सेवासदन/२५
में खुशी से दे दूँ! मेरा सब कुछ उसका है, वह चाहे माँगकर ले जाय चाहे उठा ले जाय।
सुभद्रा चिढ़ कर बोली, तो तुमने गुलामी लिखाई है, गुलामी करो; मेरी चीज कोई उठा ले जायगा तो मुझसे चुप न रहा जायगा।
दूसरे दिन सन्ध्या को जब शर्मा जी सैर करके लौटे तो सुभद्रा उन्हें भोजन करनेके लिये बुलाने गई। उन्होने कंगन उसके सामने फेंक दिया। सुभद्रा ने आश्चर्य से दौड़कर उठा लिया और पहचानकर बोली, मैने कहा था न कि उन्होंने छिपाकर रखा होगा, वही बात निकली न?
शर्मा—फिर वही वे सिर पैर की बातें करती हो। इसे मैंने बाजार में एक सर्राफे की दुकान पर पाया है। तुमने सदन पर सन्देह करके उसे भी दुःख पहुँचाया और आपने आप को भी कलुषित किया।
२१
विट्ठलदास को सन्देह हुआ कि सुमन ३०) मासिक स्वीकार नहीं करना चाहती, इसलिये उसने कल उत्तर देने का बहाना करके मुझे टाला है। अतएव वह दूसरे दिन उसके पास नही गये। इसी चिन्ता में पड़े रहे कि शेष रुपयों का कैसे प्रबन्ध हो? कभी सोचते दूसरे शहर में डेपुटेशन ले जाऊँ कभी कोई नाटक खेलने का विचार करते। अगर उनका वश चलता तो इस शहरके सारे बड़े-बड़े धनाढ्य पुरुषो को जहाज में भरकर काले पानी में देते। शहर में एक कुंवर अनिरूद्ध सिंह सज्जन उदार पुरुष रहते थे। लेकिन विट्ठलदास उनके द्वार तक जाकर केवल इसलिये लौट आये कि उन्हें वहाँ तबले की गमक सुनाई दी। उन्होने मन में सोचा, जो मनुष्य राग रंग में इतना लिप्त है वह इस काम में मेरी क्या सहायता करेगा? इस समय उसकी सहायता करना उनकी दृष्टि में सबसे बड़ा पुण्य और उनकी उपेक्षा करना सबसे बडा पाप था। वह इसी संकल्प विकल्प में पड़े हुए थे कि सुमन के पास चलूँ या न चलूँ। इतने में पंडित पद्मसिंह आाते हुए दिलाई दिये आगे चढ़ी हुई लाल और बदन मलिन था। ज्ञात होता था कि सारी राता जागे हैं। चिन्ता और ग्लानि की मूर्ति बने हुए थे। तीन महीनें से विट्ठलदास उनके पास नहीं गये थे, उनकी ओर से हृदय फट गया था। लेकिन शर्माजी की यह दशा देखते ही पिघल गये और प्रेम से हाथ मिलाकर बोले, भाई साहब उदास दिखाई देते हो, कुशल तो है?
शर्मा—जी हाँ, सब कुशल ही है, इधर महीनो से आपकी भेंट नहीं हुई, मिलने को जी चाहता था, सुमन के विषय में क्या निश्चय किया?
विट्ठल—उसी चिन्तामें तो रात-दिन पड़ा रहता हूँ। इतना बड़ा शहर है पर ३०) मासिक का प्रबन्ध नहीं हो सकता। मुझे ऐसा अनुमान होता है कि मुझे माँगना नही आता। कदाचित् मुझमें किसी के हृदय को आकर्षित करने की सामर्थ्य नही है। मैं दूसरों को दोष देता हूँ, पर वास्तव में दोष मेरा ही है। अभी तक केवल १०) का प्रबन्ध हो सका है! जितने रईस है सब के सब पाषाण हृदय। अजी रईसों की बात तो न्यारी रही, मि० प्रभाकर राव ने भी कोरा जवाब दिया। उनके लेखों को पढ़ो तो मालूम होता है कि देशानुराग और दया के सागर है, होली के जलसे के बाद महीनों तक आप पर विष की वर्षा करते रहे, लेकिन कल जो उनकी सेवा में गया तो बोले, क्या जातिका सबसे बड़ा ऋणी मैं ही हूँ, मेरे पास लेखनी है, उससे जाति की सेवा करता हूँ, जिसके पास धन हो, वह घन से सेवा करे। उनकी बातें सुनकर चकित रह गया। नया मकान बनवा रहे हैं, कोयले की कंपनी में हिस्से खरीदे है, लेकिन इस जातीय काम से साफ निकल गये। अजी, और लोग जरा सकुचाते तो है, उन्होने तो उल्टे मुझी को आड़े हाथ लिया।
शर्माजी-आपको निश्चय है कि सुमनबाई ५०) पर विधवाश्रम में चली आवेगी?
विट्ठल–हाँ मुझे निश्चय है, यह दूसरी बात है कि आश्रम कमेटी उसे लेना पसन्द न करे। तब कोई और प्रबन्ध करूँगा।
शर्मा—अच्छा तो लीजिये, आपकी चिन्ताओं का अन्त किये देता हूँ में ५०) मासिक देने पर तैयार हूँ और ईश्वर ने चाहा तो आजन्म देता रहूँगा।
विट्ठलदास ने विस्मय से शर्माजी की तरफ देखा और कृतज्ञतापूर्ण भाव से उनके गले लिपटकर बोले, भाई साहब तुम धन्य हो! इस समय तुमने वह काम किया है कि जी चाहता है, तुम्हारे पैरो पर गिरकर रोऊँ। तुमने हिन्दू जाति की लाज रख ली और सारे लखपतियो के मुँह में कालिख लगा दी। लेकिन इतना भारी बोझ कैसे सभालोगे?
शर्मा—सब हो जायगा, ईश्वर कोई-न-कोई राह अवश्य निकालेंगे ही।
विट्ठल-आजकल आमदनी अच्छी हो रही है क्या?
शर्मा-आमदनी नहीं पत्थर हो रही है, घोड़ागाड़ी बेच दूँगा, ३०) की बचत यो हो जायगी, बिजली का खर्च तोड़ दूँगा १०) यों निकल आवेंगे, १०) और इधर-उधर से खीच खाँचकर निकाल लूँगा।
विट्ठल-तुम्हारे ऊपर अकेले इतना बोझ डालते हुए मुझे कष्ट होता है, पर क्या करूँ, शहर के बड़े आदमियों से हारा हुआ हूँ। गाड़ी बेच दोगे तो कचहरी कैसे जाओगे? रोज किराये की गाड़ी करनी पड़ेगी।
शर्मा- जी नही, किराये की गाड़ी की जरूरत न पड़ेगी! मेरे भतीजे ने एक सब्ज घोड़ा ले रक्खा है, उसी पर बैठकर चला जाया करूँगा।
विट्ठल-अरे वही तो नही है, जो कभी-कभी शाम को चौक में घूमने निकला करता है?
शर्मा-संभव है वही हो।
विट्ठल-सूरत आपसे बहुत मिलती है, धारीदार सर्ज का कोट पहनता है, खूब हृष्ट-पुष्ट है, गोरा रंग, बड़ी बड़ी आँखे कसरती जवान है।
शर्मा-जी हाँ, हुलिया तो आप ठीक बताते है। वही है।
विट्ठल—आप उसे बाजार में घूमने से रोकते क्यों नहीं?
शर्मा—मुझे क्या मालूम कहाँ घूमने जाता है। संभव है कभी-कभी बाजार की तरफ चला जाता हो, लेकिन लड़का सच्चरित्र है-इसलिये मैने कभी चिन्ता नहीं की।
विट्ठल-यह आपसे बड़ी भूल हुई। पहले वह चाहे जितना सच्चरित्र हो, लेकिन आजकल उसके रंग अच्छे नही है; मैंने उसे एकबार नहीं, कई बार वहाँ देखा है, जहाँ न देखना चाहिये था। सुमन बाई के प्रेमजाल में पड़ा हुआ मालूम होता है।
शर्माजी के होश उड़ गये। बोले, यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। वह मेरे कुल का दीपक है, अगर वह कुपथ पर चला तो मेरी जान ही पर बन जायगी। मैं शरम के मारे भाईसाहब को मुँह न दिखा सकूँगा।
यह कहते-कहते शर्माजी की आँखें सजल हो गई। फिर बोले, महाशय, उसे किसी तरह समझाइये। भाईसाहब के कानों में इस बात की भनक भी गई तो वह मेरा मुँह न देखेगें।
विट्ठल-नहीं, उसे सीधे मार्गपर लाने के लिये उद्योग किया जायगा। मुझे आजतक मालूम ही न था कि वह आपका भतीजा है। मैं आज ही इस कामपर उतारू हो जाऊँगा और सुमन कलतक वहाँ से चली आई तो वह आप ही संभल जायगा।
शर्मा-सुमन के चले आने से बाजार थोड़े ही खाली हो जायगा। किसी दूसरी के पंजे फँस जायगा। क्या करूँ, उसे घर भेज दूँ?
विट्ठल-वहाँ अब वह रह चुका, पहले तो जायगा ही नहीं, और गया भी तो दूसरे ही दिन भागेगा। यौवनकाल की दुर्वासनाएँ बड़ी प्रबल होती है। कुछ नही यह सब इसी कुप्रथा की करामात है, जिसने नगर के सार्वजनिक स्थानों को अपना कार्यक्षेत्र बना रखा है। यह कितना बड़ा अत्याचार है कि ऐसे मनोविकार पैदा करने वाले दृश्यों को गुप्त रखने के बदले हम उनकी दुकान सजाते है और अपने भोले भाले सरल बालकों की कुप्रवृतियों को जगाते है। मालूम नहीं वह कुप्रथा कैसे चली। में तो समझता हूँ कि विषयी मुसलमान बादशाहों के समय में इसका जन्म हुआ होगा। जहाँ ग्रन्थालय, धर्म सभाएँ और सुधारक संस्थाओं के स्थान होने चाहिए, वहाँ हम रूप का बाजार सजाते है। यह कुवासनाओं को नेवता देना नहीं तो और क्या है? हम जान-बूझकर युवकों को गढ़े में ढकेलते है। शोक!
शर्मा-आपने इस विषम कुछ आन्दोलन तो किया था।
विट्ठल–हाँ, किया तो था लेकिन जिस प्रकार आप एक बार मौखिक सहानुभूति प्रकट करके मौन साध गये, उसी प्रकार अन्य सहायकों ने भी आना कानी की, तो भाई अकेला चना तो भाड़ नही फोड़ सकता? मेरे पास न धन है न ऐश्वर्य है, न उच्च उपाधियां है, मेरी कौन सुनता है? लोग समझते है, बक्की है। नगर में इतने सुयोग्य विद्वान् पुरुष चैन से सुख भोग कर रहे हैं कोई भूलकर भी मेरी नहीं सुनता।
शर्मा जी शिथिल प्रकृति के मनुष्य ये। उन्हें कर्तव्य क्षेत्र में लाने के लिये किसी प्रबल उत्तेजना को आवश्यकता थी। मित्रो की वाह वाह जो प्राय:मनुष्य की सुप्तावस्था को भंग किया करती है उनके लिये काफी न थी। वह सोते नही थे, जागते थे। केवल आलस्य कारण पड़े हुए थे। इसलिये उन्हें जगाने के लिये चिल्लाकर पुकारने की इतनी जरूरत नही थी जितनी किसी विशेष बात की। यह कितनी अनोखी लेकिन यथार्थ बात है कि सोये हुए मनुष्य को जगाने की अपेक्षा जागते हुए मनुष्य को जगाना कठिन है। सोता हुआ आदमी अपना नाम सुनते ही चौंककर उठ बैठता है, जागता हुआ मनुष्य सोचता है कि यह किसकी अवाज है! उसे मुझसे क्या काम है? इससे मेरा काम न निकल सकेगा? जब इन प्रश्नो का संतोषजनक उत्तर उसे मिलता है, तो वह उठता है, नही तो पड़ा रहता है पद्मसिंह इन्हीं जागते हुए आलसियो में से थे। कई बार जातीय पुकारकी ध्वनि उनके कानों में आई थी किन्तु वे सुनकर भी न उठे थे। इस समय जो पुकार उनके कानों में पहुँच रही थी, उसने उन्हें बलात् उठा दिया। अपने भतीजे को जिसे वह पुत्र से भी बढ़कर प्यार करते थे, कुमार्ग से बचाने के लिये अपने भाई की अप्रसन्नता का निवारण करने के लिये वे सब कुछ कर सकते थे। जिस कुव्यवस्था का ऐसा भंयकर परिणाम हुआ उसके मूलोच्छेदन पर कटिबद्ध होने के लिये अन्य प्रमाणों की जरूरत न थी। बाल विधवा-विवाह के घोर शत्रुओं को भी जब तब उसका समर्थन करते देखा गया है। प्रत्यक्ष उदाहरण से प्रबल और कोई प्रमाण नहीं होता। शर्मा जी बोले यदि मैं आपके किसी काम आ सकूँ तो आपकी सहायता करने को तैयार हूँ।
विट्ठलदास उल्लसित होकर बोले, भाई साहब, अगर तुम मेरा हाथ बटाओ तो मैं धरती और आकाश एक कर दूँगा लेकिन क्षमा करना, तुम्हारे संकल्प दृढ़ नहीं होते। अभी यों कहते हो, कल ही उदासीन हो जाओगे। ऐसे कामों मे धैर्य की जरूरत है। शर्माजी लज्जित होकर बोले, ईश्वर चाहेगा तो अबकी आपको इसकी शिकायत न रहेगी।
विट्ठल—तब तो हमारा सफल होना निश्चित् है।
शर्मा-यह तो ईश्वर के हाथ है। मुझे न तो बोलना आता है, न लिखना आता है, बस आप जिस राह पर लगा देगे, उसी पर आँख बन्द किये चला जाऊँगा।
विट्ठल-अजी सब आ जायेगा, केवल उत्साह चाहिये। दृढ़ संकल्प हवा मे किले बना देता है, आपकी वक्तृताओं में तो वह प्रभाव होगा कि लोग सुनकर दंग हो जायेगे। हाँ, इतना स्मरण रखियेगा कि हिम्मत नहीं हारनी चाहिये।
शर्मा-आप मुझे सँभाले रहियेगा।
विट्ठल-अच्छा, तो अब मेरे उद्देश्य भी सुन लीजिये। मेरा पहला उद्देश्य है, वेश्याओं को सार्वजनिक स्थानों से हटाना और दूसरा, वेश्याओं के नाचने गाने की रस्म को मिटाना। आप मुझसे सहमत है या नहीं?
शर्मा-क्या अब भी कोई संदेह है?
विट्ठल-नाच के विषय में आपके वह विचार तो नही है?
शर्मा-अब क्या एक घर जलाकर भी वही खेल खेलता रहूँगा? उन दिनो मुझे न जाने क्या हो गया था, मुझे अब यह निश्चय हो गया है कि मेरे उसी जलसे ने सुमनबाई को घर से निकाला! लेकिन यहाँ मुझे एक शंका होती है। आखिर हम लोगों ने भी तो शहरो ही में इतना जीवन व्यतीत किया है, हम लोग इन दुर्वासनाओं में क्यों नहीं पड़े? नाच भी शहर में आये दिन हुआ ही करते है, लेकिन उनका ऐसा भीषण परिणाम होते बहुत कम देखा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि इस विषय में मनुष्य का स्वभाव ही प्रधान है। आप इस आन्दोलन से स्वभाव तो नहीं बदल सकते। विठ्ठल-हमारा यह उद्देश्य ही नहीं, हम तो केवल उन दशाओं का संशोधन करना चाहते है जो दुर्बल स्वभाव के अनुकल है, और कुछ नहीं चाहते। कुछ मनुष्य जन्म ही से स्थूल होते हैं, उनके लिये खाने पीने की किसी विशेष वस्तु की जरूरत नहीं, कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो घी-दूध आदि का इच्छा पूर्वक सेवन करने से स्थूल हो जाते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सदैव दुबले रहते है, वह चाहे घी दूध के मटके ही में रख दिये जाँय तो भी मोटे नहीं हो सकते। हमारा प्रयोजन केवल दूसरी श्रेणी के मनुष्यों से है। हम और आप जैसे मनुष्य क्या दुर्व्यसन में पडेंगे, जिन्हें पेट के धन्धों से कभी छुट्टी ही नहीं मिली, जिन्हें कभी यह विश्वास ही नहीं हुआ कि प्रेम की मंडी में उनकी आवभगत होगी। वहाँ तो वह फँसते है जो धनी है, रूपवान् है, उदार है, रसिक है। स्त्रियों को अगर ईश्वर सुन्दरता दे तो धन से वंचित न रखे, धनहीन सुन्दर चतुर स्त्री पर दुर्व्यसन का मन्त्र शीघ्र ही चल जाता है।
सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे जी दुखाने वाली बातें क्यों कही? उन्होने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला किया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उनके सिर मढा। संसार में घर-घर नाच गाना हुआ ही करता है, छोटे बड़े दीन दुखी सब देखते है कि और आनन्द उठाते है। यदि मैं अपनी कुचेष्टाओं के कारण आग में कूद पड़ी तो उसमें शर्माजी का या किसी और का क्या दोष? बाबू विट्ठलदास शहर के आदमियों के पास दौड़े, क्या वह उन सेठों के पास न गये होगे जो यहाँ आते है? लेकिन किसी ने उनकी मदद न की, क्यों? इसलिये न की कि वह नहीं चाहते है कि मैं यहाँ से मुक्त हो जाऊँ? मेरे चले जाने से उनको कामतृष्णा में विघ्न पड़ेगा, वह दयाहीन व्याघ्र के समान मेरे हृदय को घायल करके मेरे तड़पने का आनन्द उठाना चाहते है। केवल एक ही पुरुष है, जिसने मुझे इस अन्धकार से निकालने के लिये हाथ बढा़या, उसी का मैंने इतना अपमान किया।
मुझे मनमें कितना कृतघ्न समझेंगे। वे मुझे देखते ही कैसे भागे। चाहिये तो यह था कि मैं लज्जा से वहीं गड़ जाती, लेकिन मैंने इस पापभय के लिये इतनी निर्लज्जता से उनका तिरस्कार किया! जो लोग अपने कलुषित भावों से मेरे जीवन को नष्ट कर रहे है, उनका मैं कितना आदर करती हूँ। लेकिन जब, व्याधा पक्षी को अपने जाल में फँसते नहीं देखता तो उसे उस पर कितना क्रोध आता है! बालक जब कोई अशुद्ध वस्तु छू लेता है तो वह अन्य बालकों को दौड़ दौड़कर छूना चाहता है, जिसमें वह भी अपवित्र हो जायें। क्या मैं भी हृदयशून्य व्याधा हूँ या अबोध बालक?
किसी ग्रन्थकार से पूछिये कि वह एक निष्पक्ष समालोचक के कटुवाक्यों के सामने विचारहीन प्रशंसा का क्या मूल्य समझता है। सुमन को शर्माजी की यह घृणा अन्य प्रेमियों की रसिकता से अधिक प्रिय मालूम होती थी।
रात भर वह इन्ही विचारों में डूबी रही। मन में निश्चय कर लिया कि प्रातःकाल विट्ठलदास के पास चलूँगी और उनसे कहूँगी कि मझे आश्रय दीजिये। मैं आपसे कोई सहायता नहीं चाहती, केवल एक सुरक्षित स्थान चाहती हूँ, चक्की, पिसूंगी, कपड़े सीऊँगी, और किसी तरह अपना निर्वाह कर लूँगी।
सवेरा हुआ। वह उठी और विट्ठलदास के घर चलने की तैयारी करने लगी कि इतने में वह स्वयं आ पहुँचे। सुमन को ऐसा आनन्द हुआ जैसे किसी भक्त को आराध्यदेव के दर्शन से होता है। बोली, आइये महाशय! तो कल दिन भर आपकी राह देखती रही, इस समय आपके यहाँ जाने का विचार कर रही थी।
विठ्ठलदास--कल कई कारणों से नहीं आ सका।
सुमन--तो आपने मेरे रहने का कोई प्रबन्ध किया?
विट्ठल--मुझसे तो कुछ नहीं हो सका लेकिन पद्मसिंहने लाज रख ली। उन्होने तुम्हारा प्रण पूरा कर दिया। वह अभी मेरे पास आये थे और वचन दे गये है कि तुम्हे ५०) मासिक आजन्म देते रहेंगे।
सुमन के विस्मयपूर्ण नेत्र सजल हो गये। शर्माजीकी इस महती उदारता ने उसके अन्तःकरण को भक्ति, श्रद्धा और विमल प्रेम से प्लावित कर दिया। उसे अपने कटु वाक्यों पर अत्यत क्षोभ हुआ। बोली, शर्माजी दया और धर्म के सागर हैं। इस जीवन में उनसे उऋण नहीं हो सकती। ईश्वर उन्हें सदैव सुखी रक्खें। लेकिन मैंने उस समय जो कुछ कहा था, वह केवल परीक्षा के लिये था। मैं देखना चाहती थी कि सचमुच मुझे उबारना चाहते है या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे हैं। अब मुझे विदित हो गया कि आप दोनों सज्जन देवरूप है। आप लोगों को वृथा कष्ट नहीं देना चाहती मैं सहानभूति की भूखी थी वह मुझे मिल गई। अब मैं अपने जीवन का भार आप लोगों पर नही डालूँगी। आप केवल मेरे रहने का कोई प्रबन्ध कर दें जहाँ मैं विघ्न बाधा से बची रह सकूँगी।
विठ्ठलदास चकित हो गये। जातीय गौरव से आँखें चमक उठी। उन्होंने सोचा, हमारे देश की पतित स्त्रियों के विचार भी ऐसे उच्च होते है। बोले, सुमन तुम्हारे मुँह से ऐसे पवित्र शब्द सुनकर मुझे इस समय जो आनन्द हो रहा है, उसका वर्णन नही कर सकता। लेकिन रुपयों के बिना तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा।
सुमन-मै परिश्रम करूँगी। देश में लाखों दुखियाएँ है, उनका ईश्वर के सिवा और कौन सहायक है? अपनी निर्लज्जता का कर आपसे न लूँगी।
विट्ठल-वे कष्ट तुमसे सहे जायेंगे?
सुमन--पहले नहीं सहे जाते थे, लेकिन अब सब कुछ सह लूँगी। यहाँ आकर मझे मालूम हो गया कि निर्लज्जता सब कष्ट से दुसह है। और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने आप लोगों को मेरी रक्षा के लिये भेज दिया।
विट्ठल-सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो।
सुमन-तो मैं यहाँ से कब चलूँ?
विठ्ठल-आज ही। अभी मैंने आश्रम की कमेटी में तुम्हारे रहने का प्रस्ताव नहीं किया है, लेकिन कोई हरज नही है, तुम वहाँ चलो, ठहरो। अगर कमेटी ने कछ आपत्ति की तो देखा जायगा। हाँ, इतना याद रखना कि अपने विषय में किसी से कुछ मत कहना, नहीं तो, विधवाओं में हलचल मच जायगी।
सुमन---आप जैसा उचित समझे करें मैं तैयार हूँ।
विठ्ठल-सन्ध्या समय चलना होगा।
विट्ठलदास के जाने के थोड़ी ही देर बाद दो वेश्याएँ सुमन से मिलने आयीं। सुमन ने कह दिया, मेरे सिर में दर्द है। सुमन अपने ही हाथ से भोजन बनाती थी। पतित होकर भी वह खाना पान में विचार करती थी। आज उसने व्रत करने का निश्चय किया था। मुक्ति के दिन कैदियों को भी भोजन अच्छा नहीं लगता।
दोपहरको धाडियों का गोल आ पहुँचा। सुमन ने उन्हें भी बहाना करके टाला। उसे अब उनकी सूरत से घृणा होती थी। सेठ बलभद्रदास के यहाँ से नागपुरी संतरे की एक टोकरी आयी, उसे सुमन ने तुरन्त लौटा दया। चिम्मनलाल ने चार बजे अपनी फिटिन सुमन के सैर करने को भेजा उसने उसको भी लौटा दिया।
जिस प्रकार अन्धकार के बाद अरुण का उदय होते, ही पक्षी कलरव करने लगते है और बछड़े किलोलों में मग्न हो जाते है, उसी प्रकार सुमन के मन में भी क्रीड़ा करने की प्रबल इच्छा हुई। उसने सिगरेट की एक डिबिया मँगवाई और वारनिश की एक बोतल मँगाकर ताकपर रख दिया और एक कुर्सी का एक पाया तोड़कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रख दी। पाँच बजते बजते मुंशी अबुलवफा का आगमन हुआ। यह हजरत सिगरेट बहुत पीते थे। सुमन ने आज असाधारण रीति से उनकी आवभगत की और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोली, आइये आज आपको वह सिगरेट पिलाऊँ कि आप भी याद करें।
अबुलवफा-नेकी और पूछ पूछ।
सुमन-देखिये, एक अंग्रेजी दूकान से खास आपकी खातिर मँगवाया है। यह लीजिये। अबुलवफा-तब तो मैं भी अपना शुमार खुश-नसीबों मे करूँगा। वाहरे मैं, वाहरे मेरे साजे जिगर की तासीर!
अवुलवफा ने सिगरेट मुँह में दबाया। सुमन ने दियासलाई की डिबिया निकालकर एक सलाई रगड़ी। अवुलवफा ने सिगरेट को जलाने के लिए मुँह आगे बढ़ाया, लेकिन न मालूम कैसे आग सिगरेट में न लगकर उनकी दाढ़ी में लग गई। जैसे पुआल जलता है, उसी तरह एक क्षण में दाढ़ी आधी से ज्यादा जल गई। उन्होने सिगरेट फेंककर दोनो हाथों से दाढ़ी मलना शुरू किया। आग बुझ गई मगर दाढ़ी का सर्वनाश हो चुका था। आइने में लपक कर मुँह देखा दाढ़ी का भस्मावशेष उबाली हुई सुथनी के रेश की तरह मालूम-हुआ। सुमन ने लज्जित होकर कहा, मेरे हाथों में आग लगे। कहाँ से कहाँ मैंने दियासलाई जलाई।
उसने बहुत रोका, पर हँसी ओंठ पर आ गई। अवुलवफा ऐसे खिसियाये हुए थे मानों अब वह अनाथ हो गये। सुमन की हँसी अखर गई। उस भोडी सूरत पर खेद और खिसियाहटमका अपूर्व दृश्य था। बोले, यह कबकी कसर निकाली?
सुमन-मुन्शीजी, मैं सच कहती हूँ, यह दोनों आँखें फूट जाय अगर मैने जानबूझकर आग लगाई हो। आपसे बैर भी होता तो दाढ़ी बेचारी ने मेरा क्या बिगाड़ा था?
अबुल--माशूकों की शेखी और शरारत अच्छी मालूम होती है, लेकिन इतनी नहीं कि मुँह जला दे। अगर तुमने आग से कहीं दाग दिया होता तो इससे अच्छा था। अब यह भुन्नास की सी सूरत, लेकर मैं किसे मुँह दिखाऊँगा। वल्लाह! आज तुमने मटियामेट कर दिया।
सुमन--क्या करूँ? खुद पछता रही हूँ। अगर मेरे दाढ़ी होती तो आपको दे देती। क्यों, नकली दाढ़ियाँ भी तो मिलती है?
अबुल-सुमन, जस्म पर निमक न छिड़को। अगर दूसरे ने यह हरकत की होती तो आज उसका खून पी जाता।
सुमन--अरे, तो थोड़े में बाल ही जल गये या और कुछ महीने दो महीने में फिर निकल आवेंगे। जरा सी बात के लिये आप इतनी हाय-हाय मचा रहे है।
अबुल-सुमन जलाओ मत, नहीं तो मेरी जबान से भी कुछ निकल जायगा। मैं इस वक्त आपे में नहीं हूँ।
सुमन-नारायण, नारायण, जरासी दाढ़ीपर इतना जामे के बाहर हो गये। मान लीजिये मैंने जानकर ही दाढ़ी जला दी तो? आप मेरी आत्मा को, मेरे धर्म को, हृदय को रोज जलाते है, क्या उनका मूल्य आपकी दाढ़ी से भी कम है? मियाँ, आशिक बनना मुँह का नेवाला नहीं है। जाइये अपने घर की राह लीजिये, अब कभी यहाँ न आइयेगा मुझे ऐसे छिछोरे आदमियों की जरूरत नही है।
अबुलवाफा ने क्रोध से सुमन की ओर देखा, तब जेब से रुमाल निकाला और जली हुई दाढ़ी को उसकी आढ़ में छिपा कर चुपके से चले गये। यह वही मनुष्य है, जिसे खुले बाजार एक वेश्या के साथ आमोद प्रमोद में लज्जा नहीं आती थी।
अब सदन के आने का समय हुआ। सुमन आज मिलने के लिये बहुत उत्कंठित थी। आज वह अन्तिम मिलाप होगा। आज यह प्रेभाभिनय समाप्त हो जायगा। वह मोहिनी मूर्ति फिर देखने को न मिलेगी। उसके दर्शनों को नेत्र तरस-तरस रहेंगे। वह सरल प्रेम से भरी हुई मधुर बातें सुनने में न आवेगी। जीवन फिर प्रेम विहीन और नीरस हो जायगा। कुलुषित ही पर यह सच्चा था। भगवान्! मुझे यह वियोग सहने की शक्ति दीजिये। नहीं, इस समय सदन न आवे तो अच्छा है, उससे न मिलने में ही कल्याण है; कौन जाने उसके सामने मेरा संकल्प स्थिर रह सकेगा या नहीं, पर वह आ जाता तो एक बार दिल खोलकर उससे बातें कर लेती उसे इस कपट सागर मे डूबने से बचाने की चेष्टा करती।
इतने में सुमन ने विट्ठलदास को एक किराये की गाड़ी में से उतरते देखा। उसका हृदय वेग से धड़कने लगा। एक क्षण में विठ्ठलदास ऊपर आ गये बोले, अरे अभी तुमने कुछ तैयारी नही की-
सुमन-मैं तैयार हूँ।
विठ्ठल-अभी विस्तरे तक नहीं बँधे।
सुमन-यहाँ की कोई वस्तु साथ न ले जाऊँगी, यह वास्तव में मेरा 'पुनर्जन्म' हो रहा है।
विठ्ठल-यह सामान क्या होगें?
सुमन-आप इसे बेचकर किसी शुभ कार्य में लगा दीजियेगा।
विठ्ठल-अच्छी बात है, मैं यहाँ ताला डाल दूँगा। तो अब उठो, गाड़ी मौजूद है।
सुमन-दस बजे से पहले नहीं चल सकती। आज मुझे अपने प्रेमियों से विदा होना है। कुछ उनकी सुननी है कुछ अपनी कहनी है। आप तब तक छतपर जाकर बैठिये, मुझे तैयार ही समझिये।
विठ्ठलदास को बुरा मालूम हुआ पर धैर्य से काम लिया। ऊपर जा के खुली हुई छत पर टहलने लगे।
सात बज गये लेकिन सदन न आया। आठ बजे तक सुमन उसकी राह देखती रही, अन्तको वह निराश हो गई। जब से वह यहाँ आने लगा, आज ही उसने नागा किया। सुमन को ऐसा मालूम होता था मानों वह किसी निर्जन स्थान में खो गई है। हृदय में एक अत्यन्त तीव्र किन्तु सरल, वेदनापूर्ण, किन्तु मनोहारी आकांक्षा का उद्वेग हो रहा था। मन पूछता था, उसके न आनेका क्या कारण है? किसी अनिष्ट की आशंका ने उसे बेचैन कर दिया।
आठ बजे सेठ चिम्मनलाल आये। सुमन उनकी गाड़ी देखते ही छज्जे पर जा बैठी। सेठ जी बहुत कठिनाई से ऊपर आए और हांफते हुए बोले, कहाँ हो देवी, आज बग्घी क्यों लौटा दी? क्या मुझसे कोई खता हुई।
सुमन---यहीं छज्जेपर चले आइये, भीतर कुछ गरमी मालूम होती है। आज सिरमें दर्द था, सैर करने को जी नहीं चाहता था।