साहित्य का उद्देश्य/32
लेखक संघ
लेखक संघ के विषय में 'हंस' मे विज्ञप्ति निकल चुकी है और साहित्य-सेवियों तथा पाठकों को यह जानकर हर्ष होगा कि लेखकों ने संघ का खुले दिल से स्वागत किया है। और लगभग साठ सज्जन उसके
सदस्य बन चुके हैं। चारों तरफ से आशाजनक पत्र आ रहे हैं मगर अभी तक यह निश्चित नही किया जा सका कि संघ का मुख्य काम क्या होगा? संयोजक महोदय ने अपने प्रारम्भिक पत्र में संघ के उद्देश्यों का
कुछ जिक्र किया है, और जो लोग संघ में शामिल हुए हैं, वे उन उद्देश्यों से सहमत हैं, इसमें सन्देह नहीं; लेकिन वह उसूल कार्य बनकर क्या रूप धारण करेंगे, इस विषय में कुछ नही कहा जा सकता! संघ लेखकों के स्वत्वों की रक्षा करेगा। लेकिन कैसे? कुछ सज्जनों का विचार है कि लेखक संघ उसी तरह लेखकों के हितों और अधिकारों की रक्षा करे, जैसे अन्य मजूर संघ अपने सदस्यों की रक्षा करते हैं, क्योंकि लेखक भी मजूर ही हैं, यद्यपि वे हथौड़े और बसुले से काम न करके कलम से काम करते हैं। और लेखक मजूर हुए तो प्रकाशक पूंजीपति हुए। इस तरह यह संघ लेखकों को प्रकाशकों की लूट से बचाये, और यही उसका मुख्य काम हो। कुछ अन्य सज्जनों का मत है कि लेखक संघ को पूंजी खड़ी करके एक विशाल सहकारी प्रकाशन संस्था बनाना चाहिए जिससे वह लेखक को उसकी मजदूरी की ज्यादा से ज्यादा उजरत दे सके। खुद केवल नाम मात्र का नफा ले ले, वह भी केवल कार्यालय के कर्मचारियों के वेतन और कार्यालय के दूसरे कामों के लिए। सम्भव है इसी तरह के और
प्रस्ताव भी लोगों के मन मे हो। ऐसी दशा मे यही उचित जान पड़ता
है कि सघ के कार्यक्रम को निश्चय करने के लिए सभी सदस्यों को किसी
केन्द्र मे निमन्त्रित किया जाये ओर वहा सब पक्षों की तजवीजे सुनने और
उन पर विचार करने के बाद कोई राय कायम की जाये। और तब
इस निश्चय को कार्य रूप मे लाने के लिए एक कार्यकारिणी समिति
बनाई जाय । उस सम्मेलन में प्रत्येक सदस्य को अपने प्रस्ताव पेश
करने और उसका समर्थन कराने का अधिकार होगा और जो कुछ होगा
बहुमत से होगा, इसलिए किसी को शिकायत का मौका न होगा । हम
इतना अवश्य निवेदन कर देना चाहते हैं कि मौजूदा हालत ऐसी नहीं
है कि प्रकाशकों को लेखको के साथ ज्यादा न्यायसगत व्यवहार करने पर
मजबूर किया जा सके। साहित्य का प्रकाशन करने वाले प्रकाशकों की
वास्तविक दशा का जिन्हे अनुभव है, वह यह स्वीकार करेंगे कि इस
समय एक भी ऐसा साहित्य ग्रन्थ प्रकाशक नहीं है जो नफे से काम कर
रहा हो। जो प्रकाशक धर्मग्रन्थों या पाठ्यपुस्तको का व्यापार करते है
उनकी दशा इतनी बुरी नहीं है, कुछ तो खासा लाभ उठा रहे हैं।
लेकिन जो लोग मुख्यतः साहित्य ग्रन्थ ही निकाल रहे हैं, वे प्रायः बड़ी
मुश्किल से अपनी लागत निकाल पाते हैं। कारण है साधारण जनता
की साहित्यिक अरुचि । जब प्रकाशक को यही विश्वास नहीं कि किसी
पुस्तक के कागज़ और छपाई की लागत भी निकलेगी या नहीं, तो वह
लेखकों को पुरस्कार या रायल्टी कहाँ से दे सकता है। नतीजा यह होगा
कि प्रकाशको को अपना कारोबार चलाने के लिए सड़ियल पुस्तके निका-
लनी पड़ेंगी और अच्छे लेखको की पुस्तकें कोई प्रकाशक न मिलने के
कारण पड़ी रह जायेंगी। साहित्यिक रचनात्रो का प्रकाशन प्रायः बन्द
सा है। प्रकाशक नई पुस्तकें छापते डरते हैं, और नये लेखको के लिए
तो द्वार ही बन्द हैं। इसलिए पहले ऐसी परिस्थिति तो पैदा हो कि
प्रकाशक को प्रकाशन से नफे की आशा हो । हिन्दी बीस करोड़ व्यक्तियो
की भाषा होकर भी गुजराती, मराठी या बगला के बराबर पुस्तकों का
प्रचार नहीं कर सकती। अगर नफे की आशा हो तो प्रकाशक बड़ी खुशी
से रुपये लगायेगा और तभी लेखको के लिए कुछ किग जा सकता है।
इसलिए अभी तो सघ को यही सोचना पडेगा कि जनता में साहित्य की
रुचि कैसे बढ़ाई जाये और किस ढग की पुस्तके तैयार की जायें जो
जनता को अपनी ओर खीच सके । अतएव मघ को साहित्यिक प्रगति
पर नियन्त्रण रखने की चेष्टा करनी पडेगी। इस समय जो सस्थाएँ है
जैसे नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन या हिन्दुस्तानी
एकेडेमी, उनके काम मे सघ को हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं ।नागरी
प्रचारिणी सभा अब विशेषकर पुराने कवियो की ओर उनकी रचनाओ
की खोज कर रही है। वह साहित्यिक पुरातत्व से मिलती जुलती चीज़
है । सम्मेलन को परीक्षाओ से विशेष दिलचस्पी है और हिन्दुस्तानी
एकेडेमी एक सरकारी सस्था है, जहाँ प्रोफेसरो का राज है और जहाँ
साधारण साहित्य-सेवियो के लिए स्थान नहीं । सघ का कार्य क्षेत्र इनसे
अलग और ऐसा होना चाहिए जिससे साहित्य और उसके पुजारी दोनो
की सेवा हो सके।
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