सेवासदन/१४

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ६० ]

शर्माजी को ऐसा जान पड़ा मानो किसी ने लोहे की छड़ लाल करके उनके हृदय मे चुभा दी। माथे पर पसीना आ गया। वह सामने से तलवार का वार रोक सकते थे, किन्तु पीछे से सूई की नोक भी उनकी सहन-शक्ति से बाहर थी। विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। शर्माजी उनकी इज्जत करते थे। आपस में बहुधा मतभेद होने पर भी वह उनके पवित्र उद्देश्यो का आदर करते थे। ऐसा व्यक्ति जान-बुझकर जब किसी पर कीचढ फेंके तो इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है कि शुद्ध विचार रखते हुए भी वह क्रूर है। शर्माजी समझ गये कि होली के जल्से के प्रस्ताव से नाराज होकर विट़्ठलदास ने यह आग लगाई है, केवल मेरा अपमान करने के लिए, जनता की दृष्टि में गिराने के लिए मुझ पर यह दोषारोपण किया है। क्रोध से कांपते हुए बोले, तुम उनके मुंह पर कहोगे?

गजाधर—हाँ, सांच को क्या आंच? चलिये, अभी मैं उनके सामने कह दूं। मजाल है कि वह इन्कार कर जायें।

क्रोध के आवेगमें शर्माजी चलने को प्रस्तुत हो गये। किन्तु इतनी देर में आंधी का वेग कुछ कम हो चला था। संभल गये। इस समय वहाँ जाने से बात बढ़ जायगी, यह सोचकर गजाधर से बोले, अच्छी बात है, जब बुलाऊँ तो चले आना। मगर निश्चिन्त मत बैठो। महाराजिनकी खोज में रहो, समय बुरा है। जो खर्च की जरूरत हो, वह मुझसे लो।

यह कहकर शर्माजी घर चले आये। विट्ठलदासकी गुप्त छुरी के आघात ने उन्हें निस्तेज बना दिया था। वह यही समझते थे कि विट्ठलदासने केवल द्वेष के कारण यह षड्यंत्र रचा है। यह विचार शर्माजी के ध्यान में न आया कि सम्भव है, उन्होंने जो कुछ कहा हो वह शुभचिन्ताओ से प्रेरित होकर कहा हो और उसपर विश्वास करते हो।

१४

दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ लेकर किसी स्कूल में दाखिल कराने [ ६१ ] चले। किन्तु जहाँ गये साफ जवाब मिला 'स्थान नहीं है'। शहर में बारह पाठशालाएँ थी, लेकिन सदन के लिए कही स्थान न था।

शर्माजी ने विवश होकर निश्चय किया कि मै स्वयं पढ़ाऊँगा। प्रातः काल तो मुवक्किल के मारे अवकाश नहीं मिलता। कचहरी से आकर पढ़ाते किन्तु एक ही सप्ताह में हिम्मत हार बैठे। कहाँ कचहरी से आकर पत्र पढ़ते थे, कभी हारमोनियम बजाते, कहाँ अब एक बूढे तोते को रटाना पड़ता था। वह बारम्बार झुझलाते, उन्हें मालूम होता कि सदन मन्दबुद्धि है। यदि वह कोई पढ़ा हुआ शब्द पूछ बैठता तो शर्मा जी झल्ला पड़ते। वह स्थान उलट-पलट कर दिखाते, जहाँ वह शब्द प्रथम आया था। फिर प्रश्न करते और सदन ही से उस शब्दका अर्थ निकलवाते। इस उद्योग में काम कम होता था किन्तु उलझन बहुत थी। सदन भी सामने पुस्तक खोलते हुए डरता। वह पछताता कि कहाँ से कहाँ यहाँ आया, इससे तो गॉव ही अच्छा था। चार पक्तियाँ पढायगे, लेकिन घण्टों बिगड़ेगे। पढ़ा चुकने के बाद शर्माजी कुछ थकसे जाते। सैर करने को भी जी नही चाहता। उन्हें विश्वास हो गया कि इस काम की क्षमता मुझमें नहीं है।

मुहल्ले में एक मास्टर साहब रहते थे। उन्होने २०) मासिक पर सदन को पढाना स्वीकार किया। अब यह चिन्ता हुई कि यह रुपये आवें कहाँ से? शर्माजी फैशनेबुल मनुष्य थे, खर्च का पल्ला सदा दबा ही रहता था। फैशन का बोझ अखरता तो अवश्य था, किन्तु उसके सामने कन्धा न डालते थे। बहुत देर तक एकान्त में बेठे सोचते रहे, किन्तु बुद्धि ने कुछ काम न किया, तव सुभद्रा के पास जाकर बोले, मास्टर २०) पर राजी है।

सुभद्रा-तो क्या मास्टर ही न मिलते थे? मास्टर तो एक नहीं सौ है, रुपये कहाँ है?

शर्मा-रुपये भी ईश्वर कही से देगे ही।

सुभद्रा-मै तो कई साल से देख रही हूँ, ईश्वर ने कभी विशेषकृपा नहीं की। बस इतना दे देते है कि पेट की रोटियाँ चल जायँ, वही तो ईश्वर है! [ ६२ ] अपने हाथों से उस के जूते साफ करने पड़े तब भी मुझे इन्कार न होगा; नहीं तो मुझ जैसा कृतध्न मनुष्य संसार में न होगा।

ग्लानि से सुभद्रा का मुखकमल कुम्हला गया। यद्यपि शर्माजी ने वे बातें सच्चे दिल से कही थी, पर उसने समझा कि यह मुझे लज्जित करने के निमित्त कही गई है। सिर नीचा कर बोली, तो मैने यह कब कहा कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाय? जो काम करना ही है उसे करा डालिये। जो कुछ होगा देखा जायेगा। जब दादाजी ने आपके लिए इतने कष्ट उठाए है तो यही उचित है कि आप भी सदन के लिए कोई बात उठा न रखे मुझसे जो कुछ करने को कहिए वह करूँ। आपने अबतक कभी इस विषय पर जोर नहीं दिया था, इसलिए मुझे भ्रम हुआ कि यह कोई आवश्यक खर्च नही है। आपको पहले हो दिनसे मास्टरका प्रबन्ध करना चाहिए था। इतने आगे-पीछे का क्या काम था? अबतक तो यह थोड़ा बहुत बढ़ भी चुका होता। इतनी उम्र गंवाने के बाद जब पढ़ने का विचार किया है तो उसका एक दिन भी व्यर्थ न जाना चाहिए।

सुभद्रा ने तत्क्षण अपनी लज्जा का बदला ले लिया। पंडितजी को अपनी मूल स्वीकार करनी पड़ी। यदि अपना पुत्र होता तो उन्होंने कदापि इतना सोचविचार न किया होता।

सुभद्रा को अपने प्रतिवाद पर खेद हुआ। उसने एक पान बनाकर शर्माजी को दिया। यह मानो सन्धिपत्र था। शर्माजी ने पान ले लिया, सन्धि स्वीकृत हो गई।

जब वह चलने लगे तो सुभद्रा ने पूछा, कुछ सुमन का पता चला?

शर्माजी-कुछ भी नहीं, न जाने कहाँ गायब हो गई, गजाधर भी नही दिखाई दिया। सुनता हूं। घर-बार छोड़ कर किसी तरफ निकल गया है।

दूसरे दिनसे मास्टर साहब सदन को पढ़ाने लगे। नौ बजे वह पढ़ाकर चले जाते तब सदन स्नान भोजन करके सोता। अकेले उसका जी बहुत घबराता, कोई संगी न साथी, न कोई हंसी न दिल्लगी, कैसे जी लगें। [ ६३ ] हाँ, प्रातःकाल थोडी-सी कसरत कर लिया करता था। इसका उसे व्यसन था। अपने गाँव में उसने एक छोटा-सा अखाड़ा बनवा रखा था। यहाँ अखाडा तो न था, कमरे ही में डंड कर लेता। शाम को शर्माजी उसके लिए फिटिन तैयार करा देते। तब सदन अपना सूट पहनकर गर्व के साथ फिटिन पर सैर करने निकलता। शर्माजी पैदल घूमा करते थे। वे पाक या छावनी की ओर जाते, किन्तु सदन उस तरफ न जाता। वायुसेवन में जो एक प्रकार का दार्शनिक आनन्द होता है उसका उसे क्या ज्ञान! शुद्ध वायु को सुखद शीतलता, हरे भरे मैदानों की विचारोत्पादक निर्जनता और सुरम्य दृश्यों की आनन्दमयी निस्तब्धता उसमे इनके रसास्वादन की योग्यता न थी। उसका यौवनकाल था, जब बनाव-सिंगार का भूत सिरपर सवार रहता है। वह अत्यन्त रूपवान, सुगठित, बलिष्ठ युवक था। देहात में रहा, न पढ़ना, न लिखना, न मास्टर का भय न परीक्षा की चिन्ता, सेरों दूध पीता था। घर की भैसें थीं, घी के लोदे के लोदे उठाकर खा जाता। उसपर कसरत का शौक। शरीर बहुत सुडौल निकल आया था। छाती चौड़ी, गरदन तनी हुई, ऐसा जान पड़ता था, मानो देह में ईगूर भरा हुआ है। उसके चेहरे पर वह गम्भीरता और कोमलता न थी जो शिक्षा और ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसके मुखसे वीरता और इण्डता झलकती थी आंखें मतवाली, सतेज और चञ्चल थी। वह वाग का कलमी पौधा नही, वन का सुदृढ वृक्ष था। निर्जन पार्क या मैदान में उसपर किसकी निगाह पड़ती है कौन उसके रूप और यौवन को देखता! इसलिए वह कभी दालमंडी की तरफ जाता, कभी चौक की तरफ! उसके रंगरूप ठाटबाट पर बूढ़े जवान सबकी आंखें उठ जाती। युवक उसे ईर्षा से देखते, बूढ़े स्नेह से। लोग राह चलते चलते उसे एक आँख देखने के लिए ठिठक जाते| दूकानदार समझते कि यह किसी रईसका लडका है।

इन दुकानों के ऊपर सौन्दर्य का बाजार था। सदन को देखते ही उस बाजार में एक हलचल मच जाती। वेश्याएँ छज्जों पर आ आकर खड़ी हो जाती और प्रेम कटाक्ष के वाण उसपर चलातीं। देखें यह बहका हुआ कबूतर [ ६४ ] किस छतरीपर उतरता है? यह सोनेकी चिडिया किस जालमे फंसती है? सदन में वह विवेक तो नही था जो सदाचार की रक्षा करता है। उसमें वह आत्म-सम्मान भी नही था जो आँखो को ऊपर नही उठने देता। उसकी फिटन बाजार में बहुत धीर-धीरे चलती। सदन की आँखे उन्ही रमणियों की ओर लगी रहती। यौवन के पूर्वजाल में हम अपनी कुवासनाओं के प्रदर्शन पर गर्व करते है, उत्तर काल अपने सद्गुणों प्रदर्शन पर। सदन अपने को रसिया दिखाना चाहता था, प्रेम से अधिक बदनामी का आकांक्षी था। इस समय यदि उसका कोई अभिन्न मित्र होता तो सदन उससे अपने कल्पित दुष्प्रेम की विस्तृत कथाएँ वर्णन करता।

धीरे-धीरे सदन के चित्त की चंचलता यहाँ तक बढ़ी कि पढ़ना लिखना सब छूट गया। मास्टर आते और पढाकर चले जाते। लेकिन सदन को उनका आाना बहुत बुरा मालूम होता। उसका मन हर घडी बाजार की ओर लगा रहता, वही दृश्य आँखों में फिरा करते, रमणियो के हाव-भाव ओर मृदु मुस्कान के स्मरण में मग्न रहता। इस भाँति दिन काटने के बाद ज्यों ही शाम होती वह बनठन कर दालमंडी की ओर निकल जाता। अन्त में मन को इस कुप्रवृति का बही फल हुआ जो सदैव हुआ करता है तीन ही चार मास में उसका संकोच उड़ गया। फिटिन पर दो आदमी दूतों की तरह उसके सिरपर सवार रहते। इसलिए वह इस वाग के फूलो में हाथ लगाने का साहस न कर सकता था। वह सोचने लगा कि किसी भांति इन दूतों से गला छुडाऊँ। सोचते सोचते उसे एक उपाय सूझ गया। एक दिन उसने शर्माजी से कहा चचा, मुझे एक अच्छा सा घोडा ले दोजिये। फिटिन पर अपाहिजों की तरह बैठे रहना कुछ अच्छा नही मालूम होता। घोडेपर सवार होने से कसरत भी हो जायगी और मुझे सवारी का भी अभ्यास हो जायगा।

जिस दिन से सुमन गई थी शर्माजी कुछ चिन्तातुर रहा करते थे। मुवक्किल लोग कहते कि आजकल इन्हें न जाने क्या हो गया है बात बात पर झुझला जाते है। हमारी बात ही न सुनेंगे तो वह क्या करेंगे। [ ६५ ] जब हमको मेहनताना देना है तो क्या यही एक वकील है? गली-गली तो मारे-मारे फिरते है। इससे शर्माजी की आमदनी दिन प्रतिदिन कम होती जाती थी। यह प्रस्ताव सुनकर चिन्तित स्वर से बोले, अगर इसी घोड़े पर जीन खिंचा लो तो कैसा हो? दो-चार दिन में निकल जायगा।

सदन—जी नही, बहुत दुर्बल है, सवारी में न ठहरेगा। कोई चाल भी तो नही, न कदम, न सरपट। कचहरी से थका माँदा आयेगा तो क्या चलेगा?

शर्मा—अच्छा, तलाश करूंगा, कोई जानवर मिला तो ले लूँगा। शर्माजी ने चाहा कि इस तरह बात टाल दूँ। मामूली घोड़ा भी ढाई तीन सौ से कम न मिलेगा, उसपर कमसे कम २५) मासिक का खर्च अलग। इस समय वे इतना खर्च उठाने मे समर्थ न थे, किन्तु सदन कब मानने वाला था। नित्यप्रति उनसे तकाजा करता, यहॉ तक कि दिन में कई बेर टोंकने की नौबत पहुँची। शर्माजी उसकी सूरत देखते ही सूख जाते। यदि उससे अपनी आर्थिक दशा साफ-साफ कह देते तो सदन चुप हो जाता, लेकिन अपनी चिन्ताओं की राम कहानी सुनाकर वह उसे कष्टमें नही डालना चाहते थे।

सदन ने अपने दोनो साईसोसे कह रक्खा था कि कही घोड़ा बिकाऊ हो तो हमसे कहना। साईसों ने दलाली के लोभसे दत्तचित होकर तलाश की। घोड़ा मिल गया। डिगवी नाम के एक साहब विलायत जा रहे थे। उनका घोड़ा बिकनेवाला था। सदन खुद गया, घोडे को देखा, उसपर सवार हुआ, चाल देखी। मोहित हो गया। शर्माजी से आकर कहा, चलिये घोड़ा देख लीजिये मुझे बहुत पसन्द है। शर्माजी को अब भागने का कोई रास्ता न रहा, जाकर घोड़े को देखा, डिगबी साहब से मिले, दाम पूछे। उन्होने ४००) माँगे, इससे कौड़ी कम नही।

अब इतने रुपये कहाँ से आवें। घर में अगर सौ-दो-सौ रुपये थे तो वह सुभद्रा के पास थे और सुभद्रा से इस विषयमे शर्माजी को सहानुभूति की लेशमात्र भी आशा न थी। उपकारी बैंक के मैनेजर बाबू चारुचन्द्र से उनकी [ ६६ ] मित्रता थी। उनसे उधार लेने का विचार किया लेकिन आज तक शर्माजी को ऋण माँगने का अवसर नही पड़ा था। बार-बार इरादा करते और फिर हिम्मत हार जाते। कही वह इन्कार कर गये तब? इस इन्कार का भीषण भय उन्हें सता रहा था। वह यह बिल्कुल न जानते थे कि लोग कैसे महाजनों पर अपना विश्वास जमा लेते है। कई बार कलम दवात लेकर रुक्का लिखने बैठे, किन्तु लिखें क्या यह न सूझा। इसी बीच में सदन डिगवी साहब यहाँ से घोडा ले आया। जीन साजका मूल्य ५०) और हो गया। दूसरे दिन रुपये चुका देने का वादा हुआ। केवल रातभर की मोहलत थी। प्रातःकाल रुपये देना परमावश्यक था। शर्माजी की-सी हैसियत के आदमी के लिए इतने रुपये का प्रबन्ध करना कोई मुश्किल न था। किन्तु उन्हें चारो ओर अन्धकार दिखाई देता था। उन्हें आज अपनी क्षुद्रता का ज्ञान हुआ। जो मनुष्य कभी पहाड़ पर नही चढ़ा है, उसका सिर एक छोटे से टीले पर भी चक्कर खाने लगता है। इस दुरवस्था में सुभद्रा के सिवा उन्हें कोई अवलम्ब न सूझा। उसने उनकी रोनी मूरत देखी तो पूछा, आज इतने उदास क्यो हो? जी तो अच्छा है?

शर्माजीने सिर झुकाकर उत्तर दिया, हाँ, जी तो अच्छा है।

सुभद्रा—तो चेहरा क्यों उतरा है?

शर्मा— क्या बताऊँ कुछ कहा नही जाता, सदन के मारे हैरान हूँ। कई दिन से घोड़े की रट लगाये हुए था। आज डिगबी साहबके यहाँ से घोड़ा ले आया, साढ़े चार सौ रुपये के मत्थे डाल दिया।

सुभद्रा ने विस्मित होकर कहा, अच्छा यह सब हो गया और मुझे खबर ही नहीं।

शर्मा—तुमसे कहते हुए डर मालूम होता था।

सुभद्रा—डर की कौन बात थी? क्या में सदन की दुश्मन थी जो जलभुन जाती? ... उसके खेलने खाने के क्या और कोई दिन आवेंगे? कौन बड़ा खर्च है, तुम्हें ईश्वर कुशल से रखें, ऐसे चार-पाँच सौ रुपये [ ६७ ]कहाँ आवेंगे और कहाँ जायेंगे। लड़के का मन तो रह जायगा। उसी भाई का बेटा है जिसने आपको पाल पोसकर आज इस योग्य बनाया।

शर्माजी इस व्यंग के लिए तैयार थे। इसीलिए उन्ही ने सदन की शिकायत करके यह बात छोड़ी थी। किन्तु वास्तव में उन्हे सदन का यह व्यसन उतना दुखजनक नही मालूम होता था जितनी अपनी दारुण धनहीनता। सुभद्रा की अनुमति प्राप्त करने के लिए उसके हृदय में पैठना जरूरी था। बोले, चाहे जो कुछ हो, मुझे तो तुमसे कहते हुए डर लगता था। मन की बात कहता हूँ। लडकों का खाना-खेलना सबको अच्छा लगता है, पर घर में पूजी हो तब। दिनभर से इसी फिक्र में पडा हुआ हूँ| कुछ बुद्धि काम नहीं करती। सबेरे डिगवी साहब का आदमी आवेगा उसे क्या उत्तर दूंगा? बीमार भी पड जाता तो एक बहाना मिल जाता।

सुभद्रा—तो यह कौन मुश्किल बात है। सवेरे चादर ओढ़कर लेट रहियेगा, मैं कह दूंगी कि आज तबीयत अच्छी नहीं है।

शर्माजी हँसी को रोक न सके। इस व्यंग में कितनी निर्दयता कितनी विरक्ति थी। बोले, अच्छा मान लिया कि आदमी कल लौट गया, लेकिन परसों तो डिगवी साहब जानेवाले ही है, कल कोई न कोई फिक्र करनी ही पड़ेगी।

सुभद्रा—तो वही फिक्र आज क्यों नही कर डालते।

शर्मा—भाई, चिढाओ मत, अगर मेरी बुद्धि काम करती तो तुम्हारी शरण क्यों आता? चुपचाप काम न कर डालता? जब कुछ नहीं बन पड़ा है तब तुम्हारे पास आया हूँ। बताओ क्या करूँ?

सुभद्रा—मै क्या बताऊँ? आपने तो वकालत पढ़ी है, मैं तो मिडिल तक भी नहीं पढ़ी, मेरी बुद्धि यहाँ क्या काम देगी? इतना जानती हूँ कि घोड़े का द्वार पर हिनहिनाते सुनकर बैरियों की छाती धड़क जायगी जिस वक्त आप सदन को उसपर बैठे देखेंगे, तो आंखे तृप्त हो जायेंगी।

शर्मा—वही तो पूछता हूँ कि यह अभिलाषाएँ कैसे पूरी हों? [ ६८ ]सुभद्रा—ईश्वर पर भरोसा रखिए, वह कोई-न-कोई जुगुत निकालेगा ही।

शर्मा—तुम तो ताने देने लगी।

सुभद्रा—इसके सिवा मेरे पास और है ही क्या? अगर आप समझते हों कि मेरे पास रुपये होंगे तो यह आपकी भूल है। मुझे हेर-फेर करना नही आाता सन्दूक की चाबी लीजिये, सौ सवा सौ रुपये पड़े हुए है, निकाल ले जाइये। बाकी के लिए और कोई फिक्र कीजिये। आपके कितने ही मित्र है, क्या दो-चार सौ रुपये का प्रबन्ध नही कर देगे।

यद्यपि पद्मसिंह यही उत्तर पाने की आशा रखते थे, पर इसे कानो से सुनकर वह अघोर हो गये। गाँठ जरा भी हलकी न पड़ी। चुपचाप आकाश की ओर ताकने लगे जैसे कोई अथाह जल में बहा जाता हो।

सुभद्रा सन्दुक की चाबी देने को तैयार तो थी, लेकिन सन्दूकमें १००) की जगह पूरे ५००) बटुए में रक्खे हुए थे। यह सुभद्रा की दो सालकी कमाई थी। इन रुपयों को देख-देख सुभद्रा फूली न समाती थी। कभी सोचती, अबकी घर चलूँगी तो भाभी के लिए अच्छा सा कगन लेती चलूगी और गाँव की सब कन्याओंके लिए एक-एक साडी। कभी सोचती, यही कोई काम पड़ जाय और शर्माजी रुपये लिए परेशान हो तो मैं चट निकालकर दे दगी। वह कैसे प्रसन्न होगे! चकित हो जायेंगे। साघारणतः युवतियो के हृदय में ऐसे उदार भाव नही उठा करते। वह रुपये जमा करती है अपने गहनो के लिए। लेकिन सुभद्रा बढे घरकी बेटी थी, गहनो से मन भरा हुआ था।

उसे रुपयों का जरा भी लोभ न था। हाँ, एक ऐसे अनावश्यक कार्यलिए उन्हें निकालने में कष्ट होता था, पर पण्डितजी की रोनी सूरत देखकर उसे दया आ गई वोली, आपने बैठे-बिठाये यह चिन्ता अपने सिर ली। सीधी-सी तो बात थी। कह देते, भाई अभी रुपये नही है, तब तक किसी तरह काम चलाओ। इस तरह मन बढाना कौन सी अच्छी बात है? आज घोड़े की जिद है, कल मोटरकार की घुन होगी, तब क्या कीजियेगा? माना कि दादाजी ने आपके साथ बड़े अच्छे सलूक किये है, [ ६९ ] लेकिन सब काम अपनी हैसियत देखकर ही किये जाते है। दादाजी यह सुनकर आपसे खुश न होंगे।

यह कहकर वह झमककर उठी और सन्दूक मेंं से रुपयों की पाँच पोटलियाँ निकाल लाई, उन्हें पति के सामने पटक दिया और कहा—यह लीजिये ५००) है, जो चाहे कीजिये। रक्खे रहते तो आप ही के काम आते, पर ले जाइये किसी भाँति आपकी चिन्ता तो मिटे। अब सन्दूक में फूटी कौड़ी भी नहीं है।

पण्डिजी ने हकबकाकर रुपयों की ओर कातर, नेत्रों से देखा, पर उनपर टूटे नहीं। मन का बोझ हलका अवश्य हुआ, चेहरे से चित्त की शान्ति झलकने लगी। किन्तु वह उल्लास, वह विह्वलता जिसकी सुभद्रा को आशा थी, दिखाई न दी। एक ही क्षण में वह शान्ति की झलक भी मिट गई। खेद और लज्जा का रंग प्रकट हुआ। इन रुपयों मे हाथ लगाना उन्हें अतीव अनुचित प्रतीत हुआ। सोचने लगे, मालूम नही; सुभद्रा ने किस नियत से यह रुपये बचाये थे, मालूम नही, इनके लिए कौन-कौन से कष्ट सहे थे।

सुभद्राने पूछा, सेत का धन पाकर भी प्रसन्न नही हुए? शर्माजी ने अनुग्रहपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा, क्या प्रसन्न होऊँ? तुमने नाहक यह रुपये निकाले। मैं जाता हूँ, घोडे को लोटा देता हूँ। यह कह दूँगा 'सितारा, पेशानी' है या और कोई दोष लगा दूँगा। सदन को बुरा लगेगा, इसके लिए क्या करूँ।

यदि रुपये देने के पहले सुभद्रा ने यह प्रस्ताव किया होता तो शर्माजी बिगड़ जाते। इसे सज्जनता के विरुद्ध समझते और सुभद्रा को आड़े हाथों लेते, पर इस समय सुभद्रा के आत्मोत्सर्ग ने उन्हें वशीभूत कर लिया था। समस्या यह थी कि घर में सज्जनता दिखावे या बाहर। उन्होने निश्चय किया कि घर में इसकी अधिक आवश्यकता है, किन्तु हम बाहरवालों की दृष्टि में मान मर्यादा बनाये रखनेके लिए घरवालों की कब परवाह करते है?

सुभद्रा विस्मित होकर बोली, यह क्या? इतनी जल्दी काया पलट [ ७० ] हो गई। जानवर लेकर उसे लौटा दोगे तो क्या बात रह जायगी? यदि डिगबी साहब फेर भी लें तो यह उनके साथ कितना अन्याय है? वह बेचारे विलायत जानेके लिए तैयार बैठे है। उन्हें यह बात कितनी अखरेगी? नहीं, यह छोटी सी बात है, रुपये ले जाइये दे दीजिये, रुपया इन्हीं दिनों लिए जमा किया जाता है। मुझे इनकी कोई जरूरत नही है में सहर्ष दे रही हूं। यदि ऐसा ही है तो मेरे रूपये फेर दीजियेगा, ऋण समझकर लीजिये।

बात ही थी, पर जरा बदले हुए रूप में। शर्माजी ने प्रसन्न होकर कहा, हां, इस शर्तपर ले सकता हूँ, मासिक किस्त वाँवकर अदा करूँगा।

१५

प्राचीन ऋषियों ने इन्द्रियों का दमन करने के दो साधन बताये हैं-—एक राग दूसरा वैराग। पहला साधन अत्यन्त कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार्ग को ग्रहण किया है। उसने गृहस्थों को कीचड़ का कमल बताना चाहा है।

जीवनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वासनाओं का प्राबल्य रहता है। बचपन मिठाइयों का समय है, बुढ़ापा लोभ का, यौवन प्रेम और लालसाओं का समय है। इस अवस्था में मीनाबाजार की सैर मन में विप्लव मचा देती है। जो सुदृढ हैं, लज्जाशील वा भाव-शून्य वह सँभल जाते है। शेष फिसलते है और गिर पड़ते है।

शराब की दुकानों को हम बस्ती से दूर रखने का यत्न करते हैं, जुएखाने में भी हम घृणा करते है, लेकिन वेश्याओं की दुकानों को हम सुसज्जित कोठों पर चौक बाजारी में ठाट से सजाते है। यह पापोत्तेजना नहीं तो और क्या है?

बाजार की साधारण वस्तुओं में कितना आकर्षण है! हम उनपर लट्टू हो जाते है और कोई आवश्यकता न होनेपर भी उन्हें ले लेते है।