साहित्य का उद्देश्य/19
प्रत्येक समाज में धर्म और आचरण की रक्षा जितनी ग्राम्य-साहित्य और ग्राम्य गीतों द्वारा होती है, उतनी कदाचित् और किसी साधन से नहीं होती। हमारी पुरानी कहावतें और लोकोक्तियाँ आज भी हममें से ६६ फीसदी मनुष्यों के लिए जीवन-मार्ग के दीपक के समान हैं। अपने व्यवहारों में हम उन्हीं आदर्शों से प्रकाश लेते हैं। अगर हमारे ग्राम्य-गीत, ग्राम्य-कथाएँ और लोकोक्तियाँ हमें स्वार्थ, अनुदारता और निर्ममता का उपदेश देती हैं तो उनका हमारे जीवन-व्यवहारों पर वैसा ही असर पड़ना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से जब हम अपने ग्राम्य-गीतों की परीक्षा करते हैं, तो हमें यह देखकर खेद होता है कि उनमें प्रायः वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष और प्रपंच ही की शिक्षा दी गई है। सास जहाँ आती है, वहाँ उसे पिशाचिनी के रूप में ही देखते हैं, जो बातचीत में बहू को ताने देती है, गालियाँ सुनाती है, यहाँ तक कि बहू को निस्संतानरह ने पर उसे बाझिन कहकर उसका तिरस्कार करती है। ननद का रूप तो ओर भी कठोर है। शायद ही कोई ऐसा ग्राम्य-गीत हो, जिससे ननद और भावज में प्रेम और सौहार्द का पता चलता हो। ननद को भावज से न जाने क्यों जानी दुश्मनी रहती है। वह भावज का खाना-पहनना, हँसना-बोलना कुछ नहीं देख सकती और हमेशा ओठडे खोज-खोजकर उसे जलाती रहती है। देवरानियों, जेठानियों और गोतिनो ने तो मानो उसका अनिष्ट करने के लिए कसम खा रखी है। वे उसके पुत्रवती होने पर जलती हैं, और उसे भी पुत्र जन्म का या अपनी सुदशा का
केवल इसीलिए आनन्द होता है कि इससे देवरानियो, जेठानियो और
गोतिनो का घमण्ड टूटेगा। उसका पति भी उससे प्रेम ना करता है,
मगर जब सन्तान होने मे देर होती है, तो कोसने लगता है । जो गीत
जन्म, मुण्डन विवाह सभी उत्सवो मे गाये जाते है, और प्रत्येक छोटे
बडे घर मे गाये जाते है, उनमे अक्सर समाज और घर के यही चित्र
दिखाये जाते हैं, और इसका हमारे घर और जीवन पर अप्रत्यक्ष रूप
से असर पड़ना स्वाभाविक है । जब लडकी मे बात समझने की शक्ति
आ जाती है, तभी से उसे ननद के नाम से घृणा होने लगती है । ननद
से उसे किसी तरह की सहानुभूति, सहायता या सहयोग की आशा नहीं
होती । वह मन मे ईश्वर से मनाती है कि उसका साबिका किसी ननद
से न पड़े। ससुराल जाते समय उसे सबसे बड़ी चिन्ता यही होती है कि
वहाँ दुष्टा ननद के दर्शन होगे, जो उसके लिए छुरी तेज किये बैठी है।
जब मन मे ऐसी भावनाएँ भरी हुई है, तो ननद की ओर से कोई छोटी-
सी शिकायत हो जाने पर भी भावज उसे अपनी बैरिन समझ लेती है
और दोनो मे वह जलन शुरू हो जाती है, जो कभी शान्त नहीं होती।
अाज हमारे घरो मे ऐसी बहुत कम मिसाले मिलेगी, जहाँ ननद भावज
मे प्रेम हो । सास और बहू मे जो मन मुटाव प्रायः देखने में आता है,
उसका सूत्र भी इन्हीं गीतो मे मिलता है, और यह भाव उस वक्त दिल
मे जम जाते हैं, जब हृदय कोमल और ग्रहणशील होता है और इन
पत्थर की लकीरों को मिटाना कठिन होता है । इस तरह के गीत एक
तरह से दिलो मे कटुता और जलन की बारूद जमा कर देते है, जो
केवल एक चिनगारी के पड़ जाने से भड़क उठती है । युवती
बधू को ससुराल मे चारो तरफ दुश्मन ही दुश्मन नजर आते
हैं, जो मानो अपने अपने हथियार तेज किये उस पर घात लगाये
बैठे हैं। फिर क्यो न हमारे घरो मे अशान्ति और कलह हो । बहू
सुख-नींद सोई हुई है । सास और ननद दोनो तड़प तड़पकर
बोलती हैं-बहू तुझे क्या गुमान हो गया है, जो सुख- नीद सो
रही है। भौजी हमेशा 'बोलइ विष बोल करेजवा मे साल' यानी
ऐसे तीखे बचन बोलती है जो हृदय मे शूल पैदा कर देते हैं।
'ननदिया' हमेशा 'विष बोले । एक गीत मे सीता और उसकी ननद
पानी भरने के लिए जाती है। ननद भावज से कहती है-रावन की
तस्वीर खीचकर दिखा दे । भावज कहती है-राम सुन पायेगे, तो मेरे
प्राण ही ले लेगे। ननद कसम खाती है कि वह भैया से यह बात न कहेगी।
भावज चकमे मे आ जाती है और रावन की तस्वीर खींचती है। चित्र
आधा ही बन पाया है कि राम आ जाते हैं । सीता चित्र को अचल से
छिपा लेती है । इस पर ननद अपने बचन का जरा भी लिहाज नही करती
और भाई से कह देती है कि यह तो 'रवना उरे हैं।' जो रावन तुम्हारा
बैरी है, उसी की यहा तस्वीर बनाई जाती है । ऐसी औरत क्या घर मे
रखने योग्य है । राम तरह-तरह के हीले करते हैं; पर ननद राम के पीछे
पड़ जाती है । आखिर हार कर राम सीता को घर से निकाल देते है।
ननद का ऐसा अभिनय देखकर किस भावज को उससे घृणा न हो
जायगी।
मगर इसके साथ ही ग्राम्य गीतो में स्त्री-पुरुषों के प्रेम, सास-ससुर के आदर, पति पत्नी के ब्रत और त्याग के भी ऐसे मनोहर चित्रण मिलते हैं कि चित्त मुग्भ हो जाता है। अगर कोई ऐसी युक्ति होती, जिससे विष और सुधा को अलग-अलग किया जा सकता और हम विष को अग्नि की भेट करके सुधा का पान करते तो समाज का कितना कल्याण होता।
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