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साहित्यालाप/८—कौंसिल में हिन्दी

विकिस्रोत से
साहित्यालाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ १४० से – १६२ तक

 

८—कौंसिल में हिन्दी

जिस समय सर अन्टोनी मेकडानल इस प्रान्त के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे उस समय, १९००ई० में, उन्होंने यह नियम कर दिया कि दीवानी, फ़ाजदारी और माल की किसी भी अदालत में जिसका जी चाहे देवनागरी-लिपि में अर्जी-दावे और अरजियाँ दे और जिसका जी चाहे फारसी-लिपि में। उन्होंने यह भी नियम कर दिया कि समन और भिन्न भिन्न प्रकार की विज्ञप्तियाँ आदि हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में कचहरियों से जारी की जायँ। अंगरेजी के दत्फ़रों को छोड़ कर और कचहरियों के कर्म्मचारियों को साल भर के अन्दर हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषायें सीख लेने का भी हुक्म हो गया। इससे देवनागरी-लिपि में अर्ज़ियाँ इत्यादि लेने और समन इत्यादि निकालनेवाली अदालतों के हाकिमों और मुलाज़िमों के लिए दोनों लिपियाँ जानना आवश्यक हो गया। यह सब कुछ तो हुआ, पर जिन लोगों के बाप-दादों की बदौलत नागरी-लिपि उत्पन्न हुई और अब तक जीती है, जिनके धर्म्म-कर्म्म के सारे ग्रन्थ इसी लिपि में हैं मरने के समय जिनके कान में इसी लिपि में लिखे गये धर्मोपदेश और राम-नाम पड़ते हैं उन्हींकी कृपा से सर अन्टोनी मेकडानल की पूर्वोक्त आज्ञा यथेट फलीभूत न हुई। उन्होंने अपनी पूर्वपरिचित्त भाषा और टेढ़ी-मेढ़ी लिपि लिखना न छोड़ा। यदि
किसीने इस आज्ञापत्र के अनुसार देवनागरी-लिपि से काम लेना भी चाहा तो उदारता के इन अवतारों में से अधिकांश ने उसके मार्ग में बबूल के बड़े बड़े काँटे बखेरने से हाथ न हटाया। यदि ये लोग अपने कर्तव्य का पालन करते तो करोड़ों आदमियों को लाभ पहुँचता। अब तक वे देवनागरी ही में कचहरी का काम करने लग जाते और सम्मन, इत्तिलानामे आदि पढ़ाने के लिए उन्हें कोसों न दोड़ना पड़ता। उर्दू की तरह वे हिन्दी (देवनागरी) में भी लिखे जाते । अभी तो सम्मनों की देवनागरो-वाली फ़र्द बहुधा कोरी ही रह जाती है । अभी उस दिन हमने एक ऐसा सम्मन देखा जो छपा देवनागरी में था, पर खानापुरी की गई थी फ़ारसी-लिपि में !

पूर्वोक्त आज्ञा देकर गवर्नमेन्ट ने अधिकांश लोगों के लिए बहुत सुभीता कर दिया । उसे करना ही चाहिए था। प्रजा-रजक राजा का यह कर्त्तव्य ही है। इन प्रान्तों में हिन्दी भाषा और देवनागरी-लिपि के जाननेवाले ही अधिक हैं इसीसे गवर्नमेन्ट ने यह भी नियम कर दिया है कि---

(१) आई० सी० एस० श्रेणी के बड़े बड़े कर्मचारियों,(२)डिपुटी कलेक्टरों और ( ३ ) पुलिस के असिस्टैंट और डिपटी सुपरिंटेंडेंटों के लिए भी देवनागरी और फ़ारसी दोनों लिपियाँ जानना ज़रूरी है। अब तो वह प्लीडरों, वकीलों, और एल-एल० बी० की परीक्षा पास कनूनदाँ लोगों को भी देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा सीखने के लिए मजबूर करती है। याद रहे, यही लोग बहुत करके मुन्सिफ़ और

सब-जज नियत होते हैं । अर्थात् नागरी और फ़ारसी, दोनों लिपियों, से इनका परिचय पहले ही से रहता है।

एक मुन्सिफ़ साहब ने गवाहों के बयान देवनागरी लिपि में लिख डाले । इसपर होहल्ला मचा। अख़बारों में लेख निकले। कहा गया कि नागरी-लिपि में बयान क्यों लिखे गये। फ़ारसी ही में लिखना था। इस पर माननीय चिन्तामणि ने प्रान्तिक कौंसिल में कुछ पूछ-पाछ की। गवर्नमेंट ने उत्तर में कहा वर्तमान पद्धति में फेरफार न किया जायगा । अर्थात् इज़हार आदि आजकल सब फ़ारसी लिपि में लिखे जाते हैं, वे वैसे ही लिखे जायँगे । इससे माननीय महाशय की परितुष्टि न हुई। इस कारण,२६ फरवरी १९१७ की बैठक में, उन्होंने प्रान्तीय कौंसिल में एक प्रस्ताव उपस्थित किया।

उसका आशय यह था---

जो लोग मुन्सिफ़ और सब-जज ( सदराला ) नियत हों उनके लिए केवल फ़ारसी-लिपि में हिन्दुस्तानी (उर्दू) भाषा लिख-पढ़ सकना ही लाज़िम न समझा जाय, देवनागरी-लिपि में हिन्दी-भाषा लिख-पढ़ सकना भी लाज़िमी समझा जाय।

उन्होंने इस प्रस्ताव का उत्थापन बड़ी योग्यता से किया। अच्छी युक्तियों से काम लिया। तर्क-सङ्गत भाषण किया। अपने कथन की पुष्टि में प्रमाण भी दिये। बलाबल का ख़ूब विचार किया। कहा---गवर्नमेंट ही के कर्मचारियों के हाथ से लिखी गई मनुष्य-गणना की रिपोर्टों से मेरे प्रस्ताव के "पास" किये जाने की आवश्यकतासिद्ध है । इल प्रान्त में हिन्दी जानने-

वाले कोई ४१ करोड़ और उर्दू जाननेवाले केवल ४१ लाख हैं। अर्थात् १० हजार आदमियों में से ९,११६ आदमी हिन्दी और केवल ८५३ उर्दू बोलनेवाले हैं । अतएव गवर्नमेंट को मेरी बात मान लेनी चाहिए और मुन्सिफ़ो तथा सब-जजों के लिए यह आज्ञा हो जानी चाहिए कि वे देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा भी लिख-पढ़ सकने की योग्यता प्राप्त कर लिया करें।

माननीय लाला मधुसूदनदयाल ने इस पुस्ताव का अनुमोदन किया।

इसका विरोध माननीय नवाब अब्दुलमजोद ने किया। आपने प्रस्ताव के शब्दों का कुछ भी खयाल न करके अधिकतर अप्रासङ्गिक बातों हा के द्वारा अपने हृदय के विकार प्रकट किये । आपने कहा---

(क) हिन्दी उर्दू का झगड़ा ज़िन्दा रखने ही के लिए यह प्रस्ताव उपस्थित किया गया है।

(ख ) उर्दू-भाषा मुसलमानों ही की बदौलत अस्तित्व में आई और उन्नति को पहुंची है। वह अब सारे भारत की राष्ट्र-भाषा ( Lingua Franca ) है । देहाती गंवार तक उसे बोल सकते और समझ सकते हैं। जिसे हिन्दी कहते हैं वह सर्वसाधारण की भाषा नहीं।

(ग) अंगरेज़ी राज्य के पहले हिन्दी भाषा का नाम तक किसीको न मालम था। हिन्दी-लिपि शायद रही हो,पर उस लिपि में अपने विचार प्रकट करनेवाले लोग गंवार ही समझे जाते थे। (घ )हिन्दी-भाषा अच्छी तरह समझ लेना मुसलमानों के लिए कठिन काम है, क्योंकि उसमें संस्कृत के लम्बे लम्बे शब्द रहते हैं।

(ङ) हिन्दी-लिपि लिखनेवाले स्वयं हो उस लिपि को आसानी से नहीं पढ़ सकते । उसे लिखने में फ़ारसी लिपि से अधिक देर भी लगती है। मुसलमान कठिनता से उसे सीख सकते हैं।

यह सुन कर कौंसिल के प्रेसीडेन्ट ने कहा कि आपका यह कथन अप्रासङ्गिक है । तब और कुछ कह कर आप बैठ गये।

गवर्नमेंट की तरफ़ से माननीय मिस्टर बर्न ने भी इस प्रस्ताव का प्रतिवाद किया। आपने जो दलीलें पेश की उनमें से कुछ नीचे दी जाती हैं---

(च) मुन्सिफों और सब-जजों को नागरी-लिपि में लिखी हुई बहुत कम दस्ततावेज़ें देखने की ज़रूरत पड़ती है। फ़ारसी लिपि ही में अधिकांश दस्तावेज़ें पेश की जाती हैं।

(छ) हाईकोर्ट के एक हिन्दुस्तानी जज की राय है कि इस सबे के शिक्षित आदमियों को हिन्दी पढ़ने में बड़ी दिक्कत होती है। एक बारिस्टर ने मुझसे उस दिन यह कहा कि हिन्दी की कुछ दस्तावेज़ें पढ़ सकने-वाला एक भी आदमी इलाहाबाद में उन्हें न मिला।

(ज) जो लोग कचहरियों की शरण लेते हैं वे वकीलों और मुखतारों से अर्ज़ियां वगैरह लिखाते हैं और ऐसे वकील-

मुख़तार बहुत ही थोड़े हैं जो देवनागरी लिख सकते हों, या लिखना चाहते हों । अतएव हिन्दी-भाषा और देवनागरी-लिपि का जानना लाज़मी कर देने से कुछ फ़ायदा न होगा।

इतके बाद माननीय मिस्टर रज़ाअली ने यह उपप्रस्ताव पेश किया---

(झ) प्रस्ताव से---"देवनागरी लिपि में हिन्दी-भाषा"---निकाल दी जाय । उसकी जगह पर---"फ्रेंच, रशियन,इटालियन या फ़ारसी"---कर दी जाय ।

आपने कहा---

(ञ) हिन्दी कोई भाषा नहीं । १९०० या १८९८ ईस्वी के पहले का ऐसा एक भी सरकारी लेख या काग़ज़ नहीं पेश किया जा सकता जिसमें गवर्नमेंट ने हिन्दी को भी कोई भाषा माना हो । जब वह कोई भाषा ही नहीं तब फ्रेंच और रशियन आदि का जानना क्यों न लाज़मी कर दिया जाय ? इससे उन मित्र राज्यों से हमारा सम्बन्ध और भी गहरा हो जायगा जो हमारे साथ लड़ रहे हैं।

(द) इस प्रान्त में इतने आदमी उर्दू बोलते हैं, इतने हिन्दी, इसका हिसाब जैसा बताया गया है, ठीक नहीं। मर्दुमशुमारी के अङ्क विश्वास-योग्य नहीं। मुसलमान शुमार-कुनिन्दों ने लोगों की भाषा उर्दू लिख दी है, हिन्दुओं ने हिन्दी।

माननीय खान-बहादुर सैयद अलीनबी और माननीय वज़ीरहसन ने भी प्रस्ताव का विरोध किया, पर अपने कथन

की पुष्टि में कोई अच्छी दलील नहीं पेश कर सके। माननीय वज़ीरहसन ने जो कुछ कहा, अधिक असंगत भाषा में नहीं कहा। उन्होंने कहा कि जिस भाषा में रामायण है क्या वही भाषा इस प्रान्त के लोग बोलते या लिखते हैं ? इस प्रस्ताव के विरोध में जो सङ्गत या असङ्गत और प्रासङ्गिक या अप्रासङ्गिक बातें कही गई सबका युक्तिपूर्ण उत्तर माननीय पण्डित तारादत्त गैरोला, लाला सुखवीर सिंह, पण्डित राधाकृष्ण दास और स्वयं प्रस्तावकर्ता महाशय ने दिया । प्रत्यक दलील की असारता सिद्ध कर दी गई। पर प्रस्ताव “पास" न हुआ। जिस प्रस्ताव का विरोध गवर्नमेंट करती है वही नहीं "पास" हो सकता। इसके विरोधी तो हमारे मुसलमान महाशय भी थे । अतएव इसकी जो दशा हुई वही इसके भाग्य में थी। तथापि जिस योग्यता से प्रस्ताव उपस्थित किया और जिस योग्यता से उन्होंने तथा उनके साथी अन्य हिन्दु मेम्बरों ने विरोधियों की बातों का उत्तर दिया, उसके लिए वे हिन्दी के प्रेमियों के धन्यवाद-पात्र हैं।

मुख्य प्रस्ताव नामंज़ूर होने पर माननीय रज़ाअली ने अपना फ्रेंच, रशियन आदि भाषाओं से सम्बन्ध रखनेवाला उपप्रस्ताव बड़ी खुशी से लौटा लिया और इस बात पर हर्ष प्रकट किया कि इस प्रस्ताव का यही परिणाम होना चाहिए था।

इस प्रस्ताव के सम्बन्ध में विरोधी-दल ने जिस प्रकार की युक्तियां लड़ाई,जिस प्रकार के निःसार-और निराधार

उद्गार निकाले और जिस प्रकार एक ज़री सी बात का बतड़्गड़ बनाया, उससे सूचित हुआ कि या तो इस दल के माननीय मेम्बरों को अपने विषय की कुछ ख़बर ही नहीं,या जिद में आकर कुछ का कुछ कहने में उन्हें सङ्कोच ही नहीं। उनके प्रतिवाद-वाक्यों से अनभिज्ञता कम, पर हठ और दुराग्रह अधिक प्रकट हुआ। प्रजा के सुशिक्षित प्रतिनिधियों में इस दोष का होना बड़े ही परिताप की बात है।

प्रस्ताव से हिन्दी उर्दू के झगड़े की ज़री भी गन्ध नहीं आती। हिन्दी और उर्दू ये दोनों भाषायें इस प्रान्त में प्रचलित हैं । सब-जजों और मुन्सिफ़ों के लिए उर्दू-भाषा और और फ़ारसी-लिपि जानने की कैद है। फिर कोई कारण नहीं कि वे हिन्दी-भाषा और देवनागरी-लिपि क्यों न जाने ? प्रजा का अधिकांश यही पिछली भाषा और पिछली लिपि जानता है । अतएव उनके जानने की तो और भी ज़रूरत है । फिर,प्रस्ताव में इसका कहीं उल्लेख नहीं कि पूर्वोक्त अफ़सर इस भाषा और इस लिपि में भी अपने फैसले और गवाहों के बयान लिखा करें। जिस लिपि या जिस भाषा में वे लिखते आये हों,लिखते रहें। हिन्दी-नागरी से लिर्फ जानकारी प्राप्त कर लें। बस, और कुछ नहीं। सो इस इतनी सीधी सादी बात पर बड़े बड़े तूमार बांधे गये और निराधार कल्पनाये की गई। उर्दू-भाषा और फ़ारसी-लिपि को पदच्युत करने के लिए जरी भी कोशिश नहीं की गई । कोशिश सिर्फ इस बात की की गई कि सब-जज और मुन्सिफ थोड़ी सी हिन्दी भी

जान लें, और देवनागरी-लिपि भी सीख लें, जिससे हिन्दी के दस्तावेज़ और हिन्दी में लिखे हुए अर्ज़ीदावे तो वे पढ़ सकें। परन्तु इस इतनी ही कोशिश---और कोशिश भी ऐसी जो सर्वथा न्यायसङ्गत थी---करनेवालों पर अनुदार आक्षेपों की झड़ी लगा दी गई।

एक बात और भी विचार-योग्य है। गवर्नमेंट की वह आज्ञा तो रद हुई नहीं जिसकी रू से लोगों को अर्ज़ीदावे आदि देवनागरी लिपि में देने की इजाज़त है। अब प्रश्न यह है कि यदि सब-जज और मुन्सिफ़ यह लिपि न जानेगे तो इसमें लिखी गई अर्जियाँ पढ़ कैसे सकेंगे। या तो वह आज्ञा रद कर दी जाय या गवर्नमेंट के "मन्युअल" में तदनुकूल फेरफार किया जाय । इसी फेरफार के लिए ही यह प्रस्ताव उपस्थित किया गया था। इससे तो गवर्नमेंट की पूर्वोक्त आशा के अनुसार काम होने में विशेष सुभीता होता । चाहिए तो यह था कि गवर्नमेंट खुद ही यह फेरफार कर देती । पर यदि उसने स्वयं ही नहीं किया तो प्रार्थना की जाने पर तो कर देना था । वकालत-या एल-एल बी० की परीक्षा पास करके जो लोग मुन्सिफ़ होते हैं--और मुन्सिफ़ ही तरक्की पाकर प्राय: सब-जज हो जाते हैं---वे तो थोड़ी बहुत हिन्दी जानते ही हैं । उन्हें तो उसमें परीक्षा भी देनी पड़ती है। इस दशा में कुछ ही मुन्सिफ़ और सब-जज ऐसे होंगे जो हिन्दी भाषा और देवनागरी-लिपि से अनभिज्ञ होंगे। तथापि, खेद की बात है,गवर्नमेंट ने, इतने पर भी, इस प्रस्ताव का विरोध किया ।
इस सम्बन्ध में गवर्नमेंट को उतना दोष नहीं दिया जा सकता जितना प्रतिवादकर्ता मुसलमान मेम्बरों को। गवर्नमेंट को अपनी नीति का भी पालन करना पड़ता है। किसी बात का विचार करते समय उसे उसको अनेक दृष्टियों से देखना पड़ता है। जो बात उसे आज इष्ट जान पड़ती है, कारण उपस्थित हो जाने पर, वही कल उसे अनिष्ट मालूम होती है। क्योंकि---

"वेश्याङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा"

अतएव, सम्भव है, गवर्नमेंट ने किसी विशेष नीति के पालन के लिए ऐसे सीधे-सादे और अधिकांश प्रजा के लिए इतने सुभीते के प्रस्ताव का विरोध करना उचित समझा। अस्तु।

इस प्रस्ताव के अन्य विरोधियों को दलीलों का--दलीलों का क्या अप्रासङ्गिक और असार कथन मात्र का---खण्डन वहीं कौंसिल ही में कर दिया गया था। इसके बाद हिन्दी,उर्दू और अँगरेज़ी के अनेक समाचारपत्रों में भी समुचित उत्तर दिये जा चुके हैं। अतएव हमें इस सम्बन्ध में कुछ विशेष निवेदन करने की आवश्यकता नहीं । हम संक्षेप ही में उनकी बातों पर विचार करेंगे।

अच्छा, तो नवाब साहब की बातों का उत्तर लीजिए। कौंसिल में जो "स्पीचे" हुई उनसे सिद्ध है कि मुसलमान महोदय हिन्दी का नाम सुनते ही चिढ़ते हैं । वे उर्दू को भारत के सारे मुसलमानों की तो भाषा बताते ही हैं ; उसे

वे संयुक्तप्रांत के हिन्दुओं की भी भाषा बताते हैं। इतनी ग़लतबयानी करके भी वे शान्ति-पूर्वक बहस नहीं करते। बहुत ही कड़वी और उत्तेजक बातें तक कह डालते हैं। विपरीत इसके हिन्दू, वाद-विवाद के समय, शान्ति और संयम को हाथ से नहीं जाने देते; जो कुछ कहते हैं सप्रमाण और तर्कसङ्गत कहते हैं । पर उनकी तर्क-सिद्ध बातों ही को मुसलमान-मेम्बर एक प्रकार का दोष समझते हैं । उन्होंने कौंसिल में यहां तक कह दिया कि प्रस्तुत प्रस्ताव में कुतर्क के सिवा और कुछ सार नहीं । उसके मंज़र हो जाने से कार्य-सिद्धि कुछ भी न होगी। जैसे असङ्गत, अनावश्यक तर्क-हीन बातें ही कार्य की सिद्धि और आवश्यकता की सूचक हो!

(क) प्रस्ताव में हिन्दी-उर्दू के झगड़े की कहीं बृतक नहीं, पर यदि प्रस्तावकर्ता ने हिन्दी को उर्दू का समकक्ष बना देने ही के इरादे से प्रस्ताव किया हो, तो भी उनका यह काम अनुचित नहीं कहा जा सकता। उर्दू को मुसलमान अपनी भाषा समझते हैं । उर्दू के प्रचार के लिए जिस तरह मुसलमान दत्तचित्त हैं उसी तरह हिन्दी के प्रचार के लिए यदि हिन्दू दत्तचित्त हो तो इसमें अस्वाभाविकता या अनौचित्य कैसा! उर्दू का अब तक अकण्टक राज्य रहा है। कोई कारण नहीं कि प्रजा के सुभीते के लिए उस राज्य के कुछ अंश की अधिकारिणी हिन्दी भी न समझी जाय। जो बात जैसी है उसे वैसी ही रहने देना संसार की गति के

सर्वथा प्रतिकूल है। मुसलमानों को पहले अलग “वोट" देने और अपने अलग मेम्बर कौंसिलों में भेजने का अधिकार न प्राप्त था। अब क्यों प्राप्त है ? पहले उनके मकतबों के लिए अलग इन्सपेक्टर्स न थे । अब क्यों हैं ? नये म्युनीसिपैलिटी ऐक्ट में उनके लिए जो सुभीते किये गये हैं वे क्या पहले भी थे ? यह कहां का न्याय है कि जिस बात से उन्हें लाभ पहुँचे उसके सम्बन्ध में तो वे हिन्दुओं से झगड़ा हो जाने की ज़रा भी परवा न करें, पर जिसके सम्बन्ध में उन्हें व्यर्थ ही अपनी हानि हो जाने का भय हा उसका उत्थान होते ही वे उसे दबाने की चेष्टा करें ! जिस काम से झगड़े की सम्भावना हो उस पर तो दोनों पक्षों को खुले दिल से और भी अधिक विचार करना चाहिए। बिना विचार किये झगड़े की जड़ ही न जायगी। उसका भय सदा बना ही रहेगा । हिन्दी का प्रचार किसीके दबाने से दब नहीं सकता। अतएव उसका सामना करना ही चाहिए और आपस में फैसला कर ही लेना चाहिए । हज़ारों हिन्दू उर्दू लिखते पढ़ते हैं। पर मुसलमान हिन्दी के नाम ही से कोसों दूर भागते हैं। यह कैसी उदारता है ! ऐसे वर्ताव से झगड़ा उत्पन्न होता और बढ़ता है, दबता या घटता नहीं । न हमें उर्दू से नफ़रत है और न हम उसे सीखना ही छोड़ना चाहते हैं; पर अपने सुभीते के लिए हिन्दी का प्रचार अवश्य चाहते हैं।

(ख) यह हम मान लेते हैं कि मुसलमानों ही की बदोलत उर्दू अस्तित्व में आई है। पर उसके उन्नायक एकमात्र

मुसलमान ही नहीं। बहुत पुराने ज़माने से हिन्द उर्दू-फारसी सीखते आये हैं। उनकी लिखी हुई सैकड़ों पुस्तकें मौजूद हैं। अब तक भी कितने ही स्कूलों और कालेजों में उर्दू-फारसी पढ़ानेवाले अध्यापक तक हिन्दू हैं । पज्जाब और संयुक्तप्रान्त से उर्दू के कोड़ियों अख़बार ऐसे निकलते हैं जिन के लेखक और सम्पादक हिन्दू ही हैं । इस दशा में मुसलमानों ही को उर्दू की उन्नति का कारण समझना भ्रम के सिवा और कुछ नहीं हो सकता है।

यदि उर्दू भारत की राष्ट्र-भाषा ( Lingua Franca ) है तो उसके लिए इसी प्रान्त के मुसलमान क्यों इतना शोर मचाते हैं ? हिन्दुओं का तो ज़िक्र ही नहीं, और प्रान्तों के अधिकांश मुसलमान भी तो ऐसा नहीं करते। इस प्रान्त के अपढ़ गँवारों की भाषा उर्दू होना तो दूर की बात है, बङ्गाल, मदरास और बम्बई प्रान्त के शिक्षित मुसलमान भी उर्दू नहीं बोलते। वे सब अपने अपने प्रान्त की बोली या भाषा बोलते हैं। यही हाल इस प्रान्त के देहाती मुसलमानों का भी है। इसके लिए प्रमाण की ज़रूरत नहीं। चाहे जिस मौजे में चले जाइए,मुसलमानों की बोलीमें फ़ारसी-अरबी के क्लिष्ट शब्द कहीं ढूँढ़े न मिलेंगे। और जिस भाषा में इस तरह के शब्दों की भरमार नहीं,वह हिन्दी के सिवा और कुछ नहीं। यही इस प्रान्त की प्रधान भाषा है।

(ग) अंगरेजी-राज्य के पहले हिन्दी का नाम यदि "हिन्दी" न रहा हो तो इससे हिन्दीका अस्तित्व-लोप तो सिद्ध

होता नहीं। ज़रा आप आज़ाद की किताब आबे-हयात तो पढ़िए । कोई २०० वर्ष पूर्व भी मुसलमान-लेखकों तक ने "हिन्दी" का अस्तित्व स्वीकार किया है। जिसे उस समय कुछ लोग “भाषा" कहते थे वही आज कल, विशेषरूप से, हिन्दी कही जाती है। और, इस "भाषा" में अकबर और ख़ानख़ाना तक ने कविता की है । रसखान, क़ादिर और जायसी आदि और भी कितने ही मुसलमान-कवियों ने इसे अपनाया था, इसकी तो गिनती ही नहीं । सजीव भाषा में सदा ही परिवर्तन होता रहता है । सौ वर्ष पूर्व की उर्दू वैसी भाषा न थी जैसी आजकल की है। हिन्दी भी पहले की जैसी नहीं। पहले तो हिन्दी-उर्दू में बहुत ही कम अन्तर था। जब से मुसलमान उर्दू में अरबी-फ़ारसी के शब्दों का मिश्रण बढ़ाने लगे, अतएव जब से वह साधारण हिन्दुओं को समझ में कम आने लगी, तभी से वह हिन्दी से दूर जा पड़ी और तभी से हिन्दी में संस्कृत-शब्दों के मेल की प्रवृत्ति बढ़ी । सच तो यह है कि आपकी उर्दू कोई जुदा भाषा ही नहीं । वह केवल हिन्दी है । हिन्दी-व्याकरण की सहायता के बिना उर्दू का एक भी वाक्य नहीं बोला जा सकता। वर्तमान उर्दू में १५० वर्ष पहले की लिखी हुई एक भी पुस्तक नहीं।

हिन्दी(देवनागरी) लिपि में जो अपने विचार प्रकट करे वह गंवार, नवाब साहब ही ऐसा कह सकते हैं। यदि यही बात है तो बिहार, मध्य-प्रदेश और मध्य भारत में जितने नाज़िर,पेशकार, महाफ़िज दफ्तर, वकील, मुख़्तार, मास्टर और इन्स्पे

क्टर कचहरियों और स्कूलों में देवनागरी-लिपि लिखते हैं वे सभी गँवार ठहरे !!! हिन्दी-लिपि लिखनेवालों को हमारे मुसलमान भाई किसी समय पहले शायद गंँवार समझते रहे हो, पर अब तो वे गँवार नहीं समझे जाते। अतएव आपको भी अब अपने पुराने विचार बदल डालने चाहिए । पुराने ज़माने में गँवार ही यह लिपि न लिखते थे, संस्कृत के बड़े बड़े पण्डित भी लिखते थे। वे गाँवों में भले ही रहते थे, पर अब भी तो सैकड़ों, हज़ारों विद्वान् सदा नहीं तो कुछ समय तक गाँवों में रहते हैं । इससे वे गँवार नहीं हो जाते। जिस लिपि में गोखले, भान्डारकर, तिलक और मालवीय अपने विचार व्यक्त करें वह गँवारों की लिपि नहीं।

(घ) मुसलमान अत्यन्त क्लिष्ट अँगरेज़ी भाषा पढ़कर पण्डित हो सकते हैं। पर संस्कृत-शब्द-प्रचुर हिन्दी समझ लेना उनके लिए कठिन काम है ! वे फ्रेंच पढ़ लेगे, बङ्गाल में रह कर बँगला जान लेंगे, महाराष्ट्र-प्रान्त में रह कर मराठी सीख लेंगे। पर हिन्दी उनके लिए हिब्रू है ! डाक्टर ग्रियसेन,मिस्टर विन्सेन्ट स्मिथ, मिस्टर ड्यू हर्ट, मिस्टर ग्रूज, मिस्टर पिनकाट, मिस्टर ओलढम आदि अंँगरेज़ हिन्दी के ज्ञाता हो सकते हैं, पर हमारे मुसलमान भाई नहीं ! नवाब साहब ही ऐसी बात मुंँह से निकाल सकते हैं। उनकी इस असमर्थता पर दया आती है और ऐसे कथन पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता। और, आपको यदि हिन्दी अँगरेज़ी से भी अधिक कठिन मालूम होती है तो न पढ़िए । हम आपकी भाषा खुशी

पढ़ेंगे । आप इतनी ही उदारता दिखाइए कि हिन्दुओं के सुभीते के लिए उन्हें उसे पढ़ने और उसका प्रचार करने दीजिए।

(ङ) हिन्दी लिखनेवाले यदि उसे आसानी से नहीं पढ़ सकते या देर से लिख-पढ़ सकते हैं तो आपकी बला से। आपसे, और आप जिनके प्रतिनिधि हैं उनसे, तो कोई उसे लिखाने-पढ़ाने की चेष्टा करता नहीं। आप उर्दू-भाषा और फ़ारसी-लिपि ख़ुशी से लिखिए पढ़िए । कृपा इतनी ही कीजिए कि औरोंके मार्ग में कांटे न बखेरिए । जिन प्रान्तों में हिन्दी प्रचलित है वहाँ कोई काम कभी रुका नहीं और न किसीको हिन्दी लिखने-पढ़ने में कुछ कठिनता ही हुई । आपके इस आक्षेप का खण्डन विहार और मध्यप्रदेश की सैकड़ों कचहरियाँ कर रही हैं।

माननीय बर्न साहब की (च), (छ) और ( ज ) दलीलों के उत्तर में हमें सिर्फ इतना ही कहना है कि दस्तावेज़ें कम पेश की जाती हैं या ज़ियादह, इस पर पण्डित तारादत्त गैरोला की "स्पीच" आप सुन ही चुके हैं। पर इससे क्या बहस ? जब गवर्नमेंट ने यह नियम कर दिया कि अर्जीदावे देवनागरी-लिपि में भी दिये जा सकते हैं तब मुन्सिफ़ों और जजों के लिए उस लिपि का जानना लाज़मी हो गया। कल्पना कीजिए, किसी मुन्सिफ के यहाँ दायर किये गये किसी मुक़द्दमे में कोई ऐसी दस्तावेज़ पेश की गई जिसकी निसबत कुछ झगड़ा है---जिसका कुछ अंश एक पक्ष एक तरह पढ़ता

है, दूसरा पक्ष दूसरी तरह । ऐसी दशा में यदि मुन्सिफ़ वह लिपि जानता होगा तो उस मुक़द्दमे का फैसिला करने में उसे विशेष सुभीता होगा या नहीं।

हाईकोर्ट के किसी जज और किसी बारिस्टर की बात पर विचार करने के पहले यह जानना होगा कि वह हिन्दी जानता भी है या नहीं ; यदि वह स्वयं ही उससे अपरिचित है तो उसकी राय की कीमत ही कितनी ! जिस इलाहाबाद से हिन्दी के एक नहीं कई पत्र और पत्रिकायें निकलती हैं और जहां स्त्रियां तक उनका सम्पादन करती हैं वहीं हिन्दी के दस्तावेज़ पढ़नेवाला एक भी आदमी न मिला ! किमाश्चर्य्यमतः परम् ! उन दस्तावेजों की लिपि मुँड़िया या विकृत कैथी रही होगी,देवनागरी नहीं । मुंड़िया, कैथी या विकृत हिन्दी से तो इस प्रस्ताव का कुछ सम्बन्ध ही नहीं।

बहुत ही कम अर्कोनवीस, वकील और मुखतार देवनागरी लिख सकते हैं। यह आपने बहुत ठीक कहा । पर इससे प्रस्ताव की आवश्यकता पूर्ववत् ही बनी रही। अच्छा, जा देवनागरी लिख सकते हैं उन्होंने यदि महीने में दो एक अर्जियां उस लिपि में लिख डाली और पेशकार तथा जज दोनों उस लिपि से अनभिज्ञ हुए तो ? तो फिर यही होगा न - "जाव, उर्दू में लिखा लावो" । परन्तु यह प्रजा के सुभीते की बात न होगी। माननीय मिस्टर रज़ाअली ने तो अपने साथी अन्य विरोधियों को भी मात कर दिया---

(झ) आप फ्रेञ्च सीखेंगे, रशियन सीखेंगे, इटालियन

सीखेंगे; पर हिन्दी न सीखेंगे और किसीको सीखने भी न देंगे। आपकी इस अनुदारता पर आपके सभी समझदार सजातियों को दुःख हुए बिना न रहेगा, क्योंकि---

चुंँ अज़ क़ौमे यके बेदानिशी कर्द।

न केहरा मंज़िलत मानद न मेहरा॥

आपके इस उप-प्रस्ताव से दो बातें प्रकट होती हैं। एक तो हिन्दी से आपकी उत्कट घृणा, दूसरी अपनी भाषा उर्दू पर उत्कट प्रीति । हिन्दी से घृणा का कारण शायद यह होगा कि आप हिन्दी को उर्दू की विरोधिनी और उर्दू को अपदस्थ करने की चेष्टा करनेवाली समझते हैं । पर यह आपका भ्रम है। हम आपकी इस घृणा व्यञजक प्रवृत्ति की नकल नहीं करना चाहते । हम ज्ञान-प्राप्ति के लिए, व्यवहार-निर्वाह के लिए, मनोरजन के लिए और आपकी धार्मिक पुस्तकों के परिशीलन से लाभ उठाने के लिए उर्दू ही नहीं, अरबी और फारसी तक, समय, सदिच्छा और सुभीता होने पर, अवश्य पढ़ेंगे । जिन मुसलमान भाइयों के साथ हम आज कोई ८०० वर्षों से रहते हैं और जिनका और हमारा चोलीदामन का साथ है उनकी भाषा से घृणा करना मनुष्यत्व-सूचक नहीं । आप लोग हिन्दी न पढ़ें, हम आपकी भाषा और आपकी लिपि का ज्ञान प्राप्त करने में ज़रा भी अनुदारता से काम न लेंगे। परन्तु हम एक बात अवश्य करेंगे। अपनी भाषापर आपकी जो उत्कट भक्ति है उससे हम सबक़ अवश्य सीखेंगे । हम आज से हिन्दी पर उसी तरह भक्ति करेंगे जिस तरह आप उर्दू पर

करते हैं। अतएव जो लोग आज तक केवल उर्दू ही के कीड़े बने हुए हैं उन्हें अबसे हिन्दी भी सीखनी चाहिए। हमें यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि हमारे बच्चे स्कूलों, पाठशालाओं और घरों पर सबसे पहले हिन्दो ही सीखेंगे। जो लोग उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि में अख़बार और मासिक पुस्तकें निकालते हैं उन्हें हज़ार प्रयत्न करके हिन्दी भी सीखनी चाहिए और यदि सुभीता और सम्भव हो तो अपना कारोबार चलाने के लिए हिन्दी का ही आश्रय लेना चाहिए। जिनको अपनी मातृभाषा और अपनी पवित्र लिपि का ज़रा भी अभिमान है उनको माननीय महोदय की मातृ-भाषा-भक्ति का अवश्य ही अनुकरण करना चाहिए । यदि हम अब भी उनसे यह गुण न सीखेंगे तो कभी न सीखेंगे ।

(ञ) हिन्दी सचमुच ही कोई भाया नहीं ! १९०० या १८९८ ईस्वी के पहले के किसी भी सरकारी काग़ज़ में सरकार ने उसे कहीं भाषा नहीं माना ! जब से इस सूबे में शिक्षा-विभाग बना और जब से स्कूल, कालेज और मदरसे खुले तब से जो हिन्दी और उर्दू की पढ़ाई का अलग अलग प्रवन्ध है वह सब माया-प्रपञ्च है ! १९०० के पञ्चीस तीस वर्ष पहले ही पदार्थ-विज्ञान-विटप, जीव-विज्ञान-विटप,सरल त्रिकोणमिति, भाषा-काव्यसंग्रह, अवधदेशीय भूगोल,भारतवर्षीय इतिहास आदि हिन्दी की जो सैकड़ों पुस्तकें गवर्नमेंट के स्कूलों में पढ़ाई जाती थीं, वह सब ऐन्द्रजालिक खेल था ! पण्डित वंशीधर वाजपेयी ने कोई ५० वर्ष पहले

स्कूलों में पढ़ाई जाने के लिए जो भोजप्रबन्धसार,गणितपाटो आदि कोड़ियों पुस्तकें प्रकाशित की थीं और जो बहुत समय तक जारी भी रही थीं वह भी सब स्वप्न की सम्पत्ति थी! गवर्नमेंट के काग़ज़पत्रों में फिर भला हिन्दी का नाम !

(ट) हिन्दी बोलनेवालों की संख्या का ठीक ठीक हाल मरदुमशुमारी के सुपरिन्टेन्डेन्ट ब्लंट साहब को भी नहीं मालूम, शुमार-कुनिन्दों को भी नहीं मालूम, हिन्दी बोलनेवाले हिन्दू-मुसलमानों को भी नहीं मालूम । और मालूम हो कैसे सकता है ! हिन्दी कोई भाषा भी हो ! छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष,हिन्दू-मुसलमान, देहाती-शहराती सभी तो उर्दू बोलते हैं ! फिर गिनती का झंझट कैसा!

माननीय वज़ीर हसन महाशय को सन्देह है कि रामायण की भाषा आज कल लोग नहीं बोलते । अतएव यदि वह हिन्दी मानी जाय तो वैसी हिन्दी आजकल प्रचलित नहीं। पर शेक्सपियर, बेकन और चासर की अँगरेज़ी आजकल ज़रूर बोली जाती है; इसीसे अंगरेज़ी का प्रचार है। और उर्दू ! अजी वह तो जब से पैदा हुई वैसी ही है । वली और आबरू,शाह हातिम और ख़ान आरज़ू जैसी उर्दू लिखते और बोलते थे वैसी ही आज भी तो लिखी और बोली जाती है ! मिलान कर लीजिये । वली का कहना है---

बेवफ़ाई न कर खुदा सों डर

जग-हँसाई न कर ख़ुदा सो डर

आवेहयात,संस्करण १८९९

कहिए, ऐसी ही उर्दू आजकल के शिक्षित मुसलमान

बोलते और लिखते हैं न ? और यही स्कूलों, कालेजों और कचहरियों में लिखी और बोली जाती है न ? इसीसे इसका प्रचार भी है । क्योंकि आज कोई १०० वर्षों से वह टस से मस हुई ही नहीं। और हिन्दी ? वह तो बदल गई है ! रामायण की भाषा कुछ और है और आजकल की कुछ और। रामायण की भाषा आजकल कोई नहीं बोलता। हां, वली की भाषा अलबत्ते सब लोग बोलते हैं ! इस कारण वही सब के आदर की चीज़ होनी चाहिए।

अस्तु ; ये तो प्रस्ताव के विरोधियों की असङ्गत और अप्रासङ्गिक दलीलों के थोड़े में उत्तर हुए। थोड़े में इस लिए कि इस विषय पर एक पुस्तक लिखी जाने की ज़रूरत है। पुस्तक में इस विषय का सविस्तर विवेचन होना चाहिए और उसका एक उर्दू-संस्करण भी निकलना चाहिए । क्योंकि हिन्दी हमारे मुसलमान भाई पढ़ेंगे नहीं। और अपनी बाते हम उन्हें सुनाना जरूर चाहते हैं । सो, इसलिए कि उनकी भाषा उर्दू से हमारा तिलमात्र भी विरोध नहीं । हज़ारों, लाखों हिन्दु उसे अब भी लिखते पढ़ते हैं और आगे भी लिखते पढ़ते रहेंगे। हमारी प्रार्थना केवल इतनी ही है कि हिन्दी हमारे घर की भाषा है । देवनागरी-लिपि हमारे धर्म-कर्म की पुस्तकों की लिपि है। अधिकांश लोग यही भाषा और यही लिपि जानते हैं । उनके सुभीते के लिए अपनी उर्दू के पास बेचारी गँवारू हिन्दी को भी बैठ जाने दीजिए । उर्दू अपने अधिकार पर आनन्द से

आरूढ़ रहे । हिन्दी को केवल इतनी अनुमति दी जाय कि यदि कोई भूला भटका उसके पास तक पहुँचे तो वह उसकी सहायता कर सके । बस।

यदि हम लोग अपना कर्तव्यपालन करें तो इस काम के लिए न किसीसे कुछ कहने की आवश्यकता, न कोई प्रस्ताव उपस्थित करने की आवश्यकता, और न कोई “डेपूटेशन" लेजाने की आवश्यकता यदि हिन्दी के हितैषी यह प्रतिज्ञा करलें कि पहले अपने बच्चों को हिन्दी पढ़ावेंगे,फिर और कोई भाषा; यदि मामले-मुकद्दमेवाले यह प्रतिज्ञा कर लें कि अर्जी देंगे तो और दस्तावेज़े लिखेंगे तो देवनागरी-लिपि में, तो बिना कुछ और कार्रवाई किये ही सरकारी मैन्युअल में भी उचित फेरफार हो जाय, मंसिफ़ और सब-जज भी हिन्दी जानने लगें और उर्दू के दास वकील-मुख़तार भी उसे सीखले । जब पेट दबता है तब आराम, आत्माभिमान और अनुदारता सभी कुछ दब जाता है । पचास मुवक्किलों में से यदि २५ भी डांट कर वकील साहब से कह दें कि हमारा काम हिन्दी (देवनागरी) में कीजिए,नहीं हम और वकील ढूंँढ लेंगे तो देखिए फिर वे कैसे हिन्दी नहीं सीखते । ये लोग ३० रुपये का मोटर-ड्राइवर और १५ रुपये का कोचमैन खुशी से रक्खेंगे; पर अपने देश, अपनी भाषा और अपने भाइयों के सुभीते के लिए १०) रुपये पर एक हिन्दीदाँ मुहारर न रखेंगे! इसका इलाज हमारे ही हाथ में है। और, अब समय आ

गया है कि इस इलाज से काम लिया जाय । सरकार के भाव अनुदार नहीं । पर कोई नया काम करने के पहले वह उसकी आवश्यकता की जांच अवश्य कर लेती है। यदि वह उसकी आवश्यकता की कायल हो गई तो कर डालती है। इस दशा में भाषा और लिपि से सम्बन्ध रखनेवाले जो सुभीते हम चाहते हैं उनका होना, परोक्षभाव से, हमारे हो प्रण, परिश्रम और प्रयत्न पर अवलम्बित है।

[अप्रेल १९१७

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