साहित्यालाप/५ देशव्यापक लिपि

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५ देशव्यापक लिपि ।

देश में एक भाषा और एक लिपि के प्रस्ताव का सूत्रपात हुए बहुत दिन हुए। इस विषय की आवश्यकता, उपयोगिता और गुरुता पर महाराष्ट्र और गुर्जर देश के कई सुविज्ञ लेखकों ने लेख लिखे हैं । हिन्दी में भी इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाले कईएक निबन्ध निकल चुके हैं। उनमें एक भाषा और एक लिपि की आवश्यकता पर बहुत कुछ विचार किया गया है। समाज का जो भाग अधिक उत्साही, अधिक प्रभुतावान् और अधिक विद्या-व्यासङ्गी होता है, उसके प्रस्तावों का-उसकी बातों का-समाज पर अधिक असर पड़ता है। चार भाइयों में जो भाई-चाहे वह सबसे छोटा ही क्यों न हो-अधिक योग्य, प्रतिष्ठित और समाजमान्य होता है उसकी बात अक्सर सब भाई मानते हैं। जो जितना ही अधिक विद्वान है उसकी बुद्धि भी उतनी ही अधिक काम देती है। इन्हीं सब बातों का विचार करके हमने एक दफे सूचना की थी कि यदि बङ्गाली विद्वान इस विषय में अगुआ हों तो कार्य-सिद्धि की अधिक आशा है। हर्ष की बात है, हमारी सूचना व्यर्थ नहीं गई। चाहे यह बात काकतालीय न्याय ही से हुई हो, पर हुई अवश्य। जब से कलकत्ते के हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज माननीय शारदाचरण मित्र ने एक प्रबन्ध पढ़ कर
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देश में एक लिपि होने का प्रस्ताव किया, तब से इस विषय में कुछ सजीवता आने लगी है।

देश में एक लिपि होने के विषय में माननीय शारदाचरण के प्रस्ताव का अनुमोदन भी हुआ है और विरोध भी। अनुमोदन-कर्ताओं की संख्या अधिक है, विरोधियों की कम । विरोध-कर्ताओं में विशेष करके अगरेज़ हैं। उनकी दलीलों का खण्डन माननीय शारदा बाबू ने बड़ी योग्यता से किया है। इस विषय में उनके कई युक्तिपूर्ण और विद्वत्ता-गर्भित लेख अगरेजी और बंगला मासिक पुस्तकों में निकल चुके हैं। उनके अगुवा होने से इस विषय को अधिक महत्त्व मिला है; उसमें कुछ कुछ प्राणसञ्चार हो पाया है ; उसकी उपयोगिता लोगों के खयाल में आने लगी है। इस विषय का विचार शुरू हो गया । जब विचार होता है तब विवाद भी होता है। विवाद होने से सत्य ही की जीत होती है । और सत्य से लाभ के सिवा हानि नहीं होती। देश भर में एक व्यापक लिपि की आवश्यकता है। यह बात सच है । इससे यदि ऐसी लिपि का प्रचार हो जाय तो अवश्य लाभ हो । इसमें सन्देह नहीं।

योरप में इङ्गलैंड, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, रूस, इटली, स्वीडन आदि अनेक देश हैं। उन सबकी भाषा अलग अलग है । पर लिपि सबकी एक है । यही क्यों ? जो लिपि योरप में है वही अमेरिका में भी है। वही हजारों कोस दूर ऑस्ट्रेलिया और न्यूजी- लैंड आदि टापुओं में भी है। इसका फल भी प्रत्यक्ष है। एक लिपि में लिखी जानेवाली प्रत्येक भाषा के अनेक शब्दों की
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उत्पत्ति ग्रीक और रोमन आदि पुरानी भाषाओं से होने के कारण योरप और अमेरिकावाले अपनी भाषाओं के सिवा दो दो चार चार अन्य भाषायें भी सहज ही में सीख लेते हैं। इस तरह अन्य भाषाओं के विद्वानों के ग्रन्थ और लेखों से वे बहुत कुछ लाभ उठाते हैं। इस कारण उनमें परस्पर सहानुभूति और एकता बढ़ जाती है । एक देश में रहने, एक तरह की पोशाक पहनने और एक धर्म को मानने से परस्पर बन्धुभाव अवश्य ही उत्पन्न हो जाता है । परन्तु पारस्परिक सहानुभूति और बन्धुता उत्पन्न करने की, एक लिपि में, इन बातों की भी अपेक्षा अधिक शक्ति है । भिन्न धर्म, भिन्न परिच्छद और भिन्न देश होने पर भी लिपि एक होने से पारस्परिक सहानुभूति जागृत हुए बिना नहीं रहती। जहां किसी तरह की समता होती है वहां ममता ज़रूर उत्पन्न होती है । और ममता से एकता आती है। एकता ही देश का बल है। जहां एकता नहीं वहां बल का सदैव अभाव या अल्पभाव रहता है। और जो समाज निर्बल है-जिसमें एकता रूपी बल नहीं-उसे निर्जीव समझना चाहिए। ऐसे देश का अधःपतन अवश्य होता है, चाहे विलम्ब से हो चाहे अविलम्ब से।

व्यापक भाषा होने के लिए--देश भर में एक भाषा प्रचलित करने के लिए---एक लिपि का होना, कार्य-सिद्धि का अव्यर्थ साधक है। एक भाषा का होना अधिक कष्टसाध्य है। पर एक लिपि का होंना उतना कष्ट-साध्य नहीं। यही समझ कर माननीय शारदाचरण ने व्यापकभाषा की बात छोड़
[ ६६ ]कर अभी सिर्फ़ व्यापक लिपि की बात उठाई है। ऐसे काम क्रम ही क्रम हो सकते हैं। नीचे की सीढ़ी पर पैर रखकर ही आदमी ऊपर की सीढ़ी तक पहुँच सकता है। एकदम उछल कर वह ऊपर नहीं जा सकता।

योरप के भिन्न भिन्न देशों में—हज़ारों कोस दूर टापुओं तक में—जब एक लिपि का प्रचार है तब हिन्दुस्तान में एक लिपि क्यों सम्भव नहीं? सर्वथा सम्भव है। जिनके धर्म्मग्रन्थ संस्कृत में हैं उनमें, अर्थात् हिन्दुओं में, एक लिपि बहुत ही कम परिश्रम और प्रयत्न से प्रचलित हो सकती है। जिनकी भाषा संस्कृत से निकली हुई है और जिनकी लिपि देवनागरी लिपि से मिलती हुई है उनके लिए एक लिपि, अर्थात् देवनागरी स्वीकार कर लेना तो और भी कम कष्टसाध्य है। डाक्टर ग्रियर्सन ने हिन्दुस्तान की भाषाओं और बोलियों के विषय में अभी हाल ही में जो एक बहुत बड़ा ग्रन्थ, कई भागों में, लिखा है उसमें इस बात का हिसाब दिया गया है कि हिन्दुस्तान के तीस करोड़ आदमियों में से कितने आदमी कौन भाषा बोलते हैं। जो लोग संस्कृत से सम्बन्ध रखनेवाली भाषायें बोलते हैं, उनका हिसाब इस तरह है—

हिन्दी

पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी६,२८,००,०००
माध्यमिक हिन्दी३,१२,००,०००
पञ्जाबी१,७०,००,०००
राजस्थानी१,९०,००,०००
१३,००,००,०००

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बँगला ... ४,४६,००,०००
मराठी ... १,८२,००,०००
गुजराती ... १,००,००,०००
फुटकर भाषायें ... २,००,००,०००
    ——————
... ९,२८,००,०००
    ——————
कुल... २२,२८,००,०००

अर्थात् तीस करोड़ आदमियों में से सवा बाइस करोड़ आदमी संस्कृत-मूलक भाषा बोलते हैं। शेष पौने आठ करोड़ तामील, तैलंगी आदि ऐसी भाषायें बोलते हैं जो संस्कृत से नहीं निकलीं। अर्थात् आर्य्य-भाषा बोलनेवालों की अपेक्षा अनार्य्य भाषा बोलनेवालों की संख्या सिर्फ़ एक चौथाई से कुछ ही अधिक है। अतएव इन्हीं लोगों को एक लिपि, अर्थात् देवनागरी, स्वीकार करने में विशेष कठिनता पड़ेगी। परन्तु एक लिपि से होनेवाले लाभों का विचार करके इस कठिनता को परिश्रम-पूर्वक हल करलेना इन लोगों का परम कर्तव्य है। आर्य्यभाषा बोलनेवालों में से कोई तेरह करोड़ आदमी देवनागरी लिपि ही को काम में लाते हैं। पञ्जाब में इस लिपि का प्रचार कुछ कम है। पर वहां गुरुमुखी लिपि काम में आती है; वह देवनागरी लिपि ही का अपभ्रष्ट रूपान्तर है। जो लोग अरबी से निकली हुई फ़ारसी लिपि लिखते हैं उनकी संख्या, इस हिसाब को देखते, इतनी ही है जितना दाल में नमक। अतएव इस बात को मान लेने में कोई बाधा नहीं कि तेरह करोड़ आदमी देवनागरी लिपि को काम [ ६८ ]
में लाते है। बाकी नौ करोड़ आदमी बँगला, मराठी और गुजराती इत्यादि बोलनेवाले हैं। इसमें से भी प्रायः दो करोड़ मराठी बोलने वालों को छोड़ दीजिए, क्योंकि वे छापने में, और कभी कभी लिखने में भी, देवनागरी ही वर्णमाला काम में लाते हैं। अब सिर्फ़ सात करोड़ आदमी रहे जो थोड़े परिश्रम से देवनागरी वर्णमाला सीखकर उसे लिख पढ़ सकते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि कोई पन्द्रह करोड़ आदमी देवनागरी लिपि इस समय भी लिखते हैं और कोई सात करोड़ थोड़े ही परिश्रम से उसे सीख सकते हैं। शेष आठ करोड़ आदमियों को उसे सीखने के लिए अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। इसमें मुसल्मानों की भी संख्या शामिल है। उसे निकाल डालने से पिछले प्रकार के आदमियों की संख्या और भी कम हो जायगी।

गुजरात में जो लिपि काम में आती है उसे बने अभी सौ वर्ष भी नहीं हुए ; यह एक गुजराती विद्वान् का मत है। देवनागरी और गुजराती लिपि में बहुत ही कम अन्तर है। देवनागरी लिपि को, दो तीन दिन, कुछ देर तक ध्यानपूर्वक देखने से, यह अन्तर मालूम हो सकता है और बहुत थोड़े अभ्यास से गुजराती लिपि जाननेवाले देवनागरी पढ़ सकते हैं गुजरात में जितनी संस्कृत की पुस्तकें प्रचलित हैं वे प्रायः देवनागरी ही में हैं। पुस्तकों और समाचारपत्रा में प्रमाणस्वरूप जहां कहों संस्कृत के वाक्य या श्लोक देने पड़ते हैं वहां वे प्रायः देवनागरी ही लिपि में दिये जाते हैं। फिर,
[ ६९ ]गुजराती विद्वान् देवनागरी लिपि की विशुद्धता और एक-लिपि के लाभ अच्छी तरह समझ गये हैं। अतएव उनकी प्रवृत्ति इस तरफ़ खुद ही हो रही है। आशा है, यदि इसी प्रकार इस विषय में चल-विचलता जारी रही तो गुजरात में बहुत जल्द इस लिपि का प्रचार प्रारम्भ हो जायगा। पारसी लोगों की भी लिपि गुजराती है। पर उनका ध्यान, अभी तक, इस विषय की तरफ़ नहीं गया। उनके धर्मग्रन्थ पहलवी भाषा में हैं । अतएव उनको संस्कृत-ग्रन्थ पढ़ने और उसके द्वारा देवनागरी लिपि से पहचान करने का बहुत कम अवसर मिलता है। उनकी उदासीनता का यही कारण जान पड़ता है। कोई कोई तो कहते हैं कि पहले पहल पारसी लोगों ही ने गुजराती भाषा का प्रचार, छापे में, किया। क्योंकि सबसे पहले उन्होंने छापेरखाने खोले। सुनते हैं, पचास साठ वर्ष पहले गुजराती लिपि का प्रचार सिर्फ़ महाजनी बही खाते में होता था, और कहीं नहीं। परन्तु पारसियों की संख्या बहुत कम है। यदि वे इस सर्वोपयोगी और देशकल्याणजनक लिपि को न स्वीकार करें तो भी विशेष हानि नहीं। परन्तु ऐसा वे शायद ही करें। जब गुजराती लोग इस लिपि को काम में लाने लगेंगे तब पारसियों को लाना ही पड़ेगा।

नागरी लिपि को काम में लाने के लिए बङ्गालियों के अग्रगामी होने की बड़ी आवश्यकता है। बङ्गला लिपि भी देवनागरी-मूलक है। दोनों की वर्णमाला में अन्तर है; पर बहुत थोड़ा। पढ़े लिखे आदमी एक घण्टा रोज़ अभ्यास
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करने से अधिक से अधिक एक हफ्ते में बँगला-लिपि को अच्छी तरह सीख सकते हैं। और बँगला जाननेवाले देवनागरी लिपि को उससे भी कम समय में जान सकते हैं। फिर, बङ्गाल में संस्कृत के बहुत से ग्रन्थ देवनागरी ही में छपते हैं । अतएव बङ्गवासियों के समुदाय का कुछ अंश इस लिपि से पहले ही से परिचित है। जो नहीं है वह भी बहुत थोड़े परिश्रम से परिचय-प्राप्ति कर सकता है। इससे आशा है कि विचारशील बङ्गवासी माननीय शारदाचरण मित्र के देशव्यापक-लिपि-विषयक प्रस्ताव को स्वीकार करके नागरी लिपि के प्रचार में अवश्य दत्तचित्त होंगे। सुनते हैं, इस परमावश्यक प्रस्ताव के फलवान होने का चिह्न भी शीघ्र ही देखने को मिलेगा। कलकत्ते के "इण्डयन मिरर" नामक समाचारपत्र ने लिखा है कि “देवनागरी विस्तारक परिषद्" नाम की एक सभा शीघ्र ही बननेवाली है। वह एक पत्र या सामयिक पत्रिका निकालेगी जिसमें हिन्दी, बङ्गला, गुजराती,मराठी और तैलंगी भाषाओं में लेख रहेंगे। पर लिपि सब की नागरी ही रहेगी। यह सभा एक देवनागरी परीक्षा भी जारी करेगी और जो बँगाली लड़के उसमें “पास" होंगे उनको सोने और चांदी के तमगे और प्रशंसापत्र भी देगी। बहुत ही अच्छा विचार है । एवं भवतु ! तथास्तु!

हमारी समझ में कलकत्ते से पांच भाषाओं में पत्र निकालने से कम लाभ होगा। जिस प्रान्त का जो पत्र होता है उसी में अक्सर उसका अधिक प्रचार होता है। अतएव ऐसे पत्र
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से विशेष करके बड़्गालियों ही को अधिक लाभ होने की सम्भावना है । और एक ही साथ कई भाषायें सीखना जरा कठिन भी है। इससे यदि प्रत्येक प्रान्त में प्रान्तीय भाषा के साथ साथ सिर्फ़ हिन्दी भाषा में कोई पत्र या पत्रिका निकले और लिपि दोनों की नागरी हो तो विशेष लाभ हो। इससे नागरी लिपि सीखने में तो सुभीता होहीगा। उसके साथ हिन्दी भाषा सीखने में भी सहायता मिलेगी। अतएव एक लिपि का प्रचार हो जाने पर कुछ काल में एक भाषा के प्रचार का मार्ग भी प्रशस्त हो जायगा। एक लिपि के प्रचार के लिए गवर्नमेंट से सहायता पाने की पहले ही से इच्छा रखना व्यर्थ है । यदि सर्व साधारण की प्रवृत्ति इस तरफ़ हुई और इस लिपि का प्रचार थोड़ा बहुत होगया तो, उस समय, प्रारम्भिक शिक्षा की पुस्तकों को नागरी लिपि में छपवाने के लिए गवर्नमेंट से प्रार्थना करना असामयिक न होगा। यदि गवर्नमेंट को मालूम हो जायगा कि लोग इस लिपि को चाहते हैं और उसका प्रचार भी हो चला है तो वह शायद इस प्रार्थना को मान ले। इस दशा में इस लिपि के सार्वदेशिक होने में कोई सन्देह न रह जायगा।

इस देश की और भाषाओं की अपेक्षा बँगला भाषा इस समय अधिक उन्नत है । इससे बङ्गालियों को अपनी लिपि को सहसा बदल डालने में सङ्कोच होना स्वाभाविक है । पर समाज-हित भी कोई चीज है । देश-कल्याणचिन्ता भी कोई वस्तु है । देश के शुभचिन्तक अपना शरीर और सर्वस्व तक
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दे डालते हैं। पर एक-लिपि के लिए इतने आत्मत्याग की ज़रूरत नहीं । जरूरत सिर्फ बँगला अक्षरों की जगह नागरी अक्षरों से काम लेने की है। इसमें कठिनता ज़रूर है और थोड़ी हानि होने की भी सम्भावना है । पर भावी लाभ के सामने यह कठिनता और यह त्याग स्वदेश-प्रेमियों के लिए तुच्छ है। यदि वे बँगला पुस्तकों और पत्रों को क्रम क्रम से नागरी लिपि में छापने लगेंगे तो बँगला-साहित्य में भरा हुआ ज्ञानभाण्डार और प्रान्तवालों के लिए भी सुलभ हो जायगा । अन्य प्रान्तों में नागरी लिपि का प्रचार होने से भी यही बात होगी। प्रत्येक प्रान्त की अच्छी अच्छी पुस्तकों से देश भर को लाभ पहुंचेगा और धीरे धीरे सहानुभूति जागृत हो उठेगी। सहाभूति से ऐक्य ज़रूर पैदा होगा। और ऐक्य के गुण कौन नहीं जानता ? लिपि बदल देने से किसी पुस्तक या पत्र में लिखी गई बात का प्रभाव कम नहीं हो सकता। मराठी भाषा की पुस्तकें देवनागरी ही में प्रकाशित होती हैं । संस्कृत की अनेक पुस्तकें मदरास में तामील, तैलंगी आदि में, और बङ्गाल में बङ्गला में छपकर प्रकाशित हो रही हैं । पर इस लिपित्र्यावर्तन से उनको अणुमात्र भी हानि नहीं पहुंची।

देवनागरी लिपि के प्रचार में अनार्यों भाषा बोलने और अनार्य लिपि लिखनेवालों को अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। ऐसी भाषा और ऐसी लिपि का प्रचार मदरास प्रान्त में है। पर इस प्रान्तवालों का भी थोड़ा बहुत परिचय संस्कृत से है। और संस्कृत के ग्रन्थ देवनागरी लिपि में वहां भी प्रचलित हैं। [ ७३ ]
अतएव इन ग्रन्थों को जो लोग पढ़ सकते हैं उनको नागरी लिपि से काम लेने में बहुत सुभीता होगा। एक लिपि का होना इस देशके लिए बहुत आवश्यक है और बहुत उपयोगी है। अतएव ऐसे काम के लिए श्रम, कष्ट और खर्च आदि का विचार एक तरफ़ रख कर उसे सिद्ध करना इस देश में रहनेवाले प्रत्येक आदमी को अपना कर्तव्य समझना चाहिए । बहुत सी लिपियों के होने से अनेक हानियां हैं। इस दशा में एक प्रान्तवाले दूसरे प्रान्त की भाषा में छपी हुई पुस्तकों से लाभ नहीं उठा सकते। पर यदि सब प्रान्तों में एक ही लिपि प्रचलित हो जाय तो एक प्रान्त के आर्य भाषा बोलनेवाले दूसरे प्रान्त की आर्या भाषा की पुस्तकें सहज ही में पढ़ सकें, और,ऐसी सब भाषायें संस्कृत-मूलक होने के कारण, उनका बहुत कुछ अंश वे समझ भी सकें। ऐसा होने से भिन्न भिन्न भाषाओं को अच्छी तरह जानने में भी बहुत सुभीता होगा।

अगरेजों में से किसी किसी का मत है कि हिन्दुस्तान में रोमन अक्षरों का सार्वदेशिक प्रचार होना चाहिए। पर रोमन अक्षर यहां के लिए बिलकुल ही अयोग्य हैं। यहां की भाषाये इन अक्षरों में शुद्धता पूर्वक लिखी ही नहीं जा सकतीं। उनका अनुपयोगी होना इसीसे सिद्ध है कि गवर्नमेंट ने कचहरियों में कई बार उनके प्रचार का विचार किया। पर उनकी सदोषता और अनुपयुक्तता के कारण उसे अपने विचार को छोड़ना पड़ा। अंगरेज़ अफसर इन अक्षरों से परिचित होते हैं। अतएव अपने सुभीते के लिए यदि वे इनके प्रचार का
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प्रस्ताव करें तो उससे सिर्फ उनकी स्वार्थ-परता सिद्ध होती है, और कुछ नहीं। जो सर्वथा निर्दोष है, जिसका प्रयोग हिन्दुओं के शास्त्रों में है, संस्कृत-साहित्य का अक्षय्य भाण्डार जिसकी बदोलत अभी तक थोड़ा बहुत विद्यमान है, उसको छोड़ कर और कोई वर्णमाला हमारे लिए हितकर और उपयोगी नहीं।

सुनते हैं, बनारस-वासी पादरी एडविन ग्रीब्ज़ हिन्दी अच्छी जानते हैं। आपने हिन्दी में दो एक निबन्ध भी लिखे हैं। एप्रिल, मे और जून १९०५ के एकीकृत " हिन्दुस्तान रिन्यू" में आपने एक लेख अँगरेज़ी में प्रकाशित कराया है। आपकी राय में छापे के लिए तो देवनागरी वर्णमाला उपयोगी है, पर लिखने के लिए नहीं। आप कहते हैं कि देवनागरी लिखने में देर लगती है। इसलिए लिखने में कैथी अक्षरों का प्रयोग होना चाहिए। आपकी राय में यदि कैथी अक्षरों का प्रयोग हो तो एक तिहाई समय की बचत हो और काग़ज़ पर से कलम को बिना उठाये लिखनेवाला उसे दौड़ाता चला जाय। कैथी के लिए आप इतनी बातों की आवश्यकता समझते हैं---

(१) प्रत्येक वर्ण का एकही रूप निश्चित हो।

(२) यदि दो वर्णों में समानता के कारण पढ़ने में भूल होने का डर हो तो दो में से एक का रूप कुछ बदलदिया जाय ।

(३) संयुक्त-वर्ण बना लिये जायँ और उनसे काम लिया जाय।

(४) हस्व और दीर्घ स्वरों का प्रयोग किया जाय । [ ७५ ] आपके लेख के साथ कैथी स्वर, व्यज्जन और संयुक्त-वणों का एक नकशा छपा है। वह शायद आप ही की कृति है । उसे हम भी पाठकों के देखने के लिए प्रकाशित करते हैं । (चित्र न० ३ देखिये)

हम पादरीसाहब के प्रस्ताव के खिलाफ़ हैं। आपकी कैथी-वर्णमाला में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ऊपर पाई नहीं है। इस पाई के न लगाने ही से क्या एक तिहाई समय बच सकता है ? हमारी समझ में यह भ्रम है। पहले तो किसी भाषा में एक से अधिक लिपियों का होना कोई तारीफ़ की बात नहीं। अंगरेजी में एकसे अधिक लिपियों के होने से सीखनेवालों को--विशेष करके विदेशियों को--थोड़ी बहुत कठिनता अवश्य पड़ती है। इस बात को क्या पादरी साहब नहीं मानते ? आपने जो संयुक्त वर्णों की सूची दी है वह अपूर्ण है। पहला ही वर्ण लीजिए। क+थ = क्य (रिक्थ); क+ व =क्क (पक्क); क+स =क्स (अक्स ) को आपने छोड़ ही दिया है। इसी तरह और संयोगी वर्णों के रूप भी आपने नहीं दिये। शायद आपने यह सूची नमूने के तौर पर दी हो ; सब वर्णों का योग, जान बूझ कर, आपने न दिखाया हो। और, कुछ भी हो, एक बात जरूर है कि सब संयोगी वर्णों का रूप निश्चित करने में संयुक्त वर्णों की संख्या बहुत बढ़ जायगी। इन सब वर्णों को लिखने का अभ्यास करना परिश्रम का काम है। जिस समय यह प्रस्ताव हो रहा है कि जिन प्रान्तों में देवनागरी लिपि प्रचलित नहीं उनमें उसका प्रचार
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किया जाय, उस समय लिखने के लिए कैथी लिपि का प्रस्ताव करना मानो मूल प्रस्ताव में बाधा डालना है। क्योंकि लिखने में कैथी अक्षरों के प्रयोग के प्रस्ताव का अर्थ यह होता है कि यदि कोई बँगाली अथवा गुजराती, देवनागरी लिखने पढ़ने का अभ्यास करना चाहे तो उसे दो तरह की वर्णमालायें और बहुत से नये संयुक्त वर्ण सीखने पड़ें। इससे उसकी मेहनत दूनी हो जायगी और, सम्भव है, उन्हें सीखने का वह साहस ही न करे। अतएव यदि कैथी के पक्ष में प्रबल प्रमाण दिये भी जा सके तो भी इस प्रस्ताव के अनुकूल यह समय नहीं।

फिर, क्या सचमुच ही कैथी की वर्णमाला ऐसी है जो बिना क़लम उठाये कोई उसे लिखता चला जाय ? हमारी मन्द बुद्धि में तो वह ऐसी नहीं। उदाहरण के तौर पर देवनागरी और कैथी के कवर्ग वर्गों का मुक़ाबला (नक्शा देखकर ) कर लीजिए। देखिए, इन वर्गों में सिवा ऊपर की पाई के और कौन बड़ा फ़र्क है। तो क्या सिर्फ ऊपर पाई न लगाने ही से कालम बराबर दौड़ सकती है ? हमारी समझ में नहीं। ग्रीब्ज़ साहब अपनी बात को सप्रमाण सिद्ध करें तो शायद हम समझ जायं। आपकी एक बात और भी हमारी समझ में नहीं आई। आपने ष और ख का कैथी में एक ही रूप रक्खा है। यह क्यों?

यदि ऊपर पाई लगाने ही से किसी लेखक के समय का सर्वनाश होता हो तो वह काग़ज के एक सिरे से दूसरे सिरे तक एकदम ही एक लकीर खींच सकता है। पर क्या
[ ७७ ] देवनागरी लिखने में सचमुच ही कैथी से एक तिहाई अधिक समय लगता है ? हमारी प्रार्थना है कि ग्रीब्ज़ साहब किसी अच्छे नागरी-लेखक को किसी कैथी लिखनेवाले के साथ बिठलाकर इसकी परीक्षा करें। जिनको लिखने का अभ्यास है वे कैथी ही नहीं, घसीट उर्दू लिखनेवालों तक की बराबरी कर सकते हैं। किम्बहुना, कोई कोई उनको मात भी देदें तो असम्भव नहीं। पादरी साहब की नागरी लिपि देखने का तो सौभाग्य हमें हुआ नहीं, पर परलोकवासी पिन्काट साहब की दो एक चिठियां हमारे पास हैं। वे नागरी में हैं। उनको देखने से जान पड़ता है कि पिन्काट साहब ने एक एक अक्षर एक एक मिनट में लिखा होगा। यदि ऐसे लेखक कैथी लिखनेवालों से कोसों पीछे पड़े रह जायँ तो कोई आश्चर्य नहीं।

[अगस्त १९०५

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