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सेवासदन/२१

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ ९२ से – ९४ तक

 

कटने लगते। इसलिये उसने विट्ठलदास से पद्मसिंह को अपने साथ लाने की शर्त की थी।

लेकिन जब आज जब विट्ठलदस से उसे ज्ञात हुआ कि शर्माजी मुझे उबारने के लिये कितने उत्सुक हो रहे है और कितनी उदारता के साथ मेरी सहायता करने पर तैयार है तो उनके प्रति घृणा के स्थान पर उसके मन मेें श्रद्धा उत्पन्न हुई। वह बड़े सज्जन पुरुष है। मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूँँ। उन्होने मुझपर दया की है। मैं जाकर उनके पैरो पर गिर पड़ूगी और कहूँगी कि आपने इस अभागिनी का उपकार किया है उसका बदला अपको ईश्वर देगे: यह कंगन भी लौटा दूँ, जिसमें उन्हें यह संतोष हो जाय कि जिस आत्मा की मैंने रक्षा की है, वह सर्वथा उसके अयोग्य नहीं है। बस, वहाँ से आकर इस पाप के माया जाल से निकल भागूँ।

लेकिन सदन को कैसे भुलाऊँगी।

अपने मन की इस चंचलता पर वह झुझला पड़ी। क्या उस पापमय प्रेम के लिये जीवन-सुधारक इस दुर्लभ अवसर को हाथ से मैं जाने दूँ! चार दिन की चाँदनी के लिये सदैव पाप के अन्धकार में पड़ी रहूँ? अपने हाथ से एक सरल हृदय युवक का जीवन नष्ट करूं? जिस सज्जन पुरुष ने मेरे साथ वह सद्व्यवहार किया है उन्ही के साथ यह छल! यह कपट नहीं, मैं इस दूषित प्रेम को हृदय से निकाल दूँगी। सदन को भूल जाऊँगी। उससे कहूँगी, तुम भी मुझे इस मायाजाल से निकलने दो।

आह! मुझे कैसा धोखा हुआ! यह स्थान दूर से कितना मुहावना, मनोरम, कितना सुख मय दिखाई देता था। मैंने इसे फूलो का बाग समझा, लेकिन है क्या? एक भंयकर वन, मांसाहारी पशुओं और विषैले कीड़ो से भरा हुआ।

यह नदी दूर से चाँद की चादर-सी बिछी हुई कैसी भली मालूम होती थी? पर अन्दर क्या मिलता है? बड़े बडे़ विकराल जल जन्तुओं का क्रीडास्थल! सुमन इसी प्रकार विचार सागर में मग्न थी। उसे यह उत्कंठा हो रही थी कि किसी तरह सवेरा हो जाय और विट्ठलदास आ जाये, किसी तरह यहाँ से निकल भागूँ। आधी रात बीत गई और उसे नींद न आई। धीरे धीरे उसे शंका होने लगी कि कही सबेरे विट्ठलदास न आये तो क्या होगा? क्या मुझे फिर यहाँ प्रात:काल से संध्या तक मीरासियों और धाड़ियों की चापलूसियाँ सुननी पड़ेगी। फिर पापरजोलिप्त पुतलियों का आदर सम्मान करना पड़ेगा? सुमन को यहाँ रहते हुए अभी छः मास भी पूरे नहीं हुए थे लेकिन इतने ही दिनों में उसे यहाँ का पूरा अनुभव हो गया था। उसके यहाँ सारे दिन मीरासियों का जमघट रहता था। वह अपने दुराचार, छल और क्षुद्रता की कथाएँ बड़े गर्व से कहते, उनमें कोई चतुर गिरहकट था, कोई धूर्त ताश खेलने वाला, कोई टपके की विद्या में निपुण कोई दीवार फांदने के फनका उस्ताद और सबके सब अपने दुस्साहस और दुर्बलता पर फूले हुए। पड़ोस को रमणियाँ भी नित्य आती थी, रंगी, बनी ठनी, दीपक के समान जगमगाती हुई किन्तु यह स्वर्णपात्र थे हलाहल से भरे हुए पात्र उन में कितना छिछोरापन था! कितना छल! कितनी कुवासना! वह अपनी निर्लज्जता और कुकर्मों के वृत्तांत कितने मजे ले लेकर कहती। उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था। सब ठगने की, छलने की धुन में मन सदैव पापतृष्णा में लिप्त। शहर में जो लोग सच्चिरित्र थे उन्हें यहाँ खूब गालियाँ हो जाती थी, उनकी खूब हंसी उड़ाई जाती थी, बुध्दू गोखा आदि की पदवियाँ दी जाती थी। दिनभर सारे शहर की चोरी और डाके, हत्या और व्यभिचार, गर्भपात और विश्वासघात की घटनाओं की चर्चा रहती। यहाँ का आदर और प्रेम अब अपने यथार्य रूप में दिखाई देता था। यह प्रेम नहीं था, आदर नही था, केवल कामलिप्सा थी। अबतक सुमन धैर्य के साथ यह सारी विपत्तियाँ के झेलती थी, उसने समझ लिया था कि अब इसी नरक कुण्ड में जीवन व्यतीत करना है तो इन बातो से कहाँ तक भागूँ। नरक में पड़कर नारकीय धर्म का पालन करना अनिवार्य था। पहली बार विट्ठलदास जब उसके पास आये थे तो उसने मन में उनकी उपेक्षा की थी, उस समय तक उसे यह रंग ढंग का ज्ञान न था। लेकिन आज मुक्ति का द्वार सामने खुला देखकर इस कारागार में उसे क्षण भर भी ठहरना असहय हो रहा था। जिस तरह अवसर पाकर मनुष्य की पाप चेप्टा जागृत हो जाती है, उसी प्रकार अक्सर पाकर उसकी धर्मचेष्टा भी जागृत हो जाती है। रात के तीन बजे थे। सुमन अभी तक करवटे बदल रही थी, उसका मन वलात् सदन की ओर खिंचता था। ज्यो-ज्यो प्रभात निकट आता था, उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। वह अपने मन को समझा रही थी। तू इस प्रेम पर फूला हुआ है? क्या तुझे मालूम नही कि इसका आधार केवल रंग रूप है! यह प्रेम नही है, प्रेम की लालसा है। यहाँ कोई सच्चा प्रेम करने नहीं आता। जिस भाँति मन्दिर मे कोई सच्ची उपासना करने नही जाता, उसी प्रकार उस मंण्डी मे कोई प्रेम का सौदा करने नही आता, सब लोग केवल मन बहलाने के लिये आते है। इस प्रेम के भ्रम मे मत पड़। अरुणोदय के समय सुमन को नींद आ गयी।

२२

शाम हो गई। सुमन ने दिन भर विट्ठलदासकी राह देखी, लेकिन वह अब तक नही आये। सुमन के मन में जो नाना प्रकार की शंकाएँ उठ रही थीं वह पुष्ट हो गईं। विट्ठलदास अब नही आवेगे, अवश्य कोई विध्न पड़ा। या तो वे किसी दूसरे काम में फंस गये या जिन लोगों ने सहायता का वचन दिया था पलट गये। मगर कुछ भी हो एक बार विट्ठलदास को यहाँ आना चाहिये था मुझे मालूम तो हो जाता कि क्या निश्चय हुआ। अगर कोई मेरी सहायता न करता, न करे, मैं अपनी मदद आप कर लूँगी, केवल एक सज्जन पुरुष की आड़ चाहिये। क्या विट्ठलदास से इतना भी नही होगा। चलूँ, उनसे मिलूँ और कह दूँ कि मुझे आर्थिक सहायता की इच्छा नही है, आप इसके लिये हैरान न हों, केवल मेरे रहने का प्रबंध कर दे और मुझे कोई काम बता दें, जिससे मुझे सूखी रोटियाँ मिल जाया करे, मैं और कुछ नही चाहती। लेकिन मालूम नही, वह कहां रहते है, वे पते-ठिकाने कहाँ कहाँ भटकती फिरूंगी।