये हैं और अपने पूजनीय पूर्वजों का आदर करना जानते ही नहीं ; जहाँ ऐक्य नहीं ; जहां प्रेम नहीं; जहां एक भाषा नहीं ; जहां एक धर्म नहीं ; वह देश चाहे जितना विस्तीर्ण हो; उसकी लोक-संख्या चाहे जितनी अधिक हो; वह देशत्व-युक्त देश कदापि नहीं कहा जा सकता। वह देशत्व-पद को त्रिकाल में भी नहीं प्राप्त कर सकता। वह चेतनाहीन शरीर के समान निश्चेष्ट, निष्क्रिय, हेय और घृणा का पात्र है।

देश को देशत्व प्राप्त होने के लिए विशेष करके दो बातें दरकार होती हैं। एक भाषा, दूसरा धर्म। अर्थात् जिस देश में सर्वत्र एक ही भाषा और एक ही धर्म प्रचलित है वहीं देश देशत्वयुक्त है। अर्थात् देश को सजीव रखने के लिए एक भाषा और एक धर्म की प्रधान आवश्यकता रहती है। इन दो बातों की सहायता से, देश में देशत्व उत्पन्न करने के लिए

अक्छे अच्छे कवि, लेखक, धार्मिक, तत्ववेत्ता, वक्ता, और विज्ञानी आदि विद्वानों की आवश्यकता होती है। क्योंकि बिना इनके देश में देशत्व नहीं आ सकता। करोड़ों स्वाभिमानहीन, निरुद्यमी, मूर्ख और अशिक्षित लोगों की अपेक्षा दस पाँच विद्वान, चतुर, देशभक्त और आत्माभिमान पूर्ण पुरुषों ही से देश में अधिक सजीवता आती है। ऐसे ही पुरुषों को अपने देश का देशत्व सजीव रखने का प्रयत्न, उचित उपायों द्वारा, करना चाहिए।

देश चेतनता और एका बना रखने किंवा उत्पन्न करने के लिए परस्पर प्रीति और सहानुभूति की बड़ी आवश्यकता होती है। देशप्रीति को जागृत और सहानुभूति को उत्पन्न करने के लिए, जैसा कि ऊपर कहा गया है, एक भाषा और एक धर्म होने की बड़ी जरूरत है। इस विस्तीर्ण भारतवर्ष में एक धर्म होने की आशा नहीं। सबका एक धर्म हो जाना बिलकुल असम्भव जान पड़ता है। हिन्दू, मुसल्मान, पारसी, क्रिश्चियन, जैन आदि धर्मों को मेट कर एक धर्म कर देना महा कठिन काम है। इस समय तो ऐसा ही जान पड़ता है। आगे की ईश्वर जाने । परन्तु सबकी भाषा एक हो जाना असम्भव नहीं। भाषा एक हो सकती है। उसके एक हो जाने से देश का परम कल्याण हो सकता है। अतएव धर्म की बात छोड़ कर भाषा ही की बात हम इस लेख में कहना चाहते हैं।

इस देश के उत्तर में दो भाषायें प्रधान हैं-हिन्दी और

बङ्गला। उर्दू हिन्दी ही की एक शाखा है। दक्षिण में चार भाषायें प्रधान हैं-मराठी, गुजराती, कनारी और तामील । इनके सिवा और भी कई भाषायें हैं, परन्तु उनमें परस्पर कम भेद है। उन्हें इन्हीं भाषाओं के अन्तर्गत समझना चाहिए। यों तो थोड़ी थोड़ी दूर पर भाषा ( बोली ) बदल गई है। बुंदेलखंड की हिन्दी एक प्रकार की है ; विहार की दूसरे प्रकार की, और अवध की तीसरे ही प्रकार की । ये भेद कोई भेद नहीं। इन्हें भाषा के भेद न कह कर बोली के भेद कहना चाहिए। यह बात इसी देश में नहीं, और देशों में भी पाई जाती है। ग्रेट ब्रिटेन की भाषा अङ्गरेज़ी है। परन्तु इंगलैंड, स्काटलैंड और आयरलैंड में बोली जानेवाली भाषा में थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य है। यह अन्तर कोई अन्तर नहीं। आचार, विचार और स्थिति में अन्तर पड़ने से भाषामें भी अन्तर पड़ जाता है। परन्तु यह समझ कर ही हमको चुप न रहना चाहिए। हमको इसका विचार करना चाहिए कि एक भाषा होने से देश को अधिक लाभ है अथवा अनेक भाषायें होने से अधिक लाभ है।

देश में एक भाषा न होने से सब लोगों में परस्पर प्रीति कभी नहीं उत्पन्न हो सकती। भिन्न भिन्न भाषा बोलनेवाले अपने विचार और अपनी सुख-दुःख की बातें दूसरोंसे नहीं कह सकते। बङ्गालियों को मराठी नहीं समझ पड़ती, पजाबियों को तामील नहीं समझ पड़ती, गुजरातियों को कनारी नहीं समझ पड़ती, और महाराष्ट्रों को बङ्गला भाषा नहीं समझ

पड़ती। इस लिए ये लोग परस्पर के विचार परस्पर को नहीं समझा सकते, और अपने सुख:दुःख की बातें नहीं कह सकते। और जब तक ऐसा न होगा तब तक महाराष्ट्रों को बँगालियों पर प्रेम न होगा और बँगालियों को महाराष्ट्रों अथवा गुजरातियों अथवा इन प्रान्तों के निवासियों पर प्रेम न होगा । प्रेम और स- हानुभूति उत्पन्न होने के लिए एक दूसरेकी बात समझने की सब से बड़ी आवश्यकता है। एक देश में रह कर भी, भाषा भिन्न होने के कारण हम लोग एक दूसरेसे अपरिचित हो रहे हैं। ए मदरासी जब प्रयाग आता है तब वह समझता है कि वह किसी दूसरी बिलायत को पहुंच गया। इसी प्रकार जब कोई इधरका निवासी रामेश्वर की यात्रा के निमित्त वहां जाता है तो मड्यू रा में प्राय: वही कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं जो अमेरिका अथवा जापान जाने से उसे उठानी पड़ती। इसका कारण क्या है ? इसका कारण है यही कि हम सबकी भाषा एक नहीं।

भरतखण्ड-रूपी शरीर के बङ्गाली, मदरासी, महाराष्ट्र, गुजराती, पजाबी और राजपूत आदि अवयव हैं। जैसे शरीर का बल, तेज और आरोग्य अवयवों की सुस्थता पर अवलम्बित रहता है वैसे ही देश का देशत्व उसमें रहनेवालों की परस्पर सहानुभूति और प्रीति पर अवलम्बित रहता है। एक अवयव पर यदि कोई संकट आता है तो सब अवयव उसे टालने का यत्न करते हैं, क्योंकि ये सब एक ही शरीर से सम्बन्ध रहते हैं। इसी नियमानुसार हम सबको चाहिए कि यदि अपने किसी देश-बान्धव पर कोई कष्ट आवे तो हम सब उसके निवारण के

लिए एकत्र हो कर प्रयत्न करें। इस एकत्र होने ही, इस एका करने ही में देश का बल है, इसीमें देश का उत्कर्ष है, इसीमें देश का कल्याण है। शेख सादी ने क्या ही अच्छा कहा है---

बनी आदम आजाय यक दीगरन्द ।

के दर आफ़रीनिश ज़ि यक जौहरन्द ॥

चु अज़वे मदद आनरद रोज़गार ।

दिगर अज़वहारा न मानद फ़रार ॥

तु गर मेहनते दीगरां बेग़मी।

न शायद के नामत नेहन्द आदमी॥

अर्थात् ब्रह्मा की सारी सृष्टि परस्पर अवयव के समान है; क्योंकि सबकी उत्रत्ति एक ही तत्व से है। यदि एक अवयव को पीडा पहुंचती है तो दूसरे अवयव सी घड़ा उठते हैं। इसलिए यदि तू दूसरेके दुःख से दुःखित न हुआ तो तू मनुष्य कहलाये जाने के योग्य ही नहीं। इसमें 'आदम' और 'आदमी' दे दो शब्द ध्यान में रखने योग्य हैं।

देश के काम-काज भापा ही के द्वारा होते हैं। यदि भाषा न हो तो सहसा सब ब्यापार बन्द हो जायं। यजिन चलाने के लिए जैसे भाफ की आवश्यकता है, देश के काम-काज चलाने के लिए वैसे ही भाषा की आवश्यकता है। भाषा ही देश के कार्य-कलाप चलाने की प्रधान शक्ति है। भारतवर्ष के भिन्न २ प्रान्तों में रहनेवाले, जब एक सर्वसाधारण भाषा के द्वारा अपने विचार एक दूसरे पर प्रकट कर सकेंगे तभी देश की दशा सुध-

रेगी। अन्यथा नहीं। देश में देशत्व उत्पन्न करने के लिए एक भाषा का होना ही प्रधान साधन समझना चाहिए।

जो भाषा गांव में, नगर में, घर में, सभा-समाज में और राज-दरबार में, सब कहीं, काम आती है वहीं देश-व्यापक भाषा है। हिमालय से लेकर कन्या-कुमारी तक एक ऐसी भाषा नहीं है जिसके द्वारा सब लोगों के विचार प्रकट किये जा सके, जो देश की संचालक शक्ति हो; जिसकी सहायता से प्रजा मात्र के व्यवहार चलें। इस अभाव के कारण हमारी बड़ी हानि हो रही है। यदि यथा-रामय योग्य उपायों के द्वारा यह अभाव दूर कर दिया गया तो हमारी हानि होती ही चली जायगी और बहुत होगी। एक भाषा होने का प्रभाव विलक्षण होता है। बहुत भारी असर होता है। उससे मनुष्यों के हृदय में यह वासना जागृत हो उठती है कि हम सब एक है; यह देश हमारा ही है; इसकी उन्नति के लिए प्रयत्न करना हमारा धर्म है; देश का हित ही हमारा हित है। देश के हित को केन्द्र समझ कर जब सब लोग अपने हित की चिन्तना करते हैं, तभी देश का कल्याण होता है और तभी प्रजा का भी कल्याण होता है। एक भाषा न होने से सजा देशाभिमान कभी नहीं उत्पन्न हो सकता। परस्पर एका कभी नहीं उत्पन्न हो सकता; परस्पर प्रेमभाव भी कमी नहीं उत्पन्न हो सकता। इसीलिए एक देशव्यापक भाषा की परम आवश्यकता है।

व्यापक भाषा होने के लिए हिन्दी की योग्यता ।

इस देश की भाषायें दो भागों में विभक्त हैं। एक आर्य
भाषा, दूसरी द्राविड़ भाषा । आर्य भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से है। परन्तु द्राविड़ भाषात्रों की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं। जिस समय आर्यों ने इस देश में पैर रक्खा और क्रम क्रम से इसे पादाक्रान्त करते हुए और यहां के प्राचीन निवासियों को हटाते हुए वे गङ्गा यमुना के मध्यवर्ती देश तक पहुँचे, उस समय उनकी भाषा संस्कृत थी। उसके बहुत काल पीछे तक भी उनकी भाषा संस्कृत ही रही। परन्तु ज्यों ज्यों वे आगे बढ़ते गये और ज्यों जजों वे परस्पर एक दूसरे वृन्द से दूर होते गये त्यों त्यों देश और काल के अनुसार उनके व्यवहार में अन्तर होता गया और भाषा भी उनकी बदलती गई। यह अन्तर धीरे धीरे बढ़ता गया। यहां तक कि कुछ दिनों में प्रत्येक वृन्द की भाषा और व्यवहार ने एक नया ही रूप धारण किया। एक दूसरेकी भाषा में इतना भेद हो गया कि उसकी एकरूपता बहुत कुछ नष्ट हो गई । साधारण रीति पर देखने से यह न जान पड़ने लगा कि भिन्न भिन्न लोगों की भाषाओं का मूल एक ही है। परन्तु प्रकृति, प्रत्यय, संज्ञा और क्रिया आदि का विचार करने से यह बात तत्काल ध्यान में आ जाती है कि यद्यपि, प्रत्येक प्रान्त में, इस समय भिन्न भिन्न भाषायें बोली जाती हैं, तथापि सारी आर्य भाषायें संस्कृत ही से निकली हैं। किसी का अधिक रूपान्तर हो गया है, किसाका कम; परन्तु सबका उद्भव एक ही स्थान से है। जिनकी मूल भाषा संस्कृत थी उन आर्यों का प्रधान वृन्द चिरकाल तक उस प्रदेश में रहा जिसमें हम लोग इस समय रहते हैं--- वह प्रदेश जो गङ्गा और यमुना के

बीच में है। जैसे जैसे अर्यों की वृद्धि होती गई तैसे तैसे उन्होंने इसी प्रदेश से आगे पैर बढ़ाया। अतएव यह कहना चाहिए कि इस प्रदेश के निवासियों की भाषा आर्यों की मूल भाषा संस्कृत से अधिक निकट सम्बन्ध रक्खेगी। और मूल भाषा से विशेष सम्बन्ध होने के कारण टूसरी भाषाओं से भी बह थोड़ी बहुत समता भी अवश्य ही रवखेगी। यह कौन भाषा है ? यह वही भाषा है जिसे इन प्रान्तों के निवासी प्रायः निरादर की दृष्टि से देखते है ! इसीका नाम "हिन्दी" है। अतएव यदि इस देश में, कोई देशव्यापक भाषा हो सकती है तो हिन्दी ही हो खकती है।

[सितम्बर १९०३

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(२)

संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रदेश, मध्यभारत, राजपूताना और विहार की भाषा हिन्दी है । पज्जाब में जो भाषा बोली जाती है वह भी हिन्दी ही है, क्योंकि उर्दू कोई भिन्न भाषा नहीं। वह हिन्दी ही की एक शाखा है। हिन्दी और उर्दू का व्याकरण एक ही है। फ़ारसी और अरबी के शब्दों की प्रचुरता होने से उर्दू उन लोगों की समझ में अच्छी तरह नहीं आ सकती जिनको इन दोनों भाषाओं के शब्दों का थोड़ा बहुत ज्ञान नहीं है। उर्दू की यदि यह कठिनता निकाल दी जाय तो उसमें और बोलचाल की

साधारण हिन्दी में कुछ भी अन्तर न रहे। इसलिए उर्दू को हिन्दी ही लमलना चाहिए। मुसल्मान नागरी अक्षरों के विरोधी हैं, परन्तु यदि के इस देश को अपना देश समझते हैं और इसमेंसजीवता लाकर हिन्दुओं के साथ साथ अपना भी कल्याण करना चाहते हैं तो उनको विरोध छोड़ देना चाहिए। दस ही पन्द्रह दिनों के नागरी अक्षर लीख सकते हैं और उन अक्षरों में छपी हुई सरल पुस्तकें और समाचारपत्र पढ़ सकते हैं। इन प्रान्तों के मदरसों में तो गवर्नमेंट ने फारसी अक्षरों के साथ नागरी अक्षर भी सिखलाये जाने का नियम कर दिया है। अतएव मुसलमानों को नागरी अक्षर पढ़ने और शुद्ध हिन्दी बोलने तथा लिखने में अब बहुत ही कम कठिनाई पड़ेगी।

हिन्दुस्तान के उत्तर में केवल दो ही भाषायें प्रधान है। एक हिन्दी, दूसरी बँगला । बँगला माया बंगाल के निवासी बोलते हैं। यह भाषा मैथिली भाषा से मिलती है, और मैथिली भाषा हिन्दी ही है, कोई पृथक भाषा नहीं। बँगला में संस्कृत शब्दों का प्राचुय्र्य है । इस लए हिन्दी जाननेवालों को उसे सीखने में कम प्रयास पड़ता है। बँगला के क्रियापद और विशेष विशेष संज्ञायें जान लेने ही से हिन्दीवाले उसे भली भांति समझ सकते हैं। अतएव जब हिन्दी जाननेवालों के लिए बँगला इतना सरल है तो बंगालियों के लिए हिन्दी और भी सरल होनी चाहिए और वह है ही सरल। बंगाल के निवाली मध्यप्रान्त,मध्यभारत, बिहार और पज्जाब आदि में भरे पड़े हैं। उनको सर्वदा हिन्दी बोलनेवालों से काम पड़ता है। वे खूब हिन्दी बोल

सकते हैं। जो लोग बंगाल से बाहर नहीं आये उनकी भी समझ में हिन्दी आ जाती है। क्योंकि क्रियापदों को छोड़ कर हिन्दी और बंगला में और कोई विशेष भेद नहीं। उड़ीसा की भाषा उड़िया कहलाती है। वह बँगला ही की एक शाखा है। इस लिए उसके विषय में अलग विचार करने की आवश्यकता नहीं। यदि कोई उड़िया दूसरे प्रान्तों में यात्रा के लिए निकलता है तो उसे हिन्दी ही से काम पड़ता है। वह चाहे हिन्दी न बोल सके ; परन्तु दूसरे प्रान्तवाले उससे हिन्दी ही में बातचीत करते हैं। उड़िया लोगोंही की नहीं, और प्रान्तवालों की भी परित्राता हिन्दी ही है। महाराष्ट्र, गुजरात, तैलड़्ग और द्रविड आदि प्रदेशों के रहनेवाले जब भिन्न भाषा बोलनेवाले प्रान्तों को जाते हैं तब उनको हिन्दी ही से काम पड़ता है। हिन्दी ही उनकी सहायक होती है। अतएव सबको सहायता देनेवाली यह दयामयी हिन्दी ही देशब्यापक भाषा होने के योग्य है। उसे दस करोड़ मनुष्य बोलते हैं और कोई दस ही करोड़ समझ सकते हैं। शेष दस करोड़ उसे थोड़े ही प्रयास में सीख सकते हैं। जिस भाषा को इस विस्तृत देश के दो तिहाई लोग समझ सकें उसके देशव्यापक होने की योग्यता के विषय में और अधिक प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है ?

हिन्दुस्तान के दक्षिण में चार भाषाओं की प्रधानता है- मराठी, गुजराती, कनारी और तामील। इनमें से मराठी भाषा हिन्दी से बहुत कुछ मिलती जुलती है। सबसे बड़ी समता-समता क्यों, तद्रूपता तो यह है कि मराठी भी देवनागरी ही
लिपि में लिखी जाती है। इसलिए मराठी बोलनेवाले बिना प्रयास हिन्दी की पुस्तकें पढ़ सकते हैं और हिन्दी बोलनेवाले मराठी की पुस्तकें पढ़ सकते हैं । बँगला की तरह मराठी में भी क्रियापदों और विशेष विशेष संज्ञाओं को छोड़ कर शेष संस्कृत ही के शब्द रहते हैं । अतएव थोड़े ही प्रयास से महाराष्ट्र लोग हिन्दी और हिन्दी बोलनेबाले मराठी सीख सकते हैं। महाराष्ट्रों को हिन्दी सीखने के लिए चार पांच महीने काफी समझना चाहिए। सीखने की विशेष आवश्यकता भी नहीं है। दो चार महीने हिन्दी के समाचारपत्र और पुस्तकें धीरे धीरे पढ़ते रहने ही से वे हिन्दी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। महाराष्ट्रों को हिन्दी बोलने और सुनने का बहुत अवसर मिलता है। उनमें गानेवाले बहुधा हिन्दी के गीत गाते हैं। हिन्दी के पद और हिन्दी की ठुमरियां उनको वहुत पसन्द हैं। हरिदास लोग महाराष्ट्रों में कथा कहते हैं; वे भी बहुधा हिन्दी के दोहे, पद और धनाक्षरी कथा के बीच बीच में कहते हैं। इसके सिवा महाराष्ट्रों को हिन्दी में व्याख्यान भी कभी कभी सुनने को मिलते हैं। महाराष्ट्रों के लिए हिन्दी नई नहीं। उससे उनका सम्पर्क सदैव बना रहता है । अतएव यदि वे हिन्दी को अपनी भाषा बना लें तो उनको किसी ऐसी कठिनाई का सामना न करना पड़े जो सहज ही में हल न हो सके। हिन्दी और मराठी की वाक्य-रचना की रीति एक ही है। व्याकरण में भी कोई विशेष अन्तर नहीं ; अन्तर इतना ही है कि महाराष्ट्र तीन लिङ्ग मानते हैं और हमलोग

केवल दो-स्त्री लिङ्ग और पुल्लिङ्ग ; नपुंसक लिङ्ग हम नहीं मानते। परन्तु यह अन्तर कोई अन्तर है ? जिस महाराष्ट्र ने कभी हिन्दी नहीं पढ़ी उससे यदि किसी हिन्दी-समाचारपत्र का एक कालम ( स्तम्भ ) पढ़ाया जाये तो वह भी उसका भावार्थ अवश्य समझ जायगा।

महाराष्ट्रों की तरह गुजराती भी सहज ही में हिन्दी सीख सकते हैं। यद्यपि गुजराती लिपि देवनागरी लिपि से कुछ भिन्न है ; तथापि उसकी भिन्नता बहुत ही थोड़ी है। देवनागरी लिपि जाननेवाले दो ही तीन दिनों में गुजराती लिपि सीख कर उसे अच्छी तरह पढ़ सकते हैं। गुजराती अक्षरों का सिर खुला रहता है ; उनमें ऊपर लकीर नहीं रहती। गुजरात राजपूताने से लगा हुआ है। इसलिए गुजरातियों को हिन्दी बोलनेवालों से बहुत काम पड़ा करता है। उनमें लिखे पड़े लोग तो हिन्दी समझते ही हैं ; बेपढ़े भी थोड़ा बहुत समझ लेते हैं।

जिसमें हिन्दी लिखी जाती है उस देवनागरी लिपि से, गुजराती के समान, बँगला लिपि में भी बहुत कम अन्तर है। बंगाल और गुजरात में धर्म-सम्बन्धी प्रायः सभी संस्कृत-ग्रन्थ देवनागरी लिपि में हैं। संस्कृत का प्रचार भी उन प्रान्तों में कम नहीं। सभी लिखे पड़े लोगों को देवनागरी लिपि का बहुधा बोध होता है। अतएव यदि गुजरात और वङ्गदेश में गुजराती और बंगला के स्थान में देवनागरी लिपि काम में लाई जाय तो क्या ही अच्छी बात हो ; थोड़े ही दिनों में हिन्दी की

ओर मनुष्यों की अधिक प्रवृत्ति हो जाय और हिन्दी के प्रचार में बड़ी सुविधा हो। वङ्गदेश के निवासियों को हिन्दी समझने में कोई कठिनता नहीं पड़ती और न गुजरातियों ही को पड़े। और, यदि गुजरातियों को कुछ कठिनता पड़े भी तो महीने पन्द्रह दिन हिन्दी के पत्र और पुस्तकें पढ़ने ही से वह कठिनता दूर हो सकती है। अतएव यदि महाराष्ट्र, गुजराती और बँगाली अपने अपने प्रान्त में हिन्दी का प्रचार कर दें तो इस विस्तीर्ण देशके १ भाग में हिन्दी प्रचलित हो जाय। इससे देश का परम कल्याण हो ; शीघ्र ही देश में सचेतनता आ जाय ; ऐक्य को वृद्धि हो ; और परस्पर सहानुभूति जागृत हो उठे ।‌ वंगवासियों में विद्या का अधिक प्रचार है। उनमें बड़े बड़े विद्वान्, बड़े बड़े देश-हितैषी और बड़े बड़े महानुभाव विद्यमान हैं। क्या वे इस बात का विचार न करेंगे? करना तो चाहिए। उन्हींको, इस विषय में, अग्रणी होना चाहिए। यदि वे सचमुच महानुभाव हैं ; यदि सचमुच ही विद्या से उनके अन्तःकरण परिमार्जित हो गये हैं ; यदि देशहितचिन्तन की एक भी कणा सचमुच ही उनके हृदय में प्रज्वलित है ; तो अवश्यमेव उनको इस कल्याणकारी कार्य में शीघ्र अग्रगामी होना चाहिए।

ऊपर हमने लिखा है, कि इस देश की भाषायें दो स्थूल विभागों में विभक्त हैं, एक आय , दूसरी द्राविड़ । आर्य भाषाओं का विचार हो चुका, अब द्राविड़ अर्थात् अनार्य भाषाओं के सम्बन्ध में हमें कुछ कहना है। अनार्य भाषाओं में कनारी और तामील मुख्य हैं। ये दोनों भाषायें संस्कृत से कुछ भी समता नहीं रखतीं । ये बिलकुल ही भिन्न भाषायें हैं। इनकी लिपि भी संस्कृत, अर्थात्, देवनागरी लिपि से भिन्न है। इनमें से कनारी का प्रचार बहुत कम है। वह विशेष करके माइसोर और उसके आसपास के ज़िलों में बोली जाती है। परन्तु तामील बोलने-वालों की संख्या अधिक है। यह भाषा मदरास हाते में बहुत अधिकता से बोली जाती है। भारतवर्ष के एक अष्टमांश में तामील का प्रचार है। किसीका मत है कि मदरास प्रान्त के निवासी आर्यों की सन्तान नहीं, इस लिए उनकी भाषा और उनकी लिपि आर्यों की भाषा और लिपि से नहीं मिलती। किसी किसीका मत है कि वे आर्यों ही की सन्तान हैं, परन्तु अनार्यों को हटाते हटाते वे दक्षिण में बहुत दूर तक चले गये, और वहां से आगे अनार्यों को कहीं जाने का मार्ग न रहने के कारण, आर्य और अनार्य पास पास रहने लगे। इस सतत सहबास के कारण आय्यौं में अनार्यों की भाषा का प्रचार हो गया।

और प्रान्तों की अपेक्षा मदरास में धार्मिक शिक्षा का अधिक प्रचार है। शङ्कर, बल्लभ, रामानुज आदि के अनुयायी उस तरफ़ अधिक हैं। ये तीनों महात्मा उस प्रान्त में बहुत काल तक रहे भी हैं। इस कारण वहां पहले ही से धार्मिक शिक्षा की ओर लोगों की प्रवृत्ति अधिक है। हमारे वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद् सब संस्कृत ही में हैं। इसलिए संस्कृत

पढ़े बिना उनका ज्ञान नहीं हो सकता। इन्हीं कारणों से मदरास में संस्कृत का पठन-पाठन पहले से चला आता है। इसके सिवा अब गवर्नमेंट कालेजों में अंगरेज़ी के साथ संस्कृत की भी शिक्षा दी जाती है। अतएव अंगरेज़ी के विद्वान् (नये चाल के मनुष्य ) और हिन्दू-शास्त्रों से परिचय रखनेवाले पुरानी चाल के पण्डित, सभी थोड़ी बहुत संस्कृत भाषा अवश्य जानते हैं। मदरास की ओर संस्कृत के अनेक बड़े बड़े विद्वान् हुए हैं और अब भी हैं। संस्कृत में समाचारपत्र तक वहां से निकलते हैं। संस्कृत और हिन्दी की लिपि एक ही है। हिन्दी में संस्कृत के शब्द भी अनेक हैं। अतएव यदि मदरास में हिन्दी भाषा का प्रचार किया जाय तो उसकी लिपि के पढ़ने में बहुत ही कम कठिनता मनुष्यों को उठानी पड़े। रहा भाषाका शान, सो वह भी वर्ष छः महीने के परिश्रम ही से यदि देश का कल्याण होता हो तो कौन ऐसा अधम होगा जो उस परिश्रम को उठाना न स्वीकार करेगा ?

मराठी की लिपि वही है जो हिन्दी की है। गुजराती और बङ्गला का लिपि भी हिन्दी की लिपि से बहुत कुछ मिलती है। थोड़े ही प्रयत्न से बङ्गला और गुजराती पढ़नेवाले हिन्दी लिख पढ़ सकेंगे। रही तामील और कनारी । सो मदरास में संस्कृत का अधिक प्रचार होने के कारण, यदि सर्वसाधारण को नहीं तो शिक्षित लोगों को तो हिन्दी थोड़े ही समय में साध्य हो सकती है। इससे यह स्पष्ट है कि हिन्दी को देश-व्यापक भाषा

बनाना सर्वथा सम्भव है। एक भाषा होने से जो एकता, जो प्रीति और जो सहानुभूति उत्पन्न हो सकती है वह और किसी दूसरे साधन से नहीं हो सकती। अतएव हमारे देशहित-चिन्तक सज्जनों को उचित है कि वे इस विषय का चिन्तन करें, औरों का चित्त इस ओर प्राकर्षित करें, और हिन्दी को देश-व्यापक भाषा बनाने के लिए यथासाध्य प्रयत्न करें। यदि देश भर में एक बार ही एक भाषा न हो सके तो एक लिपि होने में तो कोई विशेष, अनुल्लंघनीय, कठिनताई नहीं जान पड़ती। एक लिपि हो जाने से हिन्दी के ज्ञाता बङ्गला पुस्तकों में भरे हुए ज्ञान-भण्डार का प्रास्वादन कर सकेंगे और बङ्गदेश के रहनेवाले महाराष्ट्र भाषा के साहि य से लाभ उठा सकेंगे। इसी प्रकार गुजराती, तामील और कनारी आदि भाषाओं के ज्ञाता भा परस्पर एक दूसरेके साहिय से अपने ज्ञान की सहज ही में वृद्धि कर सकेंगे। एक लिपि हो जाने से भाषा-सम्बन्धी कठिनाइयाँ बहुत कम हो जाती हैं। यदि दस पाँच शब्दों का अर्थ न भी समझ में आया तो विषय और सन्दर्भ का विचार कर के वाक्य का किंवा लेख का भावार्थ ध्यान में अवश्य ही आ जाता है। एक लिपि हो जाने से दूसरे प्रान्तों की भाषायें सीखने में बहुत दिन नहीं लगते। योरप में एक ही लिपि है । यही कारण है जो थोड़े ही परिश्रम से वहां वाले फ्रेंच,इटालियन, पोर्चुगीज़, इङ्गलिश और जर्मन आदि भाषायें सीख लेते हैं । यदि हमारे देशमें भी एक लिपि हो जाय और पढ़ा लिखे लोग मुख्य मुख्य भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर के एक भाषा हाने

का प्रयत्न करें तो सफलता होने में कोई सन्देह नहीं। एक भाषा होना सारे देश का कार्य है। इसमें सारे देश की भलाई है । यह समझ कर प्रत्येक देश-भक्त का धर्म है कि वह काया-वाचा मनसा इस विषय में उद्योग करें। उद्योग करने से क्या नहीं होता ? उद्योगी पुरुष आल्पस् और हिमालय की चोटियों पर चढ़ जाते हैं, उत्तरी ध्रुव की यात्रा कर आते हैं, स्वेज़ के समान प्रचंँड नहर खोद लेते हैं और लङ्का को हिन्दुस्तान से रेल-द्वारा जोड़ देने का भी प्रयत्न सोचते हैं । उद्योगी पुरुष की सहायता ईश्वर भी करता है। उसे किसी न किसी दिन अवश्य यश मिलता है। ईश्वर से हमारी प्रार्थना है कि वह हम लोगों को इस सम्बन्ध में उद्योग करने की बुद्धि और उत्तेजना दे !

[ अक्टोवर १९०३

[३]

देवनागरी लिपि के गुण ।

देश की उन्नति उसका भाषा की उन्नति पर अवलम्बित रहती है। जिस देश की भाषा अच्छी दशा में है, वह देश उन्नत हुए बिना नहीं रहता । विचारों को प्रकट करने का मार्ग भाषा ही है। जिस देश में सुविचारों का अभाव है उस देश की अवस्था कभी नहीं सुधरती और सुविचारों का, कला-कौशल-सम्बन्धी ज्ञान का और ब्यापार-विषयक तारतम्य आदि का, देश में भाषा ही के द्वारा प्रचार होता है। इसीसे देश को उन्नत करने के लिए भाषा की उन्नति ही मुख्य साधन है। जितने देश हम अच्छी दशा में देखते हैं उन सबको हम अपनी अपनी भाषा को प्रौढ़, सुगम और विशेष व्यापक करने में सदैव तत्पर देखते हैं। हमारे प्रभु अगरेजों को देखिए। यद्यपि उनकी भाषा में उच्चारण आदि सम्बन्धी कितने ही बड़े बड़े दोष हैं, तथापि उनका उस पर विलक्षण प्रेम है। वे उसकी अभिवृद्धि के लिए सदैव यत्नवान् रहते हैं। कोई विषय ऐसा नहीं जिसके सैकड़ों ग्रन्थ अङ्गरेजी में न हों। इन्हीं ग्रन्थों के द्वारा लोगों की सज्ञानता बढ़ती है, उनके विचार प्रौढ़ होते हैं, उनकी बुद्धि विकसित होती है। इन्हीं गुणों के योग से देश की प्रतिदिन अधिक अधिक उन्नति होती जाती है।

जब सज्ञानता की वृद्धि के लिए केवल भाषा ही एक मात्र मुख्य साधन है तब जिस लिपि में भाषा लिखी जाय, वह लिपि भी सर्वगुण-विशिष्ट, सरल और निर्दोष होनी चाहिए। गुणों का विवार करने में फ़ारसी लिपि का तो नाम ही न लेना चाहिए, क्योंकि उसकी बराबर सदोष और भ्रामक दूसरी लिपि शायद ही इस भूतल में हो। अगरेज़ी लिपि विदेशी है और अनेक दोषों से दूषित है। अंगरेज़ों ही के लड़के उस लिपि की पुस्तके बिना दो ढाई वर्ष परिश्रम किये अच्छी तरह नहीं पढ़ सकते। परन्तु देवनागरी की पुस्तके हमारे देश में छः सात वर्ष के छोटे छोटे बालक केवल पाँच छः महीने में पढ़ने लगते हैं। अतएव नागरी-लिपि के सामने अंगरेजी लिपि को किसी प्रकार श्रेष्टता नहीं मिल सकती। कनारी, तामील और

तैलङ्गी आदि लिपियां तो अनार्यों ही की लिपियां ठहरीं। उनकी सदोषता की तो बात ही न कहिए। वे तो किसी प्रकार ग्राह्य नहीं। रहीं बङ्गला और गुजराती लिपियां, सो ये देवनागरी लिपि ही की रूपान्तर हैं। उसीसे बिगड़ कर वे बनी हैं अतएव उनको प्रधानता नहीं मिल सकती। प्रधान लिपि वही है जिससे वे बनी हैं। इसी लिए देवनागरी लिपि ही में देश-ब्यापक भाषा का होना इष्ट है।

देवनागरी लिपि के समान, शुद्ध, सरल और मनोहर लिपि संसार में नहीं। विदेशीय और विजातीय विद्वानों तक ने उसकी प्रशंसा की है। विद्वान् बेडन साहब कहते हैं-

“संस्कृत लिपि की सरलता और शुद्धता सबको स्वीकार करनी पड़ेगी। संसार में संस्कृत के समान शुद्ध और स्पष्ट लिपि दूसरी नहीं।"

संस्कृत लिपि ही को देवनागरी लिपि कहते हैं। इस लिपि की पूर्णता और स्पष्टता के विषय में इतना ही कहना बस है कि इसकी रचना उच्चारण के अनुसार है। मुख से जैसा उच्चारण होता है उसीके अनुसार इसमें वर्ण रक्खे गये हैं। यही एक ऐसी लिपि है जिसमें दूसरी भाषाओं के कठिन से‌ कठिन शब्द बड़ी शुद्धता से लिखे जा सकते हैं और वसे ही पढ़े भी जा सकते हैं। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् अध्यापक माँनियर विलियम्स् लिखते हैं-

“सच तो यह है कि संस्कृत लिपि जितनी अच्छी है उतनी अच्छी और कोई लिपि नहीं। मेरा तो यह मत है कि

संस्कृन-लिपि मनुष्यों की उत्पन्न की हुई नहीं ; किन्तु देवताओं की उत्पन्न की हुई है।"

बम्बई के हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस, सर अस्किन पेरी "नोटस टू ओरियंटल केसेज़" ( Notes to Oriental Cases) की भूमिका में लिखते हैं---

“इस एक ही बात से संस्कृत-लिपि की सर्वाङ्गपूर्णता सिद्ध होती है कि उसमें प्रत्येक शब्द का उच्चारण केवल अक्षर देखकर होता है। वर्ण-परिचय होते ही हिन्दुस्तान के लड़के बिना रुके कोई भी पुस्तक पढ़ सकते हैं । उनको चाहे विषय का शान न हो, परन्तु पढ़ने में उनको कोई कठिनता नहीं होती। योरप में पुस्तकों को साधारण रीति पर पढ़ने के लिए लड़कों को दो बर्ष लगते हैं ;परन्तु इस देश में, जहां संस्कृत-लिपि का प्रचार है, तीन ही महीने में लड़के पुस्तकें पढ़ने लगते हैं।

विद्वान् मुसलमानों तक ने देवनागरी लिपि की प्रशंसा की है। शमसुलुल्मा सय्यद अली बिलग्रामी ने लिखा है---

“फारसी लिपि की कठिनता ही के कारण मुसलमानों में विद्या का कम प्रचार है। फ़ारसी लिपि शुद्ध भी नहीं है और देखने में भी अच्छी नहीं है। फ़ारसी अक्षरों में, थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना आने में, दो वर्ष लगजाते हैं ; परन्तु देवनागरी लिपि में हिन्दी लिखने पढ़ने के लिए तीन महीने बस हैं।"

सब गुणों से सम्पन्न, सुन्दर, स्पष्ट और सरल देवनागरी लिपि ही में, देश में, हिन्दी भाषा का प्रचार होना चाहिए। हम लोगों को इस लिपि का अभिमान होना चाहिए । और
उसके प्रचार के लिए कोई बात उठा न रखनी चाहिए। यह लिपि कोहेनूर हीरा है ; अनमोल रत्न है। इसे छोड़ कर हमको काँच से क्यों तृप्त होना चाहिए। देवनागरी लिपि को छोड़ कर किसी दूसरी अशुद्ध, अपूर्ण, कर्कश, कर्णकटु और भ्रामक लिपि को आश्रय देना अविचार की पराकाष्ठा है। गुणवान् का योग्य आदर न करने से उसकी क्या हानि ? कुछ नहीं। हानि अनादर न करनेवालों ही की है।

अतएव बंगाली, महाराष्ट्र, गुजराती और मदरासी विद्वानों को इस सर्व-गुण-शालिनी नागरी-लिपि ही को आश्रय देना चाहिए। एक लिपि हो जाने से एक भाषा होने की कठिनता बहुत कम हो जायगी। लिपि की एकता होने से सहानुभूति बढ़ेगी ; परस्पर के विचारों का मेल मिलने लगेगा; परायापन कम हो जायगा ; और सबके हृदय में यह बात जम जायगी कि यद्यपि हम लोग भिन्न भिन्न भाषायें बोलते हैं तथापि सब एक ही देश के निवासी हैं। लिपि के एक होते ही, यदि सब के नहीं, तो शिक्षित लोगों के मन में यह बात अवश्य स्थान कर लेगी कि हम हिन्दू हैं; हमारी भाषा हिन्दी है और हमारा देश हिन्दुस्तान है। " हिन्दी और हिन्दुस्तान" ही इस देश की उन्नति का मूल मन्त्र है। शिक्षित-समाज में इस मन्त्र का अनुष्ठान प्रारम्भ होने पर सर्वसाधारण लोग भी क्रम क्रम से इसकी दीक्षा लेंगे और यथा-समय यह देश भी देशत्व का अधिकारी होगा।

इस समय हिन्दी का साहित्य अच्छी दशा में नहीं। यदि
हम यह कहें कि हिन्दी में, नाम लेने योग्य, साहित्य ही नहीं तो भी बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। इसके कई कारण हैं। एक कारण यह है कि इन प्रान्तों में लोगों की प्रवृत्ति पढ़ने लिखने की ओर कम है। जो अपने लड़के को स्कूल भेजता है वह ज्ञान-सम्पादन के लिए नहीं, किन्तु सरकारी नौकरी मिलने के लिए भेजता है। दूसरा कारण यह है कि सरकार आज तक हिन्दी की ओर से उदासीन थी। अब उसने हिन्दी को भी आश्रय दिया है। अतएव शीघ्र ही इसकी दशा सुधरने की आशा है। परन्तु उसकी वर्तमान अवस्था का विचार करने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता इस बात के बिचार की है कि हिन्दी देश-ब्यापक भाषा हो सकती है या नहीं; और ऐसा होने से देश को लाभ पहुंच सकता है या नहीं। इन बातों का विचार हम ऊपर कर आये हैं। हिन्दी सब प्रकार व्यापक भाषा होने के योग्य है। यदि इस देश में कोई व्यापक भाषा हो सकती है तो हिन्दी ही हो सकती है। इसलिए उसकी वर्तमान स्थिति की ओर दृक्पात न करके उसके गुणों ही का विचार करना अभीष्ट है। रत्न यदि कूड़े में फेंक दिया जाय तो उसका क्या अपराध ? अपराध फेंकनेवाले का है। वहां पड़ा रहने से उसका रत्नत्व नहीं जाता। किसीने कहा है-

कनक भूषणसंग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रपुणि प्रणिधीयते ।

न स विरौति न चापि हि शोभते भवति योजयितुर्वचनीयता॥

अर्थात् सोने की अंगूठी में जड़े जाने योग्य हीरे को यदि किसीने कांसे में जड़ दिया तो उसका क्या दोष ? इस दशा

में न तो वह वहां पर शोभित ही होता है और न कुछ कहता ही है। हां, जड़नेवाले की बुद्धिमानी की सब लोग चर्चा अवश्य करते हैं ! अतएव हिन्दी के वर्तमान साहित्य का विचार न करके उसकी योग्यता ही का विचार करना उचित है। और योग्यता का विचार करने पर सबको यही स्वीकार करना पड़ेगा कि वह देश-व्यापक भाषा होने के सर्वथा योग्य है इसलिए उसकी साहित्य-विषयक न्यूनता, उसे व्यापक भाषा बनाने की किसी प्रकार अवरोधक नहीं।

हिन्दी लिपि और हिन्दी भाषा के प्रचार का यदि निश्चय भी किया जाय तो गवर्नमेंट उसे स्वीकार करेगी या नहीं ? यह एक प्रश्न है। हम नहीं जानते, गवर्नमेंट इसमें क्यों बाधा डालेगी। एक लिपि और एक भाषा होने से गवर्नमेंट को सब प्रकार लाभ ही लाभ है ; हानि नहीं। इस समय अधिकारियों को जो बँगला, गुजराती और तामील आदि क्लिष्ट लिपियां और क्लिष्ट भाषायें सीखनी पड़ती हैं वे उन्हें न सीखनी पड़ेगी। इन कष्ठसाध्य भाषाओं को सीखने में योरोपियन सिबिलियन अधिकारियों को बहुत समय लगता है ; बहुत कष्ट उठाना पड़ता है ; परन्तु तिस पर भी उनको उनका यथोचित ज्ञान नहीं होता। हिन्दी का प्रचार हो जानेसे फिर, “चिरदिन" के नाम समन्स भेजे जाने का अवसर कदापि न आवेगा। भाषा की बात राजनीति से सम्बन्ध नहीं रखती। भाषा के सम्बन्ध में किसी गूढ़ मन्त्रणा की शंका नहीं की जा सकती। भाषा एक होने से राजा और प्रजा दोनोंको समान लाभ है। जिस
हिन्दी लिपि के गुणों का वर्णन बड़े बड़े पाश्चात्य विद्वानों ने किया है उसे गवर्नमेंट को भी स्वीकार करना चाहिए । सब लोगों को भी उसे देश-ब्यापक लिपि बनाने की चेष्टा करनी चाहिए; गवर्नमेंट से उन्हें प्रार्थना भी करनी चाचिए । गवर्नमेंट तभी बाधा देगी जब लोकमत में विरोध होगा; अन्यथा नहीं' और यदि उसने यह प्रस्ताव न भी स्वीकार किया तो हिन्दी के विषय में चर्चा करते रहने, उसके व्यापक भाषा न होने के दोष बतलाने और सारे देश का एक मत होने से, किसी न किसी दिन, गवर्नमेंट अवश्य ही प्रजा का प्रस्ताव स्वीकार करेगी। देश में एक भाषा होने के गुण ऐसे गुरु, ऐसे प्रखर और ऐसे सर्व-सम्मत हैं कि गवर्नमेंट को शायद इस प्रस्ताव का विशेष विरोध न करना पड़े।

देश भर में एक लिपि और एक भाषा करने में जो कठिनाइयां जान पड़ती हैं वे सब उल्लंघनीय हैं। ये ऐसी नहीं जिनका प्रतिबन्ध न हो सके। सब प्रान्तों में देवनागरी लिपि प्रचलित करने का सहज उपाय यह है कि प्राइमरी (प्रारम्भिक) मदरसों में उसकी शिक्षा दी जाय। वदि ऐसा किया जाय तो बहुत ही थोड़े दिनों में इस लिपि का सब कहीं प्रचार हो जाय और शीघ्र ही प्रजा में सहानुभूति जागृत हो उठे। यदि एक सम्मत हो कर सब लोग गवर्नमेंट से इस विषय में प्रार्थना करें तो सर्वथा सम्भव है कि वह इस परमोचित प्रार्थना को स्वीकार कर ले और प्रारम्भिक मदरसों में, और और विषयों के साथ, नागरी लिपि का भी प्रचार कर दे। परन्तु, कल्पना

कीजिए कि गवर्नमेंट ने ऐसा करना मंज़ूर न किया तो क्या इस लिपि को प्रचलित करने का और कोई मार्ग ही नहीं और कोई उपाय ही नहीं ? है क्यों नहीं। अवश्य है। ऐसे अनेक स्कूल हैं जिनपर गवर्नमेंट का कोई स्वत्व नहीं ; वे सर्वथा प्रजा ही के खर्च से चलते हैं । उनमें हिन्दीलिपि की शिक्षा प्रारम्भ कर दी जाय। इस प्रकार के जितने स्कूल हैं सबमें हिन्दी लिपि यदि सिखलाई जाय तो वर्ष ही छ:महीने में हज़ारों नहीं, लाखों, लड़के और लड़कियाँ, देश में हिन्दी लिखने लगें; और इस लिपि को व्यापक लिपि करने में बहुत सहायता मिले। देश के कल्याण के लिए, देश के मङ्गल के लिए, इस मृतक देश को फिर सजीव करने के लिए, यह क्या कोई बड़ा बात है?

यदि हिन्दी लिपि प्रचलित हो जाय तो दूसरी लिपि के आज तक जो असंख्य उत्तमोत्तम ग्रन्थ निकल चुके हैं उनका क्या हो ? अनन्त धन जो छापेखानों के मालिकों और व्यापारियों ने इन ग्रन्थों के लिए लगाया है उसकी क्या दशा हो ? उस हानि से किस प्रकार निस्तार हो ? ये बातें भी सहसा मन में उठती हैं और थोड़ी देर के लिए एक लिपि की असम्भवनीयता प्रकट करती हैं। परन्तु, विचार करने से यह असम्भवनीयता जाती रहती है। जो पुस्तकें, जो काग़ज़त, जो दस्तावेज़ इस समय बँगला, गुजराती और तामील आदि भाषाओं की लिपियों में हैं उनको वैसे ही रहने देना चाहिए। पुस्तकें जब दुबारा छपें तब उनकी लिपि हिन्दी कर देने से काम निकल

सकता है। ऐसा करने से किसीको कुछ भी हानि न उठानी पड़ेगी। एक लिपि का प्रचार होने (लिपि नहीं, भाषा का भी प्रचार होने ) के सैकड़ों वर्ष आगे तक लोग अपनी मूल भाषा को न भूलेंगे ; और सम्भव है उनकी मूल भाषा सदा बनी ही रहे। इस दशा में पुरानी पुस्तकें, जो हिन्दी लिपि में छपेंगी, उनको पढ़ने और समझने में कोई कठिनता न उपस्थित होगी। यही बात दस्तावेजों के विषय में भी समान रूप से कही जा सकती है। पुराने कागजात जैसे हैं वैसे ही रहें। हां, नये देवनागरी लिपि में लिखे जायें। यदि ऐसे महान् देशकार्य में किसीको थोड़ी सी हानि भी उठानी पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं। ऐसे अनेक महात्मा हो गये हैं, और अब भी हैं, जिन्होंने देशहित के लिए अखण्ड परिश्रम किया है; जिन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति दे डाली है; जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया है, जिन्होंने अपने प्राणों तक की भी परवा नहीं की!

इस काम के लिए आत्मावलम्बन दरकार है ; दृढ़ निश्चय दरकार है ; दीर्घ प्रयत्न दरकार है। परावलम्बन से काम नहीं चल सकता। परावलम्बन से सफलता की बहुत ही‌ कम आशा होती है । गवर्नमेंट का मुंह ताकने की अपेक्षा स्वयं कुछ करके दिखलाना चाहिए, गवर्नमेंट से सहायता माँगने के पहले भिन्न भिन्न भाषाओं के दो चार समाचारपत्रों को हिन्दी लिपि में निकलना चाहिए। सर्वसाधारण के खर्च से चलने- वाले स्कूलों में हिन्दी लिपि और, तदनन्तर, हिन्दी भाषा का

थोड़ा थोड़ा प्रचार होना चाहिए। सब कहीं इस विषय की चर्चा होनी चाहिए ; लेख निकलने चाहिए; पुस्तकें छपनी चाहिए ; लोगों का चित्त इस ओर अनेक उपायों से आकर्षित किया जाना चाहिए। इन बातों की बड़ी आवश्यकता है। बिना इसके सफलता असम्भव है। अपनी उन्नति के लिए हम को स्वयं कमर कसना चाहिए। यदि भाषा-सम्बन्धिनी उन्नति की अभिलाषा से हम बद्धपरिकर होंगे और कुछ करके दिखलावेंगे तो गवर्नमेंट भी,यथा-समय, हमारी अवश्य सहायता करेगी।

सब कहीं हिन्दी लिपि प्रचसित करने की अपेक्षा हिन्दी भाषा प्रचलित करने में विशेष कठिनता की सम्भावना है। इस समय प्रत्येक प्रान्त के निवासी अपनी अपनी भाषा को उन्नत करने के प्रयत्न में हैं। महाराष्ट्र, गुजराती, मदरासी और बंगाली, सभी अनेक प्रकार से, अपने अपने साहित्य को सुश्रीक करने में लगे हैं। अनुवाद करने, नवीन पुस्तकें लिखने, व्याख्यान देने, उत्तमोत्तम मासिक पुस्तकें और समाचारपत्र निकालने के लिए अनेक सभायें, अनेक समाज, और अनेक क्लब स्थापित हुए हैं। वे भला कब चाहेंगे कि उनकी भाषा त्याज्य समझी जाय, और हिन्दी, जो इस समय सबसे पीछे पड़ी है,देश-ब्यापक भाषा बनाई जाय। परन्तु, देश के हित के लिए उनको द्रुराग्रह छोड़ना पड़ेगा, ऐक्य उत्पन्न करने लिए अपने पराये की भावना भुलानी पड़ेगी, सहानुभूति का बीज अंकुरित करने के लिए थोड़ा सा कष्ट उठाना पड़ेगा। हमे अपने शासक अंगरेजों की ओर दृक्पात करना चाहिए। देश का काम

उपस्थित होते ही वे किस साहस से, किस उत्तेजना से, किस स्वार्थत्याग से उठ खड़े होते हैं और तन, मन, धन, सभी अर्पण करके कार्यसिद्धि होने तक सारा दुराग्रह और सारा पक्षपात भूल जाते हैं। यदि भाषा के सम्बन्ध में भी हम लोगों ने यह गुण उनसे न सीखा तो हमने कुछ भी न किया । यदि यह भी हमसे न हो सका तो हमको समझना चाहिए कि कभी हमारा सिर ऊंचा न होगा। हमारा जो अधःपतन हुआ है उससे कभी हमारा निस्तार न होगा, हम कभी एकजातित्व के गुणों से परिपूर्ण हो कर सुखी न होंगे। आकल्पान्त हम इसी शोचनीय दशा में पड़े रहेंगे। कौन ऐसा अधम है जो इसी में सुख मानेगा !

जरा जापान की ओर दृष्टि कीजिए। अलग अलग छोटी छोटी रियासतों में बटे रहने के कारण, जब अपनी अशक्तता जापानियों की समझ में आ गई, तब उन्होंने एकमत होकर अपनी अपनी रियासतें और अपनी अपनी सेनाये गवर्नमेंट के सिपुर्द कर दी। इससे जापान शीघ्र ही प्रबल हो उठा और वह पृथ्वी के शक्तिमान देशों में गिना जाने लगा। इसीका नाम स्वार्थ-त्याग है। हिन्दी को व्यापक भाषा बनाने के लिए महाराष्ट्र, गुजराती, मदरासी और बङ्गालियों को क्या उतना स्वार्थ-त्याग करने की आवश्यकता है जितना कि जापानियों ने किया है ? नहीं । उसका दशांश भी नहीं । उनको अपनी भाषा के स्थान में हिन्दी भाषा को प्रधानता ही भर देना है। यह कोई बहुत बड़ा स्वार्थ-त्याग नहीं।
फिर, इसकी आवश्यकता भी नहीं कि और लोग अपनी अपनी भाषाओं को बिलकुल ही भूल जायं। उनमें वे कोई पुस्तक ही न लिखें। उनमें वे अपने विचार ही न प्रकट करें। वे यह सब कर सकते हैं। देश-व्यापक भाषा के लिए केवल । इतना ही आवश्यक है कि इस विस्तीर्ण देश में जितनी भिन्न भिन्न भाषायें प्रचलित हैं उनके उत्तमोत्तम ग्रन्थों का प्रतिबिम्ब देश-ब्यापक भाषा में उतारा जाय। किसी भाषा का कोई भी ग्रन्थ हो उसकी प्रतिमा हिन्दी में आनी चाहिए। ऐसा किये बिना उन ग्रन्थों का सार्वत्रिक प्रचार न होगा। ऐसा किये बिना विशेष ज्ञानवृद्धि न होगी। प्रत्येक मनुष्य को अपनी अपनी भाषा के साहित्य के साथ साथ हिन्दी के साहित्य के उत्कर्ष के लिए हृदय से प्रयत्न करना चाहिए। हिन्दी पढ़ने का प्रचार सब कहीं होना चाहिए। हिन्दी में अच्छे अच्छे समाचरपत्र सब प्रान्तों से निकलने चाहिए। ऐसा होने से हिन्दी की शीघ्र ही उन्नति होगी और वह सुगमता से देश-व्यापक भाषा हो सकेगी।


उपसंहार।

यहां तक जो कुछ लिखा गया उससे यह स्पष्ट है कि हिन्दुस्तान में यदि कोई भाषा देश-ब्यापक हो सकती है तो वह हिन्दी ही है। व्यापक भाषा होने के लिए वह सब प्रकार योग्य है। सरलता, शुद्धता और पूर्णता में हिन्दी लिपि की बराबरी दूसरी लिपि नहीं कर सकती। एक भाषा न होने से जो हानियां

हैं उनका भी ऊपर ज़िक्र हो चुका है, और एक भाषा होने से जो लाभ हैं उनका भी ज़िक्र हो चुका है। हिन्दी को देशव्यापक भाषा बनाने में कठिनतायें अवश्य उपस्थित होंगी। परन्तु उन का सामना करना उचित है । उनको हल करना उचित है। वे ऐसी नहीं हैं जो उल्लंघनीय न हों। इस देश की अपेक्षा रूस बहुत बड़ा देश है। वहां भी अनेक भाषायें प्रचलित हैं। ऐसे विस्तीर्ण देश में भी, इस समय, एक रशियन भाषा को देशव्यापक बनाने का प्रयत्न हो रहा है और सफलता के पूरे लक्षण दिखाई दे रहे हैं। इस लिए जब रूस के समान विशाल देश में एक भाषा हो सकती है तब इस देश में भी हो सकती है। रूस में यह विशेषता है कि राजा की भाषा रशियन ही है । यह बात इस देश में नहीं। परन्तु गवर्नमेंट की सहायता के बिना भी, हिन्दी को, हमलोग देश-व्यापक भाषा बना सकते हैं, सफल-मनोरथ होने के लिए एकता की आवश्यकता है, दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है, अध्यवसाय की आवश्यकता है । बस इतना ही चाहिए; इतनेही में सब कुछ आ गया । उद्योग करने से सिद्धि हुए बिना नहीं रहती। विलम्ब चाहे हो, परन्तु सिद्धि होती अवश्य है।

देश के मङ्गल के लिए, देश के कल्याण के लिए, देश को सचेतन करने के लिए एक भाषा होने की परमावश्यकता है। जिसने इस देश में जन्म लिया है, जिसने इस देश का अन्न जल ग्रहण किया है, जो इस देश से कुछ भी प्रीति रखता है, उसका धर्म है कि वह इसे सजीव करने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न

करे। उसका धर्म है कि इस मृत भारतवर्ष को एक भाषा- रूपी सञ्जीवनी शक्ति के द्वारा सजीव करे। ऐसा न करना, और न करके इस मृतक के मृण्मय पिण्ड पर पदाघात करते रहना घोर कृतघ्नता है ! हमारा देश हिन्दुस्तान है, अतएव हमारी स्वाभाविक भाषा हिन्दी है। हिन्दी और हिन्दुस्तान का सम्बन्ध अविच्छिन्न है। देखें, हमारे देश-बन्धु इस सम्बन्ध को दृढ़ करने के लिए कब कमर कसते हैं।

[नवंबर १९०३


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