सुखशर्वरी/ भाग 2

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सुखशर्वरी  (1916) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
[ १३ ]
द्वितीय परिच्छेद

कुटीर ।

"अपवादादभीतस्य, समस्य गुणदोषयोः।
असद्वत्तेरहो वृत्तं, दुर्विभाव्यं विधेरपि ॥

"

(भारविः)

न्ध्या होनेवाली थी और आकाश सघन-मसीमयी जलदमाला से ढका था। अभीतक प्रचण्ड बायु बहती थी, पर अब मेघमण्डल को एकता के सूत में देख भय से अपनी प्रचण्डता कम करने लगी। मेघमाला शत्रु को वश में करके हँसी, वही हँसी चंचलो की छटा थी। मेघ के हास्य को देख कर प्रचण्ड बायु तिरस्कार के छल से गरज उठी, फिर हँसी थम्ही और तिरस्कार भी रुका। मेघमण्डल मानो अपना दोष स्मरण कर अनुतप्त हो रोने लगा, वही अश्र. चिन्द प्रबल वारिधारा में परिणत होकर बरसने लगी। रोते रोते बायु की अवश्यता याद करके मेघगण धीच बीब में, हँसते भी थे और रह रह कर बज्रगंभीर गर्जन भी करते थे, समय भयक्ड़र और दुर्गम था।

बिजली के आलोक में सामने एक सरपट मैदान दिखाई दिया । यह स्थान पूर्वोक्त स्मशोन से दो कोस उत्तर की ओर था। प्रान्तर के एक और कल्लोलवाहिनी भागीरथी बहती थी। वहांके वृक्षों के पत्तों के ऊपर वर्षाविन्दु पड़ापड पड़ती थी। बराबर वृष्टि ने वृक्ष के वासी पक्षियों को बड़ा कष्ट दिया था, इससे वे कलरव कर रहे थे, किन्तु सभोंका शब्द वष्टि के वर्षाकर शब्द से मिल गया था। भला, नगारखाने में तूती की आवाज कभी सुनाई देती है!

सहसा उस प्रान्तर में, “आह ! कहीं पर ऐसी जगह नहीं मिलती, जहां आश्रय लूं!" इस प्रकार सकरुण आर्तनाद सुनाई देने लगा। यह भयंकर ध्वनि वष्टि के तुमुल शब्द में नहीं लीन हुई, बरन बहुत दूर तक तैर गई । इस पर प्रान्तर की दूसरी ओर [ १४ ]से, " इधर आओ बेटा! " यह शब्द तीर की तरह छूटा हुआ आया। यह ध्वनि आश्रय चाहनेवाले के कानों में गई । उस समय पथिक चारोओर देखने लगा। विद्य त्प्रकाश में दिखाई दिया कि, 'पास हो वृक्षों की बारी से घिरे हुए एक कुटीर में से दीपक का थोड़ा थोड़ा उँजाला आ रहा है। इसी प्रकाश को लक्ष्य कर के बड़े कष्ट से पथिक वहां पहुंचा, और प्रकाश के समीप पहुंच कर उसने देखा कि, 'एक सुन्दर कुटीर है ! उसके बाहर का भाग वृक्षों से घिरा हुआ है, और द्वार पर एक वृद्धा बैठी चर्खा कात रही है।'

वृद्धा ने पथिक को देखकर आह्लाद के संग कहा,-"बेटा! मेरी आवाज तुमने सुनी थी न । बैठो, बेटा ! बैठो।”

पथिक आश्रय पाकर हर्ष से बुढ़िया के पास बैठ गया, वृद्धा चरखा कातना बन्द करके पथिक के संग वार्तालाप में प्रवृत्त हुई !

वृद्धा,-"तुम्हारा घर कहां है, भाई ! और नाम क्या है ? "

पथिक,-"मेरा घर मिहरपुर है, और नाम मनसागम है। "

वद्धा,-"यह लम्बा-चौड़ा नाम गाम रहने दो ! मैं भैया-बञ्च कहकर पुकार लंगी। भला, इस आंधी-पानी में कोई घर के बाहर निकलता है ? कहांसे आते हो? और अब तक कहां रहे? "

पथिक " हां आं आं" यह कहकर अपने मन में बिचोरने लगा,-"व्यर्थ अबतक इधर उधर भटकता था! जिसे खोजता था, उसने स्वयं ही पुकार लिया।"

वद्धा,-"अच्छा बेटा ! तुम क्या मुसल्मान हौ ? कितने दिनों से फकीरी करते हो?"

पथिका,-"हां, ठीक-बीस वर्ष से।"

वद्धा,-"अच्छा, रोज खाने भर भीख मिल जाती है ?"

पथिक.-"नहीं माई, इसका कोई ठिकाना नहीं है, 'सब दिन नाहीं बराबर जात'-किसी दिन ज्यादे मिलता है,किसी दिन कम।"

वद्धा,-"आज कहां गए थे। और क्या मिला?"

पथिका,-"गाज आनन्दपुर गए थे,पर कुछ विशेष नहीं मिला।"

इसी समय एक बालक कुटीर के भीतर से आकर बोला,"क्यों ! मां ! यह पानी कब खुलेगा रे ? "

-- ----- - -- --- --- - - -[ १५ ]हमलोगों का परिचित सुरेन्द्रकुमार है। .

वद्धा ने बालक को गोदी में लेकर कहा,-"हां! बेटा! पानी बरसने से क्या तुम्हें कुछ कष्ट होता है ?"

"अब पानी खुलेगा" यह कहकर फकीर ने वृद्धा से पूछा कि, "यह बालक किसका है ?"

वद्धा ने हँसते हँमते कहा,-'अब यह मेग बालक है।"

फकीर ने आग्रहपूर्वक पूछा,-"तुम्हारा “अब" शब्द सुनकर मेरा कुतूहल गढ़ गया !"

वद्धा,-"तो सुनो, तुमसे सब बात कहती हूं-यह बालक सचमुच मेरा नहीं हैं, प्रायः पांच चार दिन हुए कि प्रातःकाल के समय इसकी बहिन इसे संग लेकर रोती रोती आश्रय ढंढने के लिये यहाँ आई । मैंने उससे सब बातें पूछौं । सुनने से बड़ा दुःख हुआ। इसीलिये उसके दुःख से दुःखित होकर, यहीं आश्रय दिया । तबसे ये दोनों यहीं रहते और मुझे मां कहते हैं."

पथिक,-"तुमने उससे क्या पूछा था ? "

वद्धा,-"यही कि, 'बेटी तुम क्यों रोती हो' ?”

पथिक,-"उसने क्या कहा ?" .

वुद्धा,-"हां भाई! आते आते मार्ग में उसके पिता का परलोक हुमा । अपना-पराया कोई न रहने से वह रोती थी।"

पथिक,-"हा! बड़े दुःख की बात है ! ये लोग कहांसे आते थे?"

वद्धा,-वहीं से तो-ऐ-हां ठीक याद पड़ा, हरीपुर से ! तुम बेटा हरीपुर जानते हो ?" .

पथिक,-"आंख से तो नहीं देखा है, किन्तु नाना की बूआ की चाची के मुख से सुना था। ये लोग क्यों आते थे ?" ..

वृद्धा,-वहीं के जमीदार के अत्याचार से।"

पथिक,-'कौन अत्याचार ?"

वृद्धा,-"देखो बेटा ! हरीपुर के जमीदार को लड़काबाला नहीं है, वह बलात् इसी बालक को दत्तक लिया चाहता है।"

पथिक,-"या अल्लाह ! हमलोगों का कहां ऐसा भाग है कि अपना बालक न होने से दूसरे का लड़का लेकर सुख उठावें ! हां इसके बाद ?"

वडा -"अनन्तर भयानक अत्याचार से घबड़ाकर रातोंरात [ १६ ]लड़का-लड़की को संग लेकर इसके बाप घर से भागे थे; पर मार्ग में आते आते उनकी मृत्यु हुई। ”

पथिक ने अपने मन में कहा,-"बस अब कहां जाता है ! वह मारा!!! " फिर प्रगट में बुढ़िया से बोला,-"हां ! ये लोग जाते कहां थे?"

वृद्धा,-'यह बात यह नहीं जानती। कदाचित् वे कोई मित्र के घर जाते थे । क्यों बेटा ! धनिकों को दूसरों पर दया नहीं आती?"

पथिक,-"यह बात क्योंकर कहूं, सदा से तो दुःख भोग रहा हूं।"

वृद्धा,-"हां भाई ! ठीक ही तो है ! हम दरिद्रों के पास क्या धरा है ? तो भी दया-मया जानती हूं। किसीका बुरा नहीं चेतती; और देखो न ! उस बूढ़े बिचारे का बालक देखकर जमोदार की आंख इसी पर गड़ गई !”

पथिक,-तुम्हें खूब दया मया है ! भाग्यों से तुम्हारा आश्रय मिला, इसीसे प्राण बचे । अबतक मैं तुम्हारे इस चर्खे को तरह घूम रहा था। अच्छा! अल्लाह के फजल से लड़का जीता रहेगा।"

वृद्धा,-"ठीक कहते हो, बेटा! ठीक है ! कुछ जंतर-मंतर दे सकते हो, जिसमें यह अच्छा रहे!"

पथिक,-"हाँ हां ! जब सबेरे जाऊंगा, तब तुम्हें कुछ दे जाऊंगा।"

वृद्धा ने संतुष्ट होकर पथिक को फल मूल आदि आहार देकर अतिथिसत्कार किया । पथिक भोजनों को आत्मसात करके सोचते विचारते सोगया।

अब जल वायु भी शान्त हुई थी । मण्डूकों की "टर्रकों टर्रकों" वाली कर्कश ध्वनि कानों में आने लगी और जल का "कल-कल" शब्द सुनाई देने लगा। धीरे धीरे वृष्टि थमी। अब शृगालों का कर्कश शब्द गगनस्पर्श करने लगा। [ १७ ]
तृतीय परिच्छेद

भग्नगृह ।

"दैवे विमुखतां याते, न कोऽप्यस्ति सहायवान् ।
पिता माता तथा भार्या, भ्राता वाथ सहोदरः॥"

(व्यासः)

वृ द्धा, अनाथिनी बालिका और बालक सुरेन्द्र उस ठण्डी और गम्भीर निशा में निद्रित थे । धीरे धीरे निशादेवी का राज्य लुप्त होगया । कुटीर के भीतर शीतल, मन्द, सुगन्ध, समीर जलकण लिये मृदु मृदु चालों से अनाधिनी बाला को आकर स्पर्श करने लगा । अभी हम इस दुःखिनीबाला को अनाथिनी ही कहेंगे। उसने उठकर जो देखा, उससे वह बहुत स्तम्भित और चिन्तित हुई ! उसने देखा कि, 'सुरेन्द्र नहीं है और पथिक का भी कुछ पता नहीं है!' बिचारी बाला घबड़ा कर आर्तनाद करने लगी। उसके रोने से वद्धा भी उठ बैठी और सारा हाल सुनकर महादुःखित हुई । इस समय कुटीर में सूर्य्यरश्मि धीरे-धीरे आ रही थी।

अनाथिनी अनाथिनी की तरह रोने लगी। वृध्दा ने उसे बहुत समझा बुझाकर अपने जाने हुए गावों में बालक को खोजने के लिये प्रस्थान किया । अकेली बालिका क्या करती ? बड़ी चिन्तित हुई।

उसने बिचारा कि, एक दुःख के ऊपर दूसरा दुःख क्या अवश्य होता है ? हा! पिता की मृत्यु और भ्राता की चोरी! पिता ने मरते समय मेरे हाथ में सुरेन्द्र का हाथ पकड़ा दिया था। पिता तुम्हारी आत्मा इन बातों को देख कर न जाने मुझे कैसी कृतघ्न कहेगी ? मैं क्या करूं ? मैं निःसहाय और सामान्य बालिका हूं।"

अनाथिनी ने इसी तरह सोचते सोचते अपनी गठरी खोली। दो एक मैले वस्त्र निकाले, फिर न जाने क्या देख कर सहसा [ १८ ]उसकी चिन्ता दूर हुई । उसने देखा कि, 'कपड़े के भीतर एक पत्र पड़ा है ! आग्रह से उसे उठा लिया, और देखने से शोकराशि बढ़ गई । उसने सोचा, 'ऐं ! यह पत्र किसका है ? मेरे पिता का? फिर मन में दो एक बेर उसे पढ़ा, पर चित्त के न मानने से पुनः धीरे धीरे पढ़ा, पत्र यही था,--

"महाशय!

"आपका पत्र पाकर बहुत दुःखित हुशा, किन्तु अत्यन्त सन्तुष्ट भी हुआ । रामशङ्करबाबू का अत्याचार तो मेरे दुःख का कारण हुआ, पर अनुग्रह-पूर्वक आपका यहां आने का प्रस्ताव मेरे सुख तथा हर्ष का हेतु हुआ। जन्मभूमि में जो शत्रु लोग बहुत बढ़ जाय, तो उस प्यारी भूमि को भी छोड़ ही देना चाहिए। आप जो यहां आने में संकोच न करेंगे तो मैं अतिशय बाधिक होऊँगा। मुझे आप अपने छोटे भाई की तरह जानिए । आप हमलोगों के मान्य और शुभाकांक्षी हैं। आपकी आन्तरिक इच्छा मैंने समझी, वह यहां आने पर यथासमय सम्पन्न होगी। आपने लिखा कि,-'दरिद्र व्यक्ति की कन्या के सहित संभ्रान्त पुरुष के पुत्र का विवाह किस प्रकार संभव है?'-यह तीखी बात फिर न सुनूं तो नितान्त अनुगृहीत होऊँगा। पत्र पाते ही बालिका और बालक के संग अवश्य पधारिए।

वशंवद,

श्रीहरिहरशर्मा।

पत्र को पढ़ कर अनाथिनी ने क्या सोमा ? पिता का विषय ! एक बेर यह पत्र इसके पिता के आनन्दाथ से आर्द्र हुआ था, आज बालिका के कोमल नेत्रों के हर्ष-निषाद मय आसुओं से भोंगा!

अनाथिनी ने अनिर्मेष-नयनों से पत्र को बारबार देखा, फिर धोरे धीरे मोड़ कर अंचल में बांध लिया। फिर खोला, फिर पढ़ा, और फिर बांध लिया।

अनाथिनी मन में सोचने लगी कि, 'संसार में मेरे पिता के एकमात्र मित्र हरिहरबाबू ही हैं, पर उनका घर कहां है ? '

'मेरा क्या विवाह !' उन्होंने लिखा कि, 'बालक-बोलिका के । संग आना ! हा ! भैया सुरेन्द्र कहां है ? पिता तो स्वर्ग गए! [ १९ ]________________

- - www. uk - यो सोचते सोचते वह कुटीर के बाहर आई। प्रायः दोपहर होगया था, किन्तु आकाश अभी तक मेघाच्छन्न था; इससे सूर्य के किरण की तेजी नहीं थी। सहसा कुटीर छोड़कर जिधर मुंह पड़ा, उसी ओर अनाथिनी जाने लगी। किस लिये ? छोटे भाई के खोजने को। . बालिका के मन में निश्चय था कि, 'मैं अपने भाई को खोज लूंगी।' कुछ दूर जाने पर एक तिरमुहानी मिली। तीनों पथ लोगों के आने जाने बिना प्रायः असंस्कृत हो रहे थे। एक पथ में कीचड़ होने से कई मनुष्यों के पैर के चिन्ह उखड़े थे। बालिका ने देखकर वही पथ पकड़ा। वह कहां जाती है, इस पथ का कहां अन्त है, इसका कुछ ठिकाना नहीं। जाते जाते अनाथिनो एक सघन बन में पहुंची । असंख्य वृक्षराजि, अनन्त फूल-फल, अनेक पशु-पक्षी, और अशेष प्राकृतिक शोभा की रमणीयता से बन शोभायमान था। अनाथिनी को देखकर पशु-पक्षी भागने लगे। यह देख उसने मृदु स्वर से हंसकर आप ही आप कहा,-"मुझसे क्यों डरते हो ?" एक सुन्दर पुष्करिणी के निर्मल जल में जलचर कलोल करते थे। वृक्षों की शाखाओं की एकता से उस बन में सूर्य की किरण नहीं घुसने पाती थी । बालिका खड़ी हो धन की शोभा देखने लगी। अन्त में एक वृक्ष-कोटर में दो चिल्ली के बच्चों को क्रीड़ा करते देख उसने दीनिश्वास त्याग करके कहा,-"इस समय भाता कहां है ?" उसके मन में बहुत कष्ट हुआ और वह इधर उधर टहलने लगी। कुछ दूर आगे जाने पर मनुष्य का पदचिन्ह दिखाई दिया। उसके मन में आशा हुई और कई कदम आगे जाकर कुछ देखकर वह बड़ो बिस्मित हुई ! उसने देखा कि, 'एक वट-वृक्ष में जीर्ण-शीर्ण घोड़ा बंधा हैं !' अनाथिनी ने सोना कि, 'यह अश्व किसका है और कहां से आया ?' क्यों कि वह जिस पथ से आई थी, वह यहीं समाप्त होगया था। अश्व की ओर से आँख फेर कर सामने क्या देखा कि, एक पक्का मकान है, किन्तु भग्नप्राय होरहा है !' तब तो अनाथिनी डरी। अनन्तर भाई के खोजने की अभिलाषा ने भय को दूर किया। आशा से हदय पूर्ण करके बालिका उस घर के आंगन में जाकर प्रेमावेश से उन्मत्त होकर हठात् "सुरेन्द्र सुरेन्द्र !” कहकर जोर से पुकारने [ २० ]________________

सुखशवरी। लगी। उस चिल्लाहट को प्रतिध्वनि ने भीषण स्वर से उत्तर दिया। प्रतिध्वनि होने के पीछे ही, "भागो! भागो! यहां क्यों प्राण देने आई हौ ?” ये शब्द अनाथिनी के कानों में गए । बालिका डर के मारे चारोंओर देखने लगी, अन्त में ऊपर एक खिड़की में अपूर्व और अकथनीय मुख दीख पड़ा। - उस मुखच्छबि से मोहित होकर बालिका ने कहा,-"ऐं ! आप मुझे यहांसे भागने के लिये क्यों कहते हैं ? क्या यहां कोई भूला-भटका बालक आया है ? " अपरिचित,-"मैं कौन हूं ? एक ठाभागा आदमी। यह भग्नगृह एक दुर्दान्त कापालिक का बासस्थान है, सुतरां तुम अपनी जान लेकर अभी भागो। यहां न कोई बालक आया, और न मैंने देखा।" _ यालिका,-"आप अभागे क्यों हैं ? और दुष्ट कापालिक के हाथ कैसे पड़े ?" अपरिचित,-'हा! क्या कहूं ?" यह कहकर उसने मन में कहा,-"कुछ दिनों के बाद एक बार ही जीवन का दीए निर्वाण होगा, तब विपद के छिपाने से क्या प्रयोजन है ?" बालिका स्थिर नेत्रों से युवक का मुख देखने लगी। अपरिचित युवा, चंचलनयनी कुतूहलाक्रांत बाला के संशय दूर करने के लिये अपना वृत्तान्त कहने लगा। वह बोला,-"एक दिन सन्ध्या के समय मैं किसी कार्य के लिये घोड़े पर चढ़कर इसी पथ से दर किसी ग्राम की ओर जाता था। उस समय भयानक आंधी उठी और संग ही मूसलधार पानी भी बरसने लगा। अश्व की गति रुकने से निरुपाय होकर आश्रय लाभ की आशा से मैंने इस घर में प्रवेश किया। रात्रि अंधेरी थी और आगे चलने की सामर्थ्य नहीं होती थी । शरीर भी परिधान्त हो रहा था, अतः सोच बिचार कर यहीं बिश्राम किया। धीरे धीरे निद्रा आगई । प्रातः काल जाग कर देखा कि, 'मैं नरघाती कापालिक के हाथ बन्दी हूं।" _बालिका ने युवक की बात सुनकर दीघनिश्वास त्यागकर कहा,-"आपकी दुःख-कहानी सुनकर छाती फटी जाती है। हा! मैं क्या कुछ भी आपकी सहायता नहीं कर सकती हूं? कहिए? वह दुःखदायी शत्र अभी कहां है ?" [ २१ ]________________

. युवक;-"समीपवती बन में तंत्र साधन करता होगा! हा! उसने कितनों का सर्वनाश किया होगा।" बालिका,-" आइए न ! इसी समय चुपचाप हम दोनो जने भाग चलें।" युवक,-" सरलहृदये ! मेरे हाथ पैर शृङ्खला से बंधे हैं। मैं हिलने डोलने में संपूर्ण अक्षम हूं। अब तक अंधेरे में बैठा बैठा बड़ी चिन्ता में डूबा था। सहसा तुम्हारा कोमल स्वर कानो में गया और मैंने तब सोचा कि कोई अनाथिनी अबला कदाचित् फिर पापी कापालिक के पाले पड़ी होगी वा पड़ेगी; इसीसे तुम्हें सावधान करने के लिये बड़े कष्ट से खिड़की के पास तक सरक सरक कर आया। हा-" युवक ने दीर्घनिश्वास लिया और बालिका ने साहस से कहा,-" तो मैं आकर आपको बेड़ी और हथकड़ी छुड़ा दूं ?" युवक,-" कोमलहदये ! देखो! आगे न बढ़ो! इस कारागार के द्वार का भारी ताला तोड़ना तुम्हारा काम नहीं है, वह काम दुःसाध्य है। मेरे जीवन के लिये अपना जीवन उलझाव में न फसाँओ। ओः ! जान पड़ता है कि सूर्य अस्त हुए, शीघ्र ही कापालिक आवैगा, भागो! वृथा बातों में समय बीत गया, जल्दी भागो।" यों कहकर युवा ने मन में कहा,-" सब बात ही गुप्त रही ! रे मन ! एकाएक द्वार बन्द कर ! स्मरणशक्ति ! विलुप्त हो! क्या आत्मपरिचय दूं ? इससे क्या उद्धार होगा ? नहीं, तो फिर प्रयोजन नहीं है; कापालिक आता होगा।" _ प्रकाश्य में कहा,-" कापालिक आता होगा, तुम भागो, भागो, जल्दी भागो!" " आपने मुझे जीवनदान दिया, और मैं आपका कुछ उपकार न कर सकी, ईश्वर आपका मंगल करे।" यह कहकर रोती रोती अनाथिनी बिदा हुई और डरती डरती अपनी कुटीर की ओर चली।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।