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सेवासदन/२६

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १०७ से – १२४ तक

 

बटाओ तो मैं धरती और आकाश एक कर दूँगा लेकिन क्षमा करना, तुम्हारे संकल्प दृढ़ नहीं होते। अभी यों कहते हो, कल ही उदासीन हो जाओगे। ऐसे कामों मे धैर्य की जरूरत है। शर्माजी लज्जित होकर बोले, ईश्वर चाहेगा तो अबकी आपको इसकी शिकायत न रहेगी।

विट्ठल—तब तो हमारा सफल होना निश्चित् है।

शर्मा-यह तो ईश्वर के हाथ है। मुझे न तो बोलना आता है, न लिखना आता है, बस आप जिस राह पर लगा देगे, उसी पर आँख बन्द किये चला जाऊँगा।

विट्ठल-अजी सब आ जायेगा, केवल उत्साह चाहिये। दृढ़ संकल्प हवा मे किले बना देता है, आपकी वक्तृताओं में तो वह प्रभाव होगा कि लोग सुनकर दंग हो जायेगे। हाँ, इतना स्मरण रखियेगा कि हिम्मत नहीं हारनी चाहिये।

शर्मा-आप मुझे सँभाले रहियेगा।

विट्ठल-अच्छा, तो अब मेरे उद्देश्य भी सुन लीजिये। मेरा पहला उद्देश्य है, वेश्याओं को सार्वजनिक स्थानों से हटाना और दूसरा, वेश्याओं के नाचने गाने की रस्म को मिटाना। आप मुझसे सहमत है या नहीं?

शर्मा-क्या अब भी कोई संदेह है?

विट्ठल-नाच के विषय में आपके वह विचार तो नही है?

शर्मा-अब क्या एक घर जलाकर भी वही खेल खेलता रहूँगा? उन दिनो मुझे न जाने क्या हो गया था, मुझे अब यह निश्चय हो गया है कि मेरे उसी जलसे ने सुमनबाई को घर से निकाला! लेकिन यहाँ मुझे एक शंका होती है। आखिर हम लोगों ने भी तो शहरो ही में इतना जीवन व्यतीत किया है, हम लोग इन दुर्वासनाओं में क्यों नहीं पड़े? नाच भी शहर में आये दिन हुआ ही करते है, लेकिन उनका ऐसा भीषण परिणाम होते बहुत कम देखा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि इस विषय में मनुष्य का स्वभाव ही प्रधान है। आप इस आन्दोलन से स्वभाव तो नहीं बदल सकते। विठ्ठल-हमारा यह उद्देश्य ही नहीं, हम तो केवल उन दशाओं का संशोधन करना चाहते है जो दुर्बल स्वभाव के अनुकल है, और कुछ नहीं चाहते। कुछ मनुष्य जन्म ही से स्थूल होते हैं, उनके लिये खाने पीने की किसी विशेष वस्तु की जरूरत नहीं, कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो घी-दूध आदि का इच्छा पूर्वक सेवन करने से स्थूल हो जाते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सदैव दुबले रहते है, वह चाहे घी दूध के मटके ही में रख दिये जाँय तो भी मोटे नहीं हो सकते। हमारा प्रयोजन केवल दूसरी श्रेणी के मनुष्यों से है। हम और आप जैसे मनुष्य क्या दुर्व्यसन में पडेंगे, जिन्हें पेट के धन्धों से कभी छुट्टी ही नहीं मिली, जिन्हें कभी यह विश्वास ही नहीं हुआ कि प्रेम की मंडी में उनकी आवभगत होगी। वहाँ तो वह फँसते है जो धनी है, रूपवान् है, उदार है, रसिक है। स्त्रियों को अगर ईश्वर सुन्दरता दे तो धन से वंचित न रखे, धनहीन सुन्दर चतुर स्त्री पर दुर्व्यसन का मन्त्र शीघ्र ही चल जाता है।

सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे जी दुखाने वाली बातें क्यों कही? उन्होने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला किया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उनके सिर मढा। संसार में घर-घर नाच गाना हुआ ही करता है, छोटे बड़े दीन दुखी सब देखते है कि और आनन्द उठाते है। यदि मैं अपनी कुचेष्टाओं के कारण आग में कूद पड़ी तो उसमें शर्माजी का या किसी और का क्या दोष? बाबू विट्ठलदास शहर के आदमियों के पास दौड़े, क्या वह उन सेठों के पास न गये होगे जो यहाँ आते है? लेकिन किसी ने उनकी मदद न की, क्यों? इसलिये न की कि वह नहीं चाहते है कि मैं यहाँ से मुक्त हो जाऊँ? मेरे चले जाने से उनको कामतृष्णा में विघ्न पड़ेगा, वह दयाहीन व्याघ्र के समान मेरे हृदय को घायल करके मेरे तड़पने का आनन्द उठाना चाहते है। केवल एक ही पुरुष है, जिसने मुझे इस अन्धकार से निकालने के लिये हाथ बढा़या, उसी का मैंने इतना अपमान किया।

मुझे मनमें कितना कृतघ्न समझेंगे। वे मुझे देखते ही कैसे भागे। चाहिये तो यह था कि मैं लज्जा से वहीं गड़ जाती, लेकिन मैंने इस पापभय के लिये इतनी निर्लज्जता से उनका तिरस्कार किया! जो लोग अपने कलुषित भावों से मेरे जीवन को नष्ट कर रहे है, उनका मैं कितना आदर करती हूँ। लेकिन जब, व्याधा पक्षी को अपने जाल में फँसते नहीं देखता तो उसे उस पर कितना क्रोध आता है! बालक जब कोई अशुद्ध वस्तु छू लेता है तो वह अन्य बालकों को दौड़ दौड़कर छूना चाहता है, जिसमें वह भी अपवित्र हो जायें। क्या मैं भी हृदयशून्य व्याधा हूँ या अबोध बालक?

किसी ग्रन्थकार से पूछिये कि वह एक निष्पक्ष समालोचक के कटुवाक्यों के सामने विचारहीन प्रशंसा का क्या मूल्य समझता है। सुमन को शर्माजी की यह घृणा अन्य प्रेमियों की रसिकता से अधिक प्रिय मालूम होती थी।

रात भर वह इन्ही विचारों में डूबी रही। मन में निश्चय कर लिया कि प्रातःकाल विट्ठलदास के पास चलूँगी और उनसे कहूँगी कि मझे आश्रय दीजिये। मैं आपसे कोई सहायता नहीं चाहती, केवल एक सुरक्षित स्थान चाहती हूँ, चक्की, पिसूंगी, कपड़े सीऊँगी, और किसी तरह अपना निर्वाह कर लूँगी।

सवेरा हुआ। वह उठी और विट्ठलदास के घर चलने की तैयारी करने लगी कि इतने में वह स्वयं आ पहुँचे। सुमन को ऐसा आनन्द हुआ जैसे किसी भक्त को आराध्यदेव के दर्शन से होता है। बोली, आइये महाशय! तो कल दिन भर आपकी राह देखती रही, इस समय आपके यहाँ जाने का विचार कर रही थी।

विठ्ठलदास--कल कई कारणों से नहीं आ सका।

सुमन--तो आपने मेरे रहने का कोई प्रबन्ध किया?

विट्ठल--मुझसे तो कुछ नहीं हो सका लेकिन पद्मसिंहने लाज रख ली। उन्होने तुम्हारा प्रण पूरा कर दिया। वह अभी मेरे पास आये थे और वचन दे गये है कि तुम्हे ५०) मासिक आजन्म देते रहेंगे।

सुमन के विस्मयपूर्ण नेत्र सजल हो गये। शर्माजीकी इस महती उदारता ने उसके अन्तःकरण को भक्ति, श्रद्धा और विमल प्रेम से प्लावित कर दिया। उसे अपने कटु वाक्यों पर अत्यत क्षोभ हुआ। बोली, शर्माजी दया और धर्म के सागर हैं। इस जीवन में उनसे उऋण नहीं हो सकती। ईश्वर उन्हें सदैव सुखी रक्खें। लेकिन मैंने उस समय जो कुछ कहा था, वह केवल परीक्षा के लिये था। मैं देखना चाहती थी कि सचमुच मुझे उबारना चाहते है या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे हैं। अब मुझे विदित हो गया कि आप दोनों सज्जन देवरूप है। आप लोगों को वृथा कष्ट नहीं देना चाहती मैं सहानभूति की भूखी थी वह मुझे मिल गई। अब मैं अपने जीवन का भार आप लोगों पर नही डालूँगी। आप केवल मेरे रहने का कोई प्रबन्ध कर दें जहाँ मैं विघ्न बाधा से बची रह सकूँगी।

विठ्ठलदास चकित हो गये। जातीय गौरव से आँखें चमक उठी। उन्होंने सोचा, हमारे देश की पतित स्त्रियों के विचार भी ऐसे उच्च होते है। बोले, सुमन तुम्हारे मुँह से ऐसे पवित्र शब्द सुनकर मुझे इस समय जो आनन्द हो रहा है, उसका वर्णन नही कर सकता। लेकिन रुपयों के बिना तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा।

सुमन-मै परिश्रम करूँगी। देश में लाखों दुखियाएँ है, उनका ईश्वर के सिवा और कौन सहायक है? अपनी निर्लज्जता का कर आपसे न लूँगी।

विट्ठल-वे कष्ट तुमसे सहे जायेंगे?

सुमन--पहले नहीं सहे जाते थे, लेकिन अब सब कुछ सह लूँगी। यहाँ आकर मझे मालूम हो गया कि निर्लज्जता सब कष्ट से दुसह है। और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने आप लोगों को मेरी रक्षा के लिये भेज दिया।

विट्ठल-सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो।

सुमन-तो मैं यहाँ से कब चलूँ?

विठ्ठल-आज ही। अभी मैंने आश्रम की कमेटी में तुम्हारे रहने का प्रस्ताव नहीं किया है, लेकिन कोई हरज नही है, तुम वहाँ चलो, ठहरो। अगर कमेटी ने कछ आपत्ति की तो देखा जायगा। हाँ, इतना याद रखना कि अपने विषय में किसी से कुछ मत कहना, नहीं तो, विधवाओं में हलचल मच जायगी।

सुमन---आप जैसा उचित समझे करें मैं तैयार हूँ।

विठ्ठल-सन्ध्या समय चलना होगा।

विट्ठलदास के जाने के थोड़ी ही देर बाद दो वेश्याएँ सुमन से मिलने आयीं। सुमन ने कह दिया, मेरे सिर में दर्द है। सुमन अपने ही हाथ से भोजन बनाती थी। पतित होकर भी वह खाना पान में विचार करती थी। आज उसने व्रत करने का निश्चय किया था। मुक्ति के दिन कैदियों को भी भोजन अच्छा नहीं लगता।

दोपहरको धाडियों का गोल आ पहुँचा। सुमन ने उन्हें भी बहाना करके टाला। उसे अब उनकी सूरत से घृणा होती थी। सेठ बलभद्रदास के यहाँ से नागपुरी संतरे की एक टोकरी आयी, उसे सुमन ने तुरन्त लौटा दया। चिम्मनलाल ने चार बजे अपनी फिटिन सुमन के सैर करने को भेजा उसने उसको भी लौटा दिया।

जिस प्रकार अन्धकार के बाद अरुण का उदय होते, ही पक्षी कलरव करने लगते है और बछड़े किलोलों में मग्न हो जाते है, उसी प्रकार सुमन के मन में भी क्रीड़ा करने की प्रबल इच्छा हुई। उसने सिगरेट की एक डिबिया मँगवाई और वारनिश की एक बोतल मँगाकर ताकपर रख दिया और एक कुर्सी का एक पाया तोड़कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रख दी। पाँच बजते बजते मुंशी अबुलवफा का आगमन हुआ। यह हजरत सिगरेट बहुत पीते थे। सुमन ने आज असाधारण रीति से उनकी आवभगत की और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोली, आइये आज आपको वह सिगरेट पिलाऊँ कि आप भी याद करें।

अबुलवफा-नेकी और पूछ पूछ।

सुमन-देखिये, एक अंग्रेजी दूकान से खास आपकी खातिर मँगवाया है। यह लीजिये। अबुलवफा-तब तो मैं भी अपना शुमार खुश-नसीबों मे करूँगा। वाहरे मैं, वाहरे मेरे साजे जिगर की तासीर!

अवुलवफा ने सिगरेट मुँह में दबाया। सुमन ने दियासलाई की डिबिया निकालकर एक सलाई रगड़ी। अवुलवफा ने सिगरेट को जलाने के लिए मुँह आगे बढ़ाया, लेकिन न मालूम कैसे आग सिगरेट में न लगकर उनकी दाढ़ी में लग गई। जैसे पुआल जलता है, उसी तरह एक क्षण में दाढ़ी आधी से ज्यादा जल गई। उन्होने सिगरेट फेंककर दोनो हाथों से दाढ़ी मलना शुरू किया। आग बुझ गई मगर दाढ़ी का सर्वनाश हो चुका था। आइने में लपक कर मुँह देखा दाढ़ी का भस्मावशेष उबाली हुई सुथनी के रेश की तरह मालूम-हुआ। सुमन ने लज्जित होकर कहा, मेरे हाथों में आग लगे। कहाँ से कहाँ मैंने दियासलाई जलाई।

उसने बहुत रोका, पर हँसी ओंठ पर आ गई। अवुलवफा ऐसे खिसियाये हुए थे मानों अब वह अनाथ हो गये। सुमन की हँसी अखर गई। उस भोडी सूरत पर खेद और खिसियाहटमका अपूर्व दृश्य था। बोले, यह कबकी कसर निकाली?

सुमन-मुन्शीजी, मैं सच कहती हूँ, यह दोनों आँखें फूट जाय अगर मैने जानबूझकर आग लगाई हो। आपसे बैर भी होता तो दाढ़ी बेचारी ने मेरा क्या बिगाड़ा था?

अबुल--माशूकों की शेखी और शरारत अच्छी मालूम होती है, लेकिन इतनी नहीं कि मुँह जला दे। अगर तुमने आग से कहीं दाग दिया होता तो इससे अच्छा था। अब यह भुन्नास की सी सूरत, लेकर मैं किसे मुँह दिखाऊँगा। वल्लाह! आज तुमने मटियामेट कर दिया।

सुमन--क्या करूँ? खुद पछता रही हूँ। अगर मेरे दाढ़ी होती तो आपको दे देती। क्यों, नकली दाढ़ियाँ भी तो मिलती है?

अबुल-सुमन, जस्म पर निमक न छिड़को। अगर दूसरे ने यह हरकत की होती तो आज उसका खून पी जाता।

सुमन--अरे, तो थोड़े में बाल ही जल गये या और कुछ महीने दो महीने में फिर निकल आवेंगे। जरा सी बात के लिये आप इतनी हाय-हाय मचा रहे है।

अबुल-सुमन जलाओ मत, नहीं तो मेरी जबान से भी कुछ निकल जायगा। मैं इस वक्त आपे में नहीं हूँ।

सुमन-नारायण, नारायण, जरासी दाढ़ीपर इतना जामे के बाहर हो गये। मान लीजिये मैंने जानकर ही दाढ़ी जला दी तो? आप मेरी आत्मा को, मेरे धर्म को, हृदय को रोज जलाते है, क्या उनका मूल्य आपकी दाढ़ी से भी कम है? मियाँ, आशिक बनना मुँह का नेवाला नहीं है। जाइये अपने घर की राह लीजिये, अब कभी यहाँ न आइयेगा मुझे ऐसे छिछोरे आदमियों की जरूरत नही है।

अबुलवाफा ने क्रोध से सुमन की ओर देखा, तब जेब से रुमाल निकाला और जली हुई दाढ़ी को उसकी आढ़ में छिपा कर चुपके से चले गये। यह वही मनुष्य है, जिसे खुले बाजार एक वेश्या के साथ आमोद प्रमोद में लज्जा नहीं आती थी।

अब सदन के आने का समय हुआ। सुमन आज मिलने के लिये बहुत उत्कंठित थी। आज वह अन्तिम मिलाप होगा। आज यह प्रेभाभिनय समाप्त हो जायगा। वह मोहिनी मूर्ति फिर देखने को न मिलेगी। उसके दर्शनों को नेत्र तरस-तरस रहेंगे। वह सरल प्रेम से भरी हुई मधुर बातें सुनने में न आवेगी। जीवन फिर प्रेम विहीन और नीरस हो जायगा। कुलुषित ही पर यह सच्चा था। भगवान्! मुझे यह वियोग सहने की शक्ति दीजिये। नहीं, इस समय सदन न आवे तो अच्छा है, उससे न मिलने में ही कल्याण है; कौन जाने उसके सामने मेरा संकल्प स्थिर रह सकेगा या नहीं, पर वह आ जाता तो एक बार दिल खोलकर उससे बातें कर लेती उसे इस कपट सागर मे डूबने से बचाने की चेष्टा करती।

इतने में सुमन ने विट्ठलदास को एक किराये की गाड़ी में से उतरते देखा। उसका हृदय वेग से धड़कने लगा। एक क्षण में विठ्ठलदास ऊपर आ गये बोले, अरे अभी तुमने कुछ तैयारी नही की-

सुमन-मैं तैयार हूँ।

विठ्ठल-अभी विस्तरे तक नहीं बँधे।

सुमन-यहाँ की कोई वस्तु साथ न ले जाऊँगी, यह वास्तव में मेरा 'पुनर्जन्म' हो रहा है।

विठ्ठल-यह सामान क्या होगें?

सुमन-आप इसे बेचकर किसी शुभ कार्य में लगा दीजियेगा।

विठ्ठल-अच्छी बात है, मैं यहाँ ताला डाल दूँगा। तो अब उठो, गाड़ी मौजूद है।

सुमन-दस बजे से पहले नहीं चल सकती। आज मुझे अपने प्रेमियों से विदा होना है। कुछ उनकी सुननी है कुछ अपनी कहनी है। आप तब तक छतपर जाकर बैठिये, मुझे तैयार ही समझिये।

विठ्ठलदास को बुरा मालूम हुआ पर धैर्य से काम लिया। ऊपर जा के खुली हुई छत पर टहलने लगे।

सात बज गये लेकिन सदन न आया। आठ बजे तक सुमन उसकी राह देखती रही, अन्तको वह निराश हो गई। जब से वह यहाँ आने लगा, आज ही उसने नागा किया। सुमन को ऐसा मालूम होता था मानों वह किसी निर्जन स्थान में खो गई है। हृदय में एक अत्यन्त तीव्र किन्तु सरल, वेदनापूर्ण, किन्तु मनोहारी आकांक्षा का उद्वेग हो रहा था। मन पूछता था, उसके न आनेका क्या कारण है? किसी अनिष्ट की आशंका ने उसे बेचैन कर दिया।

आठ बजे सेठ चिम्मनलाल आये। सुमन उनकी गाड़ी देखते ही छज्जे पर जा बैठी। सेठ जी बहुत कठिनाई से ऊपर आए और हांफते हुए बोले, कहाँ हो देवी, आज बग्घी क्यों लौटा दी? क्या मुझसे कोई खता हुई।

सुमन---यहीं छज्जेपर चले आइये, भीतर कुछ गरमी मालूम होती है। आज सिरमें दर्द था, सैर करने को जी नहीं चाहता था। चिम्मनलाल-हिरिया को मेरे यहाँ क्यों नही भेज दिया, हकीम साहब से कोई नुस्खा तैयार करा देता। उनके पास तेलों के अच्छे अच्छे नुस्खे है।

यह कहते हुए सेठजी कुरसी पर बैठे, लेकिन तीन टाँग की कुरसी उलट गई, सेठजी का सिर नीचे हुआ और पैर ऊपर, और वह एक कपड़े की गाँठ के समान औधे मुँह लेट गये। केवल एकबार मुँह से 'अरे' निकला और फिर वह कुछ न बोले। जड़ ने चैतन्य को परास्त कर दिया।

सुमन डरी कि चोट ज्यादा आ गई, लालटेन लाकर देखा तो हँसी न रुक सकी सेठजी ऐसे असाध्य पड़े थे, मानों पहाड़ पर से गिर पड़े है। पड़े-पड़े बोले-हाय राम कमर टूट गयी। जरा मेरे साईस को बुलवा दो, घर जाऊँगा।

सुमन-चोट बहुत आ गई क्या? आपने भी तो कुरसी खींच ली, दीवार से टिककर बैठते तो कभी न गिरते। अच्छा, क्षमा कीजिये, मुझी से भूल हुई कि आपको सचेत न कर दिया। लेकिन आप जरा भी न सँभले, बस गिर ही पड़े।

चिम्मन--मेरी तो कमर टूट गई और तुम्हें मसखरी सूझ रही है।

सुमन-तो अब इसमे मेरा क्या वश है? अगर आप हलके होते तो उठाकर बैठा देती। जरा खुद ही जोर लगाइये, अभी उठ बैठियेगा।

चिम्मन--अब मेरा घर पहुँचना मुश्किल है। हाय! किस बुरी साइत से चले थे, जीने पर से उतरने में पूरी सांसत हो जायगी। बाईजी, तुमने यह कब का वैर निकाला?

सुमन-सेठजी, मैं बहुत लज्जित हूँ।

चिम्मन-अजी रहने भी दो, झठ मूठ बाते बनाती हो। तुमने मुझे जानकर गिराया।

सुमन क्या आपसे मुझे कोई वैर था? और आपसे वैर हो भी तो आपकी बेचारी कमर ने मेरा क्या बिगाड़ा था?

चिम्मन-अब यहाँ आनेवाले पर लानत है। सुमन-सेठजी, आप इतनी जल्दी नाराज हो गये। मान लीजिये मैंने जानबूझकर ही आपको गिरा दिया, तो क्या हुआ?

इतने में विट्ठलदास ऊपर से उतर आये। उन्हें देखते ही सेठजी चौंक पड़े। घड़ों पानी पड़ गया।

विठ्ठलदास ने हँसी को रोककर पूछा, कहिये सेठजी, आप यहाँ कैसे आ फंसे? मुझे आपको यहाँ देखकर बड़ा आश्चर्य होता है।

चिम्मन-इस घड़ी कुछ न पूछिये। फिर यहाँ आऊँ तो मुझपर लानत है। मुझे किमी तरह यहाँ से नीचे पहुँचाइये।

विठ्ठलदास ने एक हाथ थामा, साईस ने आकर कमर पकड़ी। इस तरह लोगों ने उन्हें किसी तरह जीने से उतारा और लाकर गाड़ी में लिटा दिया।

ऊपर आकर विट्ठलदास ने कहा, गाड़ीवाला अभी तक खड़ा है, दस बज गये। अब विलंब न करो।

सुमन ने कहा अभी एक काम और करना है। पंडित दीनानाथ आते होगे। बस उनसे निपट लूँ तो चलूँ। आप थोड़ा सा और कष्ट कीजिये।

विठ्ठलदास ऊपर जाकर बैठे ही थे कि पंण्डित दीनानाथ आ पहुँचे। बनारसी साफा सिर पर था, बदन पर रेशमी अवकन शोभायमान थी। काले किनारे की महीन धोती और कालो वार्निश के पम्प जूते उनके शरीर पर खूब फबते थे।

सुमन ने कहा, आइये महाराज! चरण छूती है।

दीनानाथ-आशीर्वाद, जवानी बढ़े, आँख के अंधे गाँठ के पूरे फंसे, सदा बढ़ती रहे।

सुमन--कल आप कैसे नहीं आये, समाजियों को लिये रात तक आपकी राह देखती रही।

दीनानाथ-कुछ न पूछो, कल एक रमझ में फंस गया। डाक्टर श्यामाचरण और प्रभाकर राव स्वराज्य को सभा में घसीट ले गये। वहाँ बकबक झकझक होती रही। मुझसे सबने व्याख्यान देने को कहा। मैंने कहा, मुझे कोई उल्लू समझा है क्या? पीछा छोड़ाकर भागा, इसी में देरी हो गई।

सुमन-कई दिन हुए मैंने आपसे कहा था कि किवाडोंं में वार्निश लगवा दीजिये। आपने कहा, वार्निश कहीं मिलती ही नहीं। यह देखिये, आज मैंने एक बोतल वार्निश मँगा रखी है। कल जरूर लगवा दीजिये। पंडित दीनानाथ मसनद लगाये बैठे थे। उनके सिर ही पर वह ताक था, जिसपर वार्निश रक्खी हुई थी,। सुमन ने बोतल उठाई, लेकिन मालूम नहीं कैसे बोतल की पेंदी अलग हो गई और पंडितजी वार्निश से नहा उठे। ऐसा मालूम होता था, मानो शीरे की नाद में फिसल पड़े हो। वह चौककर उठ खड़े हुए और साफा उतारकर रूमाल से पोंछने लगे।

सुमन ने कहा-मालूम नहीं बोतल टूटी थी क्या सारी वार्निश खराब हो गई।

दीनानाथ--तुम्हे अपनी वार्निश की पड़ी है, यहाँ सारे कपड़े तर हो गये। अब घरतक पहुँचना मुश्किल है।

सुमन-रात को कौन देखता है, चुपके से निकल जाइयेगा।

दीना-अजी, रहने भी दो, सारे कपड़े सत्यानाश कर दिये, अब उपाय बता रही हो। अब यह धूल भी नही सकते।

सुमन-तो क्या मैने जान बूझकर गिरा दिया?

दीना-तुम्हारे मन का हाल कौन जाने?

सुमन-अच्छा जाइये, जानकर ही गिरा दिया।

दीना-अरे तो मैं कुछ कहता हूँ, जी चाहे और गिरा दो।

सुमन-बहुत होगा अपने कपड़ों की कीमत ले लीजियेगा।

दीना-क्यों खफा होती हो सरकार? मैं तो कह रहा हूँ, गिरा दिया अच्छा किया।

सुमन-इस तरह कह रहे है, मानो मेरे साथ बड़ी रियायत कर रहें हैं।

दीना--सुमन, क्यों लज्जित करती हो? सुमन--जरा से कपड़े खराब हो गये उसपर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गये। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिर पर चढ़ के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइये यहाँ फिर न आइयेगा। मुझे आप जैसे मियाँ मिठ्ठओं की जरूरत नहीं।

विट्ठलदास ऊपर बैठे हुए यह कौतुक देख रहे थे। समझ गये कि अब अभिनय समाप्त हो गया। नीचे उतर आये। दीनानाथ ने एकबार चौक कर उन्हें देखा और छडी उठाकर शीघ्रतापूर्वक नीचे चले गए।

थोडी देर बाद सुमन ऊपर से उतरी। वह केवल एक उजली साड़ी पहने थी, हाथ मे चूड़ियाँ तक न थी। उसका मुख उदास था, लेकिन इसलिए नहीं कि यह भोग-विलास अब उससे छूट रहा है, वरन् इसलिए कि वह इस अग्निकुण्ड में गिरी क्यों थी। इस उदासीनता में मलिनता न थी, वरन्ए क प्रकार का संयम था, यह किसी मदिरा सेवी के मुख पर छानेवाली उदासी नहीं थी, बल्कि उसमें त्याग और विचार आभासित हो रहा था। विट्ठलदास ने मकान में ताला डाल दिया और गाड़ी के कोच बक्सपर जा बैठे। गाड़ी चली।

बाजारों की दूकाने बन्द थी, लेकिन रास्ता चल रहा था। सुमन ने खिड़की से झांककर देखा। उसे आगे लालटेनोंं की एक सुन्दर माला दिखाई दी, लेकिन ज्यों ज्यों गाड़ी बढती थी, त्यों त्यों वह प्रकाशमाला भी आगे बढ़ती जाती थी। थोड़ी दूर पर लालटेने मिलती थी पर वह ज्योतिर्माला अभिलाषायों के सदृग दूर भागती जाती थी।

गाड़ी वेग से जा रही थी। सुमन का भावी जीवनयान भी विचार सागर में वेग के साथ हिलता, डगमगाता, तारों के ज्योतिर्माल में उलझता चला जाता था।

२३

सदन प्रात:काल घर गया तो अपनी चाची के हाथ में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आँखे जमीन में गड़ गई। नाश्ता कर के जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हे कैसे मिल गया।

क्या यह सम्भव है कि सुमन ने उसे यहाँ भेज दिया हो? वह क्या जानती है कि कंगन किसका है? मैंने तो उसे अपना पता भी नहीं बताया। यह हो सकता है कि यह उसी नमूने का दूसरा कंगन हो, लेकिन इतनी जल्द वह तैयार नहीं हो सकता। सुमन ने अवश्य ही मेरा पता लगा लिया है और चाची के पास यह कंगन भेज दिया है।

सदन ने बहुत विचार किया। किन्तु हर प्रकार से वह इसी परिणाम पर पहुँचता था। उसने फिर सोचा, अच्छा मान लिया जाय कि उसे मेरा पता मालूम हो गया तो क्या उसे यह उचित था कि वह मेरी दी हुई चीज को यहाँ भेज देती? यह तो एक प्रकार का विश्वासघात है।

अगर सुमन ने मेरा पता लगा लिया है तब तो वह मुझे मन मेंं धूर्त, पाखंडी, जालिया समझती होगी! कंगन को चाची के पास भेजकर उसने यह भी साबित कर दिया कि वह मुझे चोर भी समझती है।

आज सन्ध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाय? उसका चित्त खिन्न था। घरपर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।

इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शंकाए इस उत्कंठा के नीचे दबती जाती थी। सन्ध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बाते करने को जी नही चाहता, उठना बैठना पहाड़ हो जाता है, जहाँ बैठता है वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।

अन्त को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूँगा। जिससे प्रेम हो गया, सुमन--जरा से कपड़े खराब हो गये उसपर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गये। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिरपर चढ़के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइये यहाँ फिर न आइयेगा। मुझे आप जैसे मियाँ मिट्ठओं की जरूरत नहीं।

विट्ठलदास ऊपर बैठे हुए यह कौतुक देख रहे थे। समझ गये कि अब अभिनय समाप्त हो गया। नीचे उतर आये। दीनानाथ ने एक बार चौक कर उन्हे देखा और छड़ी उठाकर शीघ्रतापूर्वक नीचे चले गए।

थोड़ी देर बाद सुमन छत पर से उतरी। वह केवल एक उजली साड़ी पहने थी, हाथ में चूडियाँ तक न थी। उसका मुख उदास था, लेकिन इसलिए नहीं कि यह भोग-विलास अब उससे छूट रहा है, वरन् इसलिए कि वह इस अग्निकुण्ड में गिरी क्यों थी। इस उदासीनता में मलिनता न थी, वरन् एक प्रकार का संयम था, यह किसी मदिरा सेवी के मुखपर छानेवाली उदासी नही थी, बल्कि उसमें त्याग और विचार आभासित हो रहा था।

विट्ठलदासने मकान में ताला डाल दिया और गाड़ी के कोच वक्सपर जा बैठे। गाड़ी चली।

बाजारों की दूकानें बन्द थी, लेकिन रास्ता चल रहा था। सुमन ने खिडकी से झांककर देखा। उसे आगे लालटेनों की एक सुन्दर माला दिखाई दी, लेकिन ज्यों ज्यों गाड़ी बढ़ती थी, त्यो-त्यों वह प्रकाशमाला भी आगे बढ़ती जाती थी। थोड़ी दूर पर लालटेने मिलती थी पर वह ज्योतिर्माला अभिलाषाओ के सदृश दूर भागती जाती थी।

गाड़ी वेगन से जा रही थी। सुमन का भावी जीवनयान भी विचार सागर में वेग के साथ हिलता, डगमगाता, तारों के ज्योतिर्मालनमें उलझता चला जाता था।

२३

सदन प्रात:काल घर गया तो अपनी चाची के हाथ में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आँखें जमीन मे गड़ गई। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया।

क्या यह सम्भव है कि सुमन ने उसे यहाँ भेज दिया हो? वह क्या जानती है कि कंगन किसका है? मैंने तो उसे अपना पता भी नहीं बताया। यह हो सकता है कि यह उसी नमूने का दूसरा कंगन हो, लेकिन इतनी जल्द वह तैयार नहीं हो सकता। सुमन ने अवश्य ही मेरा पता लगा लिया है और चाची के पास यह कंगन भेज दिया है।

सदन ने बहुत विचार किया। किन्तु हर प्रकार से वह इसी परिणाम पर पहुँचता था। उसने फिर सोचा, अच्छा मान लिया जाय कि उसे मेरा पता मालूम हो गया तो क्या उसे यह उचित था कि वह मेरी दी हुई चीज को यहाँ भेज देती? यह तो एक प्रकार का विश्वासघात है।

अगर सुमन ने मेरा पता लगा लिया है तब तो वह मुझे मन में धूर्त, पाखंडी, जालिया समझती होगी! कंगन को चाची के पास भेजकर उसने यह भी साबित कर दिया कि वह मुझे चोर भी समझती है।

आज सन्ध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाय? उसका चित्त खिन्न था। घर पर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।

इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शकाएं इस उत्कंठा के नीचे दबती जाती थी। सन्ध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बातें करने को जी नहीं चाहता, उठना बैठना पहाड़ हो जाता है, जहाँ बैठता है वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।

अन्त को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूँगा। जिससे प्रेम हो गया, उससे अब छिपाना कैसा! हाथ जोड़ कर कहूँगा, सरकार बुरा हूँ तो, भला हूँ तो अब आपका सेवक हूँ। चाहे जो दण्ड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है। चोरी की, चाहे दगा किया, सब तुम्हारे प्रेम के निमित्त किया अब क्षमा करो।

विषयवासना नीति, ज्ञान और संकोच किसी के रोके नहीं रुकती। नशे में हम सब बेसुध हो जाते है।

वह व्याकुल होकर पाँच ही बजे निकल पड़ा और घूमता हुआ नदी के तटतर आ पहुँचा। शीतल, मन्द वायु उसके तपते हुए शरीर को अत्यन्त सुखद मालूम होती थी और जल की निर्मल श्याम सुवर्ण धारा में रह-रहकर उछलती हुई मछलियां ऐसी मालूम होती थी, मानों किसी सुन्दरी के चञ्चल नयन महीन घूंघट से चमकते हों।

सदन घोड़े से उतरकर करार पर बैठ गया और इस मनोहर दृश्य को देखने में मग्न हो गया। अकस्मात् उसने एक जटाधारी साधु को पेड़ों की आड़ से अपनी तरफ आते देखा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी और नेत्र लाल थे। ज्ञान और योग को प्रतिभा की जगह उसके मुख से एक प्रकार की सरलता और दया प्रकट होती थी। उसे अपने निकट देखकर सदन ने उठकर उसका सत्कार किया।

साधु ने इस ढंग से उसका हाथ पकड़ लिया, मानो उससे परिचय है और बोला, सदन में कई दिन से तुमसे मिलना चाहता था। तुम्हारे हित की एक बात कहना चाहता हूँ। तुम सुमनबाई के पास जाना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायगा। तुम नहीं जानते वह कौन है? प्रेम के नशे में तुम्हें उसके दूषण नही दिखाई देते। तुम समझते हो कि वह तुमसे प्रेम करती है। किन्तु यह तुम्हारी भूल है। जिसने अपने पति को त्याग दिया, वह दूसरों से क्या प्रेम निभा सकती है? तुम इस समय वहीं जा रहे हो। साधु का वचन मानो, घर लौट जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है।

यह कहकर वह महात्मा जिधर से आये थे उधर ही चल दिये और इससे पूर्व कि सदन उनसे कुछ जिज्ञासा करने के लिए सावधान हो सके वह आँखो से ओझल हो गये।

सदन सोचने लगा, यह महात्मा कौन है? यह मुझे कैसे जानते है? मेरे गुप्त रहस्यों का इन्हें कैसे ज्ञान हुआ? कुछ उस स्थान की नीरवता, कुछ अपने चित्त की स्थिति, कुछ महात्मा के आकस्मिक आगमन और उनकी अन्तर्दृष्टि ने उनकी बातों को आकाशवाणी के तुल्य बना दिया। सदन के मन में किसी भावी अमंगल की आशंका उत्पन्न हो गई। उसे सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। वह घोड़े पर बैठा और इस आश्चर्यजनक घटना की विवेचना करता घर की तरफ चल दिया। जब से सुभद्रा ने सदन पर अपने कंगन के विषय में सन्देह किया था तब से पद्मसिंह उससे रुष्ट हो गये थे। इसलिए सुभद्रा का यहाँ अब जी न लगता था। शर्माजी भी इसी फिक्र में थे कि सदन को किसी तरह यहाँ से घर भेज दूँ। अब सदन का चित्त भी यहाँ से उचाट हो रहा था। वह भी घर जाना चाहता था, लेकिन कोई इस विषय में मुँह खोल न सकता था, पर दूसरे ही दिन पंडित मदनसिंह के एक पत्र ने उन सबकी इच्छाएँ पूरी कर दी। उसमें लिखा था, सदन के विवाह की बातचीत हो रही है। सदन को बहू के साथ तुरन्त भेज दो।

सुभद्रा यह सूचना पाकर बहुत प्रसन्न हुई। सोचने लगी, महीने दो महीने चहल-पहल रहेगी, गाना बजाना होगा, चैन से दिन कटेगें। इस उल्लास को मन में छिपा न सकी। शर्माजी उसकी निष्ठुरता देखकर और भी उदास हो गये। मन में कहा, इसे अपने आनन्द के आगे मेरा कुछ भी ध्यान नहीं है, एक या दो महीनों मे फिर मिलाप होगा, लेकिन यह कैसी खुश है?

सदन ने भी चलने की तैयारी कर दी। शर्माजी ने सोचा था कि वह अवश्य हीलाहवाला करेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इस समय ८ बजे थे। २ बजे दिन को गाड़ी जाती थी। इसलिए शर्माजी कचहरी न गये। कई बार प्रेम से विवश होकर घर में गये। लेकिन सुभद्रा को उनसे बातचीत करने की फुरसत कहाँ? वह अपने गहने कपड़े और माँँग चोटी में मग्न थी। कुछ गहने खटाई में पड़े थे, कुछ महरी साफ कर रही थी। पानदान माँजा जा रहा था। पड़ोस की कई स्त्रियाँ बैठी हुई थी। सुभद्रा ने आज खुशी में खाना भी नहीं खाया। पूड़ियाँ बनाकर शर्माजी और सदन के लिये बाहर ही भेज दी।

यहां तक कि एक बज गया। जीतन ने गाड़ी लाकर द्वारपर खड़ी कर दी। सदन ने अपने ट्रंक और बिस्तर आदि रख दिए। उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली, जरा देख तो कहाँ है, बुला ला। उसने आकर बाहर देखा। कमरे में झांका, नीचे जाकर देखा, शर्माजी का पता न था। सुभद्रा ताड़ गई। बोली, जबतक बह आवेगे, मैं न जाऊँगी। शर्माजी कहीं बाहर न गये थे। ऊपर छतपर जाकर बैठे थे। जब एक बज गया और सुभद्रा न निकली तब बह झुंझलाकर घर में गये और सुभद्रा से बोले, अभी तक तुम यहीं हो? एक बज गया!

सुभद्रा को आँखों में आँँसू भर आये। चलते-चलते शर्माजी की यह रुवाई अखर गई। शर्माजी अपनी निष्ठुरता पर पछताये। सुभद्रा के आँसू पोछे, गले से लगाया और लाकर गाड़ी में बैठा दिया।

स्टेशन पर पहुँचे, गाड़ी छूटने ही वाली थी, सदन दौड़कर गाड़ी में जा बैठा, सुभद्रा बैठने भी न पाई थी कि गाड़ी छूट गई। वह सिटकीपर खड़ी शर्माजीको ताकती रही और जबतक वह आँखो से ओझल न हुए यह खिड़की पर से न हटी।

संध्या समय गाड़ी ठिकानेपर पहुँची। मदनसिंह पालकी और घोड़ा लिए स्टेशन पर मौजूद थे। सदन ने दौड़कर पिता के चरण स्पर्श किए।

ज्यो-ज्यों गाँव निकट आता था, सदन की व्यग्रता बढ़ती जाती थी; जब गाँव आध मील रह गया और धान के खेत की मेडोंपर घोड़ो को दौड़ना कठिन जान पड़ा तो वह उतर पड़ा और बेग के साथ गाँव की तरफ चला। आज उसें अपना गाँव बहुत सुनसान मालूम होता था। सूर्यास्त हो गया था। किसान बैलों को हाँकते, खेतों में चले आते थे। सदन किसी से कुछ न