साहित्य का उद्देश्य/21

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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रोमें रोलाँ की कला

 

रोमे-रोलाँ फ्रांस के उन साहित्य-स्रष्टाओं में है, जिन्होंने साहित्य के प्रायः सभी अङ्गों को अपनी रचनाओं से अलंकृत किया है और उपन्यास-साहित्य में तो वह विक्टर ह्यूगो और टाल्सटाय के ही समकक्ष है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'जान क्रिस्टोफ़र' के विषय में तो हम कह सकते हैं कि एक कलाकार की आत्मा का इससे सुन्दर चित्र उपन्यास-साहित्य में नहीं है। रोमे रोलाँ आत्मा और हृदय के रहस्यों को व्यक्त करने मे सिद्धहस्त हैं। उनके यहाँ विचित्र घटनाएँ नहीं होतीं, असाधारण और आदर्श चरित्र नहीं होते। उनके उपन्यास जीवन-कथा मात्र होते हैं, जिनमें हम नायक को भिन्न पर रोज़ आने वाली परिस्थितियों में सुख और दुःख, मैत्री और द्वेष, निन्दा और प्रशंसा, त्याग और स्वार्थ के बीच से गुजरते हुए देखते हैं-उसी तरह मानो हम स्वयं उन्हीं दशाओं में गुजर रहे हों। एक ही चरित्र नई नई दशाओं में पड़कर इस तरह स्वाभाविक रूप में हमारे सामने आता है, कि हमको उसमें लेश-मात्र भी असंगति नहीं मालूम होती। इसमें सन्देह नहीं कि Interpretation की कला में उनका कोई सानी नहीं है। इस उपन्यास में दो हजार से ऊपर पृष्ठ हैं। इसमें सैकड़ों ही गौण पात्र आये हैं, पर हरेक अपना अलग व्यक्तित्व रखते हैं। लेखक उनकी मनोवृत्तियों और मनोभावों की तह में जाकर ऐसे-ऐसे चमकते रत्न निकाल लाता है, कि हम मुग्ध भी हो जाते हैं और चकित भी। आपने क्रिस्टोफर के मुख से एक जगह साहित्य के विषय में ये विचार प्रकट किये हैं[ १४३ ]
लिखता कि उससे पाठक का मनोरजन हो । उसकी कला का उद्देश्य केवल मनोरहस्य को समझाना है। जिस तरह वह स्वयं मनुष्यो को देखता है, मनुष्यो को समझाता है । वह अाशावादी है, मनुष्य के भविष्य मे उसे अटल विश्वास है। ससार की सारी विपत्तियो का मूल यह है कि मनुष्य मनुष्य को समझता नही, या समझने की चेष्टा नही करता। इसीलिए द्वेष, विरोध और वैमनस्य है। वह यथार्थवादी अवश्य है; लेकिन उसका यथार्थवाद गन्दी नालियो मे नहीं रहता । उसकी उदार आत्मा किसी वस्तु को उसके कलुषित रूप मे नही देखती । वह किसी का उपहास नही करता । किसी का मज़ाक नहीं उडाता, किसी को हेय नहीं समझता । मानव हृदय उसके लिए समझने की वस्तु है । यह बात नहीं है कि उसे अन्याय देखकर क्रोध नही अाता। उसने एक जगह लिखा है-मानव समाज की बुराइयो को दूर करने की चेष्टा प्राणीमात्र का कर्तव्य है । जिसे अन्याय को देखकर क्रोध नहीं आता, वह यही नहीं कि कन्नाकार नहीं है बल्कि वह मनुष्य भी नहीं है।

लेकिन अन्याय से सग्राम करने की उसकी नीति कुछ और है । वह मनुष्य को समझने की चेष्टा करता है, उस अन्याय भावना के उद्गम तक पहुंचना चाहता है, और इस तरह मानव-अात्मा मे प्रवाह लेकर उसकी सकीर्णतारो को दूर करके समन्वय करना ही उसकी कला है।

स्वातः सुखाय वाली मनोवृत्ति कला के विकास के लिए उत्तम समझी जाती है । हम प्रायः कहा करते है, कि अमुक व्यक्ति जो कुछ लिखता है, शोकिया लिखता है । वह अपनी क्ला पर अपनी जीविका का भार नही डालता । जिस कला पर जीविका का भार हो, वह इसलिए दूषित समझी जाती है कि कलाकार को जन-रुचि के पीछे चलना पड़ता है। मन और मस्तिष्क पर जोर डालकर कुछ लिखा तो क्या लिखा। कला तो वही है, जो स्वच्छन्द हो । रोमे रोलॉ का मत इसके विरुद्ध है । वह कहता है, जिस कला पर जीविका का भार नही, वह केवल
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शौक है, केवल व्यसन, जो मनुष्य अपनी बेकारी का समय काटने के लिए किया करता है । यह केवल मनोरजन है, दिमाग की थकन मिटाने के लिए । जीवन की मुख्य वस्तु कुछ और है; मगर सच्चे कलाकार की कला ही उसका जीवन है । इसी मे वह अपनी सम्पूर्ण श्रात्मा से मरता है, लिपटता है । अभाव की उत्तेजना के बगैर कला मे तीव्रता कहाँ से आयेगी। व्यसन खिलौने बना सकता है । मूर्तियो का निर्माण करना उसी कलाकार का काम है,जिसकी सम्पूर्ण आत्मा उसके काम मे हो ।

साकेतिकता ( Suggestiveness) कला की जान समझी जाती है और उसका सदुपयोग किया जाय, तो उससे कला अधिक मर्मग्राही हो जाती है । पाठक यह नही चाहता कि जो बाते वह खुद आसानी से कल्पना कर सकता है, वह उसे बताई जाये, लेकिन रोमे रोलॉ की कला सब कुछ स्पष्ट करती चलती है। हाँ, उसका स्पष्टीकरण इस दरजे का होता है, कि पाठक को उसमे भी विचार और बुद्धि से काम लेने का काफी अवसर मिल जाता है । वह पाठको के सामने पहेलियाँ नहीं रखना चाहता । उसकी कला का उद्देश्य मनोवृत्तियों को समझना है । जैसा उसने खुद समझा है, उसे वह पाठक के सम्मुख रख देता है और पाठक को तुरन्त यह मालूम हो जाता है, कि लेखक ने उसका समय नष्ट नहीं किया।

और बीच-बीच मे जीवन और समाज और कला और आत्मा और अनेक विषयो पर रोमे रोला जो भावनाएँ प्रकट करता है, उन पर जो प्रकाश डालता है, वह तो अद्भुत है, अनुपम है । हम उन की सूक्तियो को पढते है, तो विचारो मे डूब जाते है, अपने को भूल जाते हैं। और यह साहित्य का सबसे बड़ा आनन्द है । अगर यह सूक्तियाँ जमा की जाय, तो अच्छी खासी किताब बन सकती है । उनमे अनुभव का ऐसा गहरा रहस्य भरा हुआ है कि हमे लेखक की गहरी सूझ और विशाल अनुभवशीलता पर आश्चर्य होता है। इन सूक्तियो का उद्देश्य केवल अपना रचना-कौशल दिलाना नहीं है । वे मनोरहस्यो की
[ १४५ ]कुजियाॅ है, जो एक वाक्य मे सारा अन्धकार, सारी उलझन दूर कर देती है-

'अानन्द से भी हमारा जी भर जाता है । जब स्वार्थमय आनन्द ही जीवन का मुख्य उद्देश्य हो जाता है, तो जीवन निरुद्देश्य हो जाता है।'

'सफलता में एक ही दैवी गुण है। वह मनुष्य मे कुछ करने की शक्ति पैदा कर देती है।'

'सुशीला स्त्रियो मे भी कभी-कभी एक भावना होती है, जो उन्हें अपनी शक्ति की परीक्षा लेने और उसके आगे जाने की प्रेरणा करती है।'

'आत्मा का सब से मधुर संगीत सौजन्य है।'

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