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सेवासदन/२

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ ७ से – १२ तक

 

दारोगा जी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओ की एक गद्दी के महन्त थे। उनके यहा सारा कारोबार 'श्रीवाकेविहारीजी’ के नाम पर होता था। 'श्री बाँकेबिहारी जी’ लेनदेन करते थे और ३२ सैकडे से कम सूद न लेते थे। वही मालगुजारी वसूल करते थे, वही रेहननामे-बैनामे लिखाते थे। 'श्री बांकेबिहारी जी' की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उनसे कड़ाई कर सकता था ‘श्री बाकेबिहारीजी' को रुष्ट करके उस इलाके में रहना कठिन था। महन्त रामदास के यहा दस बीस मोटे ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दण्ड पेलते, भैस का ताजा दूध पीते, सन्ध्या को दूधिया भग छानते और गाजे चरस की चिलम तो कभी ठण्डी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?

महन्त जी का अधिकारियो में खूब मान था। 'श्रीबांकेबिहारीजी’ उन्हें खूब मोतीचूर के लड्डू और मोहनभोग खिलाते थे। उनके प्रसाद से कौन इनकार कर सकता था? ठाकुर जी ससार में आकर ससार की रीति पर चलते थे।

महन्त जी रामदास जब अपने इलाके की निगरानी करने निकलते तो उनका जुलूस राजसी ठाटबाट के साथ चलता था। सबके आगे हाथी पर ‘श्रीबाकेबिहारीजी' की सवारी होती थी, उसके पीछे पालकी पर महन्त जी चलते थे, उसके बाद साधुओ की सेना घोड़ों पर सवार,राम-नाम के झण्डे लिये अपनी विचित्र शोभा दिखाती थी। ऊँटो पर छोल-दारिया, डेरे शामियाने लदे होते थे, यह दल जिस गांव में जा पहुँँचता था उसकी शामत आ जाती थी।

इस साल महन्त जी तीर्थयात्रा करने गए थे। वहा से आकर उन्होने एक बड़ा यज्ञ किया था। एक महीने तक हवनकुंड जलता रहा, महीनों तक कड़ाह न उतरे पूरे दस हजार महात्माओं का निमंत्रण था। इस यज्ञ के लिए इलाके के प्रत्येक आसामी से हल पीछे पांच रुपया चन्दा उगाहा गया था; किसी ने खुशी से दिया, किसी ने उधार लेकर जिसके पास न था उसे रुक्का ही लिखाना पड़ा। 'श्रीवाकेबिहारीजी’ की आज्ञा को कौन टाल सकता था? यदि ठाकुर जी को हार माननी पड़ी तो केवल एक अहीर से जिसका नाम चेतू था। वह बूढा दरिद्र आदमी था। कई साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए 'श्रोवाकेबिहारीजी’ ने उस पर इजाफा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से और भी दबा दिया था। उसने यह चन्दा देने से इनकार किया; यहा तक कि रुक्का भी न लिखा। ठाकुर जी ऐसे द्रोही को भला कैसे क्षमा करते? एक दिन कई महात्मा चेतू को पकड लाये। ठाकुरदारे के सामने उस पर मार पडने लगी। चेतू भी बिगडा। हाथ तो बँधे हुए थे, मुंह से लात घूसां का जवाब देता रहा और जब तक जबाव बन्द न हो गई, चुप न हुआ। इतना कष्ट देकर भी ठाकुर जी को सन्तोष न हुआ।उसी रात को उसके प्राण हर लिये। प्रातःकाल चौकीदार ने थाने मे रिपोर्ट की।

दारोगा कृष्णचन्द्र को मालूम हुआ, मानो ईश्वर ने बैठे बैठाये सोने की चिडिया उनके पास भेज दी, तहकीकात करने चले।

लेकिन महन्त जी की उस इलाके में ऐसी धाक जमी हुई थी कि दारोगा जी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकान्त में आकर उनसे सारा वृत्तान्त कह जाते थे, पर कोई अपना बयान न देता था।

इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गये। महन्त जी पहले तो अकड़े रहे। उन्हें निश्चय था कि यह भेद न खुल सकेगा। लेकिन जब उन्हे पता चला कि दारोगा जी ने कई आदमियो को फोड़ लिया है तो कुछ नरम पड़े। अपने मुख्तार को दारोगा जी के पास भेजा। कुबेर की शरण ली। लेन-देन की बातचीत होने लगी। कृष्णचन्द्रने कहा, मेरा हाल तो आप लोग जानते हैं कि रिश्वत को काला नाग समझता हूँ। मुख्तार ने कहा, हां, यह तो मालूम है, किन्तु साधुसन्तों पर कृपा रखनी ही चाहिए। इसके बाद दोनो सज्जनों में कानाफूसी हुई। मुख्तार ने कहा, नहीं सरकार, पाच हजार बहुत होते है, महन्त जी को आप जानते है, वह अपनी टेक पर आ जायँगे तो चाहे फासी हो ही जाय पर जी भर न हटेगे। ऐसा कीजिये कि उनको कष्ट न हो और आपका भी काम निकल जाय। अन्त में तीन हजार पर बात पक्की हो गई।

पर कडवी दवा को खरीद कर लाने, उसका काढा बनाने और उसे उठा कर पीने में बडा अन्तर है। मुख्तार तो महन्त के पास गया और कृष्णचन्द्र सोचने लगे, यह मैं क्या कर रहा हूँ?

एक ओर रुपया का ढेर था और चिन्ताव्याधि से मुक्त होने की आशा दूसरी ओर आत्मा का सर्वनाश और परिणाम का भय। न हाँ करते बनता था, न नाही।

जन्म भर निर्लोभ रहने के बाद इस समय अपनी आत्मा का बलिदान करने में दारोगा जी को बडा दुख होता था। वह सोचते थे, यदि यही करना था तो आज से पचीस साल पहले ही क्यो न किया, अब तक सोने की दीवार खडी कर दी होती। इलाके ले लिये होते। इतने दिनो तक त्याग का आनन्द उठाने के बाद बुढापे मे यह कलक! पर मन कहता था, इसमें तुम्हारा क्या अपराध? तुमसे जब तक निभ सका, निवाहा। भोग-विलास के पीछे अधर्म नही किया; लेकिन जब देश, काल, प्रथा और अपने बन्धुओ का लोभ तुम्हे कुमार्ग की ओर ले जा रहे है तो तुम्हरा दोष? तुम्हारी आत्मा अब भी पवित्र है। तुम ईश्वर के सामने अब भी निरपराध हो। इस प्रकार तर्क कर के दरोगा जी ने अपनी आत्मा को समझा लिया।

लेकिन परिमाण का भय किसी तरह पीछा न छोडता था। उन्होने कभी रिश्वत नही ली थी। हिम्मत न खुली थी। जिसने कभी किसी पर हाथ न उठाया हो, वह सहसा तलवार का वार नही कर सकता। यदि कही बात खुल गई तो जेलखाने के सिवा और कही ठिकाना नही; सारी नेकनामी धूल में मिल जायगी। आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है, पर परिणाम का भय, तर्क से दूर नही होता। वह पर्दा चाहता है। दारोगा जी ने यथासम्भव इस मामले को गुप्त रक्खा। मुख्तार से ताकीद कर दी कि इस बात की भनक भी किसी के कान में न पड़ने पावे। थाने के कान्सटेबिलो और अमलो से भी सारी बाते गुप्त रखी गई।

रात के नौ बजे थे। दारोगाजी ने अपने तीनो कान्सटेबिलो को किसी बहाने से थाने के बाहर भेज दिया था। चौकीदारो को भी रसद का सामान जुटाने के लिए इधर-उधर भेज दिया था और आप अकेले बैठे हुए मुख्तार की राह देख रहे थे। मुख्तार अभी तक नही लौटा, कर क्या रहा है? चौकीदार सब आकर घेर लेंगे तो बडी मुश्किल पड़ेगी। इसी से मैंने कह दिया था कि जल्द आना। अच्छा मान लो, जो महन्त तीन हजार पर भी राजी न हुआ तो? नहीं, इससे कम न लूगा। इससे कम में विवाह हो ही नही सकता।

दारोगाजी मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे कि कितने रुपये दहेज में दूँगा और कितने खाने-पीने में खर्च करूँगा।

कोई आध घण्टे के बाद मुख्तार के आने की आहट मिली। उनकी छाती धडकने लगी। चारपाई से उठ बैठे, फिर पानदान खोल कर पान लगाने लगे कि इतने में मुख्तार भीतर आया।

कृष्णचन्द्र——कहिए?

मुख्तारदू—महन्त जी ......

कृष्णदन्द्र ने दरवाजे की तरफ देख कर कहा, रुपये लाये या नही?

मुख्तार——जी हाँ, लाया हूँँ, पर महन्त जी ने .... ..

कृष्णचन्द्र ने चारों तरफ देखकर चौकन्नी आंखो से देख कर कहा——मैं एक कोटी भी कम न करूँगा।

मुख्तार——अच्छा मेरा हक तो दीजियेगा न?

कृष्ण——अपना हक महन्त जी से लेना।

मुख्तार——पांच रुपया सैकडा तो हमारा बँधा हुआ है। कृष्ण-—इसमें से एक कौड़ी भी न मिलेगी । मैं अपनी आत्मा बेच रहा हूँ,कुछ लूट नही रहा हूँ।

मुख्तार—आपकी जैसी मरजी, पर मेरा हक मारा जाता है।

कृष्ण--मेरे साथ घर तक चलना पड़ेगा।

तुरन्त बहुली तैयार हुई और दोनों आदमी उस पर बैठ कर चले । बहली के आगे-पीछे,चौकीदारों का दल था। कृष्णचन्द्र उड़कर घर पहुंचना चाहते थे । गाड़ीवान को बार बार हांकने के लिए कह कर कहते कहते, अरे क्या सो रहा है ? हाके चल ।

११ बजते-बजते लोग घर पहुंचे । दारोगा जी मुख्तार को लिए हुए अपने कमरे में गये और किवाड़ बन्द कर दिये । मुख्तार ने थैली निकाली । कुछ दिुन्नियां थी, कुछ नोट और नगद रुपये । कृष्णचन्द्र ने झट थैली ले ली और बिना देखे सुने उसे अपने सन्दूक में डाल कर ताला लगा दिया।

गंगाजली अभी तक उनकी राह देख रही थी। कृष्णचन्द्र मुख्तार को बिदा करके घर में गये । गंगाजली ने पूछा, इतनी देर क्यों की ?

कृष्ण-—काम ही ऐसा आ पड़ा और दूर भी बहुत है।

भोजन कर के दारोगा जी लेटे, पर नींद न आती थी । स्त्री से रुपये की बात कहते उन्हे संकोच हो रहा था । गंगाजली को भी नीद न आती थी । वह बार-बार पति के मुंह की ओर देखती, मानों पूछ रही थी कि बचे या डूबे।

अन्त में कृष्णचन्द्र बोले- यदि तुम नदी के किनारे खड़ी हो और पीछे से एक शेर तुम्हारे ऊपर झपटे तो क्या करोगी ?

गंगाजली इस प्रश्न का अभिप्राय समझ गई । बोली, नदी में चली जाऊँगी।

कृष्ण-चाहे डूब ही जाओ ?

गंगा –हाँ डूब जाना शेर के मुह पड़ने से अच्छा है ।

कृष्ण—अच्छा, यदि तुम्हारे घर में आग लगी हो और दरवाजे से
निकलने का रास्ता न हो तो क्या करोगी?

गंगा-छत पर चढ़ जाऊँगी और नीचे कूद पड़ूगी।

कृष्ण-इन प्रश्नों का मतलब तुम्हारी समझ में आया?

गंगाजली ने दीनभाव से पति की ओर देख कर कहा, तब क्या ऐसी बेसमझ हूँ?

कृष्ण-मै कूद पडा़ हूँ। बचूगा या डूब जाऊँगा, यह मालूम नहीं।