सेवासदन/२८

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १२२ ] उससे अब छिपाना कैसा! हाथ जोड़ कर कहूँगा, सरकार बुरा हूँ तो, भला हूँ तो अब आपका सेवक हूँ। चाहे जो दण्ड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है। चोरी की, चाहे दगा किया, सब तुम्हारे प्रेम के निमित्त किया अब क्षमा करो।

विषयवासना नीति, ज्ञान और संकोच किसी के रोके नहीं रुकती। नशे में हम सब बेसुध हो जाते है।

वह व्याकुल होकर पाँच ही बजे निकल पड़ा और घूमता हुआ नदी के तटतर आ पहुँचा। शीतल, मन्द वायु उसके तपते हुए शरीर को अत्यन्त सुखद मालूम होती थी और जल की निर्मल श्याम सुवर्ण धारा में रह-रहकर उछलती हुई मछलियां ऐसी मालूम होती थी, मानों किसी सुन्दरी के चञ्चल नयन महीन घूंघट से चमकते हों।

सदन घोड़े से उतरकर करार पर बैठ गया और इस मनोहर दृश्य को देखने में मग्न हो गया। अकस्मात् उसने एक जटाधारी साधु को पेड़ों की आड़ से अपनी तरफ आते देखा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी और नेत्र लाल थे। ज्ञान और योग को प्रतिभा की जगह उसके मुख से एक प्रकार की सरलता और दया प्रकट होती थी। उसे अपने निकट देखकर सदन ने उठकर उसका सत्कार किया।

साधु ने इस ढंग से उसका हाथ पकड़ लिया, मानो उससे परिचय है और बोला, सदन में कई दिन से तुमसे मिलना चाहता था। तुम्हारे हित की एक बात कहना चाहता हूँ। तुम सुमनबाई के पास जाना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायगा। तुम नहीं जानते वह कौन है? प्रेम के नशे में तुम्हें उसके दूषण नही दिखाई देते। तुम समझते हो कि वह तुमसे प्रेम करती है। किन्तु यह तुम्हारी भूल है। जिसने अपने पति को त्याग दिया, वह दूसरों से क्या प्रेम निभा सकती है? तुम इस समय वहीं जा रहे हो। साधु का वचन मानो, घर लौट जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है।

यह कहकर वह महात्मा जिधर से आये थे उधर ही चल दिये और [ १२३ ] इससे पूर्व कि सदन उनसे कुछ जिज्ञासा करने के लिए सावधान हो सके वह आँखो से ओझल हो गये।

सदन सोचने लगा, यह महात्मा कौन है? यह मुझे कैसे जानते है? मेरे गुप्त रहस्यों का इन्हें कैसे ज्ञान हुआ? कुछ उस स्थान की नीरवता, कुछ अपने चित्त की स्थिति, कुछ महात्मा के आकस्मिक आगमन और उनकी अन्तर्दृष्टि ने उनकी बातों को आकाशवाणी के तुल्य बना दिया। सदन के मन में किसी भावी अमंगल की आशंका उत्पन्न हो गई। उसे सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। वह घोड़े पर बैठा और इस आश्चर्यजनक घटना की विवेचना करता घर की तरफ चल दिया। जब से सुभद्रा ने सदन पर अपने कंगन के विषय में सन्देह किया था तब से पद्मसिंह उससे रुष्ट हो गये थे। इसलिए सुभद्रा का यहाँ अब जी न लगता था। शर्माजी भी इसी फिक्र में थे कि सदन को किसी तरह यहाँ से घर भेज दूँ। अब सदन का चित्त भी यहाँ से उचाट हो रहा था। वह भी घर जाना चाहता था, लेकिन कोई इस विषय में मुँह खोल न सकता था, पर दूसरे ही दिन पंडित मदनसिंह के एक पत्र ने उन सबकी इच्छाएँ पूरी कर दी। उसमें लिखा था, सदन के विवाह की बातचीत हो रही है। सदन को बहू के साथ तुरन्त भेज दो।

सुभद्रा यह सूचना पाकर बहुत प्रसन्न हुई। सोचने लगी, महीने दो महीने चहल-पहल रहेगी, गाना बजाना होगा, चैन से दिन कटेगें। इस उल्लास को मन में छिपा न सकी। शर्माजी उसकी निष्ठुरता देखकर और भी उदास हो गये। मन में कहा, इसे अपने आनन्द के आगे मेरा कुछ भी ध्यान नहीं है, एक या दो महीनों मे फिर मिलाप होगा, लेकिन यह कैसी खुश है?

सदन ने भी चलने की तैयारी कर दी। शर्माजी ने सोचा था कि वह अवश्य हीलाहवाला करेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इस समय ८ बजे थे। २ बजे दिन को गाड़ी जाती थी। इसलिए शर्माजी कचहरी न गये। कई बार प्रेम से विवश होकर घर में गये। लेकिन सुभद्रा को [ १२४ ] उनसे बातचीत करने की फुरसत कहाँ? वह अपने गहने कपड़े और माँँग चोटी में मग्न थी। कुछ गहने खटाई में पड़े थे, कुछ महरी साफ कर रही थी। पानदान माँजा जा रहा था। पड़ोस की कई स्त्रियाँ बैठी हुई थी। सुभद्रा ने आज खुशी में खाना भी नहीं खाया। पूड़ियाँ बनाकर शर्माजी और सदन के लिये बाहर ही भेज दी।

यहां तक कि एक बज गया। जीतन ने गाड़ी लाकर द्वारपर खड़ी कर दी। सदन ने अपने ट्रंक और बिस्तर आदि रख दिए। उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली, जरा देख तो कहाँ है, बुला ला। उसने आकर बाहर देखा। कमरे में झांका, नीचे जाकर देखा, शर्माजी का पता न था। सुभद्रा ताड़ गई। बोली, जबतक बह आवेगे, मैं न जाऊँगी। शर्माजी कहीं बाहर न गये थे। ऊपर छतपर जाकर बैठे थे। जब एक बज गया और सुभद्रा न निकली तब बह झुंझलाकर घर में गये और सुभद्रा से बोले, अभी तक तुम यहीं हो? एक बज गया!

सुभद्रा को आँखों में आँँसू भर आये। चलते-चलते शर्माजी की यह रुवाई अखर गई। शर्माजी अपनी निष्ठुरता पर पछताये। सुभद्रा के आँसू पोछे, गले से लगाया और लाकर गाड़ी में बैठा दिया।

स्टेशन पर पहुँचे, गाड़ी छूटने ही वाली थी, सदन दौड़कर गाड़ी में जा बैठा, सुभद्रा बैठने भी न पाई थी कि गाड़ी छूट गई। वह सिटकीपर खड़ी शर्माजीको ताकती रही और जबतक वह आँखो से ओझल न हुए यह खिड़की पर से न हटी।

संध्या समय गाड़ी ठिकानेपर पहुँची। मदनसिंह पालकी और घोड़ा लिए स्टेशन पर मौजूद थे। सदन ने दौड़कर पिता के चरण स्पर्श किए।

ज्यो-ज्यों गाँव निकट आता था, सदन की व्यग्रता बढ़ती जाती थी; जब गाँव आध मील रह गया और धान के खेत की मेडोंपर घोड़ो को दौड़ना कठिन जान पड़ा तो वह उतर पड़ा और बेग के साथ गाँव की तरफ चला। आज उसें अपना गाँव बहुत सुनसान मालूम होता था। सूर्यास्त हो गया था। किसान बैलों को हाँकते, खेतों में चले आते थे। सदन किसी से कुछ न [ १२५ ] बोला, सीधे अपने घर मे चला गया और माता के चरण छुए। माता ने छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया।

भामा—वे कहाँ रह गई?

सदन—आती है, मैं सीधे खेतों में से चला आया।

भामा-चाचा चाची से जी भर गया न?

सदन—क्यों?

भामा-वह तो चेहरा ही कहे देता है।

सदन-—वाह, मैं मोटा हो गया हूँ।

भामा--चल झूठे, चाची ने दानों को तरसा दिया होगा।

सदन—चाची ऐसी नहीं है। यहाँ से मुझे बहुत आराम था वहाँ दूध अच्छा मिलता था।

भामा-तो रुपये क्यों मांगते थे?

सदन-—तुम्हारे प्रेम की थाह ले रहा था। इतने दिनमें तुमसे २५ रू, ही लिए न? चाचा से सात सौ ले चुका। चार सौ का तो एक घोड़ा ही लिया रेशमी कपड़े बनवाये, शहर रईस बना घूमता था। सबेरे चाची ताजा हलवा बना देती थी। उसपर सेर भर दूध, तीसरे पहर मेवे और मिठाइयाँ? मैंने वहाँ जो चैन किया वह कभी न भूलूंगा। मैंने भी सोचा कि अपनी कमाई में तो चैन कर चुका इस अवसरपर क्यों चूकूँ, सभी शौक पूरे कर लिए।

भामा को ऐसा अनुमान हुआ कि सदन की बातों में कुछ निरालापन आ गया है। उनमें कुछ शहरीपन आ गया है।

सदन ने अपने नागरिक जीवन का उस उत्साह से वर्णन किया जो युवाकाल का गुण हैं।

सरला भामा का हृदय सुभद्रा की ओर से निर्मल हो गया।

दूसरे दिन प्रात:काल गांव के मान्य पुरुष निमन्त्रित हुए और उनके सामने सदन का फलदान चढ़ गया।

सदन की प्रेमलालसा इस समय ऐसी प्रबल हो रही थी कि विवाह का कड़ी धर्म बेड़ी को सामने लखकर भी वह चिन्तित न हुआ। उसे सुमन [ १२६ ] से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा ही का आधिक्य था। सुमन उसके हृदय में रहकर भी उसके जीवन का आधार न बन सकती थी। सदन के पास यदि कुबेर का धन होता तो वह सुमन को अर्पण कर देता। वह अपने जीवन के सम्पूर्ण सुख, उसकी भेंट कर सकता था, किन्तु अपने दुख से, विपत्ति से, कठिनाइयों से नैराश्य से वह उसे दूर रखता था। उसके साथ वह सुख का आनन्द उठा सकता था, लेकिन दु:खका आनन्द नहीं उठा सकता था। सुमन पर उसे वह विश्वास कहाँ था जो प्रेम का प्राण है! अब वह कपट प्रेम के माया-जाल से मुक्त हो जायगा। अब उसे बहुरूप धरने की आवश्यकता नहीं। अब वह प्रेम को यथार्थ रूप में देखेगा और यथार्थ रूप में दिखावेगा। यहाँ उसे वह अमूल्य वस्तु मिलेगी जो सुमन के यहाँँ किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी। इन विचारों ने सदन को इस नये प्रेम के लिए लालायित कर दिया। अब उसे केवल यही संशय था कि कही बधू रूपवती न हुई तो? रूप लावण्य प्राकृतिक गुण है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। स्वभाव एक उपाजित गुण है; उसमें शिक्षा और सत्संग से सुधार हो सकता है। सदन ने इस विषय में ससुराल नाई से पूछ ताछ करने की ठानी; उसे खूब भंग पिलाई, खूब मिठाइयाँँ खिलाईं। अपनी एक धोती उसको भेंट की। नाई ने नशे में आकर वधू की ऐसी लम्बी प्रशंसा की; उसके नखशिख का ऐसा चित्र खींचा कि सदनको इस विषय में कोई सन्देह न रहा। यह नखशिख सुमन से बहुत कुछ मिलता या। अतएव सदन नवेली दुलहिन का स्वागत करने के लिए और भी उत्सुक हो गया।

२३

यह बात बिल्कुल तो सत्य नही है कि ईश्वर सबको किसी न किसी हीले से अन्न वस्त्र देता है। पंण्डित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गायें न थी, लेकिन घर में, घी-दूध की नदी बहती थी, वह खेती बारी न करते थे, लेकिन घर में अनाजकी खत्तियाँ भरी रहती थी। गाँव में कही मछली मरे, कही [ १२७ ] बकरा कटे, कही आम टूटे, कही भोज हो, उमानाथ का हिस्सा बिना माँगे आप ही आप पहुँँच जाता। अमोल बड़ा गाँव था। ढाई तीन हजार जन-संख्या थी। लेकिन समस्त गाँव मे उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था। स्त्रियों को यदि गहने बनवाने होते तो वह उमानाथ से कहती। लड़के-लडकियों के विवाह उमानाथ की मार्फत तै होते। रेहननामे, बैनामे, दस्तावेज उमानाथ ही के परामर्शस लिखे जाते। मुआमिले मुकद्दमे उन्ही के द्वारा दायर होते और मजा यह था कि उनका यह दबाव और सम्मान उनकी सज्जनता के कारण नहीं था। गाँव वालो के साथ उनका व्यवहार शुष्क ओर रूखा होता था। वह वेलाग बात करते थे, लल्लोचप्पो करना न जानते थे, लेकिन उनके कटु वक्यों को लोग दूध के समान पीते थे। मालूम, नहीं उनके स्वभाव में क्या जादू था। कोई कहता था यह उनका एकबाल है, कोई कहता था इन्हे महावोरका इष्ट है। लेकिन हमारे विचार में यह उनके मानवस्वभाव के ज्ञान का फल था वह जानते थे कि कहाँ झुकना ओर कहाँ तनना चाहिए। गाँव वालो से तनने मे अपना काम सिद्ध होता, था अधिकारियो सें झुकने में ही। थीने और तहसील के अमले, चपरासी से नंलेकर तहसीलदार तक, सभी उनपर कृपादृष्टि रखते थे। तहसीलदार सहब के लिए वह वर्षफल बनाते, डिप्टी साहब को भावी उन्नति की सूचना देते। कानूनगो और कुर्कअमीन उनके द्वारपर बिना बुलाय मेहमान बने रहते। किसी को यन्त्र देते, किसी को भगवद्गीता सुनाते और जिन लोगों की श्रद्धा इन बातो पर न थी, उन्हें मीठे अचार और नवरत्नकी चटनी खिला कर प्रसन्न रखते। थानेदार साहब उन्हे अपना दाहिना हाथ समझते थे। जहाँ ऐसे उनकी दाल न गलती वहाँ पंण्डितजी की बदौलत पॉचों उँँगली घीमे हो जाती। भला ऐसे पुरुष की गाँव वाले क्यो न पूजा करते?

उमानाथ को अपनी बहन गंगाजली से बहुत प्रेम था लेकिन गंगाजली को मैके आने के थोड़े ही दिनो पीछे ज्ञात हुआ कि भाई का प्रेम भावज की अवज्ञा के सामने नहीं ठहर सकता। उमानाथ बहिन को अपने घर लानेपर मन में बहुत पछताते। वे अपनी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए ऊपरी मन से से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा हीन का आधिक्य था। सुमन उसके हृदय में रहकर भी उसके जीवन का आधार न बन सकती थी सदनके पास यदि कुबेर का घन होता तो वह सुमन को अर्पण कर देता। वह अपने जीवनके सम्पूर्णसुख,उसकी भेंट कर सकता था,किन्तु अपने दुखसे विपत्ति से कठिनाइयों से नैराश्य से वह उसे दूर रखता था। उसके साथ वह सुख का आनंद उठा सकता था लेकिन दुःख आनन्द नहीं उठा सकता था। सुमन पर उसे वह विश्वास कहाँ था जो प्रेम का प्राण है! अब वह कपट प्रेम के मायाजाल से मुक्त हो जायगा। अब उसे बहुरूप धरने की आवश्यकता नहीं। अब वह प्रेम को यथार्थ रूप में देवेगा यथार्थ रूप दिखावेगा । यहाँ उसे वह अमूल्य वस्तु मिलेगी जो सुमन के यहां किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी। इन विचारों ने सदन को इस नये प्रेम के लिए लालायित कर दिया। अब उसे केवल यही संशय था कि कही वधू रूपवती न हुई तो? रूप लावण्य प्राकृतिक गुण है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। स्वभाव एक उपार्जित गुण है, उसमें शिक्षा और सत्संग से सुधार हो सकता है।सदन ने इस विषय में समुराल केनाई से पूछ ताछ करने की ठानी; उसे खूब भंग पिलाई खूब मिठाइयां खिलाई। अपनी एक धोती उसको भेट की।नाईने नशे में आकर बखूकी ऐसी लम्बी प्रशंसा की, उसके नखशिख का ऐसा चित्र खीचा कि सदन को इस विषयों को सन्देह न रहा यह नखशिख सुमनसे बहुत कुछ मिलता था। अतएव सदन नवेली दुलहिन का स्वागत करने के लिए और भी उत्सुक हो गया।

२३

यह बात बिल्कुल तो सत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी न किसी हीले से अन्न वस्त्र देता है। पण्डित उमानाथ बिना किसी हीलेही संसार का सुख भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गायें न थी,लेकिन घर में घी-दूध की नदी बहती थी, यह खेती बारी न करते थे, लेकिन घरमें अनाज की सत्तियाँ भरी रहती थी। गाँवमें कहीं मछली मरे, कहीबकरा कटे ,कही आम टूटे, कही भोज हो, उमानाथ का हिस्सा बिना माँगे आप ही आप पहुँच जाता। अमोल बड़ा गाँव था। ढाई तीन हजार जन संख्या थी। लेकिन समस्त गाँव में उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था। स्त्रियों को यदि गहने बनवाने होते तो वह उमानाथ से कहती। लड़के-लड़कियों के विवाह उमानाथ की मार्फत तय होते। रेहननामे,बैनामे, दस्तावेज उमानाथ ही के परामर्श लिखे जाते। मुआमिले मुकद्दमे उन्ही के द्वारा दायर होते और मजा यह था कि उनका यह दबाव और सम्मान उनकी सज्जनता के कारण नहीं था। गांववालो के साथ उनका व्यवहार शुक ओर रूखा होता था। वह बेलाग बात करते थे, लल्लोचप्पो करना न जानते थे, लेकिन उनके कटु वाक्यों को लोग दूध के समान पीते थे। मालूम नहीं उनके स्वभाव में क्या जादू था। कोई कहता था यह उनका एकबाल है, कोई कहता था इन्हे महावीर का इष्ट है। लेकिन हमारे विचार में यह उनके मानव स्वभाव के ज्ञान का फल था। वह जानते थे कि कहाँ झुकना और कहाँ तनना चाहिए। गॉव बालों से तनने मे अपना काम सिद्ध होता था, अधिकारियों से झुकने में ही। थाने पर तहसीलके अमले चपरासी से लेकर तहसीलदार तक, सभी उनपर कृपादृष्टि रखते थे। तहसीलदार साहब के लिए वह वर्सफल बाते, डिप्टी साहब को भावी उन्नति की सूचना देते। कानून गो और कुर्क अमीन उनके द्वारपर बिना बुलाये मेहमान बने रहते। किसीको यन्त्र देते किसी को भगवद्गीता सुनाते और जिन लोगों की श्रद्धा इन बातों पर न थी, उन्हें मीठे अचार ओर नवरत्न की चटनी खिला कर प्रसन्न रखते। थानेदार साहब उन्हे अपना दाहिना हाथ समझते थे। जहां ऐसे उनको दाल न गलती वहाँ पण्डितजी की बदौलत पाँचो उंगली घी में हो जाती। भला ऐसे पुरुषकी गाँववाले क्यों न पूजा करते?

उमानाथ को अपनी बहन गंगाजली से बहुत प्रेम था लेकिन गगांजली को मैके आने के थोड़े ही दिनों पीछे ज्ञात हुआ कि भाई का प्रेम म भावज की अवज्ञा के सामने नहीं ठहर सकता। उमानाथ बहिन को अपने घर लानेपर मन से बहुत पछताते। वे अपनी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए ऊपरी मनसे[ १३० ] उसकी हाँ में हाँ मिला दिया करते। गंगाजली को साफ कपड़े पहनने का क्या अधिकार है? शान्ता का पालन पहले चाहे कितने ही लाड़ प्यार से हुआ हो, अब उसे उमानाथ की लड़कियों से बराबरी करने का क्या अधिकार है? उमानाथ, स्त्री की इन खेपपूर्ण बातों को सुनते और उनका अनुमोदन करते। गंगाजली को जब क्रोध आता तो वह उसे अपने भाई ही पर उतारती। वह समझती थी कि वे अपनी स्त्री को बढ़ावा देकर मेरी दुर्गति करा रहे है। वे अगर उसे डाँट देते तो मजाल थी कि वह यो मेरे पीछे पड़ जाती? उमानाथ को जब अवसर मिलता तो बह गंगाजली को एकान्त में समझा दिया करते। किन्तु एक तो जान्हवी उन्हें ऐसे अवसर मिलने ही न देती, दूसरे गंगाजली को भी उनकी सहानुभूति पर विश्वास न आता।

इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। गंगाजली चिन्ता, शोक और निशा से औषधियाँ सेवन कराई लेकिन जब कुछ लाभ न हुआ तो उन्हें चिन्ता हुई। एक रोज उनकी स्त्री किसी पड़ोसी के घर गई हुई थी। उमानाथ बहन के कमरे में गये। वह बेसुध पड़ी हुई थी, बिछावन चिथड़ा हो रहा था। साड़ी फटकर तारतार हो गई थी, शान्ता उसके पास बैठी हुई पंखा झल रही थी। यह करुणाजनक दृश्य देखकर उमानाथ पड़े यही बहन है। जिसकी सेवा के लिए दो दासियाँ लगी हुई थीं, आज उसकी यह दशा हो रही है! उन्हें अपनी दुर्बलता पर अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न हुई। गंगाजली के सिरहाने बैठकर रोते हुए बोले, बहन यहां लाकर मन तुम्हें बड़ा कष्ट दिया है। नहीं जानता था कि उसका यह परिणाम होगा। आज किसी वैद्यक ले आता हूँ। ईश्वर चाहेगें तो तुम शीघ्र ही अच्छी हो जाओगी।

इतने में जान्हवी भी आ गई, ये बातें उनके कान में पढ़ी। बोली, हाँ हाँ दौडों, वैद्य को बुनाओ, नहीं तो अनर्थ हो जायगा। अभी पिछले दिनों महीनों ज्वर आता रहा, तब बैद्य के पास न दौड़े। में भी ओढ़कर पड़ रहती तो तुम्हें मालूम होता कि इसे कुछ हुआ है, लेकिन में कैसे पढ़ रहती? घर की चक्की कौन पीसता? मेरे कर्म में क्या सुख भोगना वदा है? [ १३१ ] उमानाथ का उत्साह शान्त हो गया। वैद्य को बुलाने की हिम्मत न पड़ी। वे जानते थे कि वैद्य को बुलाया तो गंगाजली को जो दो-चार महीने जीते है, वह भी न जी सकेगी।

गंगाजली की अवस्था दिनों दिन बिगड़ने लगी। यहाँ तक कि उसे ज्वरातिसार हो गया। जीने की आशा न रही। जिस उदर में सागू के पचाने की भी शक्ति न थी, वह जोकी रोटियाँ कैसे पचाता? निदान उसका जर्जर शरीर इन कष्टों को और अधिक न सह सका। छः मास बीमार रहकर वह दुखिया अकाल मृत्यु का ग्रास बन गई।

शान्ता का अब संसार में कोई न था। सुमनके पास उसने दो पत्र लिखे; लेकिन वहाँ से कोई जवाब न गया। शान्ता ने समझा; बहन ने भी नाता तोड़ दिया। विपत्ति में कौन साथी होता है? जब तक गंगाजली जीती थी; शान्ता उसके अञ्चल में मुँँह छिपाकर रो लिया करती थी। अब यह अव-लम्बन भी न रहा। अन्धे के हाथ से लकड़ी जाती रही। शान्ता जब तब अपनी कोठरी के कोने में मुँँह छिपाकर रोती, लेकिन घर के कोने और माता के अञ्चल में बड़ा अन्तर है। एक शीतल जल का सागर है, दूसरा मरुभूमि।

शान्ता को अब शान्ति नहीं मिलती। उसका हृदय अग्नि के सदृश दहकता रहता है, वह अपनी मामी और मामा को अपनी माता का घातक समझती है। जब गंगाजली जीती थी, तब शान्ता उसे कटु वाक्यों से बचाने के लिए यत्न करती रहती थी, वह अपनी मामी के इशारों पर दौड़ती थी, जिसमे वह माता को कुछ कह न बैठे। एक बार गंगाजली के हाथ से घी की हाँड़ी गिर पड़ी थी। शान्ता ने मामी से कहा था, यह मेरे हाथ से छूट पड़ी। इसपर उसने खूब गालियाँ खाई। वह जानती थी कि माता का हृदय व्यंग को नहीं सह सकता।

लेकिन अब शान्ता को इसका भय नहीं है। वह निराधार होकर बलवती हो गई है। अब वह उतनी सहनशील नही है, उसे जल्द क्रोध आ जाता है। वह जली कटी बातों का बहुधा उत्तर भी दे देती है। उसने अपने हृदय को कड़ी से कड़ी यन्त्रण के लिए तैयार कर लिया है। मामा से [ १३२ ] वह दबती है, लेकिन मामी से नहीं दबती और ममेरी वहिनों को तो वह तुरकी वतुरकी जवाब देती है। अब शान्ता वह गाय है जो हत्या भय के बलपर दूसरे का खेत चरती है।

इस तरह एक वर्ष और बीत गया। उमानाथ ने बहुत दौड़धूप की कि उसका विवाह कर दें, लेकिन जैसा सस्ता सौदा वह करना चाहते थे, वह-कही ठीक न हुआ। उन्होने थाने, तहसील में जोड़तोड़ लगाकर २००, का चन्दा करा लिया था। मगर इतने सस्ते वर कहाँ? जान्हवी का वश चलता तो वह शान्ता को किसी भिखारी के गले बाँधकर अपना पिण्ड छुड़ा लेती, लेकिन उमानाथ ने अबकी पहली बार उसका विरोध किया और सुयोग्य वर ढूंढते रहे। गंगाजली के बलिदान ने उनकी आत्मा को बलवान बना दिया।

२४

सार्वजनिक संस्याएँ भी प्रतिभाशाली मनुष्यों की मुहताज होती है। यद्यपि विट्ठलदासके अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्राय:सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊँची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के सम्मिलित होते ही इस संस्था में जान पड़ गई। नदी की पतली बार उमड़ पडी। बड़े आदमियों मे उनकी चर्चा होने लगी। लोग उनपर कुछ-कुछ विश्वास करने लगे?

पद्मसिंह अकेले न आये। बहुवा किसी काम को अच्छा समझकर भी हम उसमें हाथ लगाते हुए डरते है, नक्कू बन जाने का भय लगा रहता है। हम बड़े आदमियों के आ मिलने की राह देखा करते है। ज्योंही किसी ने रास्ता खोला, हमारी हिम्मत बँध जाती है, हमको हँसी का डर नही रहता। अकेले हम अपने घर में भी डरते हैं, दो होकर जंगलो में भी निर्भय रहते है। प्रोफेसर रमेशदत्त, लाला भगतराम और मिस्टर रुस्तम भाई गुप्तरूप से विट्ठलदासकी सहायता करते रहते थे। अब वह खुले पड़े। सहायकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी।

विट्ठलदास सुधार के विषय में मृदुभाषी बनना अनुचित समझते थे, इसलिए उनकी बात रुचिकर न होती थी, मींठी नीद सोने वालों [ १३३ ] को उनका कठोर नाद अप्रिय लगता था। विट्ठलदास को इसकी चिन्ता न थी।

पद्मसिंह धनी मनुष्य थे। उन्होंने बड़े उत्साह से वेश्याओं को शहर मुख्य स्थानों से निकालने के लिए आन्दोलन करना शुरू किया। म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों में दो चार सज्जन विट्ठलदास भक्त भी थे। किन्तु वे इस प्रस्ताव को कार्य रूप में लाने के लिए यथेष्ट साहस न रखते थे। समस्या इतनी जटिल थी कि उसकी कल्पना ही लोगों को भयभीत कर देती थी। वे सोचते थे कि इस प्रस्ताव को उठाने से न मालूम शहर में क्या हलचल मचे शहरके कितने ही रईस, कितने ही राज्यपदाधिकारी, कितने ही सौदागर इस प्रेम मंण्डी से सम्बन्ध रखते थे। कोई ग्राहक था, कोई पारखी, उन सबसे बैर मोल लेने का कौन साहस करता? म्युनिसिपैलिटीके अधिकारी उनके हाथों में कठपुतली के समान थे।


पद्मसिंहने मेम्बरो से मिलमिलाकर उनका ध्यान इस प्रस्ताव की ओर आकर्षित किया। प्रभाकरराव की तीव्र लेखनी ने उनकी बडी सहायता की। पैम्फलेट निकाले गये और जनताको जागृत करनेके लिए व्याख्यानों का कम बाँधा गया। रमेशदत्त और पद्मसिंह इस विषय में निपुण थे। इसका भार उन्होंने अपने सिर ले लिया। अब आन्दोलन ने एक नियमित रूप धारण किया।

पद्मसिंह ने यह प्रस्ताव उठा तो दिया, लेकिन वह इसपर जितना ही विचार करते थे, उतने ही अन्धकार में पड़ जाते थे। उन्हे यह विश्वास न होता था कि वेश्कयाओं निवसनसे आशातीत उपकार हो सकेगा। संभव है, उपकारके बदले अपकार हो। बुराइयो का मुख्य उपचार मनुष्य का सट्ठन है। इसके बिना कोई उपाय सफल नही हो सकता ।कभी-कभी वह सोचते-सोचते हताश हो जाते। लेकिन इस पक्ष के एक सभ्य बनकर वे आप सन्देह रखते हुए भी दूसरो पर इसे प्रकट न करते थे। जनताके सामने तो उन्हें सुधारक बनते हुए सकोच न होता था, लेकिन अपने मित्रों और सज्ज नोके सामने वह दृह न रह सकते। उनके सामने आना शर्माजी के लिए [ १३४ ] वही कठिन परीक्षा थी। कोई कहता, किस फेर में पड़े हो, विट्ठलदास के चक्कर में तुम भी आ गये? चैन से जीवन व्यतीत करो। इन सब झमेलो में क्यों व्यर्थ पड़ते हो? कोई कहता, यार मालूम होता है, तुम्हें किसी औरत ने चरका दिया है, तभी तुम वेश्याओं पीछे इस तरह पड़े हो? ऐसे मित्रों के सामने आदर्श और उपकारकी बातचीत करना अपनको बेवकूफ बनाना था।

व्याख्यान देते हुए भी जब शर्मा जी कोई भावपूर्ण बात कहते करुणात्मक दृथ्य दिखाने की चेष्टा करते तो उन्हें शब्द नही मिलते थे, और शब्द मिलते तो उन्हें निकालते हुए शर्माजी को बड़ी लज्जा आती थी। यथार्य में बह इस रस में पगे नहीं थे। वह जब अपने भावशैथिल्यकी विवेचना करते तो उन्हें ज्ञात होता था कि मेरा हृदय प्रेम और अनुराग से खाली है।

कोई व्याख्यान समाप्त कर चुकने पर शर्माजी को यह जानने की उतनी इच्छा नही होती थी कि श्रोताओं पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, जितनी इसकी कि व्याख्यान सुन्दर, सप्रमाण और ओजपूर्ण था या नहीं।

लेकिन इन समस्याओं के होते हुए भी यह आन्दोलन दिनों-दिन बढ़ता जाता था। यह सफलता शमजी कें अनुराग और विश्वास में कुछ कम उत्साहवर्धक न थी।

सदनसिंह के विवाह को अभी दो मास थे। घर की चिन्ताओं से मुक्त होकर शर्माजी अपनी पूरी शक्ति से इस आन्दोलन में प्रवृत्त हो गये। कचहरी के काम में उनका जी न लगता। वह भी वे प्रायः इन्हीं चर्चाओं में पड़े रहते। एक ही विषय पर लगातार सोचते विचारते रहने से उस विषय से प्रेम हो जाया करता है। धीरे-धीरे शर्माजी के हृदय में प्रेमका उदय होने लगा।

लेकिन जब यह विवाह निकट आ गया तो शर्माजी का उत्साह कुछ क्षीण होने लगा। मन में यह समस्या उठी कि भैया यहाँ वेश्याओं के लिये अवश्य ही मुझे लिखेंगे उस समय में क्या कहूँगा? नाच बिना सभा सूनी रहेगी, दूर दूर: गाँवो से लोग नाच देखने आवेंगे नाच न देखकर उन्हें निराशा होगी, भाई साहब बुरा मानेंगे, ऐसी अवस्था में मेरा क्या कर्तव्य है? भाई साहब को इस कुप्रयासे रोकना चाहिए। लेकिन क्या में [ १३५ ] इस दुष्कर कार्य में सफल हो सकूँगा? बड़ो के सामने न्याय और सिद्धान्त की बातचीत असंगत-सी जान पड़ती है। भाई साहब के मन से बड़े बड़े हौसले है, इन हौसलों के पूरे होने में कुछ भी कसर रही तो उन्हे दुःख होगा। लेकिन कुछ भी हो, मेरा कर्तव्य यही है कि अपने सिद्धांत का पालन करें।

यद्यपि उनके इस सिद्धान्त पालन से प्रसन्न होनेवालों की संख्या बहुत कम थी और अप्रसन्न होने वाले बहुत थे, तथापि शर्माजी ने इन्ही गिने-गिनाये मनुष्यों को प्रसन्न रखना उत्तम समझा। उन्होने निश्चय कर लिया कि नाच न ठीक करूंगा। अपने घर में ही सुधार न कर सका तो दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।

यह निश्चय करके शर्माजी बारात की सजावट सामान जुटाने लगे। वह ऐसे आनन्दोत्सवों में किफायत करना अनुचित समझते थे। इसके साथ ही वह अन्य सामग्रियों के बाहुल्य से नाच की कसर पूरी करना चाहते थे, जिसमें उनपर किफायत का अपराध न लगे।

एक दिन विट्ठलदासने कहा, इन तैयारियो में आपने कितना खर्च किया?

शर्मा—इसका हिसाब लौटने पर होगा।

विट्ठलदास--तब भी दो हजार से कम तो न होगा।

शर्मा—हाँ, शायद कछ इससे अधिक हो। [ १३६ ]मदन-अच्छा,यह बात है। भला किसी तरह लोगों की आखें तो खुली। मैं भी इस प्रयाको निन्द्य समझता हूँ, लेकिन नक्कू नहीं बनना चाहता। जब सब लोग छोड़ देगें तो मैं भी छोड़ दूँगा, मुझको ऐसी क्या पड़ी है कि सबके आगे चलूं। मेरे एक ही लड़का है, उसके विवाह में मन के सब हौसले पूरे करना चाहता हूँ। विवाह बाद में भी तुम्हारा मत स्वीकार कर लूँगा। इस समय मुझे अपने पुराने ढंगपर चलने दो, और यदि बहुत कष्ट न हो तो सवेरे की गाड़ी से चले जाओ और बीड़ा देकर उधर से ही अमोला चले जाना। तुमसे इसलिए कहता हूँ कि तुम्हें वहाँ लोग जानते हैं। दूसरे जायेंगे तो लुट जायेंगे।

पद्मसिंह ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें चुप देखकर मदन सिंह ने तेवर बदलकर कहा, चुप क्यों हो, क्या जाना नही चाहते?

पद्मसिंहने अत्यन्त दीन भाव से कहा—भैया, आप यदि मुझे क्षमा करें तो .......

मदन नहीं नहीं, मैं तुम्हें मजबूर नहीं करता, नहीं जाना चाहते तो मत जाओ। मुन्शी बैजनाथ, आपको कष्ट तो होगा, पर मेरी खातिर से आप ही जाइय।

बैजनाथ---मुझे कोई उज्र नही है।

मदन—उधर से ही अमोला चले जाइयेगा। आपका अनुग्रह होगा।

बैजनाथ---आप इतमीनान रखें, मैं चला जाऊंगा।

कुछ देर तीनों आदमी चुप बैठे रहे। मदनसिंह अपने भाई को कृतघ्न समझ रहे थे। बैजनाथ को चिन्ता हो रही थी कि मदनसिंह का पक्ष ग्रहण करने से पद्मसिंह बुरा तो न मान जायेंगे और पद्मसिंह अपने बड़े भाई की अप्रसन्नता भय से दबे हुए थे। सिर उठाने का साहस नहीं होता था। एक ओर भाई की अप्रसन्नता थी दूसरी ओर अपने सिद्धान्त और न्याय का बलिदान। एक ओर अन्धेरी घाटी थी, दूसरी ओर सीधी चट्टान, निकलने का कोई मार्ग न था। अन्त में उन्होने डरते-डरते कहा, भाई साहब, आपने मेरी भूले कितनी ही बार क्षमा की है, मेरी एक ढिठाई और क्षमा कीजिये। [ १३७ ] आप जब नाच के रिवाजको दूषित समझते है तो उसपर इतना जोर क्यों देते है?

मदनसिंह झुझलाकर बोले, तुम तो ऐसी बाते करते हो मानो इस देश में पैदा ही नहीं हुए, जैसे किसी अन्य देश से आये हो! एक यही क्या, कितनी कुप्रथाएँ है, जिन्हे दूषित समझते हुए भी उनका पालन करना पड़ता है। गाली गाना कौन सी अच्छी बात है? दहेज लेना कौन सी अच्छी बात है? पर लोकरीति पर न चले तो लोग उँगलियाँ उठाते है। नाच न ले जाऊँ तो लोग यही कहेंगे कि कंँजूसी के मारे नहीं लाये। मर्यादा में बट्टा लगेगा। मेरे सिद्धान्त को कौन देखता है?

पद्मसिंह बोले, अच्छा, अगर इसी रुपये को किसी दूसरी उचित रीति से खर्च कर दीजिये तब तो किसी को कंजूसी की शिकायत न रहेगी! आप दो डेरे ले जाना चाहते है। आजकल लग्न तेज है, तीन सौ से कम खर्च न पड़ेगा आप तीन सौ की जगह पाँच सौ रुपय के कम्बल लेकर अमोला के दीन दरिद्रो में बाँट दीजिये तो कैसा हो? कम से कम दो सौ मनुष्य आपको आाशीर्वाद देंगे और जबतक कम्बल का एक धागा भी रहेगा आपका यश गाते रहेंगे। यदि यह स्वीकार न हो तो अमोला में २००) की लागत से एक पक्का कुआँ बनवा दीजिये। इसी से चिरकालतक आपकी कीति बनी रहेगी। रूपयो का प्रबन्ध में कर दूँगा।

मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था वह इन प्रस्तावो के सामने न ठहर सका। वह कोई उत्तर सोच रहे थे कि इतनमे बैजनाथ यद्यपि उन्हें पद्मसिंह के बिगड जाने का भय था तथापि इस बात में अपनी बुद्धिकी प्रकांडता दिखाने की इच्छा उस भय से अधिक बलवती थी इसलिए बोले, भैया, हर काम के लिए एक अवसर होता है, दान के अवसरपर दान होना चाहिए, नाचके अवसरपर नाच। बेजोड़ बात कभी भली नही लगती। और फिर शहर के जानकार आदमी हों तो एक बात भी है। देहात के उजड्ड जमींदारोके सामने आप कम्बल बाँटने लगेगे तो वह आपका मुँह देखेंगे और हँसेंगे। [ १३८ ]मदनसिंह निरुतर से हो गये थे। मुंशी बैजनाथ के इस कथन से खिल उठे। उनकी ओर कृतज्ञता से देखकर वोले, हाँ और क्या होगा? बसन्त में मलार गानेवाले को कौन अच्छा कहेगा? कुसमय की कोई बात अच्छी नहीं होती। इसी से तो मैं कहता हूँ कि आप सबेरे चले जाइये और दोनों डेरे ठीक कर आइये।

पद्मसिंह ने सोचा, यह लोग तो अपने मन की करेगे ही, पर देखूँ किन युक्तियों से अपना पक्ष सिद्ध करते है। भैया को मुंशी बैजनाथ पर अधिक विश्वास है, इस बात से भी उन्हें बहुत दुख हुआ। अतएव वह नि:संकोच होकर बोले, तो यह कैसे मान लिया जाय कि विवाह आनन्दोत्सव ही का समय है? मैं तो समझता हूँ, दान और उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अवसर न होगा। विवाह एक धार्मिक व्रत है, एक आत्मिक प्रतिज्ञा है, जब हम गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते है, जब हमारे पैरो में धर्म की बेड़ी पड़ती है, जब हम सांसारिक कर्तव्य के सामने अपने सिर को झुका देते है, जब जीवन का भार और उसकी चिन्ताएँ हमारे सिरपर पड़ती है, तो ऐसे पवित्र संस्कार के अवसर पर हमको गाम्भीर्य से काम लेना चाहिए। यह कितनी निर्दयता है कि जिस समय हमारा आत्मीय युवक ऐसा कठिन व्रत धारण कर रहा हो उस समय हम आनन्दोत्सव मनाने बैठे। वह इस गुरुतर भार से दवा जाता हो और हम नाच-रंग में मस्त हो। अगर दुर्भाग्य से आज-कल यह उल्टी प्रथा चल पड़ी है तो क्या यह आवश्यक है कि हम भी उसी लकीपर चलें? शिक्षा का कम से कम इतना प्रभाव तो होना चाहिए कि धार्मिक विषयो में हम मूर्खों की प्रसन्नता को प्रधान न समझे।

मदनसिंह फिर चिन्तासागर में डूबे। पद्मसिंह का कथन उन्हें सर्वथा-सत्य प्रतीत होता था, पर रिवाज के मामले न्याय, सत्य और सिद्वान्त सभी को सिर झुकाना पडता है। उन्हें संशय था कि मुन्शी बैजनाथ अब कुछ उत्तर न दे सकेंगे। लेकिन मुन्शीजी अभी हार नहीं मानना चाहते थे। वह बोले, भैया, तुम वकील हो, तुमसे बहस करने की लियाकत हममे कहाँ है? लेकिन जो बात सनातन से होती चली आई है, चाहे वह उचित हो [ १३९ ] या अनुचित उसके मिटाने से बदनामी अवश्य होती है। आखिर हमारे 'पूर्वज निरे जाहिल-जघाट तो थे नहीं, उन्होंने कुछ समझकर ही तो इस रस्म का प्रचार किया होगा।

मदनसिंह को यह युक्ति न सूझी थी। बहुत प्रसन्न हुए। बैजनाथ की ओर सम्मानपूर्ण भाव से देख कर बोले, अवश्य। उन्होने जो प्रथाएँ चलाई है, उन सबमें कोई न कोई बात छिपी रहती है, चाहे वह आजकल हमारी समझ में न आवे। आजकल के नये विचारवाले लोग उन प्रथाओं के मिटाने में ही अपना गौरव समझते हैं। अपने सामने उन्हें कुछ समझते ही नहीं। वह यह नही देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञानविचार और आचरण है, वह सब उन्ही पूर्वजों की कमाई है। कोई कहता है, यज्ञोपवीत से क्या लाभ? कोई शिखा की जड़ काटने पर तुला हुआ है, कोई इसी धुन में है कि शूद्र और चाण्डाल सब क्षत्रिय हो जायें, कोई विधवाओं के विवाह का राग अलापता फिरता है और तो और कुछ ऐसे महाशय भी है जो जाति और वर्णकों भी मिटा देना चाहते हैं। तो भाई यह सब बातें हमारे मान की नहीं है। जो जिन्दा रहा तो देखूंगा कि यूरोप का पौधा यहाँ कैसे कैसे फल लाता है? हमारे पूर्वजों ने खेती को सबसे उत्तम कहा है, लेकिन आजकल यूरोप की देखा देखी लोग मिल और मशीनों के पीछे पड़े हुए है। मगर देख लेना, ऐसा कोई समय आवेगा कि यूरोपवाले स्वयं चेतेगें और मिलो को खोद खोदकर खेत बनावेंगे। स्वाधीन कृषक सामने मिलके मजदूरों की क्या हस्ती। वह भी कोई देश है, जहाँ चाह से खाने की वस्तुएँ आवे तो लोग भूखों मरे। जिन देशो में जीवन ऐसे उलटे नियमों पर चलाया जाता है, वह हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकते। शिल्प और कलाकौशल का यह महल उसी समय तक है जब तक संसार में निर्बल असमर्थ जातियाँ वर्तमान है। उनके गले सस्ता माल महकर यूरोप वाले चैन करते है। पर ज्योंही ये जातियाँ चौकेगी, यूरोप की प्रभुता नष्ट हो जायगी। हम यह नहीं कहते कि यूरोपवालों से कुछ मत सीखो। नहीं, वह आज संसार के स्वामी है और [ १४० ] उनमें बहुत से दिव्य गुण है। उनके गुणों को ले लो, दुर्गुणों को छोड़ दो। हमारे अपने रीतिरिवाज हमारी अवस्था के अनुकूल है। उनमे काट-छाँँट करने की जरूरत नहीं।

मदनसिंह ने ये बातें कुछ गर्व से की, मानो कोई विद्वान पुरुष अपने निज के अनुभव प्रकट कर रहा है, पर यथार्थ में ये सुनी सुनाई बातें थी जिनका मर्म वह खुद भी न समझते थे। पद्मसिंह ने इन बातों को बड़ी धीरता के साथ सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया। उत्तर देने से बात बढ़ जाने का भय था। कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है। वाद में नम्रता और विनय प्रवल युक्तियों मे भी अधिक प्रभाव डालती है। अतएव वह बोले,तो में ही चला जाऊँगा, मुन्शी बैजनाथ को क्यों कष्ट दीजियेगा। यह चले जायेंगे तो यहाँ बहुत-सा काम पड़ा रह जायगा। आइये, मुन्शी जी हम दोनों आदमी बाहर चले, मुझे आपसे अभी कुछ बात करनी है।

मदनसिंह—तो यही क्यों नही करते? कहो तो मैं ही हट जाऊँ।

पद्म—जी नहीं कोई ऐसी बात नही है पर ये बातें मै मुन्शी जी से अपनी शंका-समाधान करने के लिए कर रहा हूँँ। हाँँ, भाई साहब बतलाइये अमोला मे दर्शको की संख्या कितनी होगी? कोई एक हजार। अच्छा आपके विचार में कितने इनमें दरिद्र किसान होंगे, कितने जमींदार?

बैजनाथ—ज्यादा किसान ही होगे, लेकिन जमीदार भी दो-तीन सौ से कम न होंगे।

पद्म—अच्छा, आप यह मानते है कि दीन किसान नाच देखकर उतने प्रसन्न न होगे जितने धोती या कम्बल पाकर?

बैजनाथ भी सशस्त्र थे। बोले, नहीं में यह नहीं मानता। अधिकतर ऐसे किसान होते है जो दान लेना कभी स्वीकार न करेगे, वह जलसा देखने आयेंगे और जलसा अच्छा न होगा तो निराश होकर लौट जायेंगे।

पद्मसिंह चकराये। सुकराती प्रश्नों का जो क्रम उन्होंने मन में बाँँध रक्खा था वह बिगड़ गया। समझ गये कि मुन्शी जी सावघान है। अब [ १४१ ] कोई दूसरा दाव निकालना चाहिए। बोले आप यह मानते है कि बाजार में वही वस्तु दिखाई देती है जिसके ग्राहक होते है और ग्राहकों न्यूनाधिक होने पर वस्तु का न्यूनाधिक होना निर्भर है।

बैजनाथ-—जी हां, इसमें कोई सन्देह नहीं।

पद्मसिंह-—इस विचार से किसी वस्तु के ग्राहक ही मानों उसके बाजार में आने के कारण होते है। यदि कोई मॉंस न खाय तो बकरे की गर्दन पर छुडी़ क्यों चले।

बैजनाथ समझ रहे थे कि यह मुझे किसी दूसरे पेंच में ला रहे है, लेकिन उन्होंने अभी तक उसका मर्म न समझा था। डरते हुए बोले, हाँ, बात तो यही है।

पद्म-जब आप यह मानते है तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि जो लोग वेश्याओं को बुलाते है, उन्हे धन देकर उनके लिए सुख विलास की सामग्री जुटाते और उन्हें ठाट-बाट से जीवन व्यतीत करने योग्य बनाते है, वे उस अधिकार से कम पाप के भागी नहीं है जो बकरे की गर्दन पर छुरी चलाता है। यदि में वकीलों को ठाट के साथ टमटम दौड़ाते हुए न देखता तो क्या आज से वकील होता?

बैजनाथ ने हंसकर कहा भैया, तुम घुमा फिराकर अपनी बात मनवा लेते हो, लेकिन बात जो कहते हो वह सच्ची है।

पद्म-—ऐसी अवस्था में क्या यह समझना कठिन है कि सैकड़ों स्त्रियाँ जो हर रोज बाजार में झरोखों में बैठी दिखाई देती है, जिन्होंने अपनी लज्जा और सतीत्व को नष्ट कर दिया है, उनके जीवन का सर्वनाश करने वाले ही लोग है। वह हजारों परिवार जो आये दिन इस कुवासना की भंवर में पड़कर विलुप्त हो जाते है, ईश्वर के दरबार हमारा ही दामन पकड़ेगे। जिस प्रथा से इतनी बुराइयाँ उत्पन्न हो उसका त्याग करना क्या अनुचित है?

मदनसिंह बड़े ध्यान से यह बातें सुन रहे थे। उन्होंने इतनी उच्च शिक्षा नहीं पाई थी जिससे मनुष्य विचार स्वातन्य की धुन में सामाजिक बन्धनों

११ [ १४२ ] और नैतिक सिद्धान्तों का शत्रु हो जाता है। नहीं, वह साधारण बुद्धि के मनुष्य थे। कायल होकर बतबढ़ाव करते रहना उनकी सामर्थ्य से बाहर था। मुस्कुराकर मुन्शी बैजनाथ से बोले, कहिये मुन्शीजी, अब क्या कहते है? है कोई निकलने का उपाय?

बैजनाथ ने हँसकर कहा, मुझे तो रास्ता नहीं सूझता।

मदन—अजी कुछ कठहुज्जती ही करो।

बैजनाथ-कुछ दिनों वकालत पढ़ ली होती तो यह भी करता। यहाँ अब कोई जवाब ही नहीं सूझता। क्यों भैया पद्मसिंह, मान लो तुम मेरी जगह होते तो इस समय क्या जवाब देते?

पद्मसिंह-(हँसकर) जवाब तो कुछ न कुछ जरूर ही देता, चाहे तुक मिलती या न मिलती।

मदन—इतना तो मैं भी कहूँँगा कि ऐसे जलसो से मन अवश्य चंचल हो जाता है। जवानी में जब मैं किसी जलसो से लौटता तो महीनों तक उसी वेश्या के रंग-रूप हाव-भाव की चर्चा किया करता।

बैजनाथ—भैया, पद्मसिंह के ही मन की होने दीजिये, लेकिन कम्बल अवश्य बँटवाइये।

मदन-एक कुआँँ बनवा दिया जाय तो सदा के लिए नाम हो जायगा। इधर भाँवर पड़ी उधर मैंने कुएँँ की नींव डाली।

२५

बरसात के दिन थे, घटा छाई हुई थी। पंण्डित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तटपर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गाँवो का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और सन्ध्या होने से पहले चुनार के पास एक गाँव में जाना चाहते थे। उन्हें पता मिला था कि उस गाँव में एक सुयोग्य वर है। उमानाथ आज ही अमोला लौट जाना चाहते थे, क्योंकि उनके गाँव में एक छोटी सी फौजदारी हो गई थी और थानेदार साहब कल तहकीकात करने आनेवाले थे। मगर अभी तक नाव उसी पार खड़ी थी। उमानाथ [ १४३ ] को मल्लाहों पर क्रोध आ रहा था। इससे अधिक क्रोध उन मुसाफिरों पर आ रहा था जो उस पार धीरे-धोरे नावपर बैठने आ रहे थे। उन्हें दौड़ते हुए आना चाहिए था, जिसमें उमानाथ को जल्द नाव मिल जाय। जब खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो उमानाथ ने जोर से चिल्लाकर मल्लाहों को पुकारा। लेकिन उनकी कण्ठ-घ्वनि को मल्लाहों के कान में पहुँचने की प्रबल आकांक्षा न थी। वह लहरों से खेलती हुई उन्हीं में समा गई।

इतने में उमानाथ ने एक साधु को अपनी ओर आते देखा। सिरपर जटा, गले में रुद्राक्ष की माला, एक हाथ मे सुलफे की लम्बी चिलम, दूसरे हाथ में लोहे की छड़ी, पीठपर एक मृगछाला लपेटे हुए आकर नदी के तटपर खड़ा हो गया। वह भी उस पार जाना चाहता था।

उमानाथ को ऐसी भावना हुई कि मैंने इस साधु को कहीं देखा है, पर याद नही पड़ता कि कहाँ। स्मृति पर एक परदा-सा पड़ा हुआ था।

अकस्मात् साधु ने उमानाथ की ओर ताका और तुरन्त उन्हे प्रणाम करके बोला, महाराज घर पर तो सब कुशल है, यहाँ कैसे आना हुआ।

उमानाथ के नेत्र पर से परदा हट गया। स्मृति जागृत हो गई। हम रूप बदल सकते है, शब्द को नहीं बदल सकते। यह गजाधर पांडे थे।

जब से सुमन का विवाह हुआ था, उमानाथ कभी उसके पास नहीं गये थे। उसे मुँह दिखाने का साहस नहीं होता था। इस समय गजाधर को इस भेष में देखकर उमानाथ को आश्चर्य हुआ। उन्होनें समझा, कहीं मुझे फिर धोखा न हुआ हो। डरते हुए पूछा, शुभ नाम?

साधु-पहले तो गजाधर पांडे था, अब गजानन्द हूँ।

उमानाथ-ओहो तभी तो मे पहचान न पाता था। मुझे स्मरण होता था कि मैंने कहीं आपको देखा है, पर आपको इस भेष में देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बाल बच्चे कहाँँ है।

गजानन्द—अब उस मायाजाल से मुक्त हो गया।

उमानाथ—सुमन कहाँ है?

गजानन्द—दालमण्डी के एक कोठेपर। [ १४४ ] उमानाथ ने विस्मित होकर गजानन्द की ओर देखा तब लज्जा से उनका सिर झुक गया। एक क्षण के बाद उन्होंने फिर पूछा, यह कैसे हुआ, कुछ बात समझ में नहीं आती?

गजानन्द—उसी प्रकार जैसे संसार में प्राय हुआ करता है। मेरी असज्जनता और निर्दयता, सुमन की चंचलता और विलास लालसा दोनों ने मिलकर हम दोनों का, सर्वनाश कर दिया। मैं अब उस समय की बातों को सोचता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि एक बड़े घर की बेटी से व्याह करने में मैंने बड़ी भूल की और इससे बड़ी भूल यह थी कि व्याह हो जाने पर उसका उचित आदर सम्मान नहीं किया। निर्धन था, इसलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैंने इसके विपरीत उससे निर्दयता का व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। वह चौका बरतन, चक्की चूल्हे में निपुण नहीं थी और न हो सकती थी, पर उससे यह सब काम लेता था और जरा भी देर हो जाती तो बिगड़ता था। अब मुझे मालूम होता है कि मैं ही उसके घर से निकलने का कारण हुआ, मैं उसकी सुन्दरता का मान न कर सका, इसलिए सुमन का भी मुझसे प्रेम नहीं हो सका। लेकिन वह मुझपर भक्ति अवश्य करती थी। पर उस समय में अन्धा हो रहा था। कंगाल मनुष्य धन पाकर जिस प्रकार फूल उठता है उसी तरह सुन्दर स्त्री पाकर वह संशय और भ्रम में आसक्त हो जाता है। मेरा भी यही हाल था। मुझे सुमन पर अविश्वास रहा करता था। और प्रत्यक्ष इस बात को न कहकर में अपने कठोर व्यवहार से उसके चित्त को दुखी किया करता था। महाशय, मैंने उसके साथ जो-जो अत्याचार किये उन्हें स्मरण करके आज मुझे अपनी क्रूरतापर इतना दु:ख होता कि जी चाहता है कि विष खा लूँ। उसी अत्याचार का अब प्रायश्चित कर रहा हूँ। उसके चले जानेके बाद दो-चार दिन तक तो मुझपर नशा रहा, पर जब नशा ठंडा हुआ तो मुझे बह घर काटने लगा। में फिर उस घर में न गया। एक मन्दिर में पुजारी बन गया। अपने हाथ से भोजन बनाने के कष्ट से बचा मन्दिर में दो बार सज्जन नित्य ही आ जाते है। उनके साथ रामायण आदि