सामग्री पर जाएँ

सेवासदन/१३

विकिस्रोत से
सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ ५९ से – ६० तक

 

१३

सुमन के चले जानेके बाद पद्मसिंहके हृदयमें एक आत्मग्लानि उत्पन्न हुई। मैंने अच्छा नही किया। न मालूम वह कहाँ गई। अपने घर चली गई हो तो पूछना ही क्या, किन्तु वहाँ वह कदापि न गई होगी। मरता क्या न करता, कही कुली डिपो वालो के जालमे फंस गई तो फिर छूटना मुश्किल है। यह दुष्ट ऐसे ही अवसर पर अपना बाण चलाते है, कौन जाने कही उनसे भी घोर तर दुष्टाचारियों के हाथ में न पड़ जाय। साहसी पुरुष को कोई सहारा नही होता तो वह चोरी करता है, कायर पुरुषको कोई सहारा नही होता तो वह भीख माँगता है, लेकिन स्त्रीको कोई सहारा नही होता तो वह लज्जाहीन हो जाती है। युवती का घर से निकलना मुँह से बात का निकलना है। मुझसे वही भूल हुई, अब इस मर्यादा पालन से काम न चलेगा। वह डूब रही होगी, उसे बचाना चाहिए।

वह गजाधर के घर जाने के लिए कपड़े पहनने लगे। तैयार होकर घर से निकले। किन्तु यह सशय लगा हुआ था कि कोई मुझे उसके दरवाजेपर देख न ले। मालूम नहीं, गजाधर अपने मन मे क्या समझे। कही उलझ पड़ा तो मुश्किल होगी। घर से बाहर निकल चुके थे, लौट पड़े और कपड़े उतार दिये।

शर्माजी को ऐसा जान पड़ा मानो किसी ने लोहे की छड़ लाल करके उनके हृदय मे चुभा दी। माथे पर पसीना आ गया। वह सामने से तलवार का वार रोक सकते थे, किन्तु पीछे से सूई की नोक भी उनकी सहन-शक्ति से बाहर थी। विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। शर्माजी उनकी इज्जत करते थे। आपस में बहुधा मतभेद होने पर भी वह उनके पवित्र उद्देश्यो का आदर करते थे। ऐसा व्यक्ति जान-बुझकर जब किसी पर कीचढ फेंके तो इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है कि शुद्ध विचार रखते हुए भी वह क्रूर है। शर्माजी समझ गये कि होली के जल्से के प्रस्ताव से नाराज होकर विट़्ठलदास ने यह आग लगाई है, केवल मेरा अपमान करने के लिए, जनता की दृष्टि में गिराने के लिए मुझ पर यह दोषारोपण किया है। क्रोध से कांपते हुए बोले, तुम उनके मुंह पर कहोगे?

गजाधर—हाँ, सांच को क्या आंच? चलिये, अभी मैं उनके सामने कह दूं। मजाल है कि वह इन्कार कर जायें।

क्रोध के आवेगमें शर्माजी चलने को प्रस्तुत हो गये। किन्तु इतनी देर में आंधी का वेग कुछ कम हो चला था। संभल गये। इस समय वहाँ जाने से बात बढ़ जायगी, यह सोचकर गजाधर से बोले, अच्छी बात है, जब बुलाऊँ तो चले आना। मगर निश्चिन्त मत बैठो। महाराजिनकी खोज में रहो, समय बुरा है। जो खर्च की जरूरत हो, वह मुझसे लो।

यह कहकर शर्माजी घर चले आये। विट्ठलदासकी गुप्त छुरी के आघात ने उन्हें निस्तेज बना दिया था। वह यही समझते थे कि विट्ठलदासने केवल द्वेष के कारण यह षड्यंत्र रचा है। यह विचार शर्माजी के ध्यान में न आया कि सम्भव है, उन्होंने जो कुछ कहा हो वह शुभचिन्ताओ से प्रेरित होकर कहा हो और उसपर विश्वास करते हो।

१४

दूसरे दिन पद्मसिंह सदन को साथ लेकर किसी स्कूल में दाखिल कराने