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साहित्य का उद्देश्य/15

विकिस्रोत से
साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ १०७ से – ११९ तक

 

फिल्म और साहित्य

 

हमने गत मास के 'लेखक' में 'सिनेमा और साहित्य' शीर्षक से एक छोटा सा लेख लिखा था, जिसे पढ़कर हमारे मित्र श्री नरोत्तम प्रसाद जी नागर, संपादक 'रंगभूमि' ने एक प्रतिवाद लिख भेजने की कृपा की है। हम अपने लेखकों 'लेखक' से यहाँ नकल कर रहे हैं, ताकि पाठकों को मालूमहो जाय कि हमारे और नरोत्तमप्रसाद जी के विचारों में क्या अंतर पाठक स्वयं अपना निर्णय कर लेंगे। नागर जी का मैं कृतज्ञ हूँ, कि है। उन्होंने उस लेख को पढ़ा और उसपर कुछ लिखनेकी जरूरत समझी। वह खुद सिनेमा में सुधार के समर्थक है और बरसों से यह आन्दोलन कर रहे हैं, इसलिए इस विषय पर उन्हें सम्मति देने का पूरा अधिकार है। हम उनके प्रतिवाद को भी ज्यों का त्यों छापते हैं।

'लेखक' में प्रकाशित हमारा लेख

अकसर लोगों का खयाल है कि जब से सिनेमा 'सवाक्' हो गया है, वह साहित्य का अंग हो गया, और साहित्य सेवियों के लिए कार्य का एक नया क्षेत्र खुल गया है। साहित्य भावों को जगाता है, सिनेमा भी भावों को जगाता है, इसलिए वह भी साहित्य है। लेकिन प्रश्न यह होता है-कैसे भावों को? साहित्य वह है जो ऊँचे और पवित्र भावों को जगाये, जो सुन्दरम् को हमारे सामने लाये। अगर कोई पुस्तक हमारी पशु भावनाओं को प्रबल करती है, तो हम उसे साहित्य में स्थान न देंगे। पारसी स्टेज के ड्रामों को हमने साहित्य का गौरव नहीं दिया। इसीलिए कि सुन्दरम् का जो साहित्यिक आदर्श अव्यक्त
रूप से हमारे मन मे है,उसका वहाँ कहीं पता न था।होली और कजली और बारहमासे की हजारो पुस्तके आये दिन छपा करती है, हम उन्हे साहित्य नहीं कहते । वह बिकती बहुत है, मनोरंजन भी करती है, पर साहित्य नहीं है । साहित्य मे भावो की जो उच्चता, भाषा की जो प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमे वहाँ नही मिलती। हमारा खयाल है कि हमारे चित्रपटो मे भी वह बात नहीं मिलती। उनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना है । सुरुचि या सुन्दरता से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं । वह तो जनता को वही चीज़ देंगे जो वह मॉगती है। व्यापार, व्यापार है । वहाँ अपने नफे के सिवा और किसी बात का ध्यान करना ही वर्जित है। व्यापार मे भावुकता आई और व्यापार नष्ट हुआ। वहाँ तो जनता की रुचि पर निगाह रखनी पड़ती है और चाहे संसार का सचालन देवताअो ही के हाथो मे क्यों न हो, मनुष्य पर निम्न मनो- बृत्तियों का राज्य होता है। अगर आप एक साथ दो तमाशों की व्यवस्था करे-एक तो किसी महात्मा का व्याख्यान हो, दूसरा किसी वेश्या का नग्न नृत्य, तो आप देवेगे कि महात्मा जी तो खाली कुरसियों को अपना भाषण सुना रहे हैं और वेश्या के पण्डाल में तिल रखने को जगह नहीं । मुँह पर राम-राम मन मे छुरी वाली कहावत जितनी ही लोकप्रिय है, उतनी ही सत्य भी है । वही भोला भाला ईमानदार ग्वाला जो अभी ठाकुरद्वारे से चरणामृत लेकर आया है, बिना किसी झिझक के दूध मे पानी मिला देता है । वही बाबूजी, जो अभी किसी कवि की एक सूक्ति पर सिर धुन रहे थे, अवसर पाते ही एक विधवा से रिश्वत के दो रूपये बिना किसी झिझक के लेकर जेब मे दाखिल कर लेते हैं। उपन्यासो मे भी ज्यादा प्रचार डाके और हत्या से भरी हुई पुस्तको का होता है । अगर पुस्तको मे कोई ऐसा स्थल है जहाँ लेखक ने संयम की लगाम ढीली कर दी हो तो उस स्थल को लोग बड़े शोक से पढ़ेगे, उस पर लाल निशान बनायेगे, उस पर मित्रों से मुबाहसे करेंगे। सिनेमा मे भी वही तमाशे खूब चलते है, जिनसे निम्न-भावनाओं की

विशेष तृप्ति हो ।वही सन्जन,जो सिनेमा की कुरुचि की शिकायत करते फिरते है, ऐसे तमाशो मे सबसे पहले बैठे नजर आते है। साधु तो गली गली भीख माँगते है पर वेश्याश्रो को भीख मांगते किसी ने न देखा होगा। इसका आशय यह नहीं कि ये भिखमगे साधु वेश्याश्रो से ऊँचे है-लेकिन जनता की दृष्टि मे वे श्रद्धा के पात्र है। इसीलिये हर एक सिनेमा प्रोडयूसर, चारे वह समाज का कितना बडा हितैषी क्यो न हो, तमाशे मे नीची मनोवृत्तियो के लिए काफी मसाला रखता है नही तो उसका तमाशा ही न चले । बम्बई के एक प्रोड्यूसर ने ऊँचे भावो से भरा हुअा एक खेल तैयार किया, मगर बहुत हाय हाय करने पर भी जनता उसकी ओर आकर्षित न हुई । 'पास' के अन्धाधुन्ध वितरण से रुपये तो नहीं मिलते । आमन्त्रित सज्जनो और देवियों ने तमाशा देखकर मानो प्रोड्यूसर पर एहसान किया और बखान करके मानो उसे मोल ले लिया । उसने दूसरा तमाशा जो तैयार किया, वह वही बाजारू ढग का और वह खूब चला। पहले तमाशे से जो घाटा हुआ था, वह इस दूसरे तमाशे से पूरा हो गया। जिस शौक से लोग शराब और ताडी पीते है, उसके आधे शौक से दूध नहीं पीते । 'साहित्य' दूध होने का दावेदार है, सिनेमा, ताड़ी या शराब की भूख को शान्त करता है। जब तक साहित्य अपने स्थान से उतर कर और अपना चोला बदलकर शराब न बन जाय, उसका वहाँ निर्वाह नहीं। साहित्य के सामने अादर्श है, सयम है, मर्यादा है। सिनेमा के लिये इसमे से किसी वस्तु की जरूरत नही । सेंसर बोर्ड के नियन्त्रण के सिवा उस पर कोई नियन्त्रण नहीं । जिसे साहित्य की 'सनक' है वह कभी कुरुचि की ओर जाना स्वीकार न करेगा। मर्यादा की भावना उसका हाथ पकड़े रहती है, इसलिए हमारे साहित्यकार के लिये, जो सिनेमा मे हैं, वहाँ केवल इतना ही काम है कि वे डाइरेक्टर साहब के लिखे हुए गुजराती, मराठी या अग्रेजी कथोपकथन को हिन्दी मे लिख दे । डाइ- रेक्टर जानता है कि सिनेमा के लिए जिस 'रचना कला' की जरूरत

है वह लेखका मे मुश्किल से मिलेगी; इसलिए वह लेखकों से केवल उतना ही काम लेता है जितना वह बिना किसी हानि के ले सकता है। अमेरिका और अन्य देशो मे भी साहित्य और सिनेमा मे साम- न्जस्य नहीं हो सका और न शायद ही हो सकता है । साहित्य जन-रुचि का पथ-प्रदर्शक होता है, उसका अनुगामी नहीं। सिनेमा जन-रुचि के पीछे चलता है, जनता जो कुछ माँगे वही देता है । साहित्य हमारी सुन्दर भावना को स्पर्श करके हमे आनन्द प्रदान करता है । सिनेमा हमारी कुत्सित भावनाशो को स्पर्श करके हमे मतवाला बनाता है और इसकी दवा प्रोड्यूसर के पास नहीं । जब तक एक चीज की मॉग है, वह बाजार मे आएगी । कोई उसे रोक नहीं सकता। अभी वह जमाना बहुत दूर है जब सिनेमा और साहित्य का एक रूप होगा। लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जायगी कि वह नीचे ले पाने वाली चीजो से घृणा करेगी, तभी सिनेमा मे साहित्य की सुरुचि दिखाई पड़ सकती है।

हिन्दी के कई साहित्यकारों ने सिनेमा पर निशाने लगाये लेकिन शायद ही किसी ने मछली बेध पाई हो । फिर गले मे जयमाल कैसे पड़ता? आज भी पडित नारायण प्रसाद बेताब, मुन्शी गौरीशकर लाल अख्तर, श्री हरिकृष्ण प्रेमी, मि० जमना प्रसाद काश्यप, मि० चन्द्रिका प्रसाद श्रीवास्तव, डाक्टर धनीराम प्रेम, सेठ गोविन्द दास, पडित द्वारका प्रसाद जी मिश्र आदि सिनेमा की उपासना करने में लगे हुए है । देखा चाहिए सिनेमा इन्हे बदल देता है या ये सिनेमा की काया-पलट कर

श्री नरोत्तम प्रसाद जी की चिट्ठी

श्रद्धेय प्रेमचन्द जी,

'लेखक' में आपका लेख 'फिल्म और साहित्य' पढा । इस चीज को लेकर रगभूमि मे अच्छी खासी कन्ट्रोवर्सी चल चुकी है। रगभूमि के वे

अंक अापको भेजे भी गए थे।पता नहीं अापने उन्हे देखा कि नहीं। अस्तु।

आपने सिनेमा के सम्बन्ध मे जो कुछ लिखा है, वह ठीक है । साहित्य को जो स्थान दिया है, उससे भी किसी का मतभेद नहीं हो सकता। निश्चय ही सिनेमा ताड़ी और साहित्य दूध है; पर इस चीज को जेनेरलाइज करना ठीक न होगा। सिनेमा के लिए भी और साहित्य के लिए भी। साहित्य भी इसी ताडीपन से अछूता नहीं है । सिनेमा को मात करने वाले उदाहरण भी उसमे मिल जायेंगे-एक नहीं अनेक । और ऐसे व्यक्तियो के जिनको कि साहित्यिक ससार ने रिकग्नाइज किया है। और तो और, पाठ्यकोर्स तक मे जिनकी पुस्तकें हैं । अपने समर्थन मे महात्मा गान्वी के वे वाक्य उद्धत करने होगे क्या, जो कि उन्होंने इन्दौर साहित्य सम्मेलन के सभापति की हैसियत से कहे है ? लेकिन प्रत्यक्ष किम् प्रमाणम् । यही बात सिनेमा के साथ है । सिनेमा के साथ तो एक और भी गड़बड़ है। वह यह कि बदनाम है । आपके ही शब्दों में भिखमगे साधु वेश्याओं से अच्छे न होते हुए भी श्रद्धा के पात्र हैं। श्रद्धा के पात्र है, इसलिए टालरेबुल है या उतने विरोध के पात्र नहीं है, जितने कि वेश्याएँ । इसी तर्क शैली को लेकर आप सिद्ध करते हैं कि सिनेमा ताड़ी है और साहित्य दूध | ताडी ताड़ी है और दूध दूध । आपने इन दोनो के दर्मियान एक वेल मार्ड एन्ड वेल डिफाइन्ड लाइन आप डिफरेन्स खीच दी है।

मेरा आपसे यहाँ सैद्धान्तिक मतभेद है । मेरा ख्याल है कि यह विचारधारा ही गलत है, जो इस तरह की तर्क शैली को लेकर चलती है । कभी जमाना था, जब इस तर्क शैली का जोर था, सराहना थी पर अब नहीं है । इस चीज को हमे उखाड़ फेकना ही होगा।

एक जगह आप कहते है कि साहित्य का काम जनता के पीछे चलना नहीं, उसका पथ-प्रदर्शक बनना है । आगे चलकर आप साधु और वेश्याओं की मिसाल देते हैं। साधु वेश्याओ से अच्छे न होते हुए

भी जनता की श्रद्धा के पात्र है । यहा आप जनता की इस श्रद्धा को अपने समर्थन मे आगे क्यो रखते है।

आपने जो साहित्य के उद्देश्य गिनाये है, उन्हे पूरा करने मे सिनेमा साहित्य से कही आगे जाने की क्षमता रखता है । यूटिलिटी के दृष्टिकोण से सिनेमा साहित्य से कही अधिक ग्राह्य है; लेकिन यह सब होते हुए भी सिनेमा की उपयोगिता कुपात्रो के हाथो मे पड़कर दुरुपयोगिता मे परिणत हो रही है। इसमे दोष सिनेमा का नही, उनका है जिनके हाथ मे इसकी बागडोर है । इनसे भी अधिक उनका है जो इस चीज को बर्दाश्त करते है। बर्दाश्त करना भी बुरा नही होता, यदि इसके साथ मजबूरी की शर्त न लगी होती।

गले मे जयमाल पड़ने वाली बात भी बड़े मजे की है-'कितने ही साहित्यिको ने निशाने लगाये पर शायद ही कोई मछली बेध पाया हो। जयमाल गले मे कैसे पडती ?' बहुत खूब । जिस चीज़ के लिए साहित्यिको ने सिनेमा पर निशाने लगाये, वह चीज क्या उन्हे नहीं मिली-अपवाद को छोडकर ? आप या कोई और साहित्यिक यह बताने की कृपा करेंगे कि सिनेमा मे प्रवेश करने वाले साहित्यिको मे से ऐसा कौन है, जिसके सिनेमा प्रवेश का मुख्य उद्देश्य सिनेमा को अपने रग' मे रगना रहा हो ? क्या किसी भी साहित्यिक ने सिन्सीयरली इस ओर कुछ काम किया है ? फिर जयमाल गले मे कैसे पडती ? माना कि साहित्य संसार मे जयमाल और सम्राट की उपाधियाँ टके सेर बिकती हैं। लेकिन सभी जगह तो इन चीजो का यही भाव नहीं है । पहले सिनेमा- जगत को कुछ दीजिए, या यो ही गले मे जयमाल पड़ जाये ? या सिर्फ साहित्यिक होना ही गले मे जयमाल पड़ने क! क्वालिफिकेशन है ?

आप बम्बई मे रह चुके हैं। सिनेमा-जगत की आपने झाकी भी ली है। आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं कि हमारे साहित्यिक भी, अपनी फिल्मो मे निर्दिष्ट रुचि का समावेश करने मे किसी से पीछे नहीं रहे हैं । या कहे कि आगे ही बढ़ गये है। औरो को छोड़ दीजिए, वे

साहित्यिक भी जो कि एक तरह से कम्पनी के सर्वेसर्वा है, अपने फिल्म मे दो सौ लड़कियों का नाम रखने से बाज न आये, जो कि बज़िद थे, कि तालाब से पानी भरने वाले सीन मे हीरोइन अण्डरवियर न पहने, हीरो आये, उससे छेड़खानी करे और उसका घड़ा छीनकर उस पर डाल दे । बदन पर अण्डरवियर नहीं, वस्त्र भीगे, बदन से चिपके, और नग्नता का प्रदर्शन हो। यह सूझ उन्हीं साहित्यिको मे से एक की है, जिनके कि आपने नाम गिनाये हैं। ..."लेकिन मुझे कहना चाहिए कि इसमे साहित्यिक का दोष जरा भी नहीं है । .... और ऐसी ब्लैक- शीप मेन्टैलिटी साहित्यिक क्या और सिनेमा क्या, सभी जगह मिल जायेगी।

आपने अपने लेख में होली, कजली और बारहमासे, की पुस्तकों का जिक्र किया है । इन चीजो को साहित्य नहीं कहा जाता या साहित्यिक इन्हे रिकग्नाइज नहीं करते, यह ठीक है। लेकिन उनका अस्तित्व है और जिस प्रेरणा या उमंग को लेकर अन्य कलाओं का सृजन होता है उन्ही को लेकर यह होली, कजली और बारहमासे भी आये है । लेकिन आपका उन्हे अपने से अलग रखना भी स्वाभाविक है। यूटिलिटी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से। इसी तरह क्या आपने कभी यह जानने का कष्ट किया है कि सिनेमा- जगत में क्लासेज एड मासेज-दोनों की ही अोर से कौन-कौन सी कम्पनियों, कौन-कौन से डाइरेक्टरों और कौन-कौन से फिल्मो को रिक- ग्नाइज किया जाता है ? भारत की मानी हुई या सर्वश्रेष्ठ कम्पनियों कौन सी हैं, यह पूछने पर आपको उत्तर मिलेगा-प्रभात, न्यू थियेटर्स और रणजीत । डाइरेक्टरों की गणना मे शान्ताराम, देवकी बोस और चन्दू- लाल शाह के नाम सुनाई देगे । तब फिर आपका, या किसी भी व्यक्ति का, जो भी फिल्म या कम्पनी सामने आ जाये उसी से सिनेमा पर एक स्लैशिगफ़तवा देना कहाँ तक सगत है, यह आपही सोचें । यह तो वही बात हुई कि कोई आदमी किसी लाइब्रेरी मे जाता है । जिस पुस्तक पर हाथ पड़ता है, उसे उठा लेता है । और फिर उसी के आधार

पर फतवा दे देता है कि हिन्दी मे कुछ नहीं है, निरा कूड़ा भरा है । क्या आप इस चीज को ठीक समझते है ?

अब दो एक शब्द आपके मादक या मतवालावाद पर भी । पहली बात तो यह कि केवल यूटिलिटेरियन एन्ड्स की दृष्टि से लिखा गया साहित्य ही साहित्य है, ऐसा कहना ठीक नही ! ऐसी रचना करने के लिए साहित्यिक से अधिक प्रोपेगेण्डिस्ट होने की जरूरत है। इतना ही नही । इन एन्डस को पूरा करने के लिए अन्य साधन मौजूद है, जो साहित्य से कही अधिक प्रभावशाली है । तब फिर, साहित्य के स्थान पर उन साधनो को प्रेफरेन्स क्यो न दिया जाये ? इसे भी छोड़िए। यूटिलिटेरियन एन्ड्स को अपनाने मे कोई हर्ज नहीं। उन्हे अपनाना चाहिए ही। लेकिन क्या सचमुच मे सेक्स-अपील उतना बड़ा हौवा है, जितना कि उसे बना दिया गया है ? क्या सेक्स अपील से अपने आपको, अपनी रचनाओ को, पाक रखा जा सकता है ? पाक रखना क्या स्वाभाविक और सजीव होगा ? अपवाद के लिए गुजाइश छोड़कर मैं आपसे पूछना चाहूँगा कि आप किसी भी ऐसी रचना का नाम बताएँ, जिसमें सेक्स अपील न हो । सेक्स अपील बुरी चीज नहीं है। वह तो होनी ही चाहिए । लोहा तो हमे उस मनोवृत्ति से लेना है, जो सेक्स अपील और सेक्स परवर्शन मे कोई भेद नहीं समझती।

अब सिनेमा-मुधार की समस्या पर भी । यह समझना कि जिनके हाथ मे सिनेमा की बागडोर है, वे इनिशिएटिव ले-भारी भूल होगी। यह काम प्रेस और प्लेटफार्म का है, इससे भी बढ़कर उन नवयुवको का है, जो सिनेमा मे दिलचस्पी रखते है। चूंकि मै प्रेस से सम्बन्धित हूँ और फिलहाल एक सिनेमा-पत्रिका का सम्पादन कर रहा हूँ इसलिए मैंने इस दिशा मे कदम उठाने का प्रयत्न किया । लेखकों तथा अन्य साहित्यिकों को अप्रोच किया । कुछ ने कहा कि सिनेमा सुधार की जिम्मेदारी लेखको पर नहीं। अपने लेख पर दिये गये 'लेखक' के सम्पादक का नोट ही देखिए । कुछ ने इसे असम्भव-सा बताकर छोड़ दिया। सिनेमा-सुधार

की आवश्यकता को तो सब महसूस करते है,सिनेमा का विरोध भी जी खाल कर करते है, पर क्रियात्मक सहयोग का नाम सुनते ही अलग हो जाते हैं । सिर्फ इसलिए कि सिनेमा बदनाम है ओर यह चीज़ हमारे रोम-राम मे धसी हुई है, कि बद अच्छा बदनाम बुरा । क्या यह विड- म्बना नहीं है ? इस चीज़ को दूर करने मे क्या आप हमारी सहायता न करेंगे।

यह सब होते हुए हम सिनेमा सुधार के काम को आगे बढ़ाना चाहते है। नवयुवक लेखको के सिनेमा ग्रुप की योजना के लिए जमीन तैयार हो चुकी है, हम विस्तृत योजना भी शीघ्र प्रकाशित कर रहे हैं। इसके लिए जरूरत होगी एक निष्पक्ष सिनेमा-पत्र की । जब तक नहीं निकलता तब तक काफी दूर तक 'रंगभूमि' हमारा साथ दे सकती है। मेरा तो यह निश्चित मत है और मै सगर्व कह सकता हूँ कि इस लिहाज से 'रंगभूमि' भारतीय सिनेमा पत्रो मे सबसे आगे है । मै आपसे अनुरोध करूंगा कि आप 'रंगभूमि' की आलोचनाएँ जरूर पढा करे । पढ़ने पर आपको भी मेरे जैसा मत स्थिर करने मे जरा भी देर न लगेगी । इसका मुझे पूर्ण निश्चय है।

अाशा है कि आप भी सिनेमा-ग्रुप को अपना आवश्यक सहयोग देकर कृतार्थ करेंगे।

आपका
 
नरोत्तम प्रसाद नागर
 

नागर जी ने हमारे सिनेमा-सम्बन्धी विचारो को ठीक माना है, केवल हमारा जेनरेलाइज़ करना अर्थात् सभी को एक लाठी से हाकना उन्हे अनुचित जान पड़ता है । क्या वेश्याओ मे शरीफ औरते नहीं हैं लेकिन इससे वेश्यावृत्ति पर जो दाग है वह नही मिटता । ऐसी वेश्याएँ अपवाद है, नियम नहीं।

साधुओ और वेश्याओ मे मौलिक अन्तर है । साधु कोई इसलिए नहीं हाता कि वह मौज उड़ाएगा और व्यभिचार करेगा, हालाकि ऐसे

साधु निकल ही आते है, जो परले सिरे के लुच्चे कहे जा सकते हैं। साधु हम ज्ञान प्राप्ति या मोक्ष या जन-सेवा के ही विचार से होते है। इस गई गुजरी दशा मे भी ऐसे साधु मौजूद है, जिन्हे इम महात्मा कह सकते है। वेश्याश्रो के मूल मे दुर्वासना, अर्थ-लोलुपता, कामुकता और कपट होता है । इससे शायद नागर जी को भी इन्कार न हो।

सिनेमा की क्षमता से मुझे इनकार नहीं। अच्छे विचारो और आदशों के प्रचार मे सिनेमा से बढकर कोई दूसरी शक्ति नहीं है, मगर जैसा नागर जी खुद स्वीकार करते है, वह कुपात्रो के हाथ मे है और वह लोग भी इस जिम्मेदारी से बरी नही हो सकते, जो उसे बर्दाश्त करते है, अर्थात् जनता । मुझे इसके स्वीकार करने मे कोई आपत्ति नहीं। यही तो मै कहना चाहता हूँ । सिनेमा जिनके हाथ मे है, उन्हे आप कुपात्र कहे, मै तो उन्हे उसी तरह व्यापारी समझता हूँ, जैसे कोई दूसरा व्यापारी। और व्यापारी का काम जन-रुचि का पथ-प्रदर्शन करना नही, धन कमाना है। वह वही चीज जनता के सामने रखता है,जिसमे उसे अधिक से अधिक धन मिले ।एक फिल्म बनाने मे पचास हजार से एक लाख तक बल्कि इससे भी ज्यादा खर्च हो जाते है । व्यापारी इतना बड़ा खतरा नही ले सकता। गरीब का दीवाला निकल जाय । साहित्यकार का मुख्य उद्देश्य धन नहीं होता, नाम चाहे हो । हमारे खयाल मे साहित्य का मुख्य उद्देश्य जीवन को बल और स्वास्थ्य प्रदान करना है। अन्य सभी उद्देश्य इसके नीचे आ जाते है। हजारो साहित्यकार केवल इसी भावना से अपना जीवन तक साहित्य पर कुर्बान कर देते है। उन्हे घेला भी इससे नहीं मिलता । मगर ऐसा शायद ही कोई प्रोड्यूसर अवतरित हुअा हो, और शायद ही हो, जिसने इस ऊँची भावना से फिल्म बनाया हो।

आप फरमाते हैं, सिनेमा मे जाने वाले साहित्यिकों मे ऐसा कौन था, जिसका मुख्य उद्देश्य सिनेमा को अपने रग मे रगना रहा हो ? हम गोरों से कह सकते हैं, कोई भी नहीं । वहाँ का जलवायु ही ऐसा है कि बड़ा आदर्शवादी भी जाय, तो नमक की खान मे नमक बन कर रह

जायगा । वही लोग, जो साहित्य मे आदर्श को सृष्टि करते हैं सिनेमा में दो दो सौ वेश्याओं का नगा नाच करवाते है । क्यों ? इसीलिए कि वे ऐसे धन्धे मे पड़ गये है, जहाँ बिना नगा नाच नचाये धन से भेंट नहीं होती । मै आदर्शों को लेकर गया था, लेकिन मुझे मालूम हुआ कि सिनेमा वालो के पास बने-बनाये नुस्खे हैं, और श्राप उस नुस्खे के बाहर नहीं जा सकते । वहाँ प्रोड्यूसर यह देखता है कि जनता किस बात पर तालियों बजाती है । वही बात वह अपने फिल्म मैं लायेगा । अन्य विचार उसके लिए ढकोसले है, जिन्हें वह सिनेमा के दायरे के बाहर समझता है। और फिर सारा भेद तो एसोसिएशन का है । वेश्या के मुख से वैराग्य या निर्गुण सुनकर कोई तर नहीं जाता । रही उपाधियों के टके सेर की बात। हमारे खयाल मे सिनेमा मे वह इससे कहीं सस्ती है जहाँ अच्छे वेतन पर लोग इसीलिए नौकर रखे जाते हैं, जो अपने ऐक्टरों और ऐक्ट्रेसों की तारीफ मे जमीन आसमान के कुलाबे मिलायें ।

मैं यह नहीं कहता कि होली या कजली त्याज्य हैं और जो लोग होली या कजली गाते है वह नीच हैं और जिन भावो से प्रेरित होकर होली और कजली का सुजन होता है वह मूल रूप मे साहित्य की प्रेरक भावनाओं से अलग है । फिर भी वे साहित्य नहीं हैं । पत्र-पत्रिकाओ को भी साहित्य नहीं कहा जाता । कभी कभी उनमे ऐसी चीजे निकल जाती हैं, जिन्हे हम साहित्य कह सकते हैं। इसी तरह होली और कजली मे भी कभी- कभी अच्छी चीजे निकल जाती है, और वह साहित्य का अंग बन जाती हैं। मगर आम तौर पर ये चीजें अस्थायी होती है और साहित्य मे जिस परिष्कार, मौलिकता, शैली, प्रतिभा, विचार गम्भीरता की जरूरत होती है, वह उनमे नहीं पाई जाती । देहातों में दीवारो पर औरते जो चित्र बनाती है, अगर उसे चित्रकला कहा जाय तो शायद ससार मे एक भी ऐसा प्राणी न निकले जो चित्रकार न हो । साहित्य भी एक कला है और उसकी मर्यादाएँ हैं । यह मानते हुए भी कि श्रेष्ठ कला वही है जो
आसानी से समझी और चखी जा सके, जो सुबोध और जनप्रिय हो, उसमे ऊपर लिखे हुए गुणों का होना लाजमी है । आपने सिनमा-जगत मे जिन अपवादो के नाम लिये हैं, उनकी मैं भी इज्जत करता हूँ और उन्हें बहुत गनीमत समझता हूँ; मगर वे अपवाद हैं, जो नियम को सिद्ध करते है । और हम तो कहते है इन अपवादो को भी व्यापारिकता के सामने सिर झुकाना पडा है । सिनेमा मे एंटरटेनमेन्ट वैलू साहित्य के इसी अंग से बिलकुल अलग है । साहित्य मे यह काम शब्दो, सूक्तियों या विनोदों से लिया जाता है । सिनेमा मे वही काम, मारपीट, धर पकड़, मुंह चिढाने और जिस्म को मटकाने से लिया जाता है।

रही उपयोगिता की बात । इस विषय मे मेरा पक्का मत है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सभी कला उपयोगिता के सामने घुटना टेकती है। प्रोपेगेन्डा बदनाम शब्द है; लेकिन आज का विचारोत्पादक, बलदायक, स्वास्थ्यवर्द्धक साहित्य प्रोपेगेन्डा के सिवा न कुछ है, न हो सकता है, न होना चाहिए, और इस तरह के प्रोपेगेन्डे के लिए साहित्य से प्रभाव- शाली कोई साधन ब्रह्मा ने नहीं रचा वर्ना उपनिषद् और बाइबिल दृष्टान्तो से न भरे होते ।

सेक्स अपील को हम हौवा नहीं समझते, दुनिया उसी धुरी पर कायम लेकिन शराबखाने मे बैठ कर तो कोई दूध नहीं पीता । सेक्स अपील की निन्दा तब होती है, जब वह विकृत रूप धारण कर लेती है। सुई कपडे मे चुभती है, तो हमारा तन ढंकती है, लेकिन देह मे चुभे तो उसे जख्मी कर देगी । साहित्य मे भी जब यह अपील सीमा से आगे बढ़ जाती है, तो उसे दूषित कर देती है। इसी कारण हिन्दी प्राचीन कविता का बहुत बड़ा भाग साहित्य का कलक बन गया है। सिनेमा मे वह अपील और भी भयंकर हो गई है, जो संयम और निग्रह का उप- हास है। हमें विश्वास नहीं आता कि आप आजकल के मुक्त प्रेम के अनुयायी हैं। उसे प्रेम कहना तो प्रेम शब्द को कलंकित करना है। उसे तो छिछोरापन ही कहना चाहिए। अन्त मे हमारा यही निवेदन है कि हम भी सिनेमा को इसके परिष्कृत रूप मे देखने के इच्छुक हैं, और आप इस विषय मे जो सराहनीय उद्योग कर रहे हैं, उसको गनीमत समझते है। मगर शराब की तरह यह भी यूरोप का प्रसाद है और हजार कोशिश करने पर भी भारत जैसे सूखे देश मे उसका व्यवहार बढता ही जा रहा है। यहाँ तक कि शायद कुछ दिनो मे वह यूरोप की तरह हमारे भोजन मे शामिल हो जाय । इसका सुधार तभी होगा जब हमारे हाथ मे अधिकार होगा, और सिनेमा जैसी प्रभावशाली, सद्विचार और सद्व्यवहार की मशीन कला-मर्मज्ञों के हाथ मे होगी, धन कमाने के लिए नहीं, जनता को आदमी बनाने के लिए, जैसा योरप मे हो रहा है। तब तक तो यह नाच तमाशे की श्रेणी से ऊपर न उठ सकेगा।

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