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साहित्य का उद्देश्य/18

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साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ १२९ से – १३१ तक

 

दन्तकथाओं का महत्व

 

गत ७ अगस्त को मास्को में सोवियत के सभी साहित्यिकों की एक विराट् सभा हुई थी जिसके सभापति संसार प्रसिद्ध मैक्सिम गोर्की थे। इस अवसर पर मैक्सिम गोर्की ने जो भाषण दिया, वह विषय और उसके निरूपण और मौलिक विचारों के लिहाज से बड़े महत्व का था। आपने दन्तकथाओं और ग्राम्य गीतों को बिलकुल एक नए दृष्टिकोण से देखा जिसने इन कथाओं और गीतों का महत्व सैकड़ों गुना बढ़ा दिया है। ग्राम्य साहित्य और पौराणिक कथाओं में बहुधा मानव जीवन के आदिकाल की कठिनाइयों घटनाओं और प्राकृतिक रहस्यों का वर्णन है। कम से कम हमने अब तक ग्राम्य साहित्य को इसी दृष्टि से देखा है। मैक्सिम गोर्की साहब और गहराई में जाते हैं और यह नतीजा निकालते हैं कि 'यह उस उद्योग का प्रमाण है, जो पुराने जमाने के मज़दूरों को अपनी मेहनत की थकावट का बोझा हल्का करने, थोड़े समय में ज्यादा काम करने, अपने को दो या चार टाँगो वाले शत्रुओं से बचाने और मन्त्रों द्वारा दैवी बाधाओं को दूर करने के लिए करना पड़ा।'

पुराणों और दन्तकथाओं में जो देवी-देवता आते हैं, वह सभी स्वभाव में मनुष्यों के से ही होते हैं। उनमें भी ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध, प्रेम और अनुराग आदि मनोभाव लाये जाते हैं जो सामान्य मनुष्यों में है। इस दलील से यह बात गलत हो जाती है कि ये देवी-देवता केवल ईश्वर के भिन्न रूप हैं, अथवा मनुष्य ने जल, अग्नि, मेघ आदि से बचने के लिए उन्हे देवता का रूप देकर पूजना शुरू किया। मैक्सिम
गोर्की साहब की राय मे इसकी उत्पत्ति सामाजिक व्यवस्था से हुई । समाज मे जो विशिष्ट लोग थे, वही देवताओ के नमूने बन गये। आदिम मनुष्यो की कल्पना मे देवता काई निराकार वस्तु या कोई अजूबा चीज न था, बल्कि वह मजदूर था, जिसके अस्त्रो मे हसिया या बसूला या कोई दूसरा औजार होता था । वह किसी न किसी उद्योग का जान कार होता था और मजदूरो की ही भांति मेहनत करता था । आप आगे कहते है :

'ईश्वर केवल उनकी कलात्मक रचना था, जिसके द्वारा उन्होने अपने उद्योग की सफलताओ और विजयो का प्रदर्शन किया। दन्त- कथाओ मे मानव शक्तियो और उसके भावी विकास को देवत्व तक पहुँचा दिया गया है, पर असल मे वास्तविक जीवन ही उनका स्रोत है और उनकी उक्तियो से यह पता लगाना कठिन नहीं है कि उनकी प्रेरणा परिश्रम की व्यथा को कम करने के लिए हुई है।

तो मैक्सिम गोर्की के कथनानुसार मजदूरो ने ईश्वर को एक साधारण, सहृदय मजदूर के रूप मे देखा, लेकिन धीरे धीरे जब शक्तिवान् व्यक्तियो ने खुद ही मजदूरी छोड़कर मजदूरो से मालिक का दर्जा पा लिया तो यही ईश्वर मजदूरो स कठिन से कठिन काम लेने के लिए उपयुक्त होने लगा।

इसके बाद जब ईश्वर और देवताओ की सृष्टि का गौरव मज- दूर सेवको के हाथ से निकलकर धनी स्वामियो के हाथ मे आ गया, तो ईश्वर और देवता भी मजदूरो की श्रेणी से निकलकर महाजनो और राजाओ की श्रेणी मे जा पहुँचे, जिनका काम अासराओ के साथ विहार करना, स्वर्ग के सुख लूटना, और दुखियो पर दया करना था। भारत मे तो मजदूर देवताओ का कही पता नही है। यहाँ के देवता तो शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करते है । कोई फरसा लिये पापियो का कल्ल आम करता फिरता है, कोई बैल पर चढा भग चढ़ाये, भभूत रमाये, ऊल जलूल बकता नजर आता है। जाहिर है कि ऐसे ऐशपसन्द
या सैलानी देवताओ की सृष्टि करने वाले मजदूर नहीं हो सकते । ये देवता तो उस वक्त बने है, जब मजदूरो पर धन का प्रभुत्व हो चुका था और जमीन पर कुछ लोग अधिकार जमाकर राजा बन बैठे थे । यहाँ तो सभी पुराण आत्मवाद और आदर्शवाद से भरे हुए है । लेकिन, मैक्सिम गोर्की ने दिखाया है कि ईसा के पूर्व जो प्रतिमावादी थे, उनमें आत्मवाद का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नही मिलता । अात्मवाद, जिसका सबसे पहले योरप में प्लेटो ने प्रचार किया, वास्तव मे मजदूर समाज की देव कथाअो का ही एक परिवर्तित रूप था और जब ईसा ने अपने धर्म का प्रचार किया, तो उनके अनुयायियो ने प्राचीन यथार्थवाद के बचे- खुचे चिन्हो को भी मिटा डाला और उसकी जगह भक्ति और प्रार्थना और रहस्यवाद की स्थापना की, जिसने आज तक जनता को सम्मोहित कर रखा है, और मानव जाति की विचार शक्ति का बहुत बडा भाग मुक्ति और पुनर्जन्म और विधि के मामलो मे पड़ा हुआ है, जिससे न व्यक्ति का कोई उपकार होता है,न समाज का ।