सामग्री पर जाएँ

सुखशर्वरी/ भाग 1

विकिस्रोत से
सुखशर्वरी
किशोरीलाल गोस्वामी

छबीलेलाल गोस्वामी, पृष्ठ ७ से – १२ तक

 

________________

श्रीमङ्गलमूर्तये भगवते नमः । KARI उपन्यास. न - - - - - - - - - - - - - - - प्रथम परिच्छेद OSSESSESEGESZSEO स्मशान। "पुरन्दरसहस्राणि, चक्रवर्तिशतानि च । निर्वापितानि कालेन, प्रदीपा इव वायुना ॥" (व्यासः) S HOC पहर रात थी 1 गगनमण्डल में चन्द्रमा उदय हुए थे, दो) पर आज उनके किरण की वैसी प्रभा नहीं थी, बरन क्षीण थी।सामने आनन्दपुर और हरिपुर के बीचोबीच Exiस्म शान था। वह विस्तृत,प्रशस्त और निस्तब्ध था। चन्द्र के मन्द प्रकाश में वहां एकआध खजूर वा ताड़ दिखाई देते थे, और आस पास एकआध कनकवक्ष मात्र थे। मालूम पड़ता था कि दिन में स्मशानवासी वायसगणों के बैठने के लिये मानो खंटा गाड़ा हो! रात्रि के समय चिता के अंगारों की ढेरी भयङ्कर मालूम होती थी। कहीं कहीं स्यार के बच्चे सद्यःप्रसूत मृतबालकों को तोड़ रहे थे। चारों ओर सन्नाटा था, और स्मशान की निस्तब्धता भङ्ग नहीं होती थी। सहसा गंभीर सन्नाटा मिटा और न जाने कौन बोला,-"बेटी ! अब मैं ज्यादे नहीं चल सकता, यहीं विश्राम कर।" यह बात बहुत धीमे शब्द से कही गई, इससे बृद्ध के सूखे कंठ की ध्वनि मालूम होती थी।

अनन्तर किसीने उसकी बातों का उत्तर दिया,-" लाया यहां ठहरने का काम नहीं है। इस भयानक स्थान को लांघकर हमलोग दूसरा आश्रय पावेंगे।"

यह बात स्मशान की वायु में मिल गई, और यह वयस्का बालिका के कंठ की ध्वनि बोध हुई।

अनन्तर वृद्ध ने कहा,-"मैं अब एक पग भी आगे नहीं चल सकता। बेटी, बैठो यहीं बैठो।"

फिर न जाने किसने कहा,-"जीजी ! बाबा जो कहते हैं, घही कमों नहीं करतीं ? मैं भी तो अब आगे नहीं चल सकता।"

यह बात बालक के कण्ठ की सी सुनाई दी।

पाठक! इस बालिका को अभी आप "अनाथिनी" के नाम से जानिए । पिता और भ्राता की बातों से निरुपाय होकर "अनाथिनी" स्मशाल ही में बैठी। वृद्ध कांपते कांपते अनाथिनी की गोद में सिर रखकर सो गए।

बालक का नाम सुरेन्द्र था, वह यहिन के बगल में बैठ गया ।

पाठक ! इन लोगों से आप कुछ परिचित हुए, अब इनका कथोपकथन सुनिए।

बालिका,-"बाया ! इस समय चित्त कुछ अच्छा है न?"

वृद्ध,-'बेटी! मालूम पड़ता है कि एकचार ही अच्छा हो जायगा। ओः! बड़ा कष्ट है! दुष्टों के हाथ से बच कर अब काल के गाल में गिरा चाहता हूं।"

बालिका,-"बाबा! ऐसी बातें न बोलो! सभी ज्वर से परित्राण पाते हैं। तुम अभी रस्ता चले हो, इसीसे ज्यादे कष्ट मालूम होता होगा।"

वद्ध,-"ठीक है ! किंतु बड़ी यातना है । यह यातना मृत्यु. यातना सी बोध होती है। बिचारा था कि मित्र के घर जाकर तुमलोगों को सुखपूर्वक रख देंगे । हाय ! सो नहीं हुआ चाहता।"

बालिका,-"हा! ये बातें क्यों कहते हो! मन में कुचिन्ता का आन्दोलन मत करो ! बाबा! हाथ से पेट सुहरावें ?"

इस बेर वद्ध ने कन्या की बातों पर ध्यान नहीं दिया। वह अपनी चिन्ता से डूबा था। कन्या और पुत्र कहां जायगे, मित्र के घर नहीं पहुंच सके। इत्यादि चिन्ता उसके मन में दौड़ रही थी।

थोड़ी देर के बाद उसने दीर्घनिश्वास लेकर धीमे और विकृत स्वर से कहा.-"बेटी-जो-सोचा था-सो-नहीं-हुमाहा!"

बालिका ने आग्रह से पूछा,-"बाबा! क्या सोचा था ?"

वृद्ध ने कुछ उत्तर नहीं दिया । मालूम होता था कि उस समय उसे बोलने की शक्ति नहीं थी। बड़े कष्ट से बालक का हाथ लेकर बालिका के हाथ में पकड़ा दिया और एक बार दोनो की ओर देख कर आंखें मुदलीं।

बालिका करुणापूर्वक बोली,-"हाय ! बाबा मुझे किसके पास छोड़े जाते हो ?" उस समय कदाचित वृद्ध की श्रवणेन्द्रिय प्रबल थी, सुतरां बालिका की कातर ध्वनि का उत्तर न देकर केवल अपना दोनों हाथ वृद्ध ने आकाश की ओर उठाया। मन में दारुण दुःख हुआ और मुंदे नयनों के कोनों से चौधारे आंसू बह चले अभीतक वद्ध पृथ्वी के मोहजाल में जड़ित था। धीरे धीरे आँसू थम्हे, मायाजाल छिन्न हुआ और वद्ध का प्राणवायु उड़ गया!

निश्वास के रुकने से बालिकाने जाना कि पिता परलोकगामी हुए ! तब बहुत सोच विचार कर अपनी गोदी से टनका मस्तक उठाकर पथ्वी पर रख दिया । बालक वद्ध को मृत्यु का हाल कुछ नहीं जानता था, वहीं बहिन के पास ही बैठा था।

न जाने क्या सोच समझकर वह बोला,-"जीजी ! बाबा तुम से क्या कह गए हैं ? कुछ देने के लिये ?"

बालिका उस समय चुपचाप रो रही थी, इस लिये उसने भाई की बातों पर कान नहीं दिया। इससे बालक कुछ क्रुध होकर बोला,-"मैं बाबा को उठा कर अभी पूछता हूं।"

यह कहकर बालक मृत पिता के समीप आकर जोर से पुकारने और उन्हें हिलाने लगा बोला,-"बाबा बाबा! जो तुम कह गए हो, सो जीजी न देती हैं, न बोलती हैं।"

पिता न जागे और न उन्होंने कुछ उत्तर दिया।यह देखकर बालक क्रय होकर कहने लगा,-"उठते क्यों नहीं बाबा ? मुझे बड़ा डर लगता है। न उठोगे तो मैं छुरी से अपना हाथ काट डालंगा वृध्द जो इस मायाभूमि को छोड़ कर चला गया था। इस बात को बालक नहीं जानता था । सो पिता से उत्तर न पाकर रोनी सूरत बनाकर बहिन से कहने लगा,-"देखो जीजी! कितना पुकारा, पर बाबा नहीं उठते।" बालिका ने सोचा कि यह बात छिपनेवाली नहीं है ! अन्त में प्रकाश होही जायगी । इस लिये पत्थर सा कड़ा कलेजा करके बड़े दुःख से कहा, भैया सुरेन्द्र ! पिता अब न जागेंगे, न कुछ बोलेंगे। वे सदा के लिये इस लोक को छोड़कर परलोक सिधार गए।"

कहते कहते आंखों से आंसू बहने लगे और करुणा से कण्ठ रुद्धहोगया।

बालक,-"जीजी ! झूठ कहती हो, बाबा कहां चले गए हैं ? यह देखो बाबा तो सो रहे हैं ! "

बालिका,-"यह केवल देहमात्र है, प्राणपखेरू तो देहपिञ्जर छोड़कर उड़ गया । यह पिशाचिनी निद्रा कभी भंग न होगी; अतः जो जा कर न आवै, वही मृतक कढ़ाता है।"

बालक,-"जीजी ! मर क्या गया ? मरा हुआ आदमी क्या फिर नहीं आता.?"

बालिका,-"भाई ! जानते नहीं ? वह जो नन्हू की माँ मर गई, सो क्या फिर कर आई ? उसी तरह तुम्हारे पिता भी अब न फिरेंगे।"

बालक,-"सोतो मालूम है, किन्तु सुनते हैं कि नन्हू बडा धूम करता था, इसीसे उसकी मां मर गई। पर हम लोगों ने क्या किया, जो बाबा मरगए ?"

बालिका,--"हमलोगों ने क्या किया, भाई ! जो कुछ किया, सो हमलोगों के अदृष्ट ने।"

तदनन्तर बालिका ने स्नेहपूर्वक अपने छोटे भाई को गले से लगा लिया और उसे गोदी में लेकर स्मशान के चारो ओर कुछ खोजने लगी। थोड़ी दूर पर एक धोई हुई चिता के पास बहुत से काठ के टुकड़े पड़े थे। धीरे धीरे उन्हें इकट्ठा कर के बड़ी निपुणता के संग चिता सज कर उस पर पिता का मृत कलेवर रख, चकमक से आग निकाल, अग्नि - --~- तक लेकर अपने हाथ से पिता के मुख में प्रदान किया । हा! जो मुख अमृत बरसाता था, उसमें आज अपने हाथ आग लगाना पड़ा। अब चिन्ता करना वृथा है, पिता तो आवेंगे नहीं, और संस्कार अवश्य. करना चाहिए;' यह विचार कर बालिका ने चिता में भयानक अग्नि लगा दी।

अग्नि ने जब घह-घह शब्द करके मृत देह को भक्षण करना प्रारंभ किया तो न जाने किसने स्मशान में से कहा,-" अनल! तुम्हारी सवेदाहक क्षमता हम जानते हैं। क्षणभर अपनी चाल रोको । एक बेर हमें पिता का मृत कलेचर स्पर्श कर लेने दो।"

यह वाक्य किसने कहा ? उसी विचारे अनाथ बालक ने । पर अग्नि ने कुछ भी नहीं सुना, देखते देखते वृद्ध का पाञ्चभौतिक शरीर भस्म में परिणत हुआ। हवा जोर से बहती थी, किन्तु जिस ओर “अनाथिनी ” बैठी थी, ठीक उसके विपरीत दिशा में वायु की गति थी और बालिका की ओर भम्मराशि वा अग्नि का उत्ताप नहीं आता था, इससे बालिका ने विचारा कि, 'भस्म हुए पिता का अभी तक इतना स्नेह है ! हा वे पिता कहां हैं ?'

बालक अभी तक चुप था । अब न जाने क्या सोच समझ कर बोला.-"जीजी, अब चाया कहां गए ?"

बालिका बिचारी क्या उत्तर देती ? अन्त में सोचकर बोली" स्वर्ग में।"

बालक,-" कैसे स्वर्ग में जाना होता है ? क्या आदमी मरने ही से स्वर्ग जाता है ?"

बालिका,-" अच्छा काम करने से स्वर्ग मिलता है।"

बालक,-" क्यों जीजी! हमलोगों को इस जनशून्य जंगल में नहीं नहीं स्मशान में छोड़कर बाबा चले गए; यह क्या उन्होंने अच्छा किया ?"

बालिका,-" इसमें उनका दोष नहीं, बरन हमलोगों के भाग्य का है। "

बालक,-" जीजी! मार्ग में जो जो बातें बाबा ने कही थी. वे तो एक भी न हुईं ! अब हमलोग कहाँ जायंगे ? कौन आक्षय देगा?

पालिका,-"भाई ! दयामय जगदीश्वर को छोड़ और हमलोगों का कौन रक्षक है ? चे जहां लेजायंगे, वहीं जायंगे।"

यह बात सुनकर बालक सन्तुष्ट होगया। अनाथिनी ने पहले बिचारा कि, 'सबेरे कहां जायँगे, किसके दरवाजे खड़े होंगे, क्या करेंगे?' अनन्तर हृदयभेदी चिन्ता दुःखभाराकान्त हृदय में स्थान न पाकर स्फुट स्वर में व्यक्त हुई,-

बालिका ने कहा,-" अहा ! चिता में कूद कर प्राण त्याग करती तो यह दुःख न भोगना पड़ता, और अनन्त काल के लिये सुख होता।"

बालक ने समझ कर धीरे से कहा,-"क्यों बहिन ! तुम इस तरह क्यों सोचती हौ ? अभी तो तुमने कहा है कि, 'दयावान जगदीश्वर हमलोगों के रक्षक हैं, तो क्या यह बात मिथ्या है ? जो ऐसा हो तो फिर एक चिता जलाओ और उसी में कूद कूद कर हमलोग अनन्त शान्ति को पावैं और पिता से मिलें । "

बालिका प्रबल शोक सम्बरण करके बोली,-" भाई ! ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए; जगदीश्वर अवश्य ही रक्षा करेंगे।"

बालक,- अच्छा तो अब न कुछ भय करूंगा, न कहूंगा! पर हमलोगों को आहार कौन देगा ?"

बालिका,-" भय क्या है ? जो सबको आहार देते हैं, वे हमलोगों को भी देगें! और कुछ उपाय न होने से भीख मांग कर मैं तुम्हें खिलाऊँगी।

बालक.- क्यों जीजी ! जैसे मेरे घर बहुत से भिक्षुक आया करते थे, वैसे ही तुम भी दूसरों के घर जाओगी! पर मैं तो अकेले न जाने दूंगा, मैं भी तुम्हारे संग चलंगा, किन्तु न जाने क्चों, मुझे बड़ी रुलाई आती है!"

बालक के वाक्य ने बालिका के गंभीरतम हदय में आघात किया । वह दोनों हाथ उठाकर दयामय ईश्वर को स्मरण करने लगी। धीरे धीरे निशादेवी अपना धूंघटपट खोल कर अन्तःपुर में प्रविष्ट हुई और प्रभात की प्रभा चारो ओर फैलने लगी। म्मशान में वहांके अधिवासी पशुपक्षियों की कलकलध्वनि सुनाई देने लगी।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।