साहित्य का उद्देश्य/11

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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संग्राम में साहित्य

 

घोर संकट में पड़ने पर ही आदमी की ऊँची से ऊँची, कठोर से कठोर और पवित्र से पवित्र मनोवृत्तियों का विकास होता है। साधारण दशा में मनुष्य का जीवन भी साधारण होता है। वह भोजन करता है, सोता है, हँसता है, विनोद का आनन्द उठाता है। असाधारण दशा में उसका जीवन भी असाधारण हो जाता है और परिस्थितियों पर विजय पाने, या विरोधी कारणों से अपनी आत्म-रक्षा करने के लिये उसे अपने छिपे हुए मनोऽस्त्रों को बाहर निकालना पड़ता है। आत्म-त्याग और बलिदान के, धैर्य और साहस के, उदारता और विशालता के जौहर उसी वक्त खुलते है, जब हम बाधाओं से घिर जाते हैं। जब देश में कोई विप्लव या संग्राम होता है, तो जहाँ वह चारों तरफ हाहाकार मचा देता है, वहाँ हममे देव-दुर्लभ गुणों का संस्कार भी कर देता है। और साहित्य क्या है? हमारी अन्तर्तम मनोवृत्तियों के विकास का इतिहास। इसलिये यह कहना अनुचित नहीं है, कि साहित्य का विकास संग्राम ही में होता है। संसार-साहित्य के उज्ज्वल से उज्ज्वल रत्नों को ले लो, उनकी सृष्टि या तो किसी संग्रामकाल में हुई है, या किसी संग्राम से सम्बन्ध रखती है।

रूस और जापान के युद्ध में आत्म-बलिदान के जैसे उदाहरण मिलते है, वह और कहाँ मिलेंगे? यूरोपियन युद्ध में भी साधारण मनुष्यों ने ऐसे-ऐसे विलक्षण काम कर दिखाए, जिन पर हम आज दाँतों उँगली दबाते हैं। हमारा स्वाधीनता-संग्राम भी ऐसे उदाहरणों से ख़ाली नहीं [ ८६ ]है। यद्यपि हमारे समाचार-पत्रों की जबाने बन्द हैं और देश में जो कुछ हो रहा है, हमें उसकी ख़बर नहीं होने पाती, फिर भी कभी-कभी त्याग और सेवा, शौर्य और विनय के ऐसे-ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं जिन पर हम चकित हो जाते हैं। ऐसी ही दो-एक घटनाएँ हम आज अपने पाठकों को सुनाते हैं।

एक नगर में कुछ रमणियाँ कपड़े की दुकानों पर पहरा लगाये खड़ी थीं। विदेशी कपड़ों के प्रेमी दूकानों पर आते थे। पर उन रमणियों को देखकर हट जाते थे। शाम का वक्त था। कुछ अँधेरा हो चला था। उसी वक्त एक आदमी एक दूकान के सामने आकर कपड़े खरीदने के लिये आग्रह करने लगा। एक रमणी ने जाकर उससे कहा-महाशय, मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ, कि आप विलायती कपड़ा न खरीदें।

ग्राहक ने उस रमणी का रसिक नेत्रों से देखकर कहा-अगर तुम मेरी एक बात स्वीकार कर लो, तो मैं कसम खाता हूँ, कभी विलायती कपड़ा न खरीदूँगा।

रमणी ने कुछ सशंक होकर उसकी ओर देखा और बोली-क्या आशा है?

ग्राहक लम्पट था। मुसकराकर बोला-बस, मुझे एक बोसा दे दो।

रमणी का मुख अरुणवर्ण हो गया, लज्जा से नहीं, क्रोध से। दूसरी दूकानों पर और कितने ही वालंटियर खड़े थे। अगर वह जरा-सा इशारा कर देती, तो उस लम्पट की धज्जियाँ उड़ जाती। पर रमणी विनय की अपार शक्ति से परिचित थी। उसने सजल नेत्रों से कहा-अगर आपकी यही इच्छा है, तो ले लीजिए, मगर विदेशी कपड़ा न खरीदिये। ग्राहक परास्त हो गया। वह उसी वक्त उस रमणी के चरणों पर गिर पड़ा और उसने प्रण किया कि कभी विलायती वस्त्र न लूँगा, क्षमा-प्रार्थना की और लज्जित तथा संस्कृत होकर चला गया।

एक दूसरे नगर की एक और घटना सुनिए। यह भी कपड़े की [ ८७ ]
दूकान और पिकेटिग ही की घटना है।एक दुराग्रही मुसलमान की दूकान पर जोरो का पिकेटिंग हो रहा था । सहसा एक मुसलमान सज्जन अपने कुमार पुत्र के साथ कपडा खरीदने आये । सत्याग्रहियो ने हाथ जोडे, पैरों पड़े दूकान के सामने लेट गये; पर खरीदार पर कोई असर न हुा । वह लेटे हुए स्वयंसेवको को रौदता हुआ दूकान मे चला गया। जब कपडे लेकर निकला, तो फिर वालंटियरो को रास्ते मे लेटे पाया। उसने क्रोध मे आकर एक स्वयसेवक के एक ठोकर लगाई। स्वयसेवक के सिर से खून निकल आया । फिर भी वह अपनी जगह से न हिला। कुमार पुत्र दूकान के जीने पर खड़ा यह तमाशा देख रहा था। उसका बाल-हृदय यह अमानुषीय व्यवहार सहन न कर सका। उसने पिता से कहा-बाबा,आप कपडे लौटा दीजिए।

बाप ने कहा-लौटा दूँ ! मै इन सबो की छाती पर से निकल जाऊँगा।

'नहीं,आप लौटा दीजिए !'

'तुम्हे क्या हो गया है ? भला लिये हुए कपड़े लौटा दूँ !'

'जी हाँ!'

'यह कभी नहीं हो सकता।'

'तो फिर मेरी छाती पर पैर रखकर जाइए।'

यह कहता हुआ वह बालक अपने पिता के सामने लेट गया । पिता ने तुरन्त बालक को उठाकर छाती से लगा लिया और कपड़े लौटाकर घर चला गया ।

तीसरी घटना कानपुर नगर की है। एक महाशय अपने पुत्र को स्वयसेवक न बनने देते थे। पुत्र के मन मे देश सेवा का असीम उत्साह था, पर माता-पिता की अवज्ञा न कर सकता था। एक ओर देश-प्रेम था, दूसरी ओर माता-पिता की भक्ति । यह अंतर्द्वन्द्व उसके लिए एक दिन असह्य हो उठा । उसने घर वालों से कुछ न कहा । जाकर रेल की
[ ८८ ]पटरी पर लेट गया। ज़रा देर मे एक गाड़ी आई और उसकी हड्डियो तक को चूर-चूर कर गई।

चौथी घटना एक दूसरे नगर की है। मन्दिरो पर स्वयसेवकों का पहरा था । स्वयसेवक जिसे विलायती कपड़े पहने देखते थे उसे मन्दिर मे न जाने देते थे। उसके सामने लेट जाते थे। कही-कहीं स्त्रियाँ भी पहरा दे रही थीं । सहसा एक स्त्री खद्दर की साडी पहने आकर मन्दिर के द्वार पर खडी हो गई। वह कॉग्रेस की स्वयंसेविका न थी, न उसके अचल मे सत्याग्रह का बिल्ला ही था । वह मन्दिर के द्वार के समीप खड़ी तमाशा देख रही थी और स्वयसेविकाएँ विदेशी वस्त्र-धारियो से अनुनय-विनय करती थीं, सत्याग्रह करती थी। पर वह स्त्री सबसे अलग चुपचाप खड़ी थी । उसे आये कोई घटा-भर हुआ होगा, कि सड़क पर एक फिटन पाकर खड़ी हुई और उसमे से एक महाशय सुन्दर महीन रेशमी पाड़ की धोती पहने निकले । यह थे रायबहादुर हीरामल, शहर के सबसे बड़े रईस, आनरेरी मैजिस्ट्रेट, सरकार के परम भक्त और शहर की अमन-सभा के प्रधान । नगर मे उनसे बढ़कर कॉग्रेस का विरोधी न था । पुजारीजी ने लपककर उनका स्वागत किया और उन्हें गाड़ी मे उतारा । स्वयंसेविकालो की हिम्मत न पड़ी, कि उन्हे रोक ले । वह उनके बीच मे होते हुए द्वार पर आये और अन्दर जाना ही चाहते थे, कि वही खद्दरधारी रमणी श्राकर उनके सामने खड़ी हो गई और गम्भीर स्वर मे बोली-आप यह कपड़े पहनकर अन्दर नहीं जा सकते।।

हीरामलजी ने देखा, तो सामने उनकी पत्नी खड़ी है। कलेजे मे बरछी-सी चुभ गई । बोले-तुम यहाँ क्यो आई ?

रमणी ने दृढ़ता से उत्तर दिया-इसका जवाब फिर दूंगी। आप यह कपड़े पहने हुए मन्दिर मे नहीं जा सकते ।

'तुम मुझे नहीं रोक सकती।'

'तो मेरी छाती पर पॉव रखकर जाइएगा।'

यह कहती हुई वह मन्दिर के द्वार पर बैठ गई। [ ८९ ]'तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो?'

'नहीं, मै आपके मुंह का कलक मिटाना चाहती हूँ।'

'मैं कहता हूँ, हट जाअो । पति का विरोध करना स्त्रियों का धर्म नहीं है । तुम क्या अनर्थ कर रही हो, यह तुम नहीं समझ सकतीं ।'

'मैं यहाँ आपकी पत्नी नहीं हूँ। देश की सेविका हूँ। यहाँ मेरा कर्तव्य यही है, जो मैं कर रही हूँ। घर मे मेरा धर्म आपकी आज्ञाओं को मानना था । यहाँ मेरा धर्म देश की आज्ञा को मानना है।'

हीरामलजी ने धमकी भी दी, मिन्नते भो की पर रमणी द्वार से न हटी। आख़िर पति को लज्जित होकर लौटना पड़ा । उसी दिन उनका स्वदेशी संस्कार हुआ।

पॉचवीं घटना उन गढ़वाली वीरों की है, जिन्होंने पेशावर के सत्या- अहियो पर गोली चलाने से इनकार किया। शायद हमारी सरकार को पहली बार राष्ट्रीय आन्दोलन की महत्ता का बोध हुआ । वह गोरखे जिन्हे हम लोग पशु समझते थे, जिनकी राज-भक्ति पर सरकार को अटल विश्वास था, जिनमे राष्ट्रीय भावों की जाग्रति की कोई कल्पना भी न कर सकता था, उन्हीं गोरखे योद्धाओ ने निःशस्त्र सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया । उन्हे खूब मालूम था, कि इसका नतीजा कोर्टमार्शल होगा, हमे काले पानी भेजा जायगा, फासियों दी जायेंगी, शायद गोली मार दी जाय; पर यह जानते हुए भी उन्होने गोली चलाने से इनकार किया! कितना आसान था गोली चला देना। राइफल के घोडे को दबाने की देर थी। पर धर्म ने उनकी उँगलियो को बाँध दिया था। धर्म की वेदी पर इतने बडे बलिदान का उदाहरण ससार के इतिहास मे बहुत कम मिलेगा।

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