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साहित्य का उद्देश्य/14

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साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ १०३ से – १०६ तक

 

साहित्य और मनोविज्ञान

 

साहित्य का वर्त्तमान युग मनोविज्ञान का युग कहा जा सकता है। साहित्य अब केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं है। मनोरंजन के सिवा उसका कुछ और भी उद्देश्य है। वह अब केवल विरह और मिलन के राग नहीं अलापता। वह जीवन की समस्याओं पर विचार करता है, उनकी आलोचना करता है और उनको सुलझाने की चेष्टा करता है।

नीति-शास्त्र और साहित्य का कार्य-क्षेत्र एक है, केवल उनके रचना विधान में अन्तर है। नीति-शास्त्र भी जीवन का विकास और परिष्कार चाहता है, साहित्य भी। नीतिशास्त्र का माध्यम तर्क और उपदेश है। वह युक्तियों और प्रमाणों से बुद्धि और विचार को प्रभावित करने की चेष्टा करता है। साहित्य ने अपने लिए मनोभावनाओ का क्षेत्र चुन लिया है। वह उन्हीं तत्वों को रागात्मक व्यंजना के द्वारा हमारे अंतस्तल तक पहुँचाता है। उसका काम हमारी सुन्दर भावनाओं को जगाकर उनमें क्रियात्मक शक्ति की प्रेरणा करना है। नीतिशास्त्री बहुत से प्रमाण देकर हमसे कहता है, ऐसा करो, नहीं तुम्हें पछताना पड़ेगा। कलाकार उसी प्रसंग को इस तरह हमारे सामने उपस्थित करता है कि उससे हमारा निजत्व हो जाता है, ओर वह हमारे आनन्द का विषय बन जाता है।

साहित्य की बहुत-सी परिभाषाएँ की गई हैं लेकिन मेरे विचार में उसकी सबसे सुन्दर परिभाषा जीवन की आलोचना है। हम जिस रोमा
से काम लेता था । स्वर्ग और नरक, पाप और पुण्य, उसके यन्त्र थे। साहित्य हमारी सौदर्य-भावना को सजग करने की चेष्टा करता है । मनुष्य- मात्र मे यह भावना होती है । जिसमे यह भावना प्रबल होती है, और उसके साथ ही उसे प्रकट करने का सामर्थ्य भी होता है, वह साहित्य का उपासक बन जाता है । यह भावना उसमे इतनी तीव्र हो जाती है कि मनुष्य मे, समाज मे, प्रकृति मे, जो कुछ असुन्दर, असौम्य, असत्य है, वह उसके लिए असह्य हो जाता है, और वह अपनी सौदर्यभावना से व्यक्ति और समाज मे सुरुचिपूर्ण जागृति डाल देने के लिए व्याकुल हो जाता है । यो कहिए कि वह मानवता का, प्रगति का, शराफत का वकील है । जो दलित हैं, मर्दित हैं, ज़ख्मी हैं, चाहे वे व्यक्ति हों या समाज उनकी हिमायत और वकालत उसकी धर्म है। उसकी अदालत समाज है। इसी अदालत के सामने वह अपना इस्त- गासा पेश करता है और अदालत की सत्य और न्याय-बुद्धि और उसकी सौन्दर्य-भावना को प्रभावित करके ही वह सन्तोष प्राप्त करता है । पर साधारण वकीलो की तरह वह अपने मुवक्किल की तरफ से जा और बेजा दावे नहीं पेश करता, कुछ बढ़ाता नहीं, कुछ घटाता नहीं, न गवाहों को सिखाता पढ़ाता है । वह जानता है, इन हथकण्डो से वह समाज की अदालत मे विजय नही पा सकता । इस अदालत मे तो तभी सुन- वाई होगी, जब आप सत्य से जौ-भर भी न हटे, नहीं अदालत उसके खिलाफ फैसला कर देगी और इस अदालत के सामने वह मुवक्किल का सच्चा रूप तभी दिखा सकता है, जब वह मनोविज्ञान की सहायता ले । अगर वह खुद उसी दलित समाज का एक अग है, तब तो उसका काम कुछ आसान हो जाता है क्योकि वह अपने मनोभावों का विश्ले- षण करके अपने समाज की वकालत कर सकता है। लेकिन अधिकतर वह अपने मुवक्किल की आन्तरिक प्रेरणाश्रो से, उसके मनोगत भावों से अपरिचित होता है । ऐसी दशा मे उसका पथ-प्रदर्शक मनोविज्ञान के सिवा कोई और नहीं हो सकता । इसलिए साहित्य के वर्तमान युग को
हमने मनोविज्ञान का युग कहा है। मानव-बुद्धि की विभिन्नताओं को मानते हुए भी हमारी भावनाएँ सामान्यतः एक रूप होती हैं। अन्तर केवल उनके विकास मे होता है। कुछ लोगों में उनका विकास इतना प्रखर होता है कि वह क्रिया के रूप मे प्रकट होता है वर्ना अविकतर सुषुप्तावस्था में पड़ा रहता है । साहित्य इन भावनाओं को सुषुप्तावस्था से जाग्रतावस्था मे लाने की चेष्टा करता है। पर इस सत्य को वह कभी नहीं भूल सकता कि मनुष्य मे जो मानवता और सौदर्य-भावना छिपी हुई रहती है, वहीं उसका निशाना पडना चाहिए । उपदेश और शिक्षा का द्वार उसके लिए बन्द है । हाँ उसका उद्देश्य अगर सच्चे भावावेश मे डूबे हुए शब्दो से पूरा होता है, तो वह उनका व्यवहार कर सकता है।

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