साहित्य का उद्देश्य/12
साहित्य में समालोचना का जो महत्व है उसको बयान करने की जरूरत नहीं। सद् साहित्य का निर्माण बहुत गम्भीर समालोचना पर ही मुनहसर है। योरप में इस युग को समालोचना का युग कहते हैं। वहाँ प्रति-वर्ष सैकड़ों पुस्तकें केवल समालोचना के विषय की निकलती रहती हैं, यहाँ तक कि ऐसे ग्रन्थों का प्रचार, प्रभाव, और स्थान क्रियात्मक रचनाओं से किसी प्रकार घटकर नहीं है। कितने ही पत्रों और पत्रिकाओं में स्थायी रूप से आलोचनायें निकलती रहती हैं, लेकिन हिन्दी में या तो समालोचना होती ही नहीं या होती है तो द्वेष या झूठी प्रशंसा से भरी हुई अथवा ऊपरी, उथली और बहिर्मुखी। ऐसे समालोचक बहुत कम हैं जो किसी रचना की तह में डूबकर उसका तात्विक, मनोवैज्ञानिक विवेचन कर सकें। हाँ कभी-कभी प्राचीन ग्रन्थों की आलोचना नजर आ जाती है जिसे सही मानो में समालोचना कह सकते हैं, मगर हम तो इसे साहित्यिक मुर्दापरस्ती ही कहेंगे। प्राचीन कवियों और साहित्याचार्यों का यशोगान हमारा धर्म है, लेकिन जो प्राणी केवल अतीत में रहे, पुरानी सम्पदा का ही स्वप्न देखता रहे और अपने सामने आनेवाली बातों की तरफ से आँखें बन्द कर ले, वह कभी अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है, इसमें हमें सन्देह है। पुरानों ने जो कुछ लिखा, सोचा और किया, वह पुरानी दशाओं और परिस्थितियों के अधीन किया। नए जो कुछ लिखते, सोचते, या करते हैं, वह वर्तमान परिस्थितियों के अधीन करते हैं। इनकी रचनाओं में वही भावनायें और
आकाक्षायें होती है जिनसे वर्तमान युग आन्दोलित हो रहा है । यदि
हम पुराने विशाल खण्डहरो ही को प्रतिमा को भॉति पूजते रहे और
अपनी नई झोपड़ी की बिल्कुल चिन्ता न करें तो हमारी क्या दशा होगी,
इसका हम अनुमान कर सकते हैं।
आइए देखें इस अभाव का कारण क्या है । हिन्दी-साहित्य मे ऐसे
लेखको की ईश्वर की दया से कमी नहीं है जो संसार साहित्य से परि-
चित है, साहित्य के मर्मज्ञ हैं, साहित्य के तत्वो को समझते हैं। साहित्य
का पथ प्रदर्शन उन्हीं का कर्तव्य है। लेकिन या तो वह हिन्दी पुस्तकों
की आलोचना करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं या उन्हे
हिन्दी-साहित्य मे कोई चीज आलोचना के योग्य मिलती ही नहीं या
फिर हिन्दी भाषा उन्हें अपने गहरे विचारों को प्रकट करने के लिए
काफी नहीं मालूम होती। इन तीनो ही कारणों मे कुछ न कुछ तत्व है,
मगर इसका इलाज क्या हिन्दी-साहित्य से मुंह मोड़ लेना है ? क्या आखें
बन्द करके बैठ जाने से ही सारी विपत्ति-बाधायें टल जाती हैं ? हमें
साहित्य का निर्माण करना है, हमे हिन्दी को भारत की प्रधान भाषा
बनाना है, हमे हिन्दी-द्वारा राष्ट्रीय एकता की जड़ जमाना है। क्या
इस तरह उदासीन हो जाने से ये उद्देश्य पूरे होंगे ? योरोपीय भाषाओं
की इसलिए उन्नति हो रही है कि वहाँ दिमाग और दिल रखने वाले
व्यक्ति उससे दिलचस्पी रखते हैं, बडे-बड़े पदाधिकारी, लीडर, प्रोफेसर
और धर्म के प्राचार्य साहित्य की प्रगति से परिचित रहना अपना कर्तव्य
समझते हैं। यही नहीं बल्कि अपने साहित्य से प्रेम उनके जीवन का
एक अग है, उसी तरह जैसे अपने देश के नगरो और दृश्यों की सैर।
लेकिन हमारे यहाँ चोटी के लोग देशी साहित्य की तरफ ताकना भी
हेय समझते है। कितने ही तो बडे रोब से कहते हैं, हिन्दी मे रखा
ही क्या है। अगर कुछ गिने-गिनाये लोग हैं भी तो वह समझते हैं
इस क्षेत्र मे आकर हमने एहसान किया है । वह यह आशा रखते
है कि हिन्दी संसार उनकी हर एक बात को आखे बन्द करके स्वीकार
करे, उनके कलम से जो कुछ निकले, ब्रह्मवाक्य समझा जाय । वह
शायद समझते है, मौलिकता उपाधियो से आती है। वह यह भूल
जाते हैं कि बिरला ही कोई उपाधिधारी मौलिक होता है। उपाधियाँ
जानी हुई और पढी हुई बातो के प्रदर्शन या परिवर्तन से मिलती हैं।
मौलिकता इसके सिवा और कुछ भी है। अगर कोई 'डाक्टर' या
'प्रोफेसर' लिखे तो शायद ऊँचे मस्तिष्क वालो की यह बिरादरी उसका
स्वागत करे। लेकिन दुर्भाग्य-वश हिन्दी के अधिकाश लेखक न डाक्टर है, न
फिलासफ़र, फिर उनकी रचनाये कैसे सम्मान पायें और कैसे आलोचना
के योग्य समझी जायें । किसी वस्तु की प्रशसा तो और बात है, निन्दा
भी कुछ न कुछ उसका महत्व बढाती है । वह निन्दा के योग्य तो समझी
गई । हमारी यह दिमागवालो की बिरादरी किसी रचना की प्रशसा तो
कर ही नही सकती; क्योकि इससे उसकी हेठी होती है, दुनिया कहेगी,
यह तो शा। और शेली और शिलर की बातें किया करते थे, उस आकाश
से इतने नीचे कैसे गिर गये ! हिन्दी मे भी कोई ऐसा चीज हो सकती है,
जिसकी ओर वह ऑखे उठा सके, यह उनकी शिक्षा और गौरव के लिये
लज्जास्पद है । बेचारे ने तीन वर्ष पेरिस और लन्दन की खाक छानी,
इसीलिये कि हिन्दी लेखको की आलोचना करे ! फारसी पढ़कर भी तेल
बेचे ! हम ऐसे कितने ही सज्जनो को जानते है जो डाक्टर या डी०
लिट्० होने के पहले हिन्दी मे लिखते थे, लेकिन जब से डाक्टरेट की
उपाधि मिली, वह पतंग की भाँति श्राकाश मे उड़ने लगे। अालोचना
साहित्य की उनके द्वारा पूर्ति हो सकती थी; क्योकि रचना के लिये चाहे
विशेष शिक्षा की जरूरत न हो, आलोचना के लिये संसार-साहित्य से
परिचित होने की ज़रूरत है। हमारे पास कितने ही युवक लेखको की
रचनाये, प्रकाशित होने के पहले, सम्मति के लिये आती रहती हैं । लेखक
के हृदय मे भाव है, मस्तिस्क मे विचार हैं, कुछ प्रतिभा है, कुछ लगन,
कुछ संस्कार, उसे केवल एक अच्छे सलाहकार की जरूरत है। इतना
सहारा पाकर वह कुछ से कुछ हो जा सकता है;लेकिन यह सहारा उसे
नहीं मिलता।न कोई ऐसे व्यक्ति है,न समिति,न मडल। केवल पुस्तक-
प्रकाशको की पसन्द का भरोसा है। उसने रचना स्वीकार कर ली, तो
खैर, नहीं सारी की-कराई मेहनत पर पानी फिर गया। प्रेरक शक्तियो मे
यशोलिप्सा शायद सबसे बलवान है। जब यह उद्देश्य भी पूरा नहीं होता,
तो लेखक कधा डाल देता है और इस भॉति न जाने कितने गुदडी के
रत्न छिपे रह जाते है । या फिर वह प्रकाशक महोदय के आदेशानुसार
लिखना शुरू करता है और इस तरह कोई नियन्त्रण न होने के कारण,
साहित्य मे कुरुचि बढती जाती है । इस तरफ जैनेन्द्रकुमारजी की 'परख',
प्रसादजी का 'कंकाल', प्रतापनारायणजी की 'विदा', निरालाजी की
'अप्सरा', वृन्दावनलालजी का 'गढ़कुण्डार' आदि कई सुन्दर रचनाये
प्रकाशित हुई है । मगर इनमे से एक की भी गहरी, व्यापक, तात्त्विक
अालोचना नही निकली । जिन महानुभावो मे ऐसी आलोचना की सामर्थ्य
थी, उन्हे शायद इन पुस्तको की खबर भी नहीं हुई। इनसे कहीं घटिया
किताबे अग्रेजी मे निकलती रहती है और उन्हे ऊँची बिरादरीवाले सजन
शौक से पढ़ते और संग्रह करते है; पर इन रत्नो की ओर किसी का ध्यान
आकृष्ट न हुआ। प्रशंसा न करते, दोष तो दिखा देते, ताकि इनके
लेखक आगे के लिये सचेत हो जाते, पर शायद इसे भी वे अपने लिये
जलील समझते है। इङ्गलैण्ड का रामजे मैकेडानेल्ड या बौनर ला
अग्रेजी साहित्य पर प्रकाश डालनेवाला व्याख्यान दे सकता है, पर हमारे
नेता खद्दर पहनकर अंग्रेज़ी लिखने और बोलने में अपना गौरव समझते
हुए, हिन्दी-साहित्य का अलिफ़ बे भी नहीं जानते । यह इसी उदासीनता
का नतीजा है, कि 'विजयी। विश्व तिरंगा प्यारा' जैसा भावशून्य गीत
हमारे राष्ट्रीय जीवन मे इतना प्रचार पा रहा है। 'वन्देमातरम्' को
यदि 'विजयी विश्व' के मुकाबले में रखकर देखिए, तो आपको विदित
होगा कि आपकी लापरवाही ने हिन्दी-साहित्य को आदर्श से कितना नीचे
गिरा दिया है । जहाँ अच्छी चीज़ की कद्र करने वाले और परखने वाले
नहीं है वहाँ नकली, घटिया, जटियल चीजें ही बाज़ार में आवे, तो कोई
आश्चर्य की बात नहीं । वास्तव में हमारे यहाँ साहित्यिक जीवन का पता
ही नहीं। नीचे से ऊपर तक मुरदनी-सी छाई हुई है। यही मुख्य कारण
है कि हिन्दी लेखको मे बहुत से ऐसे लोग आ गये है, जिनका स्थान
कही और था । और, जब तक शिक्षित समुदाय अपने साहित्यिक कर्तव्य
की यो अवहेलना करता रहेगा, यही दशा बनी रहेगी । जहाँ साहित्य
सम्मेलन जैसी सार्वजनिक संस्था के सदस्यो की कुल संख्या दो सौ से
अधिक नहीं, वहाँ का साहित्य बनने में अभी बहुत दिन लगेगे।
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