साहित्यालाप/७—हिन्दी की वर्त्तमान अवस्था

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७.-हिन्दी की वर्तमान अवस्था ।

[ इलाहाबादवाले दूसरे साहित्य-सम्मेलन के लिए लिखित ]

१-बीज-वपन

हिन्दी का बीज-वपन हुए बहुत काल हुआ। परन्तु,निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि किस सन्, किस संवत् या किस समय में वर्तमान हिन्दी की आधावस्था का आरम्भ हुना। इस अनिश्चय का कारण यह है कि भाषाओं का उत्पत्ति एक दिन में नहीं होती। अनेक प्राकृतिक कारणों से देश, काल और समाज की अवस्था-विशेष के अनुसार,उनमें परिवर्तन हुआ करते हैं । नई भाषायें उत्पन्न हो जाती हैं और पुरानी भाषाओं का प्रचार कम हो जाता है । कभी कभी पुरानी भाषायें धीरे धीरे विलय को भी प्राप्त हो जाती हैं। चन्द बरदाई ने जिस हिन्दी में पृथ्वीराज-रासौ लिखा है उसके पहले भी हिन्दी विद्यमान थी। उस पुरानी हिन्दी के पूर्ववर्ती रूप भी प्राकृत भाषाओं में पाये जाते हैं और उनके भी प्राकालीन रूपं भारत के प्राचीनतम ग्रन्थों में मिलते हैं। अतएव इस परिवर्तन-परम्परा की प्रत्येक अवस्था का ठीक ठीक पता लगाना सहज काम नहीं। हमारी हिन्दी-भाषा विकास-सिद्धान्त का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उसका क्रम-विकाश हुआ है। धीरे धीरे वह एक अवस्था से दूसरी अवस्था
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को प्राप्त हुई है । वह एक प्रकार से अनादि है। नहीं कह सकते कब से मानव-जाति उसके सबसे पहले रूपवाली उसकी पूर्ववर्तिनी भाषा बोलने लगी। वर्तमान हिन्दी की प्रथमावस्था का सबसे प्रतिष्ठित ग्रन्थ जो अब तक उपलब्ध हुआ है पृथ्वीराज-रासो ही है । अतएव निश्चयपूर्वक केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वर्तमान हिन्दी का बीज-वपन चन्दबरदाई के समय में, या उसके कुछ पहले, हुआ। चन्द के पूर्ववर्ती भी कुछ कवियों और उनके काव्यों का पता चलता है। पर, चन्द के और उनके स्थितिकाल में बहुत अधिक अन्तर नहीं।

२-प्रकुरोद्भव

बोने के अनन्तर बीज से अंकुर निकलता है। चन्द बरदाई आदि कवियों ने जिस बीज को बोया उससे अंकुर तो शीघ्र निकल आया, परन्तु पत्तियां बहुत देर में निकलीं। जिस हिन्दी में आज कल समाचारपत्र और पुस्तकें लिखी जाती हैं उसके उद्भव तक हिन्दी में प्रायः काव्य-ग्रन्थों ही की उत्पत्ति हुई । संख्यातीत ग्रन्थ बने; पर बहुत करके सब पद्यात्मक । भक्त कवियों ने अपने अपने उपास्य देवता पर कविता की। राजाश्रित कवियों ने अपने अपने आश्रयदाता की रुचि के अनुकूल श्रृंगार या वीररसात्मक काव्य निर्माण किये । किसी ने अलंकारशास्त्र पर लिखा, किसीने नायिका भेद पर । सब की प्रवृत्ति केवल कविता ही की ओर रही। सात आठ सौ वर्ष तक यही हाल रहा। हिन्दी का अंकुर निकला तो सही;
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पर वह अंकुर ही रहा । वह पुष्ट ज़रूर होता गया; पर उसे अपनी अगली अवस्था की प्राप्ति बहुत काल के अनन्तर हई।

३–पत्रोद्गम

अङ्गरेज़ी शासन की कृपा से जब शिक्षा का प्रचार बढ़ा और अन्य भाषाओं में अच्छे अच्छे समाचारपत्र और पुस्तकें निकलने लगीं तब हिन्दी के दो चार हितचिन्तकों का ध्यान अपनी मातृभाषा की हीनता की ओर गया । अतएव उन्होंने उसे उन्नत करने के इरादे से प्रचलित प्रणाली की हिन्दी में काव्य, नाटक और इतिहास आदि की पुस्तकें गद्य में लिखनी और समाचारपत्र तथा सामयिक पुस्तकें निकालनी आरम्भ कीं। उस समय मानो हिन्दी के अंकुरित पौधे में, चिरकालोत्तर पत्रोद्गम हुआ । जो अंकुर सैकड़ों वर्ष तक प्राय: एक ही रूप में था उसमें पत्तियां निकल आई। उसके भी पहले यद्यपि कलकत्ते के फोर्ट-विलियम में हिन्दी की पूर्वागत अवस्था परिवर्तित करने की चेष्टा हुई थी, तथापि वह विशेष फलवती नहीं हुई ।नये ढंग की दो एक पुस्तकें निकलने ही से हिन्दी का अवस्था परिवर्तन नहीं हो सकता।

४-वर्तमान अवस्था

हिन्दी के जिस नये पौधे में आज से तीस पैंतीस वर्ष पहले केवल दो चार कोमल कामल पत्ते दिखाई दिये थे वे अब, इस समय, अनेक पल्लव-पुञ्जों से आच्छादित हैं । यद्यपि उसमें अब तक शाखा-प्रशाखाओं का प्रायः अभाव है; यद्यपि उसका तना अभी बहुत पतला और कमज़ोर है। यद्यपि उसमें
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फूल और फल लगने में अभी बहुत देरी है--तथापि वह बढ़ रही है और आशा है कि किसी समय उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों की पूर्ति और पुष्टि भी देखने को मिलेगी। हिन्दी की वर्तमान अवस्था को देख कर यही अनुमान होता है।

५---साहित्य का महत्व

ज्ञान के कई विभाग किये जा सकते हैं । विश्व में जो कुछ जानने योग्य है वह कई भागों में विभक्त किया जा सकता है। ऐसे प्रत्येक भाग की संज्ञा शास्त्र है।

आकाशस्थ ज्योतिर्मय पिण्डों से सम्बन्ध रखनेवाले शास्त्र का नाम ज्योतिषशास्त्र है। बिजली से सम्बन्ध रखने वाले शास्त्र का नाम विद्य च्छास्त्र है। मानव-शरीर से सम्बन्ध रखनेवाले शास्त्र को शारीरिक शास्त्र कहते हैं । तत्त्वज्ञान-सम्बन्धी शास्त्र दर्शनशास्त्र कहलाता है। इसी तरह आयुर्वेद-शास्त्र, जीवाणु-शास्त्र, कृषि-शास्त्र, वनस्पति-शास्त्र,ज्यामितिशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, रसायन-शास्त्र, अङ्कशास्त्र,शिल्पशास्त्र, संगीतशास्त्र, सम्पत्तिशास्त्र--यहां तक कि कीट-पतंग आदि से सम्बन्ध रखनेवाला शास्त्र भी है। सारांश यह कि इस विशाल विश्व में जो कुछ है वह सब अपने अपने वर्ग या विभाग के अनुसार पृथक् पृथक् शास्त्र-सम्बन्धिंनी सामग्री प्रस्तुत कर सकता है। मनुष्य की बुद्धि का जैसे जैसे विकाश होता जाता है वैसे ही वैसे ज्ञेय वस्तुओं का ज्ञान भी उसे क्रम क्रम से अधिकाधिक होता जाता है। ज्ञान-वृद्धि के साथ ही साथ शास्त्रों की संख्या भी बढ़ती जाती
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है। जिस विषय का ज्ञान जितना ही अधिक होता है उस विषय का शास्त्र भी उतना ही अधिक विस्तृत और महत्त्वपूर्ण होता है । भिन्न भिन्न प्रकार का यह शास्त्रीय ज्ञान पुस्तकों में संगृहीत रहता है । उनके प्रकाशन और प्रचार से सारे देश का भी कल्याण होता है और जुदा जुदा समाज का भी । एक मनुष्य के ज्ञानार्जन या ज्ञानानुभव से अनेक मनुष्यों को तभी लाभ पहुंचता है जब पुस्तकों के द्वारा उसका प्रचार होता है । इस ज्ञान-समुदाय को संगृहीत करने और फेलानेवाली पुस्तकों के समूह का नाम साहित्य है। जिस भाषा में ज्ञान-वद्धक शास्त्रों और पुस्तकों की जितनी ही अधिकता होती है उस भाषा का साहित्य-भाण्डार उतना ही अधिक श्रीसम्पन्न होता है।

ज्ञानार्जन का प्रधान साधन शिक्षा है। बिना शिक्षा के मनोविकाश नहीं होता और बिना मनाविकाश के ज्ञानोन्नति नहीं होती। अतएव ज्ञानवृद्धि के लिए शिक्षा की बड़ी आवश्यकता है। समाचारपत्रों और सामयिक पुस्तकों से भी शिक्षा मिलती है । उनसे भी ज्ञानोन्नति होती है। इससे उन्हें भी भाषा-साहित्य का एक अंग नहीं, तो एक अंश अवश्य समझना चाहिए । इन्हीं कारणों से मनोरञ्जन, समालोचन, इतिहास और जीवन-चरित आदि से सम्बन्ध रखनवाली पुस्तकें भी साहित्य के अन्तर्गत हैं। इन बातों को ध्यान में रखकर अब यह देखना है कि हिन्दी के वर्तमान साहित्य की अवस्था कैसी है । हिन्दी के दूसरे साहित्य-सम्मेलन
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के अधिकारियों ने मुझे इसी विषय पर एक निबन्ध लिखने की आज्ञा दी है।

६---समाचारपत्र

समाचारपत्रों और निर्दिष्ट समय में प्रकाशित होनेवाली पुस्तकों की संख्या से प्रत्येक देश की शिक्षा और सभ्यता की इयत्ता जानी जा सकती है । जो देश जितना ही अधिक सभ्य और सुशिक्षित होता है उसमें उतने ही अधिक पत्र और पुस्तकें प्रकाशित होती हैं । शिक्षित जनों की संख्या पर ही इस प्रकार के साहित्य की अधिकता या न्यूनता अवलम्बित रहती है। हिन्दी में निकलनेवाली पुस्तकों और समाचारपत्रों की संख्या पर विचार करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि पच्चीस तीस वर्ष पहले जिस अवस्था में हिन्दी थी उससे अब वह अधिक उन्नत अवस्था में है।

पत्रों और पुस्तकों की संख्या अब बहुत बढ़ गई है; विवेचनीय विषयों का विस्तार भी अधिक हो गया है; भाषा भी पहले की अपेक्षा अधिक परिमार्जित और विशुद्ध हो गई है। कई एक साप्ताहिक पत्र और मासिक पुस्तकें योग्यतापूर्वक सम्पादित होती हैं । नये नये पत्र निकलते जाते हैं। सामयिक पुस्तकों की भी संख्या दिनों दिन वृद्धि पर है। बहुत पुराने पत्रों में विशेष करके कविता, नाटक, हँसी-दिल्लगी की बातें और बहुत ही साधारण लेख और समाचार रहते थे। सामयिक पुस्तकों की भी निकृष्ट अवस्था थी। वह बात अब नहीं रही। अब बहुत कुछ उन्नति हुई है। सम्पादक-समुदाय अपने
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कर्तव्य को अब पहले की अपेक्षा अधिक समझने लगा है। सुरुचि का भी अधिक ख़्याल रक्खा जाता है, लोकशिक्षण का भी, और जन समुदाय के हित तथा मत-बाहुल्य का भी।

परन्तु, जब हम अँगरेज़ी और एतद्देशीय अन्य समुन्नत भाषाओं के इस साहित्य की ओर देखते हैं तब हमें अपनी भाषा की हीनावस्था को देख कर दुःख और आश्चर्य होता है । दुःख का कारण तो स्पष्ट ही है। आश्चर्य का कारण यह है कि हिन्दी बोलनेवालों की संख्या इतनी अधिक होने पर भी हमारी मातृभाषा की इतनी अनुन्नत अवस्था ! इस दुरवस्था के कई कारणों में से तीन मुख्य हैं। पहला कारण लोकशिक्षा की कमी; दूसरा कारण मातृभाषा से शिक्षित जनों की अरुचि; तीसरा कारण पत्रसम्पादकों और सञ्चालकों की न्यूनाधिक अयोग्यता है।

जितने समाचारपत्र इस समय हिन्दी में निकलते हैं उनमें से प्रायः सभीके सम्पादकीय लेखों और समाचारों के लिए, अनेक अंशों में, पायनियर, बङ्गाली, अमृत बाज़ार पत्रिका और ऐडवोकेट आफ़ इंडिया आदि अँगरेज़ी पत्र उत्तमर्ण का काम देते हैं । मासिक पुस्तकों का भी यही हाल है। वे भी प्रायः औरों के दिमाग़ से निकले हुए लेखों की छाया और अनुवाद ही से अपना कलेवर पूर्ण करती हैं। प्रत्येक भाषा की आदिम अवस्था में बहुत करके यही हाल होता है। अपने से अधिक उन्नत भाषाओं की सहायता ही से वे अपनी अंग-पुष्टि करती हैं। [ ११६ ]
इस अवस्था में धीरे धीरे परिवर्तन होता है। जैसे जैसे अधिक शिक्षित जन समाचार-पत्रों के सम्पादन-कार्य में प्रवृत्त होते हैं वैसे ही वैसे परावलम्बन की प्रवृत्ति कम हो जाती है, स्वाधीन विचारों की सृष्टि होती है और सामयिक बातों की स्वतन्त्रतापूर्वक समालोचना होने लगती है। शिक्षा की कमी ही के कारण स्वावलम्ब-समर्थ योग्य सम्पादक कम मिलते हैं। अतएव समाचारपत्रों से होनेवाले लाभों को जो लोग समझते भी हैं वे भी हिन्दी के पत्रों का बहुधा इसलिए आदर नहीं करते कि वे सुचारुरूप से सम्पादित नहीं होते । आशा है, यह त्रुटि धीरे धीरे दूर हो जायगी।

कुछ लोग अँगरेज़ी भाषा और उसके जाननेवालों से द्वेष करते हैं। उन्हें उनकी प्रत्येक बात से अंँगरेज़ी बू आती है। उनको जानना चाहिए कि हिन्दी में समाचारपत्रों का निकालना हमने अँगरेज़ी जाननेवालों ही की बदोलत सीखा है । वह अँगरेज़ी शासन ही का प्रसाद है। अँगरेज़ी में इस प्रकार के साहित्य ने जितनी उन्नति की है उतनी उन्नति करने के लिए हमें सैंकड़ों वर्ष चाहिए। अँगरेज़ी के समाचार-पत्र-साहित्य को, अनेक बातों में, आदर्श माने बिना हिन्दी के साहित्य को हम कभी यथेष्ठ उन्नत न कर सकेंगे। मेरी जड़ बुद्धि में तो सम्पादकों के लिए अच्छी अँगरेज़ी जानना आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य है। मैं तो यहां तक कहने का साहस कर सकता हूं कि हमारे साहित्य की इस शाखा की जो इतनी हीन दशा है उसका एक कारण यह भी है कि
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हम, हिन्दी-लेखक, बहुधा अँगरेज़ी नहीं जानते और जानते भी हैं तो बहुत कम।

७---वैज्ञानिक पुस्तकें

'विज्ञान'-शब्द आजकल 'शास्त्र'-शब्द का पर्यायवाची हो रहा है। शास्त्र किसे कहते हैं, इसका उल्लेख ऊपर हो चुका है । शान और विज्ञान कोई ऐसी वैसी चीज़ नहीं । उसकी महिमा सीमारहित है। संसार में सबसे अधिक महत्व की ज्ञेय वस्तु परमेश्वर है । वह भी ज्ञानगम्य है । ज्ञान की बदौलत ही उसका ज्ञान हो सकता है। ऐसे विज्ञानात्मा ऐसे "निरतिशय-सर्वज्ञ-बीज ,जगदीश्वर को जिसके प्रसाद से मनुष्य पहचान सकता है उसका माहात्म्य सर्वथा अकथनीय है । परन्तु, हाय ! इस ज्ञानगर्भ साहित्य का हिन्दी में सर्वतोभाव से अभाव है। यह बड़े दुःख,बड़े खेद, बड़े परिताप की बात है। ज्ञान की जो अनेक शाखाये हैं--शास्त्रीय विषयों के जो अनेक भेद हैं---उनमें से एक पर भी दो चार अच्छे अच्छे ग्रंथ हिन्दी में नहीं। एक जीव-विज्ञान-विटप, या एक पदार्थ-विज्ञान-बिटप, या एक छोटा सा रसायन-शास्त्र या और भी ऐसा ही एक आध ग्रन्थ हुआ तो क्या और न हुआ तो क्या। उससे किसी ज्ञानांश के अभाव की पूर्ति नहीं हो सकती । अन्य समुन्नत भाषाओं में जिस ज्ञान या विज्ञान की एक एक शाखा पर सैकड़ो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विद्यमान हैं उसकी किसी शाखा विशेष से सम्बन्ध रखनेवाली दो चार या दस पांच छोटी
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मोटी पुस्तकें हिन्दी में हुई भी तो वे न होने के बराबर हैं। जिस झान ही की बदौलत अन्य प्राणियों में मनुष्य को श्रेष्ठता मिली है उसी ज्ञानात्मक साहित्य का हिन्दी बोलनेवाले मनुष्य नामक प्राणियों की भाषा में प्राय: पूर्णाभाव होना बड़ी ही लज्जा की बात है। गीता, सिद्धान्तशिरोमणि, साख्य, योग और मीमांसा आदि सूत्रों के टूटे फटे हिन्दी अनुवाद से इस अभाव का तिरोभाव नहीं हो सकता । इसका तिरोभाव तभी होगा जब संस्कृत और अंँगरेजी, दोनों भाषाओं, के ज्ञानाणव का मन्थन करके सब प्रकार के ज्ञानांश-सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना होगी।

८---कोष और व्याकरण

बहुत दिनों से यह निर्घोष सुनाई दे रहा है कि हिन्दी में न तो एक अच्छा सा कोष है और न एक व्याकरण । अतएव इन दोनोंकी बड़ी आवश्यकता है। इनकी आवश्यकता है अवश्य, परन्तु बड़ी आवश्यकता नहीं । इनसे साहित्य के एक अंग की पूर्ति अवश्य हो सकती है; पर यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि अन्यान्य परमावश्यकीय अंगों की पूर्ति की अपेक्षा इस अंग की पूर्ति के विषय में क्यों इतना जोर दिया जाता है। क्या बिना इसके हिन्दी साहित्य की थोड़ी भी पुष्टि असम्भव है ? तुलसीदास, सूरदास, बिहारीलाल, पंण्डित वंशीधर बाजपेयी, बाबू हरिश्चन्द्र, राजा शिवप्रसाद, पण्डित प्रतापनारायण आदि ने किस कोष और किस व्याकरण को सामने रख कर ग्रन्थ-रचना की है ? [ ११९ ]
हिन्दी के सौभाग्य से उसमें एक अच्छा वैज्ञानिक कोष वर्तमान है। उसे बने कई वर्ष हुए। उसकी सहायता से आज तक कितने वैज्ञानिक ग्रन्थों की सृष्टि हिन्दी में हुई है ? बँगला और मराठी में वैसा कोई कोष नहीं। तथापि इन भाषाओं की पुस्तकें बेचनेवाले किसी भी प्रतिष्ठित दूकानदार या प्रकाशक के यहां प्राप्य पुस्तकों की सूची यदि आप देखेंगे तो आपको अनेक वैज्ञानिक पुस्तकों के नाम मिलेंगे । इससे सिद्ध है कि यह काम प्रारम्भ में बिना कोष की सहायता के भी हो सकता है। हिन्दी-साहित्य अभी अत्यन्त हीनावस्था में है । उसकी एक भी शाखा अभी तक नाम लेने योत्य समृद्ध नहीं और, किसी भी वृहत्कोषमें साहित्य की सब शाखाओं के शब्द होने चाहिए। अतएव जब सब प्रकार के शब्दों की सृष्टि ही नहीं हुई तब बहुत बड़ा और पूर्ण कोष कैसे बन सकेगा ? अनेक महत्त्वपूर्ण शब्दों के उदाहरण कहां से आवेंगे ? इस दशा में यदि कोई कोष बनेगा भी तो उसमें संख्यातीत शब्दों की कमी रह जायगी। जब उन शब्दों की सृष्टि होगी तब या तो एक नया ही कोष बनाना पड़ेगा या पुराने कोष का सर्वांगीण संशोधन करना पड़ेगा।

यही हाल व्याकरण का भी है। बिना एक बहुत बड़े व्याकरण के भी हिन्दी के साहित्य की वृद्धि में, अभी इस समय, विशेष बाधा नहीं उपस्थित हो सकती । कल्पना कीजिए कि एक मनुष्य ऐसा है जो न तो हिन्दी का अच्छा
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व्याकरण ही जानता है और न उसके पास हिन्दी का कोई अच्छा सा कोष ही है। परन्तु हिन्दी उसकी मातृभाषा है । वह अपने घर में अपने कुटुम्बियों से हिन्दी में बातचीत करता है। उसे यह लिखना है कि--"प्रात:काल सूर्योदय सदा पूर्व में होता है।" कोष और व्याकरण से अच्छा परिचय न होने के कारण, सम्भव है, वह इस वाक्य को इस तरह लिखे :--

(१) सूरज हमेशा पूरब में निकलता है---या

(२) सूर्य सदा पूर्व में उदय होता है---या

(३) सूरज का उदय हमेशा पूर्व की तरफ़ होता है--या

(४) सूर्य रोज पूर्व से उदय होता है--या

इस भाव को वह किसी और हो तरह प्रकट करे । परन्तु वह चाहे जैसे शब्द प्रयोग करे और व्याकरण की दृष्टि से उसका वाक्य चाहे जितना अशुद्ध हो उसके कहने का मतलब सुननेवाला अवश्य समझ लेगा। यह तो सम्भव ही नहीं कि वह इस वाक्य को इस तरह लिखे:--

में है होता सूरज पूरब उदय हमेशा।

फिर कैसे कोई कह सकता है कि बिना उत्तम कोष और व्याकरण के हिन्दी का काम इस समय नहीं चल सकता ? लिखने का एक मात्र प्रयोजन यही है कि लेख का भाव पढ़नेवाले की समझ में आ गया तो लिखने का प्रयोजन सिद्ध हो गया । अतएव व्याकरण और कोष अच्छी तरह न जानने पर भी मन का भाव औरों पर प्रकट किया जा सकता है। हिन्दी के वैय्याकरणों की राय है कि मैं व्याकरण
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नहीं जानता। यदि जानता तो रामायण, महाभारत, लोटा, सोंटा आदि शब्दों के लिङ्ग प्रयोग में मुझसे भूले न होतीं और जो कुछ मैं लिखता शुद्धतापूर्वक लिखता । हिन्दी के व्याकरण से इतना अनभिज्ञ होने पर भी मेरे इस लिखने या कहने का मतलब, सच कहिए, आपकी समझ में आता है या नहीं। यदि आता है तो आपको स्वीकार करना पड़ेगा कि व्याकरण और कोश में उत्तमतापूर्वक पारङ्गत हुए बिना भी समझने लायक हिन्दी लिखी जा सकती है।

हिन्दी के व्याकरण और कोश से विशेष लाभ वही उठा सकते हैं जिनकी जन्मभाषा हिन्दी नहीं । सरकारी कचहरियों और दफ्तरों के अफ़सरों और अधिकांश कर्मचारियों का भी हिन्दी के बृहत्कोश से बड़ा काम निकल सकता है। हिन्दी लिखनेवालों का काम तो, इस समय, उन्हीं कई एक छोटे मोटे व्याकरणों और कोशों से निकल सकता है जो हिन्दी में वर्तमान हैं । जो हिन्दी लिखना या पढ़ना बिल्कुल ही नहीं जानते उनकी बात जुदी है। उनका काम बिना कोश और व्याकरण के चाहे न भी चल सके; पर जो साधारण हिन्दी जानते हैं उनका काम अवश्य चल सकता है । विशुद्ध, सरस और अलङ्कारिक भाषा लिखने के लिए कोश और ब्याकरण का अच्छा ज्ञान अवश्य अपेक्षणीय है। परन्तु ऐसी भाषा लिखने का यही एक साधन नहीं । उसके लिए अभ्यास और पुस्तकावलोकन की भी आवश्यकता है ; कोश और व्याकरण रट कर कोई अच्छा लेखक नहीं हो सकता। [ १२२ ]मेरे इस कथन का यह तात्पर्य नहीं कि हिन्दी में सर्वाङ्गपूर्ण ब्याकरण और कोश न बनें ! अवश्य बनें । उनके बनने से हिन्दी-साहित्य के एक अङ्ग की पुष्टि अवश्य होगी और हिन्दी लिखने और सीखनेवालों को लाभ भी होगा। मेरे कहने का मतलब सिर्फ़ इतना ही है कि बिना एक बृहत्कोश और बृहद्-व्याकरण के भी वर्तमान हिन्दी-साहित्य के अन्यान्य आवश्यकीय अङ्गों की साधारण उन्नति हो सकती है।

९---इतिहास और जीवनचरित

हिन्दी-साहित्य के किस किस अङ्ग की कमी पर खेद प्रकट किया जाय ! एक भी अङ्ग तो परिपुष्ट नहीं । साहित्य में इतिहास का आसन बहुत ऊंचा है। हिन्दी में ऐतिहासिक पुस्तकों का यद्यपि सर्वथा अभाव नहीं, तथापि नाम लेने योग्य दल पांच भी ऐसी पुस्तकें हिन्दी में नहीं । मिस्टर आर० सी० दत्त ने भारतीय सभ्यता का जो इतिहास अङ्गग्रेजी में लिखा है उसका अनुवाद, टाड साहिब के राजस्थान का का अनुवाद, और देहली के मुसल्मान बादशाहों के राजत्व काल से सम्बन्ध रखनेवाले दो एक फ़ारसी-ग्रन्थों के भी अनुवाद उल्लेख-योग्य हैं । पृथ्वीराजरासो पुरानी हिन्दी में है और पद्यात्मक है । वह यदि इतिहास कहा जा सकता हो तो उसकी भी गिनती साहित्य की इस शाखा के अन्तर्गत हो सकती है । हां, सोलड़क्यों का इतिहास अवश्य नाम लेने योग्य है । वह बड़ी खोज और श्रम से लिखा गया है। इनके सिवा और भी कुछ ऐतिहासिक पुस्तकें हिन्दी में हैं। परन्तु हिन्दी
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बोलनेवालों की संख्या और हिन्दी-भाषा की व्यापकता का विचार करने से दो चार या दस पांच ऐतिहासिक पुस्तकों का होना बड़ी बात नहीं। जिस उर्दू के बोलनेवालों और पक्षपातियों की संख्या हिन्दी बोलनेवालों के मुकाबले में बहुत ही कम है उसमें दस दस पन्द्रह पन्द्रह जिल्दों वाले भारतीय इतिहास बन जायं और हिन्दी में हज़ार पांच सौ पृष्ठों का भी एक अच्छा इतिहास न बने यह हम लोगों के लिए बड़ी ही लजा की बात है।

जीवनचरित भी साहित्य को एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण शाखा है । इस शाखा के ग्रन्थ छोटे बड़े, स्त्री-पुरुष, सबकी समझ में आ सकते हैं। सबको उनसे लाभ भी पहुंचता है और साथ ही मनोरञ्जन भी होता है। न ऐसे ग्रन्थों का आशय समझने के लिए विशेष चिन्तन की आवश्यकता होती है और न विशेष विद्वत्ता की। ऐसे सुखपाठ्य, मनोरज्जक और सर्व-जनोपयोगी साहित्यांश की कुछ ही पुस्तकें हिन्दी में हैं। उनको भी बने अभी कुछ ही समय हुआ और वे भी अच्छी तरह खोज और विचार पूर्वक नहीं लिखी गईं । बंगला में माइकेल मधुसूदन दत्त और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के जैसे चरित हैं वैसा एक भी जीवनचरित हिन्दी में नहीं। अंगरेज़ी में बासवेल-कृत डाक्टर जान्सन का और लार्डमार्ले-कृत मिस्टर ग्लैस्टन का जीवनचरित इस शाखा के आदर्श ग्रन्थ हैं । हिन्दी में ऐसे ग्रन्थ निकलने के लिए अभी बहुत समय दरकार है । परन्तु अँगरेज़ी शिक्षा पाये हुए हिन्दी-भाषा-भाषी दो
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चार सजन भी यदि हिन्दी लिखने का अभ्यास करें तो छोटे मोटे अनेक जीवनचरित थोड़े ही समय में तैयार हो सकते हैं। हिन्दी की कई मासिक पुस्तकों में प्रसिद्ध पुरुषों के जीवनचरित नियमपूर्वक निकलते हैं। उन्हें लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं, यह मैं अपने निज के अनुभव से कह सकता है। इससे यह सूचित है कि इस साहित्य को लोग पसन्द करते हैं। अतएव यदि अच्छे अच्छे जीवनचरित प्रकाशित हों तो उनसे लेखक, प्रकाशक और पाठक सभीको लाभ पहुँच सकता है।

१०--पर्यटन-विषयक पुस्तकें

देश-दर्शन और पर्यटन-विषयक पुस्तकें भी साहित्य का एक अंग हैं । उनसे बहुज्ञता बढ़ती है । उन्हें पढ़ने में मन भी लगता है। जो देश या जो स्थान जिसने नहीं देखा उसका वर्णन पढ़ कर उसे तत्सम्बन्धिनी अनेक नई बातें मालूम हो सकती हैं । हिन्दी में इस विषय का एक बहुत अच्छा ग्रन्थ है । उसके कई भाग हैं । लेखक ने भारत के अनेक प्रान्तों में स्वयं भ्रमण करके इस पुस्तक की रचना की है। इसके सिवा चीन, जापान और इंगलैंड की जिन लोगों ने सैर की है उनमें से भी दो एक हिन्दी-हितैषियों ने अपनी यात्रा का वर्णन हिन्दी में पुस्तकाकार प्रकाशित किया है। इस विषय की और भी दो एक पुस्तकें निकली हैं। पर इस अंग की पुष्टि के लिए इतनी पुस्तकें समुद्र में एक बूंँद के बराबर हैं। अनेक भारतवर्षीय युवक प्रतिवर्ष विदेश-यात्रा करते हैं । यदि उनमें से दो एक भी
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अपनी यात्रा का वर्णन हर साल प्रकाशित करें तो साहित्य के इस अंग की बहुत शीघ्र उन्नति हो जाय। परन्तु,बड़े दुःख की बात है कि ऐसे यात्रियों या प्रवासियों में से जो सज्जन हिन्दी से प्रेम रखते हैं और विदेश से हिन्दी में लिख लिख कर लेख भी भेजने की कृपा करते हैं वे जब इस देश को लौटते हैं तब औरों की तो बात ही नहीं, वे भी हिन्दी लिखने से पराङ्मुख हो जाते हैं।

११---काव्य और नाटक

हिन्दी के साहित्य में काव्यों का बामुल्य है। अनेक अच्छे अच्छे काव्य हैं । अनन्त काव्य-ग्रन्थ तो अब तक अप्रकाशित अवस्था ही में पड़े हुए हैं। सर्वाधिक संख्या श्रृंगार-रसप्रधान काव्यों की है, उससे कम भक्त कवियों के काव्यों की, उससे भी कम वीर-रस के काव्यों की । फुटकर विषयों के काव्य भी बहुत हैं । यह सब पराने काव्यों की वात हुई । वर्तमान समय में जो काव्य हिन्दी में निकले हैं या निकल रहे हैं उनमें से कुछ बिरले कवियों की कृतियों को छोड़ कर शेष को काव्य या कविता कहते संकोच होता है। आजकल कवियों की संख्या बहुत बढ़ रही है। परन्तु जिस तरह के काव्य प्रकाशित होते हैं उनसे विशेष लाभ नहीं । “ रङ्ग में भङ्ग" और "जयद्रथ वध” की कक्षा के काव्यों को इस समय आवश्यकता है। काव्यों की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सबकी समझ
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में आ जाय----चाहे वह बोल-चाल की भाषा हो चाहे ब्रज की भाषा। ब्रज-भाषा न जानने या न लिखनेवालों को शाखा-मृग कहने का अब समय नहीं। काव्यों की रचना और उनका विषय ऐसा होना चाहिए जो देश और काल के अनुकूल हो। पढ़नेवाले के हृदय पर कविता पाठ का कुछ असर होना चाहिए; उससे सदुपदेश मिलना चाहिए; और कुछ नहीं, तो थोड़ी देर के लिए प्रमोदानुभव तो अवश्य ही होना चाहिए। भारत में अनन्त आदर्श-नरेश, देशभक्त, वीर-शिरोमणि और महात्मा हो गये हैं। हिन्दी के सु-कवि यदि उनपर काव्य करें तो बहुत लाभ हो। पलाशी का युद्ध, वृत्रसंहार, मेघनाद वध और यशवन्तराव महाकाव्य की बराबरी का एक भी काव्य हिन्दी में नहीं। वर्तमान कवियों को इस तरह के काव्य लिख कर हिन्दी को श्रीवृद्धि करनी चाहिए।

बाबू हरिश्चन्द्र के कई काब्य और अनुवाद बहुत अच्छे हैं । राजा लक्ष्मण सिंह-कृत मेघदूत का अनुवाद भी प्रशंसा के योग्य है। संस्कृत-काव्यों के जो और अनेक अनुवाद हिन्दी में हुए हैं वे उतने अच्छे नहीं । गोल्डस्मिथ के "हरमिट" का अनुवाद 'एकान्तवासी योगी' भी अच्छा है। पुराणादि के जो अनेक अनुवाद हिन्दी में हुए हैं उनसे हिन्दी-साहित्य को लाभ अवश्य हुआ है। पर उनमें पंडिताऊ ढंगवाले अनुवादों की भाषा संशोधन-योग्य है।

कुछ नाटकों को छोड़ कर हिन्दी में अच्छे नाटक भी नहीं। [ १२७ ]
इन 'कुछ' में से अर्धाधिक तो संस्कृत तथा कई अन्य भाषाओं के नाटकों के अनुवाद मात्र हैं। समाज की भिन्न भिन्न अवस्थाओं और दृश्यों का जैसा अच्छा चित्र अभिनय द्वारा दिखाया जा सकता है, वैसा अच्छा और किसी तरह नहीं। अभिनय के लिए ही नाटकों की रचना होती है। परन्तु, हिन्दी में नाटक के नाम से इस समय जो अनेक पुस्तकें वर्तमान हैं उनमें अधिकांश का ठीक ठीक अभिनय ही नहीं हो सकता। जो अच्छा कवि है, जिसने अनेक अभिनय देखे हैं, जो अभिनयस्थल और नेपथ्य की रचना आदि से परिचित है, जो मनुष्यस्वभाव और मानवी मनोविकारों का ज्ञाता है वही अभिनय करने योग्य अच्छे नाटकों की रचना कर सकता है। जो नाटक आजकल इन प्रान्तों में नाटक-कम्पनियों के द्वारा खेले जाते हैं वे प्राय: उर्दू में हैं। उनमें दिखलाये जानेवाले सामाजिक चित्र बहुधा अच्छे नहीं । उन्हें देख कर दर्शकों की---विशेष करके युवकों की---चित्तवृत्ति के कलुषित होने का डर रहता है। अतएव योग्य लेखकों द्वारा हिन्दी में अच्छे अच्छे नाटकों के लिखे जाने की बड़ी आवश्यकता है।

१२---उपन्यास

खुशी की बात है, हिन्दी साहित्य का यह अंग दिन पर दिन पुष्ट होता जा रहा है । यद्यपि हिन्दी में अच्छे उपन्यास,ढूँढ़ने से, दस ही पाँच निकलेंगे---यद्यपि हमारा साहित्य बुरे उपन्यासों के लिए बदनाम सा हो रहा है--तथापि उपन्यासों का अधिक प्रकाशित होना हिन्दी के उत्थान का शुभ लक्षण है। [ १२८ ]
उपन्यासों ही को बदौलत हिन्दी-पाठकों की संख्या में विशेष वृद्धि हुई है । उपन्यास चाहे जासूसी हो, चाहे मायावी, चाहे तिलिस्मी, विशेष करके कम उम्र के पाठकों को उन्होंने हिन्दी पढ़ने को और अवश्य आकृष्ट किया है। हिन्दी के उपन्यास का अधिकांश अन्य भाषाओं के उपन्यासों का अनुवाद मात्र है। अतएव दुःख इस बात का है कि यदि अनुवाद ही करना था तो चुन चुन कर अच्छी अच्छी पुस्तकों ही का अनुवाद क्यों न किया गया । परन्तु, जब किसी भाषा का उत्थान होता है तब सुरुचि की ओर एकदम ध्यान नहीं जाता। यह काम धीरे धीरे होता है। बंकिमबाबू और रमेशचन्द्रदत्त के उपन्यासों को आदर्श मान कर हमें उसी तरह के उपन्यासों से हिन्दी-साहित्य को अलंकृत करना चाहिए। इनके कई उपन्यासों के अनुवाद हिन्दी में हो भी चुके हैं। और,विषयों की पुस्तकों की अपेक्षा उपन्यासों के पढ़नेवालों की संख्या अधिक हुआ करती है। अतएव अच्छे उपन्यासों से बहुत लाभ और बुरे उपन्यासों से बहुत हानि होने की सम्भावना रहती है । उपन्यासों में समाज के ऐसे चित्र होने चाहिएं जिनसे दुराचार की वृद्धि न हो कर सदाचार की वृद्धि हो। इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि कहानी बनावटी या अति प्रकृत न जान पड़े। यदि कहानी की घटनायें स्वाभाविक होंगी तभी पाठकों के चित्त पर उनका असर पड़ेगा और समझदार पाठको का जी भी तभी पढ़ने में लगेगा। इन गुणों से पूर्ण कहानी लिखना कोई सरल काम नहीं। इसके
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लिए बड़ी योग्यता चाहिए। आजकल हिन्दी में जो कहानियां निकलती हैं उनके अच्छे न होने का कारण स्पष्ट है । योग्य लेखकों को चाहिए कि उपन्यास-रचना को ओछा काम न समझ कर अच्छे उपन्यासों से समाज और साहित्य दोनों का कल्याण-साधन करें।

१३---समालोचना

वर्तमान हिन्दी-साहित्य में समालोचनाओं की कमी नहीं। कोई समाचारपत्र, कोई सामयिक पुस्तक, ऐसी नहीं जिसमें समालोचनायें न निकलती हो। परन्तु उनको समालोचना कहना भूल है। वे विज्ञापन मात्र हैं। और, जो लोग समालोचना के लिए पुस्तके भेजते हैं उनका आन्तरिक अभिप्राय भी बहुधा यह होता है कि इसी बहाने हमारी पुस्तक का विज्ञापन प्रकाशित हो जाय। यथार्थ समालोचनायें भी कभी कभी निकलती हैं, परन्तु बहुत कम । समालोचना साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। उससे बड़े लाभ है। योग्य समालोचक अपनी समालोचना में समालोचित ग्रन्थ के ऐसे ऐसे रहस्य प्रकट करते हैं जो साधारण विद्या-बुद्धि के पाठकों के ध्यान में नहीं आ सकते । कभी कभी तो ऐसा होता है कि ग्रन्थकर्ता के आशय को समालोचक इस विशद भाव से ब्यक्त करके खिलाता है कि स्वयं ग्रन्थकर्ता को चकित होना पड़ता है। शकुन्तला और दुष्यन्त तथा पुरूरवा और उर्वशी की कथायें पुराणों में जिस प्रकार वर्णित हुई हैं कालिदास के नाटकों में उस प्रकार नहीं हुई। उनमें
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कवि ने क्यों और कहां तक परिवर्तन किया है; शकुन्तला में कवि ने दुर्वासा के शाप की क्यों अवतारणा की है; मेघदूत में कवि ने यक्ष ही को क्यों नायक बनाया है; धारिणी और औशीनरी, प्रियंवदा और अनसूया के स्वभाव में क्या अन्तर है--ये ऐसी बातें हैं जो सबकी समझ में नहीं आ सकतीं। समालोचक ऐसी ही ऐसी बातों की मीमांसा करता है और कवि के हृदय को मानो खोल कर सर्वसाधारण के सामने रख देता है। उसके गुणों को भी वह दिखाता है और दोषों को भी । बँगला में शकुन्तला-रहस्य और शकुन्तला तत्त्व आदि समालोचना-पुस्तकें ऐसी ही है।

दुःख है, ऐसी एक भी समालोचनात्मक पुस्तक हिन्दी में मेरे देखने में नहीं आई । हां, दो एक सत्समालोचनात्मक निबन्ध अवश्य मैंने देखे हैं । सच तो यह है कि ग्रन्थकार की जीवितावस्था में उसके ग्रन्थों की यथार्थ समालोचना नहीं हो सकती; अथवा यह कहना चाहिए कि होनी ही न चाहिए। इसीसे पश्चिमी देशों के विद्वान, बहुधा ऐसे ही ग्रन्थों की विस्तृत आलोचनायें करते हैं जिनके कर्ता इस लोक में विद्यमान नहीं । परन्तु हमारी हतभागिनी हिन्दी के विलक्षण साहित्य-संसार में ऐसा करने की आज्ञा ही नहीं। जो बात अन्य उन्नत भाषाओं के साहित्यसेवी भूषण समझते हैं वही यहां दूषण मानी जाती है। यदि किसी प्राचीन कवि या ग्रन्थकार के ग्रन्थ की समालोचना में कोई उसके दोष दिखलाता है तो उसके लिए हिन्दी में यह कहा जाता है
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कि उसने उस ग्रन्थकर्ता को चचोर डाला; उस पर मुष्टिका- प्रहार किया उसका अज्जर पज्जर ढीला कर दिया, और, सैकड़ो मन भूसी फटक कर गेहूं का एक दाना निकाल लाया ! समालोचक मूर्ख, उद्दण्ड, अभिमानी और उपहास-पात्र बनाया जाता है !! बड़े बड़े शास्त्री, विशारद, उपाध्याय और आचार्य उसके पीछे पड़ जाते हैं और उस पर यह इलज़ाम लगाते हैं कि इसने पूजनीय प्राचीन ग्रन्थकारों की कीर्ति को कलङ्कित करने की चेता को !!! जीवित ग्रन्थकारों के ग्रन्थों की समालोचना करना और प्रसंगवश उनके दोष दिखाना मानों उन्हें अपना शत्रु बनाना है; और परलोकवासी कवियों या लेखकों की पुस्तकों के प्रतिकूल कुछ कहना उनकी यशोराशि पर धब्बा लगाना है । इस “उभयतः पाशारज्जुः” की दशा में भगवान् ही हिन्दी साहित्य की इस शाखा की उत्पत्ति और उन्नति की कोई युक्ति निकाले तो निकल सकती है।

१४---फुटकर विषयों के ग्रन्थ


साहित्य की जिन शाखाओं का नामोल्लेख ऊपर किया गया उनके सिवा पुरातत्व, भूगोल, भवननिर्माण, नौका नयन, शिक्षण, व्यापार-वाणिज्य आदि और भी कितनी ही शाखायें हैं जिन पर अन्यान्य उन्नत भाषाओं में शतशः ग्रन्थों की रचना हुई है। तदतिरिक्त फुटकर विषयों के भी अनेक ग्रन्थ हैं । हिन्दी में इन शाखाओं और विषयों की बहुत ही थोड़ी
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पुस्तकों को छोड़ कर उल्लेख-योग्य अधिक पुस्तकें मेरे देखने में नहीं आई।

१५--भाषा

विषय के अनुसार भाषा में बहुत कुछ भेद हो सकता है। जैसा विषय हो, और जिस श्रेणी के पाठकों के लिए पुस्तक लिखी गई हो, तद्नुसार ही भाषा का प्रयोग होना चाहिए। बच्चों और साधारण जनों के लिए लिखी गई पुस्तकों में तरल भाषा लिखी जानी चाहिए । प्रौढ़ और विशेष शिक्षित जनों के लिए परिष्कृत और अलङ्कारिक भाषा लिखी जा सकती है। वैज्ञानिक ग्रन्थों में पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। अतएव उनमें कुछ न कुछ क्लिष्टता आ ही जाती है। वह अनिवार्य है । मैं तो सरल भाषा के लेखक ही को बहुत बड़ा लेखक समझता हूं। लिखने का मतलब औरों पर अपने मन के भाव प्रकट करना है। जिसका मनोभाव जितने ही अधिक लोग समझ सकेंगे उसका प्रयत्न और परिश्रम उतना ही अधिक सफल हुआ समझा जायगा। जितने बड़े बड़े लेखक हो गये हैं प्राय: सभी सीधी सादी और बहुजन-बोधगम्य भाषा के पक्षपाती थे।

आजकल कुछ लेखक तो ऐसी हिन्दी लिखते हैं जिसमें संस्कृत-शब्दों को प्रचुरता रहती है। कुछ संस्कृत, अँगरेजी, फ़ारसी, अरबी सभी भाषाओं के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करते हैं । कुछ विदेशीय शब्दों का बिलकुल ही प्रयोग नहीं
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करते; ढूँढ़ ढूँढ कर ठेठ हिन्दी-शब्द काम में लाते हैं। मेरी राय में शब्द चाहे जिस भाषा के हो, यदि वे प्रचलित शब्द हैं और सब कहीं बोलचाल में आते हैं तो उन्हें हिन्दी के शब्द-समूह के बाहर समझना भूल है। उनके प्रयोग से हिन्दी की कोई हानि नहीं; प्रत्युत लाभ है। अरबी-फ़ारसी के सैकड़ों शब्द ऐसे हैं जिनको अपढ़ आदमी तक बोलते हैं। उनका वहिष्कार किसी प्रकार सम्भव नहीं।

६---उन्नति के उपाय

तीस चालीस वर्ष पहले हिन्दी साहित्य की जो अवस्था थी उससे इस समय की अवस्था अवश्य अच्छी है । परन्तु इस देश की अन्य समृद्धिशालिनी भाषाओं की अपेक्षा अब भी वह अत्यन्त हीनावस्था में है। हम हिन्दीभाषाभाषियों के लिर यह बड़े ही परिताप की बात है । जैसा ऊपर, एक जगह पर, कहा जा चुका है पुस्तको ही द्वारा ज्ञान-वृद्धि होती है। और, जो समा या जो जन-समुदाय जितना ही अधिक ज्ञानलम्पन्न होता है वह लौकिक और पारलौकिक, दोनों विषयों में, उतनी ही अधिक उन्नति कर सकता है। अतएव अपनी सामाजिक, नैतिक, धार्मिक आदि हर तरह की उन्नति के लिए सब विषयों की अच्छी अच्छी पुस्तकों की हिन्दी में बड़ी ही आवश्यकता है। हिन्दी में इस लिए कि यही हमारी मातृ-भाषा है। इसी भाषा में दी गई शिक्षा से समाज का सर्वाधिक अंश लाभ उठा सकता है। इसी भाषा में वितरण
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किये गये ज्ञान का प्रकाश गांँव गांँव, घर घर, पहुंँच सकता है। यही हमारी भाषा है; यही हमारी माताओं की भाषा है; यही हमारी बहनों की भाषा है; यही हमारे बच्चों की भाषा है। अँगरेज़ी या अन्य किसी भाषा में दी गई शिक्षा से जितना लाभ पहुँच सकता है उससे सैकड़ों गुना अधिक लाभ मातृ-भाषा में दी गई शिक्षा से पहुंँच सकता है।

किसी भी भाषा में नये नये ग्रन्थ पहले ही से नहीं निकलने लगते। जैसे जैसे शिक्षा-प्रचार और ज्ञानोन्नति होती जाती है वैसे ही वैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी बनते जाते हैं। अतएव जब तक नये नये ग्रन्थ निकलने का समय न आवे तब तक हमें चाहिए कि हम अँगरेज़ी और संस्कृत आदि भाषाओं के अच्छे अच्छे ग्रन्थों का सरल हिन्दी में अनुवाद करके अपने देश और अपने जनसमुदाय का कल्याण-साधन करें। इन भाषाओं के साहित्य में अनन्त ज्ञानराशि भरी हुई है। उसकी प्राप्ति से जय हम लोगों की विद्याभिरुचि और ज्ञानसम्पन्नता बढ़ेगी तब हम लोग भी नाना विषयों के नये नये ग्रन्थ लिख कर अपने साहित्य की पुष्टि करेंगे। हाँ, जो लोग इस समय भी अपनी उन्नत शिक्षा और विशद विद्या के कारण नये नये ग्रन्थ लिख सकते हैं उनके लिए भाषान्तर-कार्य में प्रवृत्त होने की तादृश आवश्यकता नहीं। परन्तु प्रत्येक भाषा के साहित्य में कुछ न कुछ विशेषता होती है। अतएव भिन्न भिन्न भाषाओं के विशिष्ट ग्रन्थों के अनुवाद की आवश्यकता भी सदा बनी रहती है । अँगरेजी बहुत उन्नत
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भाषा है । परन्तु उसमें भी, अब तक, प्रति वर्ष, अन्य भाषाओं की पुस्तकों के सैकड़ों अनुवाद होते हैं।

हमारी भाषा की शिक्षा और हमारे साहित्य की उन्नति के विषय में गवर्नमेंट और विश्वविद्यालय का जो कर्तव्य है उसके पालन में यदि एक भी दोष न हो, एक भी त्रुटि न हो, एक भी भूल न हो, तो भी उस मार्ग से हमारे साहित्य की सर्वागीण उन्नति नहीं हो सकती। ऐसी उन्नति का होना एक मात्र हमारे हाथ में है । उद्योग करने से हमीं अपने साहित्य को उन्नत कर सकते हैं और उद्योग न करने से हमीं उसे रसातल पहुंचा सकते हैं। और प्रान्तों के राजा, महाराजा, तअल्लुकदार और धनी अपनी मातृभाषा के लिए लाखों रुपये खर्च करते हैं। वे जानते हैं कि अज्ञानों को सज्ञान करना, अशिक्षितों को शिक्षा देना,और ज्ञान-प्रसार के प्रधान साधन उत्तमोत्तम ग्रन्थों के रचयिताओं को उत्साहित करना पुण्य-कार्य है । परन्तु,बड़े दुःख की बात है, इन प्रान्तों में ऐसे एक ही दो रमारमण निकलेंगे जो इस सम्बन्ध में अपना कर्तव्यपालन, करते हों । हिन्दी की वर्तमान हीनावस्था में बहुत कम लोग साहित्य-सेवा का व्यवसाय करके सुख से जीविकानिर्वाह कर सकते हैं । अतएव साहित्य-सेवकों के लिए उत्साह-दान की बड़ी आवश्यकता है।

परन्तु सबसे बड़ी आवश्यकता एक और ही बात को है। हम लोगों में अपनी मातृ-भाषा के प्रम की बहुत कमी है। [ १३६ ]
जिन्होंने अँगरेजी की उच्च शिक्षा पाई है--जो संस्कृत के उत्कृष्ट विद्वान है---वे हिन्दी का अनादर करते हैं । यदि यह इस लिए कि हिन्दी भिखारिनी है तो इसके एकमात्र उत्तरदाता हमीं हैं। इसका पाप एकमात्र हमारे ही लिर है। जो मनुष्य अपनी माता का अनादर करता है, जो मनुष्य रेशमी परिच्छेद पहन कर चीथड़ों में लिपटी हुई अपनी माता की तरफ़ घृणाव्यजक कटाक्ष करता है, जो मनुष्य समर्थ हो कर भी अपनी माता का उद्धार आपदाओं से नहीं करता उसे यदि ओर कुछ नहीं तो क्या लज्जा भी न आनी चाहिर ? माता के बिना मनुष्य का काम केवल वाल्यावस्था में नहीं चल सकता; परन्तु मातृ-भाषा के बिना तो किसी भी अवस्था में मनुष्य का काम नहीं चल सकता । इसीसे माता ओर मातृभाषा की इतनी महिमा है । अतएव हमारे उच्च शिक्षा पाये हुए भाइयों को चाहिए कि वे हिन्दी लिखने और पढ़ने का अभ्यास करें; हिन्दी के साहित्य को उन्नत करने की चेष्टा करें; हिन्दी को नफ़रत की निगाह से देखना बन्द कर दें । यदि वे इस तरफ़ ध्यान दें तो न किसी और से कुछ कहने की आवश्यकता है, न किसी और से सहायता माँगने की आवश्यकता है, न किसी और से उत्साह पाने की आवश्यकता है। ओर, कोई कारण नहीं कि वे अपनी भाषा की उन्नति का यत्न न करें। जिस अँगरेज़ी शिक्षा का उन्हें इतना गर्व है उसके आचार्य बड़े बड़े विद्वान् अँगरेज़ क्या अपनी मातृभाषा की सेवा नहीं करते ? बड़े बड़े बंगाली, मदरासी, गुजराती, महाराष्ट्र और
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मुसलमान सिविलियन तक क्या अपनी अपनी भाषाओं में पुस्तक-रचना नहीं करते? क्या हिन्दी भाषा-भाषियों की उच्च शिक्षा में सुरख़ाब का पर लगा हुआ है ? यदि हमें अंँगरेज़ी से अतिशय प्रेम है तो हम खुशी से उसमें अपने विचार प्रकट कर सकते हैं, लेख लिख सकते हैं, पुस्तक-रचना कर सकते हैं। परन्तु क्या वर्ष छः महीने में एक आध लेख भी हिन्दी में लिखडालना हमारे लिए कोई बड़ी बात है ? हमें याद रखना चाहिए कि अँगरेज़ी लेखों और पुस्तकों से समाज या देश के बहुत ही थोड़े लोगों को लाभ पहुँच सकता है। अतएव उसकी तरफ़ कम और अपनी निजकी भाषा की तरफ़ हमें विशेष सदय होना चाहिए। जिस समाज में हम उत्पन्न हुए हैं---जिस प्रान्त या देश में हमने जन्म लिया है---उसका विशेष कल्याण उसीकी भाषा को उन्नत करने से हो सकता है । जिस समाज और जिस देश की बदौलत हम सभ्य, शिक्षित और विद्वान हुए हैं उसे अपनी सभ्यता, शिक्षा और विद्वत्ता से लाभ न पहुंचाना घोर कृतघ्नता है । इस कृतघ्नता के पाश से हम तब तक नहीं छूट सकते जब तक अपनी निजकी भाषा में पुस्तक-रचना और समाचार-पत्र-सम्पादन् करके अपनी सभ्यता,अपनी शिक्षा और अपनी विद्वत्ता से सारे जन-समुदाय को लाभ न पहुँचावें।

आइए, तब तक हमीं लोग, अपनी अल्प शक्ति के अनुसार, कुछ विशेषत्वपूर्ण काम कर दिखाने की चेष्टा
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करें। 'हमीं' से मेरा मतलब, शिक्षितों के मतानुसार, उन अल्पज्ञ और अल्पशिक्षित जनों से है जो इस समय हिन्दी के साहित्य-सेवियों में गिने जाते हैं और जिनमें मैं अपने को सबसे निकृष्ट समझता हूं । पिछले साहित्य-सम्मेलन ने क्या काम किया और क्या न किया, इस पर विचार करने की यहाँ, इस लेख में, आवश्यकता नहीं। उसको तो रिपोर्ट भी अब तक मेरे देखने में नहीं आई । आवश्यकता इस समय हिन्दी में थोड़ी सी अच्छी अच्छी पुस्तकों की है। विभक्तियां मिला कर लिखनी चाहिए या अलग अलग, पाई,गई और आई आदि शब्दों में केवल ई-स्वर लिखना चाहिए या ई-युक्त यकार; पर-सवर्ण सम्बन्धी नियम का पालन करना करना चाहिए या केवल अनुस्वार से काम लेना चाहिए---ये तथा और भी ऐसी ही अनेक बातों पर विचार करने की भी आवश्यकता है। परन्तु तदपेक्षा अधिक आवश्यकता उपयोगी विषयों की कुछ पुस्तकें लिखने की है। आइए, हमलोग मिल कर भिन्न भिन्न विषय की एक एक पुस्तक लिखने का भार अपने ऊपर लेले; और एक वर्ष बाद, उसकी छपी हुई या हस्तलिखित कापी अगले सम्मेलन में उपस्थित करके यह दिखला दें कि अपनी मातृभाषा हिन्दी पर हमारा कितना प्रेम है और उसकी सेवा करना हम कहां तक अपना कर्तव्य समझते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अल्पज्ञता के कारण हमसे यह काम उतना अच्छा न हो सकेगा जितना अच्छा संस्कृत और अङ्गरेज़ी के पराङ्गत विद्वानों से हो
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सकता। परन्तु इसके लिए हमें दोष नहीं दिया जा सकता। मुझे आशा है कि हमारी दोषपूर्ण रचनाओं को देख कर,स्तन्यपान के समय अपनी प्यारी मां से सीखी हुई भाषा की दुर्दशा को देख कर, हिन्दी-भाषा-भाषी अङ्गरेजी और संस्कृत के विद्वानों को हम पर--और हम पर नहीं तो अपनी मातृभाषा पर–--अवश्य दया आवेगी और वे अवश्य ही उसके उद्धार का कार्य प्रारम्भ कर देंगे। बस, मुझे अब इतनी ही प्रार्थना करना है कि---

"अयुक्तमस्मिन्यदि किञ्चिदुक्तमज्ञानतो वा मतिविभ्रमाद्वा ।

औदार्यकारुण्यविशुदधीभिर्मनीषिभिस्तत्परिमर्जनीयम् ॥"

[अक्टोबर १९११