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साहित्य का उद्देश्य/27

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साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ २४१ से – २५३ तक

 





छोटी टिप्पणियाँ







फा॰ १६

हंस के जन्म पर

 

'हंस' के लिए यह परम सौभाग्य की बात है, कि उसका जन्म ऐसे शुभ अवसर पर हुआ है, जब भारत में एक नए युग का आगमन हो रहा है, जब भारत पराधीनता की बेड़ियों से निकलने के लिए तड़पने लगा है। इस तिथि की यादगार एक दिन देश में कोई विशाल रूप धारण करेगी। बहुत छोटी-छोटी, तुच्छ विजयों पर बड़ी-बड़ी शानदार यादगारें बन चली हैं। इस महान् विजय की यादगार हम क्या और कैसे बनावेंगे, यह तो भविष्य की बात है पर यह विजय एक ऐसी विजय है, जिसकी नज़ीर संसार में नहीं मिल सकती और उसकी यादगार भी वैसी ही शानदार होगी। हम भी उस नये देवता की पूजा करने के लिये, उस विजय की यादगार क़ायम करने के लिये, अपना मिट्टी का दीपक लेकर खडे़ होते हैं। और हमारी बिसात ही क्या है। शायद आप पूछें, संग्राम शुरू होते ही विजय का स्वप्न देखने लगे! उसकी यादगार बनाने की भी सूझ गई! मगर स्वाधीनता केवल मन की एक वृत्ति है। इस वृत्ति का जागना ही स्वाधीन हो जाना है। अब तक इस विचार ने जन्म ही न लिया था। हमारी चेतना इतनी मंद, शिथिल और निर्जीव हो गई थी कि उसमें ऐसी महान् कल्पना का आविर्भाव ही न हो सकता था; पर भारत के कर्णधार महात्मा गांधी ने इस विचार की सृष्टि कर दी। अब वह बढ़ेगा, फूले-फलेगा। अब से पहले हमने अपने उद्धार के जो उपाय सोचे, वह व्यर्थ सिद्ध हुए, हालाँकि उनके आरम्भ में भी सत्ताधारियों की ओर से ऐसा ही विरोध हुआ था। इसी भाँति इस संग्राम में भी एक दिन हम विजयी होगे । वह दिन देर में आयेगा या जल्द, यह हमारे पराक्रम, बुद्धि और साहस पर मुनहसर है । हॉ, हमारा यह धर्म है कि उस दिन को जल्द से जल्द लाने के लिये तपस्या करते रहे। यही 'हंस' का व्येय होगा, और इसी ध्येय के अनुकूल उसकी नीति होगी।

हंस की नीति

कहते हैं, जब श्रीरामचद्र समुद्र पर पुल बॉध रहे थे, उस वह वक्त छोटे-छोटे पशु-पक्षियों ने मिट्टी ला लाकर समुद्र के पाटने मे मदद दी थी। इस समय देश में उससे कही विकट संग्राम छिड़ा हुआ है । भारत ने शान्तिमय समर की भेरी बजा दी है । हंस भी मानसरोवर की शान्ति छोड़कर, अपनी नन्ही-सी चोच मे चुटकी-भर मिट्ठी लिये हुए, समुंद्र पाटने-आजादी के जंग में योग देने-चला है । समुद्र का विस्तार देखकर उसकी हिम्मत छूट रही है; लेकिन संघ शक्ति ने उसका दिल मजबूत कर दिया है । समुद्र पटने के पहले ही उसकी जीवन-लीला समाप्त हो जायगी, या वह अन्त तक मैदान में डटा रहेगा, यह तो कोई ज्योतिषी ही जाने, पर हमे ऐसा विश्वास है कि हंस की लगन इतनी कच्ची न होगी। यह तो हुई उसकी राजनीति | साहित्य और समाज मे वह उन गुणों का परिचय देगा, जो परम्परा ने उसे प्रदान कर दिये हैं ।

डोमिनियन और स्वराज्य

न डोमिनियन मॉगे से मिलेगा, न स्वराज्य । जो शक्ति डोमिनियन छीनकर ले सकती है, वह स्वराज्य भी ले सकती है। इग्लैण्ड के लिये दोनों समान हैं । डोमिनियस स्टेटस में गोलमेज-कान्फ्रेंस का उलझावा है, इसलिये वह भारत को इस उलझावे में डाल कर भारत पर बहुत दिनो तक राज्य कर सकता है । फिर उसमे किस्तों की गुंजायश है और किस्तों की अवधि एक हज़ार वर्षों तक बढ़ाई जा सकती है । इसलिए इग्लैण्ड का डोमिनियम स्टेटस के नाम से न घबड़ाना समझ में आता है । स्वराज्य में किस्तों की गुंजायश नहीं, न गोलमेज़ का उलझावा है, इसलिए वह स्वराज्य के नाम से कानो पर हाथ रखता है। लेकिन हमारे ही भाइयों में इस प्रश्न पर क्यो मतभेद है, इसका रहस्य आसानी से समझ में नही पाता । वे इतने बेसमझ तो है नही कि इग्लैण्ड की इस चाल को न समझते हों । अनुमान यही होता है कि इस चाल को समझकर भी वे डोमिनियन के पक्ष में हैं, तो इसका कुछ और आशय है। डोमिनियन पक्ष को गौर से देखिए, तो उसमे हमारे राजे-महाराजे, हमारे जमींदार, हमारे धनी-मानी भाई ही ज्यादा नजर आते हैं । क्या इसका यह कारण है कि वे समझते हैं कि स्वराज्य की दशा में उन्हे बहत कुछ दबकर रहना पडेगा ? स्वराज्य में मजदूरों और किसानों की आवाज इतनी निर्बल न रहेगी ? क्या यह लोग उस आवाज के भय से थरथरा रहे है ? हमे तो ऐसा ही जान पडता है । वह अपने दिल में समझ रहे है कि उनके हितों की रक्षा अंग्रेजी-शासन ही से हो सकती है । स्वराज्य कभी उन्हे गरीबों को कुचलने और उनका रक्त चूसने न देगा । डोमि- नियम का अर्थ उनके लिये यही है कि दो-चार गवर्नरियाँ दो-चार बड़े- बड़े पद, उन्हे और मिल जायेंगे । इनका डोमिनियन स्टेटस इसके सिवा और कुछ नहीं है । ताल्लुकेदार और राजे इसी तरह गरीबों को चूसते चले जायेंगे । स्वराज्य गरीबों की आवाज है, डोमिनियन गरीबों की कमाई पर मोटे होनेवालो की । सम्भव है, अभी अमीरों की आवाज कुछ दिन और गरीबों को दबाये रक्खे । गरीबों के सब्र का प्याला अब भर गया है । इग्लैण्ड को अगर अपना रोजगार प्यारा है, अगर अपने मज- दूरों की प्राण-रक्षा करनी है; तो उसे गरीबों की आवाज को ठुकराना नहीं चाहिए, वरना भारत के राजों और शिक्षित-समाज के ऊँचे ओहदेदारो के सँभाले उसका रोजगार न सँभलेगा । जब एक बार गरीब समझ जायेंगे कि इंग्लैण्ड उनका दुशमन है, तो फिर इंग्लैण्ड की खैरियत नहीं । इंग्लैण्ड अपनी संगठित शक्ति से उनका संगठित होना रोक सकता है लेकिन बहुत दिनों तक नहीं।

युवकों का कर्तव्य

अब युवकों का क्या कर्तव्य है ? युवक नई दशाओं का प्रवर्तक हुआ करता है । संसार का इतिहास युवकों के साहस और शौर्य का इतिहास है। जिसके हृदय मे जपानी का जोश है, यौवन की उमंग है, जो अभी दुनिया के धक्के खा-खाकर हतोत्साह नहीं हुआ, जो अभी बाल-बच्चों की फिक्र से आजाद है अगर वही हिम्मत छोड़कर बैठ रहेगा, तो मैदान में आयेगा कौन 'फिर, क्या उसका उदासीन होना इंसाफ की बात है ? आखिर यह संग्राम किस लिए छिड़ा है ? कौन इससे ज्यादा फायदा उठावेगा ? कौन इस पौधे के फल खावेगा ? बूढे चंद दिनों के मेहमान हैं। जब युवक ही स्वराज्य का सुख भोगेगे, तो क्या यह इंसाफ की बात होगी, कि वह दुबके बैठे रहे । हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, कि वह गुलामी मे खुश है और अपनी दशा को सुधारने की लगन उन्हें नहीं है । यौवन कहीं भी इतना बेजान नहीं हुआ करता । तुम्हारी दशा देखकर ही नेताओं को स्वराज्य की फिक्र हुई है। वह देख रहे हैं कि तुम जी तोड़कर डिग्रियाँ लेते हो पर तुम्हें कोई पूछता नही, जहाँ तुम्हे होना चाहिए, वहाँ विदेशी लोग डटे हुए हैं। स्वराज्य वास्तव मे तुम्हारे लिए है, और तुम्हे उसके आन्दोलन मे प्रमुख भाग लेना चाहिए । गवर्नर और चांसेलर तुम्हे तरह-तरह के स्वार्थमय उपदेश देकर, तुम्हें अपने कर्तव्य से हटाने की कोशिश करेंगे, पर हमे विश्वास है, तुम अपना नफा-नुकसान समझते हो और अपने जन्म-अधिकार को एक प्याले-भर दूध के लिये न बेचोगे । लेकिन यह न समझो, कि केवल स्वराज्य का झंडा गाड़कर, और 'इन्कलाब' की हॉक लगाकर तुम अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हो। तुम्हे मिशनरी जोश और धैर्य के साथ इस काम में जुट जाना चाहिए । संसार के युवकों ने जो कुछ किया है, वह तुम भी कर सकते हो । क्या तुम स्वराज्य का संदेश गॉव में नहीं पहुंचा सकते ? क्या तुम गाँवों के संगठन में योग नहीं दे सकते ? हम सच कहते है, एल-एल० बी०, या एम० ए० हो जाने के बाद यह अमली तालीम, वह अनुभव तुम्हें इतना हितकर होगा, जितना पुस्तक-ज्ञान उम्र-भर भी नहीं हो सकता । तुम मर्द हो जाओंगे।

सरल जीवन स्वाधीनता के संग्राम की तैयारी हो

लेकिन जब हम अपने छात्रों का विलास-प्रेम देखते हैं, तो हमे उनके विषय में बड़ी चिन्ता होती है । वह रोज अपनी जरूरतें बढ़ाते जाते हैं, विदेशी चीजों की चमक-दमक ने उन्हे अपना गुलाम बना लिया है। वे चाय और काफी के, साबुन और सेट के और न जाने कितनी अल्लम- गल्लम चीजों के दास हो गये हैं। बाजार में चले जाइए, आप युवको और युवतियों को शौक और विलास की चीजें खरीदने में रत पाएँगे। वह यह समझ रहे हैं, कि विलास की चीजे बढ़ा लेने से ही जीवन का आदर्श ऊँचा हो जाता है । युनिवर्सिटियो में अपने अध्यापकों का विलास- प्रेम देखकर यदि उन्हे ऐसा विचार होता है, तो उनका दोष नहीं । यहाँ तो आवें का आवाँ बिगड़ा हुआ है । सादे और सरल जीवन से उन्हें घृणा सी होती है। अगर उनका कोई सहपाठी सीधा-सादा हो, तो वे उसकी हँसी उड़ाते हैं, उस पर तालियाँ बजाते हैं । अंग्रेज अगर इन चीजों के शौकीन हैं, तो इसलिए कि इस तरह वे अपने देश के व्यव- साय की मदद करते है । फिर, वह सम्पन्न हैं, हमारी और उनकी बराबरी ही क्या ? उन्होंने फसल काट ली है, अब मजे से बैठे खा रहे हैं। हमने तो अभी फ़सल बोई भी नहीं, हम अगर उनकी नकल करे, तो इसके सिवा कि बीज खा डालें, और क्या कर सकते हैं। और यही हो रहा है। जिस गाढ़ी कमाई को देशी व्यवसाय और धंधे में खर्च होना चाहिए था, वह यूरोप चली जा रही है और हम उन आदतों के गुलाम होकर अपना भविष्य खाक में मिला रहे हैं । शौक और सिगार के बन्दे जिन्दगी में कभी स्वाधीनता का अनुभव कर सकते हैं, हमे इसमे सन्देह है । विद्या- लय से निकलते ही उन्हें नौकरी चाहिए-इसके लिये वह हर तरह की खुशामद और नकघिसनी करने के लिये तैयार है । नौकरी मिल गई, तो उन्हे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये ऊपरी आमदनी की फिक्र होती है । उनकी आत्मा की स्वतन्त्रता, शौक की वेदी पर चढा दी जाती है । दुनिया के जितने बड़े-से-बड़े महापुरुष हो गये हैं, और है, वे जीवन की सरलता का उपदेश देते आये है और दे रहे है, मगर हमारे छात्र है, कि हैट और कालर की फिक्र में अपना भविष्य बिगाड रहे हैं।

शांति-रक्षा

हिज एक्सेलेन्सी वाइसराय से लेकर सूबो के हिज एक्सेलेन्सियो तक सभी कानून और शांति की रक्षा की धमकियाँ दे रहे है, जिसका अर्थ यह है, कि इस वक्त कानून और शांति की रक्षा के लिये, जो कुछ किया जा रहा है, उससे ज्यादा और भीषण रीति से किया जायगा । और, उधर महात्मा गांधी है कि किसी दशा में भी शांति को हाथ से नहीं छोड़ना चाहते, यहाँ तक कि अवज्ञा का सारा भार उन्होंने अपने सिर ले लिया है।

जहाँ तक शांति-रक्षा का संबंध है, ऐसा कौन आदमी होगा, जो सरकार से इस विषय में सहयोग न करे और मुल्क मे बदअमली हो जाने दे। मगर मुशकिल यह है, कि सरकार ने जिस चीज का नाम शांति रख छोड़ा है, वह हमारे लिये न शांति है, न कानून । जो कानून राष्ट्र बनाता है, उसका पालन वह स्वयं शांति-पूर्वक करता है, लेकिन जो कानून दूसरे लोग उसके लिए बना देते हैं, उसकी पाबंदी वह करती तो है पर संगीनों और मशीनगनों के जोर से, और ऐसी शांति को कौन शांति कहेगा, जिसका आधार तलवारों की झंकार और तोपों की गरज है ! जहाँ तक हमे याद है, सरकार ने और चाहे जितनी गलतियों की हो, शाति की रक्षा मे उसने कभी गलती नहीं की । यह दूसरी बात है, कि हिन्दू मुसलमान आपस मे लड़-लड़कर एक दूसरे के प्राण ले, एक- दूसरे की जायदाद लूटें, घर में आग लगावे, औरतों की आबरू बिगाड़े ! न जाने सरकार की शांति-रक्षिणी शक्ति ऐसे नाजुक मौकों पर क्यों नहीं काम करती !

जेल-सुधार

जिस तरह किसी व्यक्ति के चरित्र का अन्दाजा उसके मित्रों को देखकर किया जा सकता है, उसी तरह किसी राज्य की सुव्यवस्था का अन्दाजा, उसके जेलो की दशा से हो सकता है । रूस के जेल भारत के जेलो को देखते स्वर्ग है । यहाँ तक कि ईरान जैसे देश के जेल भी बहत कुछ सुधर चुके है। हमारे जेलों की दशा जितनी खराब है,शायद संसार मे, इस बात मे कोई उसका सानी न मिलेगा । जतीन्द्रनाथ दास के उत्सर्ग का कुछ फल उस सुधार के रूप में निकला है, जो अभी किये गये है; मगर कैदियों का कई दरजों में विभाजित किया जाना और हरेक कक्षा के साथ अलग-अलग व्यवहार करना, उन बुराइयों की दवा नही है । जेल ऐसे होने चाहिए, कि कैदी उसमे से मन और विचार मे कुछ सुधरकर निकले, यह नहीं कि उसके पतन की क्रिया वहाँ जाकर और भी पूरी हो जाय । इस सुधार से यह फल न होगा, हॉ जो धनी हैं, उन्हे वहाँ कुछ आराम हो जायगा । गरीब की सब जगह मौत है, जेल में भी । मालूम नहीं ईश्वर के घर भी यही भेद-भाव है, या इससे कुछ अच्छी दशा है।

जापान के लोग लम्बे हो रहे हैं

हिन्दुस्तान के लोग दिन-दिन दुर्बल होते जाते हैं। लेकिन जापान के एक पत्र ने लिखा है-जापानियों का डील धीरे-धीरे ऊँचा हो रहा है। बलिष्ठ तो वे पहले भी होते थे; लेकिन अब वे ऊँचे भी हो रहे हैं । इसका कारण है, रहन-सहन मे सुधार । अब वे पहले से अच्छा और पुष्टिकारक भोजन पाते है, ज्यादा साफ और हवादार घरों में रहते हैं, आर्थिक चिन्ताओं का भार भी कम हो गया है । जहाँ अस्सी फी सैकडे आदमी आधे पेट भोजन भी नहीं पाते, वे क्या बढ़ेगे और क्या मोटाएँगे ? शायद सौ वर्ष के बाद हिन्दुस्तानियो की कहानी रह जायगी।

राजनीति और रिशवत

वर्तमान राजनीति मे रिशवत भी एक जरूरी मद है । क्या इंग्लैण्ड, क्या फ्रांस, क्या जापान, सभी सभ्य और उन्नत देशों में यह मरज दिन- दिन बढता जा रहा है। चुनाव लड़ने के लिए बड़े-बड़े लोग जमा किये जाते है और वोटरो से वोट लेने के लिए सभी तरह के प्रलोभनों से काम लिया जाता है। जब देश के शासक खुद ऐसे काम करते है, तो उसे रोके कौन ? शैतान ही जानता है चुनाव के लिए कैसी-कैसी चाले चली जाती है, कैसे-कैसे दॉव खेले जाते है । अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा दिखाने के लिए बुरे से बुरे साधन काम में लाये जाते हैं। जिस दल के पास धन ज्यादा हो, और कार्यकर्ता-कनवैसर-अच्छे हो, उसकी जीत होती है । यह वर्तमान शासन-पद्धति का कलंक है । इसका फल यह होता है कि सबसे योग्य व्यक्ति नहीं, सबसे चालबाज़ लोग ही चुनाव के संग्राम में विजयी होते है । ऐसे ही स्वार्थी, आदर्थ-हीन, विवेकहीन मनुष्यों के हाथ में संसार का शासन है। फिर अगर संसार में स्वार्थ का राज्य है, तो क्या आश्चर्य !

पहले हिन्दुस्तानी, फिर और कुछ

हिन्दू तो हमेशा से यही रट लगाते चले आ रहे हैं लेकिन मुसल- मान इस आवाज़ में शरीक न थे । बीच मे एक बार मौ० मुहम्मदअली या शायद उनके बड़े भाई साहब ने यह आवाज मुंँह से निकालने का साहस किया था; मगर थोडे दिनो के बाद उन्होंने फिर पहलू बदला और 'पहले मुसलमान फिर और कुछ' का नारा बुलन्द किया। फिर क्या था, मुसलिम दल मे उनका जितना सम्मान कम हो गया था, उससे कई गुना ज्यादा मिल गया । आज अगर कोई मुसलमान 'पहले हिन्दुस्तानी' होने का दावा करे, तो उस पर चारो तरफ से बौछारे होने लगेगी। 'पहले मुसलमान' बनकर धर्मान्ध जनता की निगाह मे गौरव प्राप्त कर लेना तो आसान है; पर उसका मुसलमानों की मनोवृत्ति पर जो बुरा असर पडता है, वह देश-हित के लिए घातक है। मुसलमान किसी प्रश्न पर राष्ट्र की आँखो से नहीं देखता, वह उसे मुसलिम आँखों से देखता है। वह अगर कोई प्रश्न पूछता है, तो मुसलिम दृष्टि से, किसी बात का विरोध करता है, तो वह मुसलिम दृष्टि से । लाखों मुसलमान बाढ़ और सूखे के कारण तवाह हो रहे हैं। उनकी तरफ किसी मुसलिम मेम्बर की निगाह नहीं जाती। आज तक कोई ऐसा मुसलिम संघटन नहीं हुआ, जो मुसलिम जनता की सांसारिक दशा को सुधारने का प्रयत्न करता। हॉ, उनकी धार्मिक मनोवृत्ति से फायदा उठानेवालों की कमी नहीं है । महात्मा गाँधी खद्दर का प्रचार दिलोजान से कर रहे हैं। इससे मुसलमान जुलाहों का फायदा अगर हिन्दू कोरियों से ज्यादा नहीं, तो कम भी नहीं है । लेकिन जहाँ इस सूने के छोटे-से-छोटे शहर ने महात्माजी को थैलियों भेंट की, अलीगढ़ ने केवल सूखा ऐड्रेस देना ही काफी समझा । यह मुसलिम मनोवृत्ति है । देखा चाहिए, सर तेजबहादुर सप्रू सर्वदल सम्मेलन को सफल बनाने मे कहाँ तक सफल होते है। हमारी श्राशा तो नौजवान मुसलमानो का मुँह ताक रही है । इसलामिया कालेज लाहौर में, जहाँ अधिकाश मुसल- मान छात्र थे, स्वाधीनता का प्रस्ताव मुसलमान नेताओं के विरोध पर भी पास हो गया । इससे पता चलता है, कि हवा का रुख किधर है।

महात्माजी का वाइसराय से निवेदन

महात्माजी ने वाइसराय को जो पत्र लिखा है उसे Ultimatum कहना, उस पत्र के महत्त्व को मिटाना है । वह एक सच्चे, आत्मदर्शी हृदय के उद्गार है । उसमे एक भी ऐसा शब्द नहीं है, जिसमे मालिन्य, क्रोध, द्वेष या कटुता की गंध हो । उस पवित्र आत्मा में मालिन्य या द्वेष का स्थान ही नही है। वह किसी का शत्रु नही, सबका मित्र है । अंग्रेजी शासन का ऐसा सपूर्ण इतिहास इतने थोड़े-से शब्दो में, इतनी सद्- प्रेरणा के साथ महात्माजी के सिवा दूसरा कौन लिख सकता था । उस पत्र में जितनी जागृति, जितनी स्फूर्ति, जितना सत्साहस है, वह शायद भगवतगीता मे हो तो हो,और तो हमे कहीं नहीं मिलता। भारत के ही इतिहास में नहीं, संसार के इतिहास में भी वह यादगार बनकर रहेगा। पाठक के हृदय पर एक-एक शब्द देव-वाणी-सा प्रभाव डालता है, प्रतिक्षण आत्मा ऊँची होती जाती है, यहाँ तक कि उसे समाप्त कर लेने पर आप अपने को एक नई दुनिया में पाते हैं। महात्मा गाँधी ने स्पष्ट कह दिया है, कि हम पद के लिए, धन के लिए, अधिकार के लिए स्वराज्य नहीं चाहते, हम स्वराज्य चाहते है उन गूँगे, बेजबान आदमियों के लिए, जो दिन-दिन दरिद्र होते जा रहे हैं । अगर आज सभी अंग्रेज अफसरों की जगह हिन्दुस्तानी हो जायें, तब भी हम स्वराज्य से उतने ही दूर रहेगे, जितने इस वक्त है। हमारा उद्देश्य तो तभी पूरा होगा, जब हमारी दरिद्र, क्षुधित, वस्त्रहीन जनता की दशा कुछ सुधरेगी ।

मगर हमारे ही देश में हमारे ही कुछ ऐसे भाई हैं, जिन्हे इस निवेदन में कोई नयी बात, कोई नया सन्देश नहीं नजर आता। उन पर उसके ऊँचे, पवित्र भावो का जरा भी असर नहीं पड़ा । वह अब भी यही रट लगाये जा रहे हैं कि महात्माजी आग से खेल रहे है, समाज की जड़ खोदनेवाली शक्तियो को उभार रहे है । जिन्हे अँग्रेजों के साथ मिलकर प्रजा को लूटते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करने का अवसर प्राप्त है, वे इसके सिवा और कह ही क्या सकते हैं । वे अपना स्वार्थ देखते है, अपनी प्रभुता का सिक्का जमते देखना चाहते हैं। उनके स्वराज्य में गरीबों को मजदूरो को , किसानो को स्थान नहीं है, स्थान है केवल अपने लिए; मगर जिस व्यक्ति के हृदय में गरीबो की दिन-दिन गिरती हुई दशा देख कर ज्वाला-सी उठती रहती है, जो उनकी मूक वेदना देख-देखकर तड़प रहा है, वह किसी ऐसे स्वराज्य की कल्पना से संतुष्ट नहीं हो सकता, जिसमे कुछ ऊँचे दरजे के आदमियो का हित हो और प्रजा की दशा ज्यो-की त्यो बनी रहे । हमारी लड़ाई केवल अँग्रेज सत्ताधारियो से नहीं, हिन्दुस्तानी सत्ताधारियों से भी है । हमे ऐसे लक्षण नज़र आ रहे है, कि यह दोनों सत्ताधारी इस अधार्मिक संग्राम में आपस में मिल जायेंगे और प्रजा को दबाने की, इस आन्दोलन को कुचलने की कोशिश करेंगे । लेकिन यह उन्हीं के हक मे बुरा होगा। प्रजा की दशा तो अब जितनी बुरी है,उससे बुरी और हो ही क्या सकती है ? हॉ, जो लोग प्रजा के मत्थे ऐश करते है, यूरोप में विहार करते हैं, मोटरो में बैठे हुए हवा में उड़ते है, उनकी खैरियत नहीं है । हम उन्हे धमकी नहीं दे रहे हैं, धाँधली उसी वक्त तक हो सकती है, जब तक जनता सोई हुई है । हम अब भी आशा रखते हैं, कि महात्माजी का सदुद्योग सत्ताधारियों के विचार-कोण में इच्छित परिवर्तन करेगा । विचारा का परिवर्तन अब तक तलवार से होता आया है, लेकिन विचार जैसी सूक्ष्म वस्तु पर तलवार का असर या तो होता ही नहीं, या होता है तो स्थायी नहीं होता । सूक्ष्म वस्तु पर सूक्ष्म वस्तु का ही असर पड़ता है । भारत ने इसके पहले भी ससार के सामने आध्यात्मिक आदर्श रक्खे हैं, वही चेष्टा वह फिर कर रहा है। वह इतिहास की परम्परागत प्रगति को बदल देना चाहता है। वह सफल होगा या विफल, यह दैव के हाथ है, लेकिन उसकी विफलता भी ऐसी होगी, जिस पर सैकड़ों सफलताएँ भेट की जा सकती है।

हमे आशा है, कि वाइसराय के हृदय पर इस निवेदन का कुछ असर होगा, वह उस सौजन्य, विनम्रता और सच्चाई की कुछ कद्र करेगे। पर वाइसराय की ओर से उसका जो जवाब दिया गया है, वह सिद्ध कर रहा है कि महात्माजी का सन्देश उनके हृदय तक नहीं पहुँचा।

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