साहित्य का उद्देश्य/16

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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सिनेमा और जीवन

 

सिनेमा का प्रचार दिन-दिन बढ़ रहा है। केवल इंग्लैंड में दो करोड़ दर्शक प्रति सप्ताह सिनेमा देखने जाते हैं। इसलिए प्रत्येक राष्ट्र का फर्ज हो गया है कि वह सिनेमा की प्रगति पर कड़ी निगाह रखे और इसे केवल धन लुटेरों के ही हाथ में न छोड़ दे। व्यवसाय का नियम है कि जनता में जो माल ज्यादा खपे, उसकी तैयारी में लगे। अगर जनता को ताड़ी शराब से रुचि है, तो वह ताड़ी शराब की दुकानें खोलेगा और खूब धन कमाएगा। उसे इससे प्रयोजन नहीं कि ताड़ी शराब से जनता को कितनी दैहिक, आत्मिक, चारित्रिक, आर्थिक और पारिवारिक हानि पहुँचती है। उसके जीवन का उद्देश्य तो धन है और धन कमाने का कोई भी साधन वह नहीं छोड़ सकता। यह काम उपदेशकों और सन्तों का है कि वे जनता में संयम और निषेध का प्रचार करें। व्यवसाय तो व्यवसाय है। 'बिजनेस इज बिजनेस' यह वाक्य सभी की जबान पर रहता है। इसका अर्थ यही है कि कारोबार में धर्म और अधर्म, उचित और अनुचित का विचार नहीं किया जा सकता। बल्कि उसका विचार करना बेवकूफी है।

इसमें विद्वानों को मतभेद हो सकता है कि आदमी का पूर्व पुरुष बन्दर है या भालू; लेकिन इसमें तो सभी सहमत होंगे कि आदमी में दैविकता भी है और पाशविकता भी। अगर आदमी एक वक्त में किसी की हत्या कर सकता है, तो दूसरे अवसर पर किसी की रक्षा में अपने प्राणों का होम भी कर सकता है और आदि से साहित्य और काव्य और [ १२१ ]
कलाओ का यही ध्येय रहा है कि आदमी में जो पशुत्व है उसका दमन करके, उसमे जा देवत्व है, उसको जगाया जाय । उसमे जो निम्न भावनाएँ हैं उनको दबाकर या मिटाकर कोमल और सुन्दर वृत्तियो को सचेत किया जाय । साहित्य और काव्य मे भी ऐसे समय आये हैं, और आते रहते है, जब सुन्दर का पक्ष निर्बल हो जाता है और वह असुन्दर, वीभत्स और दुर्वासना का राग अलापने लगता है। लेकिन जब ऐसा समय आता है तो हम उसे पतन का युग कहते हैं। इसी उद्देश्य से साहित्य और कला मे केवल मानव जीवन की नकल करने को बहुत ऊँचा स्थान नही दिया जाता और आदशों की रचना करनी पड़ती है । आदर्शवाद का ध्येय यही है कि वह सुन्दर और पवित्र की रचना करके मनुष्य मे जो कोमल और ऊँची भावनाएँ है, उन्हे पुष्ट करे और जीवन के सस्कारो से मन और हृदय मे जो गर्द और मैल जम रहा हो उसे साफ कर दे । किसी साहित्य की महत्ता की जाच यही है कि उसमे आदर्श चरित्रो की सृष्टि हो । हम सब निर्बल जीव हैं, छोटे-छोटे प्रलोभनों में पड़कर हम विचलित हो जाते है, छोटे-छोटे सकटों के सामने हम सिर झुका देते हैं। और जब हमे अपने साहित्य में ऐसे चरित्र मिल जाते हैं, जो प्रलोभनो को पैरो तले रौदते और कठिनाइयों को धकियाते हुए निकल जाते हैं, तो हमे उनसे प्रेम हो जाता है, हममें साहस का जागरण होता है और हमे अपने जीवन का मार्ग मिल जाता है।

अगर सिनेमा इसी आदर्श को सामने रखकर अपने चित्रों की सृष्टि करता, तो वह आज ससार की सबसे बलवान सचालक शक्ति होता, मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के ऊँचे आसन से खाँचकर ताड़ी या शराब की दुकान की सतह तक पहुंचा दिया है, और यही कारण है कि अब सर्वत्र यह अान्दोलन होने लगा है कि सिनेमा पर नियन्त्रण रखा जाय और उसे मनुष्य की पशुताओ को उत्तेजन देने की कुप्रवृत्ति से रोका जाय ।'

जिस जमाने मे बम्बई मे कांग्रेस का जलसा था, सिनेमा हाल
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अधिकाश मे खाली रहते थे,और उन दिनो जो चित्र दिखाये गये, उनमें घाटा ही रहा । इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि जनता के विषय मे जो खयाल है कि वह मारकाट और सनसनी पैदा करने वाली और शोर गुल से भरी हुई तस्वीरो को ही पसन्द करती है, वह भ्रम है । जनता प्रेम और त्याग और मित्रता और करुणा से भरी हुई तस्वीरो को और भी रुचि से देखना चाहती है, मगर हमारे सिनेमा- वालो ने पुलिसवालो की मनोवृत्ति से काम लेकर यह समझ लिया है कि केवल भद्दे मसखरेपन और अँडैती ओर बलात्कार और सौ फीट की ऊँचाई से कूदने, झूठमूठ टीन की तलवार चलाने मे ही जनता को आनन्द आता है और कुछ थोड़ा-सा आलिंगन और चुम्बन तो मानो सिनेमा के लिए उतना ही जरूरी है जितना देह के लिए ऑखें । बेशक जनता वीरता देखना चाहती है। प्रेम के दृश्यों से भी जनता को रुचि है, लेकिन यह ख्याल करना कि आलिंगन और चुम्बन के बिना प्रेम का प्रदर्शन हो ही नहीं सकता, और केवल नकली तलवार चलाना ही जवॉमर्दी है, और बिना जरूरत गीतो का लाना सुरुचि है, और मन और कर्म की हिंसा मे ही जनता को अानन्द आता है. मनोविज्ञान का बिलकुल गलत अनुमान है। कहा जाता है कि, शेक्सपियर के शब्दों मे, जनता अबोध बालक है । और वह जिन बातों पर एकान्त मे बैठकर घृणा करती है, या जिन घटनाओं को अनहोनी समझती है, उन्हीं पर सिनेमा हाल मे बैठकर उल्लास से तालियाँ बजाती है। इस कथन मे सत्य है । सामूहिक मनोविज्ञान की यह विशेषता अवश्य है। लेकिन अबोध बालक को क्या माँ की गोद पसन्द नहीं ? जनता नग्नता और फक्कड़ता और भंडैती ही पसन्द करती है, उसे चूमा-चाटी और बलात्कार में ही मजा आता है, तो क्या उसकी इन्हीं आवश्यकताओं को मजबूत बनाना हमारा काम है ? व्यवसाय को भी देश और समाज के कल्याण के सामने झुकना पड़ता है। स्वदेशी आन्दोलन के समय मे किसकी हिम्मत थी जो बिज़नेस इज़ बिज़नेस की दुहाई देता ? बिज़नेस
[ १२३ ]से अगर समाज का हित होता है, तो ठीक है; वर्ना ऐसे बिजनेस मे आग लगा देनी चाहिए । सिनेमा अगर हमारे जीवन को स्वस्थ आनन्द दे सके, तो उसे जिन्दा रहने का हक है। अगर वह हमारे क्षुद्र मनोवेगो को उकसाता है, हममे निर्लज्जता और धूर्तता और कुरुचि को बढ़ाता है, और हमे पशुता की ओर ले जाता है, तो जितनी जल्द उसका निशान मिट जाय, उतना ही अच्छा।

और अब यह बात धीरे-धीरे समझ मे आने लगी है कि अर्धनग्न तस्वीरें दिखाकर और नगे नाचो का प्रदर्शन करके जनता को लूटना इतना आसान नहीं रहा । ऐसी तस्वीरें अब आम तौर पर नापसन्द की जाती हैं, और यद्यपि अभी कुछ दिनों जनता की बिगडी हुई रुचि आदर्श चित्रो को सफल न होने देगी लेकिन प्रतिक्रिया बहुत जल्द होने वाली है और जनमत अब सिनेमा मे सच्चे और सस्कृत जीवन का प्रतिबिम्ब देखना चाहता है, राजाओ के विलासमय जीवन और उनकी ऐयाशियो और लड़ाइयों से किसी को प्रेम नही रहा ।

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