साहित्य का उद्देश्य/23

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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क़ौमी भाषा के विषय में कुछ विचार

 

बहनों और भाइयो,

किसी कौम के जीवन और उसकी तरक्की में भाषा का कितना बड़ा हाथ है, इसे हम सब जानते हैं, और उसकी तशरीह करना आप-जैसे विद्वानों की तौहीन करना है। यह दो पैरोंवाला जीव उसी वक्त आदमी बना, जब उसने बोलना सीखा। यों तो सभी जीवधारियों की एक भाषा होती है। वह उसी भाषा में अपनी खुशी और रंज, अपना क्रोध और भय, अपनी हाँ या नहीं बतला दिया करता है। कितने ही जीव तो केवल इशारों में ही अपने दिल का हाल और स्वभाव जाहिर करते हैं। यह दर्जा आदमी ही को हासिल है कि वह अपने मन के भाव और विचार सफाई और बारीकी से बयान करे। समाज की बुनियाद भाषा है। भाषा के बगैर किसी समाज का खयाल भी नहीं किया जा सकता। किसी स्थान की जलवायु, उसके नदी और पहाड़, उसकी सर्दी और गर्मी और अन्य मौसमी हालतें सब मिल-जुलकर वहाँ के जीवों में एक विशेष आत्मा का विकास करती है, जो प्राणियों की शक्ल-सूरत, व्यवहार विचार और स्वभाव पर अपनी छाप लगा देती है और अपने को व्यक्त करने के लिए एक विशेष भाषा या बोली का निर्माण करती है। इस तरह हमारी भाषा का सीधा सम्बन्ध हमारी आत्मा से है। यों कह सकते हैं कि भाषा हमारी आत्मा का बाहरी रूप है। वह हमारी शक्ल-सूरत, हमारे रंग रूप ही की भाँति हमारी आत्मा से निकलती है। उसके एक-एक अक्षर में हमारी आत्मा का प्रकाश है। ज्यों-ज्यों हमारी आत्मा [ १७० ]
का विकास होता है, हमारी भाषा भी प्रौढ और पुष्ट होती जाती है। आदि मे ज' लोग इशारो मे बात करने थे, फिर अक्षरो मे अपने भाव प्रकट करने लगे, वही लोग फिलासफी लिखते और शायरी करते हैं, और जब जमाना बदल जाता है अर हम उस जगह से निकलकर दुनिया के दूसरे हिस्सो मे आबाद हो जाते हैं, हमारा रग-रूप भी बदल जाता है । फिर भी भापा सदियो तक हमारा साथ देती रहती है और जितने लोग हम जबान है, उनमे एक अपनापन, एक आत्मीयता, एक निकटता का भाव जगाती रहती है। मनुष्य मे मेल मिलाव के जितने साधन है, उनमे सबसे मजबूत, असर डालनेवाला रिश्ता.भाषा का है। राजनीतिक, व्यापारिक या धार्मिक नाते जल्द या देर मे मजोर पड़ सकते है और अक्सर टूट जाते है। लेकिन भाषा का रिश्ता समय की और दूसरी बिखेरनेवाली शक्तियो की परवा नही करता, और एक तरह से अमर हो जाता है।

लेकिन आदि मे मनुष्यों के जैसे छोटे छोटे समूह होते हैं, वैसी ही छोटी-छोटी भाषाएँ भी होती है। अगर गौर से देखिये, तो बीस-पचीस कोस के अन्दर ही भाषाओ मे कुछ-न-कुछ फर्क हो जाता है। कानपुर और झॉसी की सरहदे मिली हुई हैं। केवल एक नदी का अन्तर है; लेकिन नदी की उत्तर तरफ कानपुर मे जो भाषा बोली जाती है, उसमे और नदी की दक्षिण तरफ की भाषा मे साफ-साफ फर्क नजर आता है। सिर्फ प्रयाग मे कम-से-कम दस तरह की भापाएँ बोली जाती है । लेकिन जैसे- जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है, यह स्थानीय भाषाएँ किसी सूबे की भाषा मे जा मिलती हैं और सूबे की भाषा एक सार्वदेशिक भाषा का अङ्ग बन जाती है । हिन्दी ही मे ब्रजभाषा, बुन्देलखण्डी, अवधी, मैथिल, भोजपुरी आदि भिन्न-भिन्न शाखाएँ हैं, लेकिन जैसे छोटी-छोटी धाराओं के मिल जाने से एक बडा दरिया बन जाता है, जिसमें मिलकर नदियाँ अपने को खो देती है, उसी तरह ये सभी प्रान्तीय भाषाएँ हिन्दी की मात- हत हो गयी हैं और आज उत्तर भारत का एक देहाती भी हिन्दी समझता
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है और अवसर पड़ने पर बोलता है । लेकिन हमारे मुल्की फैलाव के साथ हमे एक ऐसी भाषा की जरूरत पड गयी है, जो सारे हिन्दुस्तान में समझी और बोली जाय, जिसे हम हिन्दी या गुजराती या मराठी या उर्दू न कहकर हिन्दुस्तानी भाषा कह सके, जिसे हिन्दुस्तान का पढा बेपढा आदमी उसी तरह समझे या बोले, जैसे हर एक अग्रेज या जर्मन या फ्रासीसी फच या जर्मन या अंग्रेजी भाषा बोलता और समझता है । हम सूबे की भाषाप्रो के विरोधी नहीं है। आप उनमे जितनी उन्नति कर सके, करें। लेकिन एक कौमी भाषा का मरकजी सहारा लिये बगैर आपके राष्ट्र की जड कभी मजबूत नहीं हो मकतीं। हमे रञ्ज के साथ कहना पड़ता है कि अब तक हमने कौमी भाषा की ओर जितना ध्यान देना चाहिये, उतना नही दिया है। हमारे पूज्य नेता सब के सब ऐसी जबान की जरूरत को मानते है लेकिन अभी तक उनका ध्यान खास तौर पर इस विषय की ओर नही आया । हम ऐसा राष्ट्र बनाने का स्वप्न देख रहे है, जिसकी बुनियाद इस वक्त सिर्फ अँग्रजी हुकूमत है । इस बालू की बुनियाद पर हमारी कोमियत का मीनार खडा किया जा रहा है। और अगर हमने कौमियत की सबसे बड़ी शर्त, यानी कौमी जबान की तरफ से लापरवाही की, तो इसका अर्थ यह होगा कि आपकी कौम को जिन्दा रखने के लिए अंग्रेजी की मरकजी हुकूमत का कायम रहना लाजिम होगा वरना कोई मिलानेवाली ताकत न होने के कारण हम सब बिखर जायेंगे और प्रान्तीयता जोर पकडकर राष्ट्र का गला घोट देगी, और जिस बिखरी हुई दशा मे हम अंग्रेजो के आने के पहले थे, उसी मे फिर लौट जायेंगे।

इस लापरवाही का खास सबब है-अंग्रेजी जबान का बढता हुआ प्रचार और हममे आत्म-सम्मान की वह कमी, जो गुलामी की शर्म को नहीं महसूस करती । यह दुरुस्त है कि आज भारत की दफ्तरी जबान अंग्रेजी है और भारत की जनता पर शासन करने मे अग्रेजो का हाथ बटाने के लिए हमारा अँगरेजी जानना जरूरी है । इल्म और हुनर और
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खयालात मे जो इनकलाब होते रहते हैं, उनसे वाकिफ होने के लिए भी अँगरेजी जबान सीखना लाजिमी हो गया है। जाती शोहरत और तरक्की की सारी कुजियाँ अँगरेजी के हाथ मे है और कोई भी उस खजाने को नाचीज नही समझ सकता। दुनिया की तहजीबी या सास्कृतिक बिरादरी मे मिलने के लिए अगरेजी ही हमारे लिए एक दरवाजा है और उसकी तरफ से हम अॉख नही बन्द कर सकते । लेकिन हम दौलत और अख्तियार की दौड मे, और बेतहाशा दौड मे कौमी भाषा की जरूरत बिलकुल भूल गये और उस जरूरत की याद कौन दिलाता ? आपस मे तो अँगरेजी का व्यवहार था ही, जनता से ज्यादा सरोकार था ही नही, और अपनी प्रान्तीय भाषा से सारी जरूरते पूरी हो जाती थीं। कौमी भाषा का स्थान अँगरेजी ने ले लिया और उसी स्थान पर विराजमान है । अँगरेजी राजनीति का, व्यापार का, साम्राज्यवाद का, हमारे ऊपर जैसा आतङ्क है, उससे कहीं ज्यादा अँग- रेजी भाषा का है । अंग्रेजी राजनीति से, व्यापार से, साम्राज्यवाद से तो आप बगावत करते है, लेकिन अँग्रेजी भाषा को आप गुलामी के तौक की तरह गर्दन मे डाले हुए हैं। अंग्रेजी राज्य की जगह आप स्वराज्य चाहते है । उनके व्यापार की जगह अपना व्यापार चाहते हैं। लेकिन अंग्रेजी भाषा का सिक्का हमारे दिलो पर बैठ गया है। उसके बगैर हमारा पढ़ा-लिखा समाज अनाथ हो जायगा । पुराने समय मे आर्य और अनार्य का भेद था, आज अंग्रेजीदा और गैर-अंग्रेजीदाँ का भेद है । अंग्रेजीदों ार्य है । उसके हाथ मे, अपने स्वामियो की कृपा-दृष्टि की बदौलत, कुछ अखतियार है, रोब है, सम्मान है। गैर- अँग्रेजीदा अनाय्य्र है और उसका काम केवल आर्यों की सेवा टहल करना है और उनके भोग-विलास और भोजन के लिए सामग्री जुटाना है। यह आर्य्यवाद बड़ी तेजी से बढ़ रहा है, दिन-दूना रात चौगुना । अगर सौ-दो-सौ साल मे भी वह सारे भारत मे फैल जाता, तो हम कहते बला से, विदेशी जबान है, हमारा काम तो चलता है; लेकिन इधर तो
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हजार-दो हजार साल मे भी उसके जनता मे फैलने का इमकान नहीं । दूसरे वह पढे-लिखो को जनता से अलग किये चली जा रही है । यहाँ तक कि इनमे एक दीवार खिच गयी है । साम्राज्यवादी जाति की भाषा मे कुछ तो उसके घमण्ड और दबदबे का असर होना ही चाहिए । हम अंग्रेजी पढकर अगर अपने को महकूम जाति का अग भूलकर हाकिम जाति का अग समझने लगते है, कुछ वही गरूर, कुछ वही अहम्मन्यता, 'हम चुनीं दीगरे नेस्त' वाला भाव, बहुतो मे कसदन, और थोडे आदमियो मे बेजाने पैदा हो जाता है, तो कोई ताज्जुब नहीं । हिन्दुस्तानी साहबो की अपनी बिरादरी हो गयी है, उनका रहन-सहन, चाल-ढाल, पहनावा, बर्ताव सब साधारण जनता से अलग है, साफ मालूम होता है कि यह कोई नयी उपज है। जो हमारा अंग्रेजी साहब करता है, वही हमारा हिन्दुस्तानी साहब करता है, करने पर मजबूर है। अँग्रेजियत ने उसे हिप्नोटाइज कर दिया है, उसमे बेहद उदारता श्रा गयी है, छूतछात से सोलहो अाना नफरत हो गयी है, वह अंग्रेजी साहब की मेज का जूठन भी खा लेगा और उसे गुरु का प्रसाद समझ लेगा, लेकिन जनता उसकी उदारता मे स्थान नहीं पा सकती, उसे तो वह काला आदमी समझता है । हॉ, जब कभी अंग्रेजी साहबो से उसे ठोकर मिलती है, तो वह दौड़ा हुआ जनता के पास फरियाद करने जाता है, उसी जनता के पास, जिसे वह काला आदमी और अपना भोग्य सम- झता है। अगर अँग्रेजी स्वामी उसे नौकरियों देता जाय, उसे, उसके लडको, पोतो, सबको, तो उसे अपने हिन्दुस्तानी या गुलाम होने का कभी ख्याल भी न आयगा । मुश्किल तो यही है कि वहाँ भी गुञ्जायश नहीं है । ठोकरो पर-ठोकरो मिलती है, तब यह क्लास देश-भक्त बन जाता है और जनता का वकील और नेता बनकर उसका जोर लेकर अंग्रेज साहब का मुकाबिला करना चाहता है । तब उसे ऐसी भाषा की कमी महसूस होती है, जिसके द्वारा वह जनता तक पहुँच सके। कॉग्रेस को जो थोड़ा-बहुत यश मिला, वह जनता को उसी भाषा मे अपील करने
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से मिला । हिन्दुस्तान मे इस वक्त करोब चौबीस-पचीस करोड़ आदमी हिन्दुस्तानी भाषा समझ सकते है । यह क्या दुःख को बात नहीं कि वे, जो भारतीय जनता की वकालत के दावेदार हैं, वह भाषा न बोल सकें और न समझ सके, जो पचीस कराड़ की भाषा है, और जो थाड़ी सी कोशिश से सारे भारतवर्ष की भाषा बन सकती है ? लेकिन अंग्रेजी के चुने हुए शब्दो और मुहावरो बार मॅजी हुई भाषा मे अपनी निपुणता और कुशलता दिखाने का रोग इतना बढा हुआ है कि हमारी कौमी सभाओं मे सारी कार्रवाई अँग्रेजी मे होती है, अंग्रेजी मे भाषण दिये जाते है, प्रस्ताव पेश किये जाते है, सारी लिखा-पढी अंग्रेजी मे होती है, उस सस्था मे भी, जो अपने को जनता की सस्था कहती है। यहाँ तक कि सोशलिस्ट भोर कम्यूनिस्ट भी, जो जनता के खासुलखास झंडे-बरदार है, सभी कार्रवाई अंग्रेजी मे करते हैं। जब हमारी कौमी सस्थाओ की यह हालत है, तो हम सरकारी महकमो और युनिवर्सिटियो से क्या शिकायत करे ? मगर सौ वर्ष तक अंग्रेजी पढने-लिखने और बोलने के बाद भी एक हिन्दुस्तानी भो ऐसा नहीं निकला, जिसकी रचना का अंग्रेजी मे आदर हो। हम अंग्रेजी भाषा की खैरात खाने के इतने आदी हो गये है कि अब हमें हाथ पॉव हिलाते कष्ट होता है। हमारी मनावृत्ति कुछ वैसी हो हो गयी है, जैसी अक्सर भिखमगो की होती है जो इतने अारामतलब हो जाते हैं कि मजदूरी मिलने पर भी नहीं करते । यह ठीक है कि कुदरत अपना काम कर रही है और जनता कोमी भाषा बनाने में लगी हुई है। उसका अंग्रेजी न जानना, कोम की भाषा के लिए अनुकूल जलवायु दे रहा है । इधर सिनेमा के प्रचार ने भी इस समस्या को हल करना शुरू कर दिया है और ज्यादातर फिल्मे हिन्दुस्तानी भाषा मे ही निकल रही है। सभी ऐसी भाषा मे बोलना चाहते है, जिसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी समझ सके, लेकिन जब जनता अपने रहनु मात्रो को अग्रेजी मे बोलते श्रोर लिखते देखती है, तो कोमी भाषा
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से उसे जा हमदर्दी है, उसमे जोर का धक्का लगता है, उसे कुछ ऐसा खयाल हाने लगता है कि कामी भाषा कोई जरूरी चीज नहीं है। जब उसक नेता, जिनके कदमो के निशान पर वह चलता है, और जो जनता की रुचि बनाते है, कामा भाषा को हकीर समझे-सिवाय इसके कि कभी-कभी श्रीमुख से उसकी तारीफ कर दिया करे-तो जनता से यह उम्मीद करना कि वह कोमी भाषा के मुर्दे को पूजती जायगी, उसे बेवकूफ समझना है । और जनता को आप जो चाहे इल्जाम दे ले, वह बेवकफ नहीं है। अापने समझदारी का जो तराजू अपने दिल मे बना रखा है, उस पर वह चाहे पूरी न उतरे, लेकिन हम दावे से कह सकते है कि कितनी ही बातो मे वह आपसे और हमसे कही ज्यादा समझदार है । कोमी भाषा के प्रचार का एक बड़ा जरिया हमार अखबार है , लेकिन अखबारो की सारी शक्ति नेताअो के भाषणो, व्याख्यानो ओर बयानो के अनुवाद करने मे ही खर्च हो जाती है,और चूँ कि शिक्षित समाज ऐसे अखबार खरीदने पार पढ़ने मे अपनी हतक समझता है, इसलिए ऐसे पत्रो का प्रचार बढने नही पाता और आमदनी कम होने के मबब वे पत्र को मनोरंजक नही बना सकते । वाइसराय या गवर्नर अंग्रेजी मे बोले, हमे कोई एतराज नही । लेकिन अपने ही भाइयो के खयालात तक पहुँचने के लिए हमे अंग्रेजी से अनुवाद करना पड़े, यह हालत नारत जैसे गुलाम देश के सिवा और कही नजर नहीं आ सकता । और जबान की गुलामी ही असली गुलाम है । ऐसे भी देश ससार मे है, जिन्होने हुक्मरो जाति की भाषा को अपना लिया। लेकिन उन जातियो के पास न अपनी तहजीब या सभ्यता थी, और न अपना कोई इतिहास था, न अपनी कोई भापा थी। वे उन बच्चा की तरह थे, जो थोडे ही दिनो मे अपनी मातृभाषा भूल जाते हैं और नयी भाषा मे बलने लगते है। क्या हमारा शिक्षित भारत वैसा ही बालक है ? ऐसा मानने की इच्छा नहीं होती, हालॉ कि लक्षण सब वही है।।

सवाल यह होता है कि जिस क़ौमा भाषा पर इतना जोर दिया
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जा रहा है,उसका रूप क्या है ?हमे खेद है कि अभी तक हम उसकी कोई खास सूरत नहीं बना सके है, इसलिए कि जो लोग उसका रूप बना सकते थे, वे अंग्रेजी के पुजारी थे और है; मगर उसकी कसौटी यही है कि उसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी समझ सके । हमारी कोई सूबेवाली भाषा इस कसौटी पर पूरी नहीं उतरती। सिर्फ हिन्दुस्तानी करती है; क्योकि मेरे ख्याल मे हिन्दी और उर्दू दोनो एक जबान है। क्रिया और कर्ता, फेल और फाइल, जब एक हैं, तो उनके एक होने मे कोई सन्देह नहीं हो सकता । उर्दू वह हिन्दुस्तानी जबान है, जिसमे फारसी अरबी के लफ्ज ज्यादा हो, उसी तरह हिन्दी वह हिन्दुस्तानी है, जिसमे संस्कृत के शब्द ज्यादा हों । लेकिन जिस तरह अंग्रेजी मे चाहे लैटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या एंग्लोसेक्सन, दोनो ही अंग्रेजी है, उसी भॉति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओ के शब्दो के मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती । साधारण बातचीत मे तो हम हिन्दुस्तानी का व्यवहार करते ही है। थोड़ी-सी कोशिश से हम इसका व्यवहार उन सभी कामो मे कर सकते है, जिनसे जनता का सम्बन्ध है । मै यहाँ एक उर्दू पत्र से दो-एक उदाहरण देकर अपना मतलब साफ कर देना चाहता हूँ-

'एक जमाना था, जब देहातो मे चरखा और चक्की के बगैर कोई घर खाली न था । चक्की चूल्हे से छुट्टी मिली, तो चरखे पर सूत कात लिया । औरते चक्की पीसती थीं, इससे उनकी तन्दुरुस्ती बहुत अच्छी रहती थी, उनके बच्चे मजबूत और जफाकश होते थे । मगर अब तो अंग्रेजी तहजीब और मुत्राशरत ने सिर्फ शहरो में ही नहीं देहातो मे भी काया पलट दी है | हाथ की चक्की के बजाय अब मशीन का पिसा हुआ आटा इस्तेमाल किया जाता है । गॉवो मे चक्की न रही, तो चक्की पर गीत कौन गाये ? जो बहुत गरीब है, वे अब भी घर की चक्की का आटा इस्तेमाल करते है। चक्की पीसने का वक्त अमूमन रात का तीसरा पहर होता है । सरे शाम ही से पीसने के लिए
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अनाज रख लिया जात हे और पिलले पहर ले उठकर औरते चक्की पीसने बैठ जाती है।'

इस पेराग्राफ को मे हेन्दुरानी का बहुत अच्छा नमूना समझता हूँ, जिसे सनमाने में किसी भी हिन्दी समझनेवाले अादमी वो जरा भी मुस्किल न पडेगी। अब में उर्दू का दूसरा पेरा देता हूँ-

'उसकी वफा का जजया सिर्फ जिन्दा इस्तियो के लिए महदूद न था । वह एसः परवाना था, कि न सिर्फ जलतो हुई शमा पर निसार होती थी, बल्कि बुझी हुई शमा पर भी खुद को कुरबान कर देता थी । अगर मोत का जालिम हाथ उसके रफ़क हयात को छीन लेता था तो वह बाकी ज़िन्दगी उसके नाम और उसकी याद मे बसर कर देती थी। एक की कहलाने और एक की हो जाने के बाद फिर दूसरे किसी शख्स का ख़याल भी उसके वफापरस्त दिल मे भूलकर भी न उठता था।'

अगर पहले जुमले को हम इस तरह लिखे -'वह सिर्फ जिन्दा आदमियो क साथ वफा न करती थी' और 'वफापरस्त' की जगह 'प्रेमी' 'रफीक हयात' की जगह 'जीवन साथी' का व्यवहार करें, तो वह साफ हिन्दुस्तानी बन जायगी और फिर उसके समझने में किसी को दिक्कत न होगी । अब मै एक हिन्दी-पत्र से एक पैरा नकल करता हूँ-

'मशीनो के प्रयोग से आदमियो का बेकार होना और नये-नये अाविष्कारो से बेकारी का बढ़ना, फिर बाजार की कमी, रही-सही कमी को और भी पूरा कर देती है । बेकारी की समस्या को अधिक भयकर रूप देने के लिए यही काफी था; लेकिन इसके ऊपर संसार में हर दसवें साल की जन-गणना देखने से मालूम हो रहा है कि जन-सख्या बढ़ती ही जा रही है । पूँजीवाद कुछ लोगो को धनी बनाकर उसके लिए सुख और विलास की नयी-नयी सामग्री जुटा सकता है।'

यह हिन्दी के एक मशहूर और माने हुए विद्वान् की शैली का नमूना है, इसमे'प्रयोगआविष्कारसमस्या' यह तीन शब्द ऐसे है, जो उर्दूदाँ लोगो को अपरिचित लगेंगे । बाकी सभी भाषाओ के बोलनेवालो की
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समझ में आ सकते हैं। इसमे साबित हो रहा है कि हिन्दी या उर्दू मे कितने थोडे रद्दाबदल से उमे हम कौमी भाषा बना सकते हैं । हमे सिर्फ अपने शब्दो का कोष बढाना पड़ेगा और वह भी ज्यादा नहीं। एक दूसरे लेख की शैली का नमूना और लीजिए-

'अपने साथ रहनेवाले नागरिको के साथ हमारा जो रोज-राज का सम्बन्ध होता है, उसमे क्या प्राप समझते है कि वस्तुतः न्यायकर्ता, जेल क अधिकारी और पुलिस के कारण ही समाज-विरोधी कार्य बढने नही पाते ? न्यायकर्ता तो सदा खूख्वार बना रहता है, क्योकि वह कानून का पागल है । अभियोग लगानेवाला, पुलिस को खबर देनेवाला, पुलिस का गुतचर, तथा इसी श्रेणी के पार लोग जो अदालतो के इर्द- गिर्द मॅड़गया करते है और किसी प्रकार अपना पेट पालते हैं, क्या यह लोग व्यापक रूप से समाज मे दुर्नीति का प्रचार नहीं करते है मामलो- मुकदमो की रिपोर्ट पढिये, पर्दे के अन्दर नजर डालिये, अपनी विश्ले- षक बुद्धि को अदालतो के बाहरी भाग तक ही परिमित न रखकर भीतर ले जाइये, तब आपको जो कुछ मालूम होगा, उससे अापका सिर बिल्कुल भन्ना उठेगा।'

यहाँ अगर हम 'समाज विरोधी' को जगह 'समाज को नुकसान पहुँ- चानेवाले' 'अभियोग' की जगह 'जुम', 'गुप्तचर' की जगह 'मुखबिर', 'श्रेणी' की जगह 'दर्जा', 'दुर्नीति' की जगह 'बुराई','विश्लेषक बुद्धि' की जगह 'परख', 'परिमित' की जगह 'बन्द' लिखे, तो वह सरल और सुबोध हो जाती है और हम उसे हिन्दुस्तानी कह सकते है।

इन उदाहरणो या मिसालो से जाहिर है कि हिन्दी-कोष मे उर्दू के और उर्दू-कोष मे हिन्दी के शब्द बढाने से काम चल सकता है। यह भी निवेदन कर देना चाहता हूँ कि थोड़े दिन पहले फारसी और उर्दू के दरबारी भाषा होने के सबब से फारसी के शब्द जितना रिवाज या गये हैं उतना संस्कृत के शब्द नहीं । सस्कृत शब्दों के उच्चारण मे जो कठिनाई होती है, इसको हिन्दी के विद्वानो ने पहले ही देख लिया
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और उन्होने हजारो सस्कृत शब्दों को इस तरह बदल दिया कि वह आसानी से बोले जा सके । ब्रजभाषा और अवधी मे इसकी बहुत-सी मिसाले मिलती है, जिन्हे यहाँ लाकर मै आपका समय नही खराब करना चाहता । इसलिए कोमी भाषा मे उनका वही रूप रखना पडेगा, और सस्कृत शब्दो की जगह, जिन्हें सर्व-साधारण नही समझते ऐसे फारसी शब्द रखने पड़ेगे, जो विदेशी होकर भी इतने अाम हो गये है कि उनको समझने मे जनता को कोई दिक्कत नही होती । 'अभियोग' का अर्थ वही समझ सकता है, जिसने सस्कृत पढ़ा हो । जुर्म का मतलब बे-पढे भी समझत है । 'गुप्तचर' की जगह 'मुखबिर','दुर्नीति', की जगह 'बुराई' ज्यादा सरल शब्द है । शुद्ध हिन्दी के भक्तो को मेरे इस बयान से मत- भेद हो सकता है । लेकिन अगर हम ऐसी कौमी जबान चाहते है, जिसे ज्यादा से ज्यादा आदमी समझ सके, ता हमारे लिए दूसरा रास्ता नहीं है, और यह कौन नही चाहता कि उसकी बात ज्यादा-से-ज्यादा लोग समझे, ज्यादा से ज्यादा आदमियो के साथ उसका आत्मिक सम्बन्ध हो । हिन्दी मे एक फरीक ऐसा है, जो यह कहता है कि चूंकि हिन्दुस्तान की सभी सूबेवालो भाषाएँ सस्कृत से निकलो है और उनमे संस्कृत के शब्द अधिक है इसलिए हिन्दी मे हम अधिक-से-अधिक सस्कृत के शब्द लाने चाहिये; ताकि अन्य प्रान्ती के लोग उसे आसानो से समझे। उर्दू की मिलावट करने से हिन्दी का कोई फायदा नहीं। उन मित्रो को मै यही जवाब देना चाहता हूँ कि ऐसा करने से दूसरे मूबो क लोग चाहे आपका भाषा समझ ले, लेकिन खुद हिन्दी बोलनेवाले न समझेगे। क्योकि, साधारण हिन्दी बोलनेवाला आदमी शुद्ध सस्कृत शब्दों का जितना व्यवहार करता है, उससे कही ज्यादा फारसी शब्दो का। हम इस सत्य की पार से ऑखे नहीं बन्द कर सकते, और फिर इसकी जरूरत ही क्या है, कि हम भाषा को पवित्रता की धुन मे तोड-मरोड डाले । यह जरूर सच है कि बोलने की भाषा और लिखने की भाषा मे कुछ न-कुछ अन्तर हाता है, लेकिन लिखित भाषा सदैव बोल-चाल की भाषा से
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मिलते-जुलते रहने की कोशिश किया करती है ।लिखित-भाषा की खूबी यही है कि वह बाल चाल की भाषा से मिले। इस आदर्श से वह जितनी ही दूर जाती है, उतना ही अस्वाभाविक हो जाती है । बोल-चाल की भाषा भी अवसर भार परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। विद्वानों के समाज मे जो भाषा बोली जाती है, वह बाजार की भाषा से अलग होती है । शिष्ट भाषा की कुछ-न-कुछ मर्यादा तो होनी ही चाहिए, लेकिन इतनी नही कि उससे भाषा के प्रचार मे बाधा पडे । फारसी शब्दा में शीन काफ की बड़ी कैद है, लेकिन कौमी भाषा मे यह कैद ढीली करनी पड़ेगी। पञ्जाब के बडे-बडे विद्वान भी 'क' की जगह 'क' ही का व्यवहार करते है। मेरे खयाल मे तो भाषा के लिए सबसे महत्व की चीज है कि उसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी, चाहे वे किसी प्रान्त के रहने वाले हो, समझे, बोले, और लिखे । ऐसी भाषा न पडिताऊ होगी और न मौलवियो की। उसका स्थान इन दोनो के बीच मे है । यह जाहिर है कि अभी इस तरह की भाषा मे इबारत की चुस्ती और शब्दो के विन्यास की बहुत थोडी गुञ्जायश है । और जिसे हिन्दी या उर्दू पर अधिकार है, उसके लिए चुस्त और सजीली भाषा लिखने कालालच बड़ा जोरदार होता है । लेखक केवल अपने मन का भाव नहीं प्रकट करना चाहता; बल्कि उसे बना-सँवारकर रखना चाहता है। बल्कि यो कहना चाहिये कि वह लिखता है रसिको के लिए, साधारण जनता के लिए नहीं। उसी तरह, जैसे कलावत राग-रागिनियाँगाते समय केवल संगीत के आचार्यों हो से दाद चाहता है, सुननेवालो मे कितने अनाडी बैठे है, इसकी उसे कुछ भी परवाह नहीं होती । अगर हमे राष्ट्र-भाषा का प्रचार करना है, तो हमे इस लालच को दबाना पडेगा । हमे इबारत की चुस्ती पर नही, अपनी भाषा को सलीस बनाने पर खास तौर से ध्यान रखना होगा । इस वक्त ऐसी भाषा कानां और ऑखों को खटकेगी जरूर, कहीं गगा-मदार का जोड नजर आयेगा, कही एक उर्दू शब्द हिन्दी के बीच मे इस तरह डटा हुआ मालूम होगा, जैसे कौओं के बीच मे हंस आ
[ १८१ ]गया हो । कही उर्दू के बीच मे हिन्दी शब्द हलुए मे नमक के डले की तरह मजा बिगाड देगे । पडितजी भी खिलखिलयेगे और मौलवी साहब भी नाक सिकोडेगे और चारो तरफ से शोर मचेगा कि हमारी भाषा का गला रेता जा रहा है, कुन्द छुरी से उसे ज़िबह किया जा रहा है । उर्दू को मिटाने के लिये यह साजिश की गयी है; हिन्दी को डुबाने के लिए यह माया रची गयी है ! लेकिन हमे इन बातों को कलेजा मजबूत करके सहना पडेगा । राष्ट्र-भाषा केवल रईसो और अमीरो की भाषा नही हो सकती। उसे किसानो और मजदूरों की भी बनना पडेगा। जैसे रईसो और अमीरो ही से राष्ट्र नहीं बनता, उसी तरह उनकी गोद मे पली हुई भाषा राष्ट्र की भाषा नहीं हो सकती। यह मानते हुए कि सभाओ मे बैठकर हम राष्ट्र-भाषा की तामीर नही कर सकते, राष्ट्र-भाषा तो बाजारो मे और गलियों मे बनती है। लेकिन सभाओ मे बैठकर हम उसकी चाल को तेज जरूर कर सकते हैं। इधर तो हम राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, उधर अपनी-अपनी जबानो के दरवाजो पर सगीने लिये खडे रहते है कि कोई उसकी तरफ अॉख न उठा सके। हिन्दी मे हम उर्दू शब्दों को विला तकल्लुफ स्थान देते हैं, लेकिन उर्दू के लेखक सस्कृत के मामूली शब्दो को भी अन्दर नहीं आने देते । वह चुन-चुनकर हिन्दी की जगह फारसी और अरबी के शब्दो का इस्तेमाल करते है। जरा जरा से मुजक्कर और मुअन्नस के भेद पर तूफान मच जाया करता है। उर्दू जबान सिरात का पुल बनकर रह गयी है, जिससे जरा इधर-उधर हुए और जहन्नुम मे पहुँचे । जहाँ राष्ट्र-भाषा के प्रचार करने का प्रयत्न हो रहा है, वहाँ सब से बडो दिवकत इसी लिङ्ग-भेद के कारण पैदा हो रही है । हमे उर्दू के मौलवियो और हिन्दी के परिडतो से उम्मीद नहीं कि वे इन फन्दों को कुछ नर्म करेगे । यह काम हिन्दुस्तानी भाषा का होगा कि वह जहाँ तक हो सके, निरर्थक कैदो से आजाद हा । अॉख क्यो स्त्री लिङ्ग है और कान क्यो पुल्लिङ्ग है, इसका कोई सन्तोष के लायक जवाब नहीं दिया जा सकता। [ १८३ ]
सकते है। जब तक मुल्की दिमाग अँग्रेजो की गुलामी मे खुश होता रहेगा, उस वक्त तक भारत सच्चे मानी मे गष्ट्र न बन सकेगा। यह भी जाहिर है कि एक प्रान्त या एक भाषा के बोलनेवाले कौमी भाषा नहीं बना सकते । कौमी भाषा तो तभी बनेगी, जब सभी प्रान्तो के दिमागदार लोग उसमे सहयोग देंगे । सम्भव है कि दस-पॉच सात भाषा का कोई रूप स्थिर न हो, कोई पूरब जाय कोई पश्चिम, लेकिन कुछ दिनों के बाद तूफान शान्त हो जायगा और जहाँ केवल धूल और अन्धकार और गुबार था, वहॉ हरा-भरा साफ़ सुथरा मैदान निकल आयेगा । जिनके कलम मे मुदो को जिलाने और सोतो को जगाने की ताकत है, वे सब वहाँ विचरते हुए नजर आयेगे । तब हमे टैगोर, मुशी, देसाई और जोशी की कृतियो से आनन्द और लाभ उठाने के लिए मराठी और बँगला या गुजराती न सीखनी पडेगी । कौमी भापा के साथ कौमी साहित्य का उदय होगा और हिन्दुस्तानी भी दूसरी सम्पन्न और सरसब्ज भापात्रो की मजलिस मे बैठेगी । हमारा साहित्य प्रान्तीय न होकर कौमी हो जायगा। इस अंग्रेजी प्रभुत्व की यह बरकत है कि आज एडगर वैलेस, गाई बूथबी जैसे लेखको से हम जितने मानूस है, उसका शताश भी अपने शरत और मुन्शी और 'प्रसाद' की रचनामो से नही । डॉक्टर टैगोर भी अंग्रेजी मे न लिखते, तो शायद बगाली दायरे के बाहर बहुत कम आदमी उनसे वाकिफ होते । मगर कितने खेद की बात है कि महात्मा गाधी के सिवा किसी भी दिमाग ने कौमी भाषा की जरूरत नहीं समझी और उस पर जोर नहीं दिया। यह काम कौमी सभाओ का है कि वह कौमी भाषा के प्रचार के लिए इनाम और तमगे दे, उसके लिए विद्यालय खोले, पत्र निकाले और जनता मे प्रोपेगैंडा करे । राष्ट्र के रूप मे संघटित हुए बगैर हमारा दुनिया मे जिन्दा रहना मुश्किल है । यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता कि इस मंजिल पर पहुँचने की शाही सड़क कौन-सी है। मगर दूसरी कौमो के साथ कौमी भाषा को देखकर सिद्ध होता है कि कौमियत के लिए लाजिमी चीजो मे भाषा भी है और जिसे एक राष्ट्र बनाना है, उसे
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एक कौमी भाषा भी बनानी पडेगी। इस हकीकत को हम मानते हैं; लेकिन सिर्फ ख्याल मे । उस पर अमल करने का हममे साहस नहीं है । यह काम इतना बड़ा और माके का है कि इसके लिए एक आॅल इण्डिया सस्था का होना जरूरी है, जो इसके महत्व को समझती हुई इसके प्रचार के उपाय सोचे और करे ।

भाषा और लिपि का सम्बन्ध इतना करीबी है कि आप एक को लेकर दूसरे को छोड़ नहीं सकते । संस्कृत से निकली हुई जितनी भाषाएँ है, उनको एक लिपि मे लिखने मे कोई बाधा नही है, थोड़ा-सा प्रातीय सकोच चाहे हो । पहले भी स्व० बाबू शारदाचरण मित्र ने एक लिपि- विस्तार-परिषद् बनाई थी और कुछ दिनो तक एक पत्र निकालकर वह आन्दोलन चलाते रहे, लेकिन उससे कोई खास फायदा न हुआ। केवल लिपि एक हो जाने से भाषाओ का अन्तर कम नहीं होता और हिंदी लिपि मे मराठी समझना उतना ही मुश्किल है, जितना मराठी लिपि मे । प्रान्तीय भाषाओ को हम प्रान्तीय लिपियो मे लिखते जाय, कोई एतराज नही लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा के लिए एक लिपि रखना ही सुविधा की बात है, इसलिए नहीं कि हमे हिन्दी लिपि से खास मोह है बल्कि इसलिए कि हिन्दी लिपि का प्रचार बहुत ज्यादा है और उसके सीखने मे भी किसी को दिक्कत नहीं हो सकती। लेकिन उर्द लिपि हिंदी से बिलकुल जुदा है और जो लोग उर्दू लिपि के आदी है, उन्हे हिंदी लिपि का व्यवहार करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। अगर जबान एक हो जाय, तो लिपि का भेद कोई महत्व नहीं रखता । अगर उर्दूदा आदमी को मातृम हो जाय कि केवल हिंदी अक्षर सीखकर वह डा० टैगोर या महात्मा गाधी के विचारो को पढ़ सकता है, तो वह हिंदी सीख लेगा । यू• पी० के प्राइमरी स्कूलो मे तो दोनो लिपियों की शिक्षा दी जाती है । हर एक बालक उर्दू और हिन्दी की वर्णमाला जानता है। जहा तक हिन्दी लिपि पढ़ने की बात है, किसी उर्दूदॉ को एतराज न होगा। स्कूलो मे हफ्ते मे एक घण्टा दे देने से हिन्दीवालो को उर्दू
[ १८५ ]और उर्दूवालो को हिन्दी लिपि सिखाई जा सकती है। लिखने के विषय मे यह प्रश्न इतना सरल नहीं है । उर्दू मे स्वर आदि के ऐब होने पर भी उसमे गति का एक ऐसा गुण है कि उर्दू जाननेवाले उसे नहीं छोड़ सकते और जिन लोगो का इतिहास और सस्कृति और गौरव उर्दू लिपि मे सुरक्षित है, उनसे मौजूदा हालत मे उसके छोडने की आशा भी नही की जा सकती। उद्दॉ लोग हिन्दी जितनी आसानी से सीख सकते है, इसका लाजिम नतीजा यह होगा कि ज्यादातर लोग लिपि सीख जायेंगे और राष्ट्रभाषा का प्रचार दिन-दिन बढता जायगा। लिपि का फैसला समय करेगा। जो न्यादा जानदार है, वह आगे आयेगी। दूसरी पीछे रह जायेगी। लिपि के भेद का विषय छेडना घोड़े के आगे गाड़ी को रखना होगा। हमे इस शर्त को मानकर चलना है कि हिन्दी और उर्दू दोनो ही राष्ट्र-लिपियों है और हमे अख्तियार है, हम चाहे जिस लिपि मे उसका व्यवहार करे । हमारी सुविधा, हमारी मनोवृत्ति, और हमारे संस्कार इसका फैसला करेगे ।*

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  • बम्बई के 'राष्ट्र-भाषा-सम्मेलन' मे स्वागताध्यक्ष की हैसियत से

२७-१०-३४ को दिया गया भाषण ।