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साहित्य का उद्देश्य/33

विकिस्रोत से
साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ २७० से – २७३ तक

 
एक प्रसिद्ध गल्पकार के विचार
 

मि॰ जेम्स ओपेनहाइम अँग्रेज़ी के अच्छे कहानी-लेखक हैं। हाल में एक अँग्रेजी पत्रिका के सम्पादक ने कहानी-कला पर मि॰ ओपेनहाइम से कुछ बातचीत की थी। उनमें जो प्रश्नोत्तर हुआ, उसका सारांश हम पाठकों के मनोरंजन के लिए यहाँ देते हैं। पत्रिकाओं में जितनी कहानियाँ आती हैं, उतने और किसी विषय के लेख नहीं आते। यहाँ तक कि उन सबों को पढ़ना मुश्किल हो जाता है। अधिकांश तो युवकों की लिखी होती है, जिनके कथानक, भाव, भाषा, शैली में कोई मौलिकता नहीं होती और ऐसा प्रतीत होता है कि कहानी लिखने के पहले उन्होने कहानी कला के मूल तत्वों को समझने की चेष्टा नहीं की। यह बिलकुल सच है कि सिद्धान्तों को पढ़ लेने से ही कोई अच्छा कहानी-लेखक नहीं हो जाता, उसी तरह जैसे छन्द-शास्त्र पढ़ लेने से कोई अच्छा कवि नहीं हो जाता। साहित्य-रचना के लिए कुछ न कुछ प्रतिभा अवश्य होनी चाहिए। फिर भी सिद्धान्तों को जान लेने से अपने में विश्वास आ जाता है और हम जान जाते हैं, कि हमें किस ओर जाना चाहिए। हमें विश्वास है, इस कहानी-लेखक के विचारों से उन पाठकों को विशेष लाभ होगा, जो कहानी लिखना और कहानी के गुण-दोष समझना चाहते हैं-

प्रश्न-पहले आपके मन में किसी कहानी का विचार कैसे उत्पन्न होता है?

उत्तर-तीन प्रकार से। पहला, किसी चरित्र को देखकर। किसी व्यक्ति में कोई असाधारणता पाकर मैं उस पर एक कहानी की कल्पना
कर लेता हूँ। दूसरे, किसी नाटकीय घटना-द्वारा।जब कोई रोधक और विचित्र घटना हो जाती है, ता उसमे कुछ उलझाव और नवीनता लाकर एक प्लाट बना लेता हूँ । तीमरे, किसी समस्या या सामाजिक प्रश्न द्वारा । समाचार-पत्रो मे तरह-तरह के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक प्रश्नो पर आलोचनाएँ होती रहती है। उनमे से कोई प्रश्न लेकर, जैसे बालको क परिश्रम और मजूरी का प्रश्न, उन, पर कहानी का डॉत्रा खडा कर लेता हूँ।

प्रश्न-जब आप किसी चरित्र का चित्रण करने लगते है, तो क्या उसमे वास्तविक जीवन की बाते लिखते है ?

उत्तर-कभी नही । वास्तविक जीवन की बातो और कृत्यों से कहानी नही बनती । वह तो केवल कहानी के लिये ईट-मसाले का काम दे सकते है । वास्तविक जीवन की नीरसताआ और बाधाआ से कुछ देर तक मुक्ति पाने के लिये ता लाग कहानियाँ पढते है। जब तक कहानी मे मनोरजकता न रहेगी, तो उससे पाठको का क्या यानन्द मिलेगा? जीवन मे बहुत-सी बाते इतनी मनारजक और विस्मयकारी होती है, जिनकी कोई बडे से बड़ा कलाकार भी कल्पना नही कर सकता । पुरानी कहावत है -सत्य कथा से कही विचित्र होता है। कलाकार जो कुछ करता है, वह यही है कि उन अनुभूतियो पर अपने मनोभावो का, अपने दृष्टिकोण का रंग चढा दे।

प्रश्न-क्या एक कल्पित चरित्र की सृष्टि करने की अपेक्षा ऐसे चरित्र का निर्माण करना ज्यादा महत्वपूर्ण नही है, जो सजीव प्राणी की भॉति हॅसता-बोलता, जीता-जागता दिखाई दे?

उत्तर-हॉ, यह बिलकुल ठीक है । इसलिए जब तक मै चरित्र- नायक को अच्छी तरह जान नहीं लेता, उसके विषय मे एक शब्द भी नहीं लिखता । इससे मुझे बड़ी मदद मिलती है। मै हीरो के विषय मे पहले यह जानना चाहता हूँ कि उसके मॉ-बाप कौन है ? वह कहाँ पैदा हुआ था ? उसकी बाल्यावस्था किन लोगो की सगत मे गुजरी ? उसने
कितनी और कैसी शिक्षा पाई ? उसके भाई-बहन हैं या नहीं ? उसके मित्र किस तरह के लोग है ? सम्भव है, मै इन गौण बातो को अपनी कहानी मे न लिखू ; लेकिन इनका परिचय होना आवश्यक है। इन ब्योरो से चरित्र-चित्रण सजीव हो जाता है । जब तक लेखक को ये बाते न मालम हों, वह चरित्र के विषय मे कोई दृढ़ कल्पना नही कर सकता, न उसको भिन्न भिन्न परिस्थितियों मे रखकर स्वाभाविक रूप से उसका सचालन कर सकता है । वह हमेशा दुबधे मे पडा रहेगा।

प्रश्न-चरित्रों के वर्णन मे आप किस तरह की बाते लिखना अनुकूल समझते है ?

उत्तर-मै उसकी वेश-भूषा, रग-रूप, आकार-प्रकार आदि गौण बातो का लिखना अनावश्यक समझता हूँ। मै केवल ऐसी स्पष्ट और प्रत्यक्ष बाते लिखता हूँ, जिनसे पाठक के सामने एक चित्र खड़ा हो सके । बहुत-सी गौण बातें लिखने से चित्र स्पष्ट होने की जगह और धुंधला हो जाता है। मुझे खूब याद है कि बालजक ने अपने एक उपन्यास मे एक चचल रमणी के विषय मे लिखा था, कि 'वह तीतरी की भॉति कमरे मे आई। उसके सॉवले रग पर लाल कपडे खूब खिलते थे। इस वाक्य से उस स्त्री का चित्र मेरी आँखों के सामने फिरने लगाः लेकिन बालजक को इतने ही से सन्तोष न हुआ। उसने डेढ़ पृष्ठ उस चरित्र के विषय मे छोटी-छोटी बाते लिखने मे रॅग दिये । फल यह हुआ कि जो चित्र मेरी कल्पना मे खडा हुआ था, वह धुंधला होते-होते बिलकुल गायब हो गया । वास्तव मे किसी चरित्र का परिचय कराने के लिए केवल एक विशेष लक्षण काफी है । दूसरी बाते अवसर पड़ने पर आगे चलकर बयान की जा सकती हैं।

प्रश्न-एक बात और । क्या आप अपनी गल्पो मे दृष्टिकोण का परिवर्तन भी कभी करते हैं ? अर्थात्-कथा के विकास और प्रगति पर कभी एक चरित्र की दृष्टि से और कभी दूसरे चरित्र की दृष्टि से नजर डालते हैं या नहीं ? उत्तर-नही, मुझे यह पसन्द नहीं है। मै फ्रासीसी शैली को अच्छा समझता हूँ। किसी एक चरित्र को अपना मुख-पात्र बना कर लिखता है और जो कुछ सोचता या अनुभव करता हूँ सब उसी के मुख से कहला देता हूँ। इससे कहानी मे यथार्थता आ जाती है ।

प्रश्न-लेखको के विषय मे, अन्त:प्रेरणा के विषय मे आपका क्या विचार है ?

उत्तर-मै तो अन्तःप्रेरणा को मानसिक दशा समझता हूँ । प्रत्येक कहानी, लेखक के मन का ही प्रतिबिम्ब होती है । भावो मे तीव्रता और गहराई पैदा करने के लिए प्रबल भावावेश होना चाहिए। यदि ऐसा आवेश न हो, तो भी गल्प के विषय को बार-बार सोचकर मन मे उन्हीं बातों की निरन्तर कल्पना करके हम अपने भावो मे तोव्रता उत्पन्न कर सकते है। मुझे किसी कहानी का शुरू करना बहुत कठिन मालूम होता है; लेकिन एक बार शुरू कर देने के बाद उसे अधूरा नहीं छोडता ।

इसके बाद और भी कुछ सवाल-जवाव हुए, जिनमे मि० ओपेन- हाइम ने बताया कि वह कहानी लिखने के पहले उसका कोई खाका नहीं तैयार करते, केवल उसका अन्त और उसका उद्देश्य सोच लेते है। गल्प के प्रारभ मे आप ने बताया कि उसे चाहे जिस रूप मे रखिए- वाक्य हो या सभाषण, कोई घटना हो या कल्पना, चाहे कोई अनुभूति या विचार हो-जो कुछ हो, ससमे मौलिकता, नवीनता और अनोखापन हो। वह सामान्य, लचर, सौ बार की दुहराई हुई बात न हो । अन्त मे आपने कहा कि गल्प-रचना में भी अन्य कलाओ की भाँति अभ्यास से सिद्धि प्राप्त हो सकती है।

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