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सेवासदन/३

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १२ से – १४ तक

 

पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे। इस विषय में अभी नोसिखुए थे। उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है। मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमी ने सब कुछ किया और हमी से यह चाल! हमे क्या पडी़ थी कि इस झगड़े में पड़ते और रात दिन बैठे तुम्हारी खुशामद करते। महन्त फसते या बचते, मेरी बला से, मुझे तो अपने साथ न ले जाते। तुम खुश होते या नाराज, मेरी बला से, मेरा क्या बिगाड़ते? मैने जो इतनी दौड़-धूप की, वह कुछ आशा ही रख कर की थी।

वह दारोगा जी के पास से उठ कर सीधे थाने में आया और बातो ही बातों में सारा भण्डा फोड़ गया।

थाने के अमलो ने कहा, वाह हमसे यह चाल! हमसे छिपा-छिपा कर यह रकम उडा़ई जाती है। मानो हम सरकार के नौकर ही नही है। देखें यह माल कैसे हजम होता है। यदि इस वगुला भगत को मजा न चखा दिया तो देखना।

कृष्णचन्द्र तो विवाह की तैयारियों में मग्न थे। वर सुन्दर, सुशील सुशिक्षित था। कुछ ऊँचा और धनी। दोनों ओर से लिखा-पढी हो रही थी। उधर हाकिमो के पास गुप्त चिट्ठियाँ पहुँच रही थी। उनमें सारी घटना ऐसी सफाई से बयान की गयी थी, आक्षेपो के ऐसे सबल प्रमाण दिये गए थे, व्यवस्या की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि हाकिमों के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। उन्होने गुप्त रीति से तहकीकात की। संदेह जाता रहा। सारा रहस्य खुल गया।

एक महीना बीत चुका था। कल तिलक जाने की साइत थी। दारोगा जी संध्या समय थाने में मसनद लगाये बैठे थे, उस समय सामने से सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस आता हुआ दिखाई दिया। उसके पीछे दो थानेदार और कई कान्सटेबल चल आ रहे थे। कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबरा कर उठे कि एक थानेदार ने बढ़ कर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाया। कृष्णचन्द्र का मुख पीला पड़ गया। वह जड़मूर्ति की भाति चुपचाप खड़े हो गए और सिर झुका लिया। उनके चेहरे पर भय न था, लज्जा थी। यह वही दोनो थानेदार थे, जिनके सामने वह अभिमान से सिर उठा कर चलते थे, जिन्हे वह नीच समझते थे। पर आज उन्ही के सामने वह सिर नीचा किये खडे़ थे। जन्म भर की नेक-नामी एक क्षण मे धूल में मिल गयी। थाने के अमलो ने मन में कहा, और अकेले-अकेले रिश्वत उडाओ।

सुपरिन्टेन्डेन्ट ने कहा,-वेल किशनचन्द्र, तुम अपने बारे में कुछ कहना चाहता है?

कृष्णचन्द्र ने सोचा--क्या कहूँ? क्या कह दूं कि मै बिल्कुल निरपराध हूँ, यह सब मेरे शत्रुओ की शरारत है, थानेवालो ने मेरी ईमानदारी से तंग आकर मुझे यहाँ से निकालने के लिए यह चाल खेली है?

पर वह पापाभिनय में ऐसे सिद्धहस्त न थे। उनकी आत्मा स्वयं अपने अपराध के बोझ से दबी जा रही थी। वह अपनी ही दृष्टि में गिर गए थे।

जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दण्ड मिलता है उसी प्रकार सज्जन का दंड पाना अनिवार्य है। उसका चेहरा, उसकी ऑखें, उसके आकार-प्रकार, सब जिह्वा बन-बन कर उसके प्रतिकूल साक्षी देते है। उसकी आत्मा स्वयं अपना न्यायाधीश बन जाती है। सीधे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य पेचीदा गलियो में पड़ जाने पर अवश्य राह भूल जाता है। कृष्ण--सुनो, यह रोने धोने का समय नही है। मै कानून के पन्जे में फँसा हूँ और किसी तरह नही बच सकता। धैर्य से काम लो, परमात्मा की इच्छा होगी तो फिर भेट होगी।

यह कहकर वह बाहर की ओर चले कि दोनो लड़कियाँ आकर उनके पैरो से चिमट गई। गंगाजली ने दोनो हाथो से उनकी कमर पकड़ ली और तीनो चिल्लाकर रोने लगी।

कृष्णचन्द्र भी कातर हो गए। उन्होने सोचा, इन अबलाओ की क्या गति होगी? परमात्मन्! तुम दीनो के रक्षक हो, इनकी भी रक्षा करना।

एक क्षण में वह अपने को छुडा़कर बाहर चले गये। गंगाजली ने उन्हें पकड़ने को हाथ फैलाये, पर उसके दोनो हाथ फैले ही रह गये, जैसे गोली खाकर गिरनेवाली किसी चिङिया के दोनो पंख खुले रह जाते है।