सेवासदन/२०
इसके बाद डॉक्टर साहब अपने मुवक्किलो से बाते करने लगे; विट्ठलदास आध घंटे तक बैठे रहे, अन्त में अधीर होकर बोले, तो मुझे क्या आज्ञा होती है?
श्यामाचरण-आप इतमीनान रक्खे, अबकी कौसिलकी बैठक मे मैं गवर्नमेंट का ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित करूँगा।
विट्ठलदास के जी में आया कि डाक्टर साहब को आडे हाथो लूँ, किन्तु कुछ सोचकर चुप रह गये। फिर किसी बड़े आदमी के पास जाने का सहस न हुआ। लेकिन उस कर्मवीर ने उधोग से मुँह नहीं मोडा़। नित्य किसी सज्जन के पास जाते और उससे सहायता की याचना करते। यह उधोग सर्वथा निष्फल तो नहीं हुआ। उन्हे कई सौ रुपये के वचन और कई सौ रुपये नकद मिल गये, लेकिन ३०) मासिक की जो कमी थी वह इतने धन से क्या पूरी होती? तीन महीने की दौड़-धूप के बाद वह बडे़ मुश्किल से १०) मासिक का प्रबंध करने मे सफल हो सके।
अन्त मे जब उन्हें अधिक सहायता की कोई आशा न रही तो वह एक दिन प्रातःकाल सुमनवाई के पास गये। वह इन्हे देखते ही कुछ अनमनी-सी होकर बोली, कहिये महाशय, कैसे कृपा की?
विट्ठल--तुम्हे अपना वचन याद है?
सुमन--इतने दिनो की बाते अगर मुझे भूल जायें तो मेरा दोष नहीं।
विट्ठल--मैने तो बहुत चाहा कि शीघ्र ही प्रबन्ध हो जाय, लेकिन ऐसी जाति से पाला पडा़ है। जिसमें जातियता का सर्वथा लोप हो गया है। तिसपर भी मेरा उधोग बिलकुल व्यर्थ नहीं हुआ। मैने ३०) मासिकका प्रबन्ध कर लिया है और आशा है कि और जो कसर है वह भी पूरी हो जायगी। अब तुम से मेरी यह प्रार्थना है कि इसे स्वीकार करो और आज ही नरककुण्ड को छोड़ो दो।
सुमन-- शर्माजी को आप नहीं ला सके क्या? बिट्ठल-यह किसी तरह जाने पर राजी न हुए। इस ३० में २० मासिक का वचन उन्होंने दिया है। सुमन ने विस्मित होकर कहा अच्छा! वह तो बड़े उदार व्यक्ति निकले। सेठों से भी कुछ मदद मिली?
बिट्ठल—सेठों की बात न पूछों। चिम्मनलाल रामलीला के लिये हजार दो हजार रुपये खुशी से दे देंगे। बलभद्र से अफसरों की बधाई के लिये इससे भी अधिक मिल सकता है, लेकिन इस विषय में उन्होंने कोरा जवाब दिया।
सुमन इस समय सदन के प्रेमजाल में फंसी हुई थी। प्रेम का आंनन्द उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ था, इस दुर्लभ रत्न को पाकर वह उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। यद्यपि वह जानती थी कि इस प्रेम का परिणाम वियोग के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था लेकिन उसका मन कहता था कि जब तक यह आंनन्द मिलता है तब तक उसे क्यों न भोगूँ। आगे चलकर न जाने क्या होगा, जीवन की नाव न जाने किस-किस भंवर में पड़ेगी, न जाने कहाँ-कहाँ भटकेगी। भावी चिंताओ को वह अपने पास न आने देती थी। क्योंकि उधर भयंकर अंधकार के सिवा और कुछ न सूझता था। अतएव जीवन के सुधार का वह उत्साह, जिसके वशीभूत होकर उसने विट्ठलदास से वह प्रस्ताव किये थे, क्षीण हो गया था। इस समय अगर विट्ठलदास १०० मासिक को लोभ दिखाते तो भी वह खुश न होती, किन्तु एक बार जो बात खुद ही उठाई थी उससे फिरते हुए शर्म आती थी। बोली, में इसका जवाब आपको कल दूँगी। अभी कुछ सोचने दीजिये।
विट्ठल-इसमें क्या सोचना समझना है?
सुमन-कुछ नही, लेकिन कल ही पर रखिये।
रात के दस बज गये थे। शरद ऋतु की सुनहरी चाँदनी छिपी हुई थी। सुमन खिड़की से नीलवर्ण आकाश की ओर ताक रही थी। जैसे चांदनी के प्रकाश में तारागण की ज्योति मलीन पड़ गई थी, उसी प्रकार उसके हृदय से चन्द्ररूपी सुविचार ने विकाररू़पी तारागण को ज्योतिहीन कर दिया था। सुमन के सामने एक कठिन समस्या उपस्थित थी, विट्ठलदास को क्या उत्तर दूँ?
आज प्रात:काल उसने कल जवाब देने का बहाना करके विट्ठलदास को टाला था। लेकिन दिन भर के सोच-विचार ने उसके विचारो में कुछ संशोधन कर दिया था।
सुमन को यद्यपि यहाँ भोग-विलास के सभी सामान प्राप्त थे, लेकिन बहुधा उसे ऐसे मनुष्यों की आवभगत करनी पड़ती थी जिनकी सूरत से उसे घृणा होती थी, जिनकी बातों को सुनकर उसका जी मचलाने लगता था। अभी उसके मन मे उत्तम भावों का सर्वथा लोप नही हुआ था। वह उस अधोगति को नहीं पहुँची थी जहाँ दुर्व्यसन हृदय के समस्त भावों को नष्ट कर देता है। इसमे संन्देह नही कि वह विलास की सामग्रियों पर जान देती थी, लेकिन इन सामग्रियों की प्राप्ति के लिये जिस बेहयाई की जरूरत थी वह उसके लिये असहय थी और कभी कभी एकान्त में वह अपनी वर्तमान दशा को पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी। वहाँ यह टीमटाम न थी, किन्तु वह अपने समाज में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। वह अपनी सामने अपनी कुलीनता पर गर्व कर सकती थी, अपनी धार्मिकता और भक्ति भाव का रोब जमा सकती थी। किसी के सम्मुख उसका सिर नीचा नही होता था। लेकिन यहाँ उसके सगर्व हृदय को पग-पगपर लज्जा से मुँह छिपाना पड़ता था। उसे ज्ञात होता था कि मैं किसी कुलटा के सामने भी सिर उठाने योग्य नहीं हूँ। जो निरादर और अपमान उसे उस समय सहने पड़ते थे उनको अपेक्षा यहाँ की प्रेमवार्ता और आँखों की सनकियाँ अधिक दुःखजनक प्रतीत होती थीं और उसके भावपूर्ण हृदयपर कुठाराघात कर देती थी। तब उसका व्यथित हृदय पद्मसिंह पर दाँँत पीसपर रह जाता था। यदि उस निर्दय मनुष्यन ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती तो मुझे इस पापकुण्ड में कूदने का साहस न होता। अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ा रहने देते तो कदाचित् मैं अपने घर लौट जाती अथवा वह (गजाधर) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-झगड़कर जीवनके दिन काटने कटने लगते। इसलिये उसने विट्ठलदास से पद्मसिंह को अपने साथ लाने की शर्त की थी।
लेकिन जब आज जब विट्ठलदस से उसे ज्ञात हुआ कि शर्माजी मुझे उबारने के लिये कितने उत्सुक हो रहे है और कितनी उदारता के साथ मेरी सहायता करने पर तैयार है तो उनके प्रति घृणा के स्थान पर उसके मन मेें श्रद्धा उत्पन्न हुई। वह बड़े सज्जन पुरुष है। मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूँँ। उन्होने मुझपर दया की है। मैं जाकर उनके पैरो पर गिर पड़ूगी और कहूँगी कि आपने इस अभागिनी का उपकार किया है उसका बदला अपको ईश्वर देगे: यह कंगन भी लौटा दूँ, जिसमें उन्हें यह संतोष हो जाय कि जिस आत्मा की मैंने रक्षा की है, वह सर्वथा उसके अयोग्य नहीं है। बस, वहाँ से आकर इस पाप के माया जाल से निकल भागूँ।
लेकिन सदन को कैसे भुलाऊँगी।
अपने मन की इस चंचलता पर वह झुझला पड़ी। क्या उस पापमय प्रेम के लिये जीवन-सुधारक इस दुर्लभ अवसर को हाथ से मैं जाने दूँ! चार दिन की चाँदनी के लिये सदैव पाप के अन्धकार में पड़ी रहूँ? अपने हाथ से एक सरल हृदय युवक का जीवन नष्ट करूं? जिस सज्जन पुरुष ने मेरे साथ वह सद्व्यवहार किया है उन्ही के साथ यह छल! यह कपट नहीं, मैं इस दूषित प्रेम को हृदय से निकाल दूँगी। सदन को भूल जाऊँगी। उससे कहूँगी, तुम भी मुझे इस मायाजाल से निकलने दो।
आह! मुझे कैसा धोखा हुआ! यह स्थान दूर से कितना मुहावना, मनोरम, कितना सुख मय दिखाई देता था। मैंने इसे फूलो का बाग समझा, लेकिन है क्या? एक भंयकर वन, मांसाहारी पशुओं और विषैले कीड़ो से भरा हुआ।
यह नदी दूर से चाँद की चादर-सी बिछी हुई कैसी भली मालूम होती थी? पर अन्दर क्या मिलता है? बड़े बडे़ विकराल जल जन्तुओं का क्रीडास्थल! सुमन इसी प्रकार विचार सागर में मग्न थी। उसे यह