साहित्य का उद्देश्य/28
हमें यह जानकर सच्चा आनन्द हुआ कि हमारे सुशिक्षित और विचारशील युवकों में भी साहित्य में एक नई स्फूर्ति और जागृति लाने की धुन पैदा हो गई है। लन्दन मे The Indian Progressive Writers, Association की इसी उद्देश्य से बुनियाद डाल दी गई है, और उसने जो अपना मैनिफ़ेस्टो भेजा है, उसे देखकर यह आशा होती है कि अगर यह सभा अपने नये मार्ग पर जमी रही, तो साहित्य में नवयुग का उदय होगा। उस मैनिफ़ेस्टो का कुछ अंश हम यहाँ आशय रूप में देते हैं-
भारतीय समाज में बड़े-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं। पुराने विचारों और विश्वासों की जड़ें हिलती जा रही हैं और एक नये समाज का जन्म हो रहा है। भारतीय साहित्यकारों का धर्म है कि वह भारतीय जीवन में पैदा होनेवाली क्रांति को शब्द और रूप दें और राष्ट्र को उन्नति के मार्ग पर चलाने में सहायक हों। भारतीय साहित्य, पुरानी सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद से जीवन की यथार्थताओं से भागकर उपासना और भक्ति की शरण में जा छिपा है। नतीजा यह हुआ है कि वह निस्तेज और निष्प्राण हो गया है, रूप में भी अर्थ में भी। और आज हमारे साहित्य में भक्ति और वैराग्य की भरमार हो गई है। भावुकता ही का प्रदर्शन हो रहा है, विचार और बुद्धि का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया गया है। पिछली दो सदियों में विशेषकर इसी तरह का साहित्य रचा गया है जो हमारे इतिहास का लज्जास्पद काल है। इस सभा का उद्देश्य अपने साहित्य और दूसरी कलाओ को पुजारियो पडितो और अप्रगतिशील-वर्गों के आधिपत्य से निकालकर उन्हे जनता के निकटतम ससर्ग मे लाया जाय, उनमे जीवन और वास्तविकता लाई जाय, जिससे हम अपने भविष्य को उज्ज्वल कर सकें । हम भारतीय सभ्यता का परम्पराअो की रक्षा करते हुए, अपने देश की पतनोन्मुखी प्रवृत्तियो की बड़ी निर्दयता से आलोचना करेगे और आलोचनात्मक तथा रचनात्मक कृतियों से उन सभी बातो का सचय करेगे, जिससे हम अपनी मंजिल पर पहुँच सके । हमारी धारणा है कि भारत के नये साहित्य को हमारे वर्तमान जीवन के मौलिक बध्यो का समन्वय करता चाहिये, और वह है हमारी रोटी का, हमारी दरिद्रता का हमारी सामाजिक अवनति का और हमारी राजनैतिक पराधीनता का प्रश्न। तभी हम इन समस्याओं को समझ सकेंगे और तभी हममे क्रियात्मक शक्ति आयेगी। वह सब कुछ जो हमे निष्क्रियता, अकर्मण्यता और अन्धविश्वास की ओर ले जाता है, हेय है, वह सब कुछ जो हममें समीक्षा की मनोवृत्ति लाता है, जो हमे प्रियतम रूढियों को भी बुद्धि की कसौटी पर कसने के के लिए प्रोत्साहित करता है, जो हमें कर्मण्य बनाता है और हममे सगठन की शक्ति लाता है, उसी को हम प्रगतिशील समझते हैं।
इन उद्देश्यों को सामने रखकर इस सभा ने निम्नलिखित प्रस्ताव स्वीकार किये हैं-
(१) भारत के भिन्न भिन्न भाषा-प्रातो मे लेखकों की सस्थाएँ बनाना, उन संस्थानों मे सम्मेलनों, पैम्फलेटो आदि द्वारा सहयोग और समन्वय पैदा करना, प्रान्तीय, केन्द्रीय और लन्दन की संस्थाओं में निकट सम्बन्ध स्थापित करना।
(२) उन साहित्यिक सस्थाओं से मेल-जाल पैदा करना, जो इस
सभा के उद्देश्यों के विरुद्ध न हों।
३) प्रगतिशील साहित्य की सृष्टि और अनुवाद करना, जो
कलात्मक दृष्टि से भी निर्दोष हो, जिससे हम साम्कृतिक अवसाद को दूर
कर सके और भारतीय स्वाधीनता और सामाजिक उत्थान की ओर
बढ सकें।
४) हिन्दुस्तानी को राष्ट्र-भाषा और इडो-रोमन लिपि को राष्ट्र- लिपि स्वीकार कराने का उद्योग करना ।
(५) साहित्यकारो के हित की रक्षा करना, उन साहित्यकारों को सहायता करना, जो अपनी पुस्तके प्रकाशित कराने के लिए सहायता चाहते हो।
६) विचार और राय को आज़ाद करने के लिए प्रयत्न करना । मैनिफेस्टो पर सर्वश्री डा० मुल्कराज अानन्द, डा० के० एस० भट्ट, डा० जे० सी० घोष, डा० एस० सिन्हा, एम० डी० तासीर और एस० एस० जहीर के शुभ नाम है, और पत्र-व्यवहार का पता है-
Dr M. R. Anand
32, Russell Square
London (W. C. I)
हम इस सस्था का हृदय से स्वागत करते है और आशा करते है कि
वह चिरजीवी हो । हमे वास्तव मे ऐसे ही साहित्य की जरूरत है और हमने
यही आदर्श अपने सामने रक्खा है । हस भी इन्हीं उद्देश्यों के लिए जारी
किया गया है । हाँ, हम अभी इडो-रोमन को राष्ट्र-लिपि स्वीकार करने
के लिये तैयार नहीं है, क्योंकि हम नागरी-लिपि मे सशोधन करके उसे
इतना पूर्ण बना लेना चाहते हैं, जिससे वह भारत की सभी भाषाओं के
लिये समान रूप से उपयोगी हो । हम यह भी कह देना चाहते है, कि
अगर यह सस्था भारत के उस साहित्य को, जो उसके उद्देश्यो के
अनुकूल हो, अंग्रेजी में अनुवाद कराके प्रकाशित कराने का प्रबन्ध कर
सके, तो यह साहित्य और राष्ट्र-दोनों ही की सच्ची सेवा होगी । हम
हिन्दी-लेखक-संघ के सदस्यो से भी निवेदन कर देना चाहते हैं कि वे
इन प्रस्तावो पर विचार करें और उस पर अपना मत प्रकट करें । लेखक-
संघ के उद्देश्य भी बहुत कुछ इस संस्था से मिलते हैं और कोई कारण
नहीं कि दोनो मे सहयोग न हो सके।
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