सेवासदन/२७

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ११७ ] मैंने कहा, मुझे कोई उल्लू समझा है क्या? पीछा छोड़ाकर भागा, इसी में देरी हो गई।

सुमन-कई दिन हुए मैंने आपसे कहा था कि किवाडोंं में वार्निश लगवा दीजिये। आपने कहा, वार्निश कहीं मिलती ही नहीं। यह देखिये, आज मैंने एक बोतल वार्निश मँगा रखी है। कल जरूर लगवा दीजिये। पंडित दीनानाथ मसनद लगाये बैठे थे। उनके सिर ही पर वह ताक था, जिसपर वार्निश रक्खी हुई थी,। सुमन ने बोतल उठाई, लेकिन मालूम नहीं कैसे बोतल की पेंदी अलग हो गई और पंडितजी वार्निश से नहा उठे। ऐसा मालूम होता था, मानो शीरे की नाद में फिसल पड़े हो। वह चौककर उठ खड़े हुए और साफा उतारकर रूमाल से पोंछने लगे।

सुमन ने कहा-मालूम नहीं बोतल टूटी थी क्या सारी वार्निश खराब हो गई।

दीनानाथ--तुम्हे अपनी वार्निश की पड़ी है, यहाँ सारे कपड़े तर हो गये। अब घरतक पहुँचना मुश्किल है।

सुमन-रात को कौन देखता है, चुपके से निकल जाइयेगा।

दीना-अजी, रहने भी दो, सारे कपड़े सत्यानाश कर दिये, अब उपाय बता रही हो। अब यह धूल भी नही सकते।

सुमन-तो क्या मैने जान बूझकर गिरा दिया?

दीना-तुम्हारे मन का हाल कौन जाने?

सुमन-अच्छा जाइये, जानकर ही गिरा दिया।

दीना-अरे तो मैं कुछ कहता हूँ, जी चाहे और गिरा दो।

सुमन-बहुत होगा अपने कपड़ों की कीमत ले लीजियेगा।

दीना-क्यों खफा होती हो सरकार? मैं तो कह रहा हूँ, गिरा दिया अच्छा किया।

सुमन-इस तरह कह रहे है, मानो मेरे साथ बड़ी रियायत कर रहें हैं।

दीना--सुमन, क्यों लज्जित करती हो? [ ११८ ]सुमन--जरा से कपड़े खराब हो गये उसपर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गये। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिर पर चढ़ के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइये यहाँ फिर न आइयेगा। मुझे आप जैसे मियाँ मिठ्ठओं की जरूरत नहीं।

विट्ठलदास ऊपर बैठे हुए यह कौतुक देख रहे थे। समझ गये कि अब अभिनय समाप्त हो गया। नीचे उतर आये। दीनानाथ ने एकबार चौक कर उन्हें देखा और छडी उठाकर शीघ्रतापूर्वक नीचे चले गए।

थोडी देर बाद सुमन ऊपर से उतरी। वह केवल एक उजली साड़ी पहने थी, हाथ मे चूड़ियाँ तक न थी। उसका मुख उदास था, लेकिन इसलिए नहीं कि यह भोग-विलास अब उससे छूट रहा है, वरन् इसलिए कि वह इस अग्निकुण्ड में गिरी क्यों थी। इस उदासीनता में मलिनता न थी, वरन्ए क प्रकार का संयम था, यह किसी मदिरा सेवी के मुख पर छानेवाली उदासी नहीं थी, बल्कि उसमें त्याग और विचार आभासित हो रहा था। विट्ठलदास ने मकान में ताला डाल दिया और गाड़ी के कोच बक्सपर जा बैठे। गाड़ी चली।

बाजारों की दूकाने बन्द थी, लेकिन रास्ता चल रहा था। सुमन ने खिड़की से झांककर देखा। उसे आगे लालटेनोंं की एक सुन्दर माला दिखाई दी, लेकिन ज्यों ज्यों गाड़ी बढती थी, त्यों त्यों वह प्रकाशमाला भी आगे बढ़ती जाती थी। थोड़ी दूर पर लालटेने मिलती थी पर वह ज्योतिर्माला अभिलाषायों के सदृग दूर भागती जाती थी।

गाड़ी वेग से जा रही थी। सुमन का भावी जीवनयान भी विचार सागर में वेग के साथ हिलता, डगमगाता, तारों के ज्योतिर्माल में उलझता चला जाता था।

२३

सदन प्रात:काल घर गया तो अपनी चाची के हाथ में कंगन देखा। [ ११९ ] लज्जा से उसकी आँखे जमीन में गड़ गई। नाश्ता कर के जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हे कैसे मिल गया।

क्या यह सम्भव है कि सुमन ने उसे यहाँ भेज दिया हो? वह क्या जानती है कि कंगन किसका है? मैंने तो उसे अपना पता भी नहीं बताया। यह हो सकता है कि यह उसी नमूने का दूसरा कंगन हो, लेकिन इतनी जल्द वह तैयार नहीं हो सकता। सुमन ने अवश्य ही मेरा पता लगा लिया है और चाची के पास यह कंगन भेज दिया है।

सदन ने बहुत विचार किया। किन्तु हर प्रकार से वह इसी परिणाम पर पहुँचता था। उसने फिर सोचा, अच्छा मान लिया जाय कि उसे मेरा पता मालूम हो गया तो क्या उसे यह उचित था कि वह मेरी दी हुई चीज को यहाँ भेज देती? यह तो एक प्रकार का विश्वासघात है।

अगर सुमन ने मेरा पता लगा लिया है तब तो वह मुझे मन मेंं धूर्त, पाखंडी, जालिया समझती होगी! कंगन को चाची के पास भेजकर उसने यह भी साबित कर दिया कि वह मुझे चोर भी समझती है।

आज सन्ध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाय? उसका चित्त खिन्न था। घरपर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।

इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शंकाए इस उत्कंठा के नीचे दबती जाती थी। सन्ध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बाते करने को जी नही चाहता, उठना बैठना पहाड़ हो जाता है, जहाँ बैठता है वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।

अन्त को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूँगा। जिससे प्रेम हो गया, सुमन--जरा से कपड़े खराब हो गये उसपर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गये। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिरपर चढ़के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइये यहाँ फिर न आइयेगा। मुझे आप जैसे मियाँ मिट्ठओं की जरूरत नहीं।

विट्ठलदास ऊपर बैठे हुए यह कौतुक देख रहे थे। समझ गये कि अब अभिनय समाप्त हो गया। नीचे उतर आये। दीनानाथ ने एक बार चौक कर उन्हे देखा और छड़ी उठाकर शीघ्रतापूर्वक नीचे चले गए।

थोड़ी देर बाद सुमन छत पर से उतरी। वह केवल एक उजली साड़ी पहने थी, हाथ में चूडियाँ तक न थी। उसका मुख उदास था, लेकिन इसलिए नहीं कि यह भोग-विलास अब उससे छूट रहा है, वरन् इसलिए कि वह इस अग्निकुण्ड में गिरी क्यों थी। इस उदासीनता में मलिनता न थी, वरन् एक प्रकार का संयम था, यह किसी मदिरा सेवी के मुखपर छानेवाली उदासी नही थी, बल्कि उसमें त्याग और विचार आभासित हो रहा था।

विट्ठलदासने मकान में ताला डाल दिया और गाड़ी के कोच वक्सपर जा बैठे। गाड़ी चली।

बाजारों की दूकानें बन्द थी, लेकिन रास्ता चल रहा था। सुमन ने खिडकी से झांककर देखा। उसे आगे लालटेनों की एक सुन्दर माला दिखाई दी, लेकिन ज्यों ज्यों गाड़ी बढ़ती थी, त्यो-त्यों वह प्रकाशमाला भी आगे बढ़ती जाती थी। थोड़ी दूर पर लालटेने मिलती थी पर वह ज्योतिर्माला अभिलाषाओ के सदृश दूर भागती जाती थी।

गाड़ी वेगन से जा रही थी। सुमन का भावी जीवनयान भी विचार सागर में वेग के साथ हिलता, डगमगाता, तारों के ज्योतिर्मालनमें उलझता चला जाता था।

२३

सदन प्रात:काल घर गया तो अपनी चाची के हाथ में कंगन देखा। लज्जा से उसकी आँखें जमीन मे गड़ गई। नाश्ता करके जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हें कैसे मिल गया।

क्या यह सम्भव है कि सुमन ने उसे यहाँ भेज दिया हो? वह क्या जानती है कि कंगन किसका है? मैंने तो उसे अपना पता भी नहीं बताया। यह हो सकता है कि यह उसी नमूने का दूसरा कंगन हो, लेकिन इतनी जल्द वह तैयार नहीं हो सकता। सुमन ने अवश्य ही मेरा पता लगा लिया है और चाची के पास यह कंगन भेज दिया है।

सदन ने बहुत विचार किया। किन्तु हर प्रकार से वह इसी परिणाम पर पहुँचता था। उसने फिर सोचा, अच्छा मान लिया जाय कि उसे मेरा पता मालूम हो गया तो क्या उसे यह उचित था कि वह मेरी दी हुई चीज को यहाँ भेज देती? यह तो एक प्रकार का विश्वासघात है।

अगर सुमन ने मेरा पता लगा लिया है तब तो वह मुझे मन में धूर्त, पाखंडी, जालिया समझती होगी! कंगन को चाची के पास भेजकर उसने यह भी साबित कर दिया कि वह मुझे चोर भी समझती है।

आज सन्ध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाय? उसका चित्त खिन्न था। घर पर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।

इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शकाएं इस उत्कंठा के नीचे दबती जाती थी। सन्ध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बातें करने को जी नहीं चाहता, उठना बैठना पहाड़ हो जाता है, जहाँ बैठता है वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।

अन्त को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूँगा। जिससे प्रेम हो गया,[ १२२ ] उससे अब छिपाना कैसा! हाथ जोड़ कर कहूँगा, सरकार बुरा हूँ तो, भला हूँ तो अब आपका सेवक हूँ। चाहे जो दण्ड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है। चोरी की, चाहे दगा किया, सब तुम्हारे प्रेम के निमित्त किया अब क्षमा करो।

विषयवासना नीति, ज्ञान और संकोच किसी के रोके नहीं रुकती। नशे में हम सब बेसुध हो जाते है।

वह व्याकुल होकर पाँच ही बजे निकल पड़ा और घूमता हुआ नदी के तटतर आ पहुँचा। शीतल, मन्द वायु उसके तपते हुए शरीर को अत्यन्त सुखद मालूम होती थी और जल की निर्मल श्याम सुवर्ण धारा में रह-रहकर उछलती हुई मछलियां ऐसी मालूम होती थी, मानों किसी सुन्दरी के चञ्चल नयन महीन घूंघट से चमकते हों।

सदन घोड़े से उतरकर करार पर बैठ गया और इस मनोहर दृश्य को देखने में मग्न हो गया। अकस्मात् उसने एक जटाधारी साधु को पेड़ों की आड़ से अपनी तरफ आते देखा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी और नेत्र लाल थे। ज्ञान और योग को प्रतिभा की जगह उसके मुख से एक प्रकार की सरलता और दया प्रकट होती थी। उसे अपने निकट देखकर सदन ने उठकर उसका सत्कार किया।

साधु ने इस ढंग से उसका हाथ पकड़ लिया, मानो उससे परिचय है और बोला, सदन में कई दिन से तुमसे मिलना चाहता था। तुम्हारे हित की एक बात कहना चाहता हूँ। तुम सुमनबाई के पास जाना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायगा। तुम नहीं जानते वह कौन है? प्रेम के नशे में तुम्हें उसके दूषण नही दिखाई देते। तुम समझते हो कि वह तुमसे प्रेम करती है। किन्तु यह तुम्हारी भूल है। जिसने अपने पति को त्याग दिया, वह दूसरों से क्या प्रेम निभा सकती है? तुम इस समय वहीं जा रहे हो। साधु का वचन मानो, घर लौट जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है।

यह कहकर वह महात्मा जिधर से आये थे उधर ही चल दिये और [ १२३ ] इससे पूर्व कि सदन उनसे कुछ जिज्ञासा करने के लिए सावधान हो सके वह आँखो से ओझल हो गये।

सदन सोचने लगा, यह महात्मा कौन है? यह मुझे कैसे जानते है? मेरे गुप्त रहस्यों का इन्हें कैसे ज्ञान हुआ? कुछ उस स्थान की नीरवता, कुछ अपने चित्त की स्थिति, कुछ महात्मा के आकस्मिक आगमन और उनकी अन्तर्दृष्टि ने उनकी बातों को आकाशवाणी के तुल्य बना दिया। सदन के मन में किसी भावी अमंगल की आशंका उत्पन्न हो गई। उसे सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। वह घोड़े पर बैठा और इस आश्चर्यजनक घटना की विवेचना करता घर की तरफ चल दिया। जब से सुभद्रा ने सदन पर अपने कंगन के विषय में सन्देह किया था तब से पद्मसिंह उससे रुष्ट हो गये थे। इसलिए सुभद्रा का यहाँ अब जी न लगता था। शर्माजी भी इसी फिक्र में थे कि सदन को किसी तरह यहाँ से घर भेज दूँ। अब सदन का चित्त भी यहाँ से उचाट हो रहा था। वह भी घर जाना चाहता था, लेकिन कोई इस विषय में मुँह खोल न सकता था, पर दूसरे ही दिन पंडित मदनसिंह के एक पत्र ने उन सबकी इच्छाएँ पूरी कर दी। उसमें लिखा था, सदन के विवाह की बातचीत हो रही है। सदन को बहू के साथ तुरन्त भेज दो।

सुभद्रा यह सूचना पाकर बहुत प्रसन्न हुई। सोचने लगी, महीने दो महीने चहल-पहल रहेगी, गाना बजाना होगा, चैन से दिन कटेगें। इस उल्लास को मन में छिपा न सकी। शर्माजी उसकी निष्ठुरता देखकर और भी उदास हो गये। मन में कहा, इसे अपने आनन्द के आगे मेरा कुछ भी ध्यान नहीं है, एक या दो महीनों मे फिर मिलाप होगा, लेकिन यह कैसी खुश है?

सदन ने भी चलने की तैयारी कर दी। शर्माजी ने सोचा था कि वह अवश्य हीलाहवाला करेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इस समय ८ बजे थे। २ बजे दिन को गाड़ी जाती थी। इसलिए शर्माजी कचहरी न गये। कई बार प्रेम से विवश होकर घर में गये। लेकिन सुभद्रा को [ १२४ ] उनसे बातचीत करने की फुरसत कहाँ? वह अपने गहने कपड़े और माँँग चोटी में मग्न थी। कुछ गहने खटाई में पड़े थे, कुछ महरी साफ कर रही थी। पानदान माँजा जा रहा था। पड़ोस की कई स्त्रियाँ बैठी हुई थी। सुभद्रा ने आज खुशी में खाना भी नहीं खाया। पूड़ियाँ बनाकर शर्माजी और सदन के लिये बाहर ही भेज दी।

यहां तक कि एक बज गया। जीतन ने गाड़ी लाकर द्वारपर खड़ी कर दी। सदन ने अपने ट्रंक और बिस्तर आदि रख दिए। उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली, जरा देख तो कहाँ है, बुला ला। उसने आकर बाहर देखा। कमरे में झांका, नीचे जाकर देखा, शर्माजी का पता न था। सुभद्रा ताड़ गई। बोली, जबतक बह आवेगे, मैं न जाऊँगी। शर्माजी कहीं बाहर न गये थे। ऊपर छतपर जाकर बैठे थे। जब एक बज गया और सुभद्रा न निकली तब बह झुंझलाकर घर में गये और सुभद्रा से बोले, अभी तक तुम यहीं हो? एक बज गया!

सुभद्रा को आँखों में आँँसू भर आये। चलते-चलते शर्माजी की यह रुवाई अखर गई। शर्माजी अपनी निष्ठुरता पर पछताये। सुभद्रा के आँसू पोछे, गले से लगाया और लाकर गाड़ी में बैठा दिया।

स्टेशन पर पहुँचे, गाड़ी छूटने ही वाली थी, सदन दौड़कर गाड़ी में जा बैठा, सुभद्रा बैठने भी न पाई थी कि गाड़ी छूट गई। वह सिटकीपर खड़ी शर्माजीको ताकती रही और जबतक वह आँखो से ओझल न हुए यह खिड़की पर से न हटी।

संध्या समय गाड़ी ठिकानेपर पहुँची। मदनसिंह पालकी और घोड़ा लिए स्टेशन पर मौजूद थे। सदन ने दौड़कर पिता के चरण स्पर्श किए।

ज्यो-ज्यों गाँव निकट आता था, सदन की व्यग्रता बढ़ती जाती थी; जब गाँव आध मील रह गया और धान के खेत की मेडोंपर घोड़ो को दौड़ना कठिन जान पड़ा तो वह उतर पड़ा और बेग के साथ गाँव की तरफ चला। आज उसें अपना गाँव बहुत सुनसान मालूम होता था। सूर्यास्त हो गया था। किसान बैलों को हाँकते, खेतों में चले आते थे। सदन किसी से कुछ न [ १२५ ] बोला, सीधे अपने घर मे चला गया और माता के चरण छुए। माता ने छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया।

भामा—वे कहाँ रह गई?

सदन—आती है, मैं सीधे खेतों में से चला आया।

भामा-चाचा चाची से जी भर गया न?

सदन—क्यों?

भामा-वह तो चेहरा ही कहे देता है।

सदन-—वाह, मैं मोटा हो गया हूँ।

भामा--चल झूठे, चाची ने दानों को तरसा दिया होगा।

सदन—चाची ऐसी नहीं है। यहाँ से मुझे बहुत आराम था वहाँ दूध अच्छा मिलता था।

भामा-तो रुपये क्यों मांगते थे?

सदन-—तुम्हारे प्रेम की थाह ले रहा था। इतने दिनमें तुमसे २५ रू, ही लिए न? चाचा से सात सौ ले चुका। चार सौ का तो एक घोड़ा ही लिया रेशमी कपड़े बनवाये, शहर रईस बना घूमता था। सबेरे चाची ताजा हलवा बना देती थी। उसपर सेर भर दूध, तीसरे पहर मेवे और मिठाइयाँ? मैंने वहाँ जो चैन किया वह कभी न भूलूंगा। मैंने भी सोचा कि अपनी कमाई में तो चैन कर चुका इस अवसरपर क्यों चूकूँ, सभी शौक पूरे कर लिए।

भामा को ऐसा अनुमान हुआ कि सदन की बातों में कुछ निरालापन आ गया है। उनमें कुछ शहरीपन आ गया है।

सदन ने अपने नागरिक जीवन का उस उत्साह से वर्णन किया जो युवाकाल का गुण हैं।

सरला भामा का हृदय सुभद्रा की ओर से निर्मल हो गया।

दूसरे दिन प्रात:काल गांव के मान्य पुरुष निमन्त्रित हुए और उनके सामने सदन का फलदान चढ़ गया।

सदन की प्रेमलालसा इस समय ऐसी प्रबल हो रही थी कि विवाह का कड़ी धर्म बेड़ी को सामने लखकर भी वह चिन्तित न हुआ। उसे सुमन [ १२६ ] से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा ही का आधिक्य था। सुमन उसके हृदय में रहकर भी उसके जीवन का आधार न बन सकती थी। सदन के पास यदि कुबेर का धन होता तो वह सुमन को अर्पण कर देता। वह अपने जीवन के सम्पूर्ण सुख, उसकी भेंट कर सकता था, किन्तु अपने दुख से, विपत्ति से, कठिनाइयों से नैराश्य से वह उसे दूर रखता था। उसके साथ वह सुख का आनन्द उठा सकता था, लेकिन दु:खका आनन्द नहीं उठा सकता था। सुमन पर उसे वह विश्वास कहाँ था जो प्रेम का प्राण है! अब वह कपट प्रेम के माया-जाल से मुक्त हो जायगा। अब उसे बहुरूप धरने की आवश्यकता नहीं। अब वह प्रेम को यथार्थ रूप में देखेगा और यथार्थ रूप में दिखावेगा। यहाँ उसे वह अमूल्य वस्तु मिलेगी जो सुमन के यहाँँ किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी। इन विचारों ने सदन को इस नये प्रेम के लिए लालायित कर दिया। अब उसे केवल यही संशय था कि कही बधू रूपवती न हुई तो? रूप लावण्य प्राकृतिक गुण है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। स्वभाव एक उपाजित गुण है; उसमें शिक्षा और सत्संग से सुधार हो सकता है। सदन ने इस विषय में ससुराल नाई से पूछ ताछ करने की ठानी; उसे खूब भंग पिलाई, खूब मिठाइयाँँ खिलाईं। अपनी एक धोती उसको भेंट की। नाई ने नशे में आकर वधू की ऐसी लम्बी प्रशंसा की; उसके नखशिख का ऐसा चित्र खींचा कि सदनको इस विषय में कोई सन्देह न रहा। यह नखशिख सुमन से बहुत कुछ मिलता या। अतएव सदन नवेली दुलहिन का स्वागत करने के लिए और भी उत्सुक हो गया।

२३

यह बात बिल्कुल तो सत्य नही है कि ईश्वर सबको किसी न किसी हीले से अन्न वस्त्र देता है। पंण्डित उमानाथ बिना किसी हीले ही के संसार का सुख भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गायें न थी, लेकिन घर में, घी-दूध की नदी बहती थी, वह खेती बारी न करते थे, लेकिन घर में अनाजकी खत्तियाँ भरी रहती थी। गाँव में कही मछली मरे, कही [ १२७ ] बकरा कटे, कही आम टूटे, कही भोज हो, उमानाथ का हिस्सा बिना माँगे आप ही आप पहुँँच जाता। अमोल बड़ा गाँव था। ढाई तीन हजार जन-संख्या थी। लेकिन समस्त गाँव मे उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था। स्त्रियों को यदि गहने बनवाने होते तो वह उमानाथ से कहती। लड़के-लडकियों के विवाह उमानाथ की मार्फत तै होते। रेहननामे, बैनामे, दस्तावेज उमानाथ ही के परामर्शस लिखे जाते। मुआमिले मुकद्दमे उन्ही के द्वारा दायर होते और मजा यह था कि उनका यह दबाव और सम्मान उनकी सज्जनता के कारण नहीं था। गाँव वालो के साथ उनका व्यवहार शुष्क ओर रूखा होता था। वह वेलाग बात करते थे, लल्लोचप्पो करना न जानते थे, लेकिन उनके कटु वक्यों को लोग दूध के समान पीते थे। मालूम, नहीं उनके स्वभाव में क्या जादू था। कोई कहता था यह उनका एकबाल है, कोई कहता था इन्हे महावोरका इष्ट है। लेकिन हमारे विचार में यह उनके मानवस्वभाव के ज्ञान का फल था वह जानते थे कि कहाँ झुकना ओर कहाँ तनना चाहिए। गाँव वालो से तनने मे अपना काम सिद्ध होता, था अधिकारियो सें झुकने में ही। थीने और तहसील के अमले, चपरासी से नंलेकर तहसीलदार तक, सभी उनपर कृपादृष्टि रखते थे। तहसीलदार सहब के लिए वह वर्षफल बनाते, डिप्टी साहब को भावी उन्नति की सूचना देते। कानूनगो और कुर्कअमीन उनके द्वारपर बिना बुलाय मेहमान बने रहते। किसी को यन्त्र देते, किसी को भगवद्गीता सुनाते और जिन लोगों की श्रद्धा इन बातो पर न थी, उन्हें मीठे अचार और नवरत्नकी चटनी खिला कर प्रसन्न रखते। थानेदार साहब उन्हे अपना दाहिना हाथ समझते थे। जहाँ ऐसे उनकी दाल न गलती वहाँ पंण्डितजी की बदौलत पॉचों उँँगली घीमे हो जाती। भला ऐसे पुरुष की गाँव वाले क्यो न पूजा करते?

उमानाथ को अपनी बहन गंगाजली से बहुत प्रेम था लेकिन गंगाजली को मैके आने के थोड़े ही दिनो पीछे ज्ञात हुआ कि भाई का प्रेम भावज की अवज्ञा के सामने नहीं ठहर सकता। उमानाथ बहिन को अपने घर लानेपर मन में बहुत पछताते। वे अपनी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए ऊपरी मन से से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा हीन का आधिक्य था। सुमन उसके हृदय में रहकर भी उसके जीवन का आधार न बन सकती थी सदनके पास यदि कुबेर का घन होता तो वह सुमन को अर्पण कर देता। वह अपने जीवनके सम्पूर्णसुख,उसकी भेंट कर सकता था,किन्तु अपने दुखसे विपत्ति से कठिनाइयों से नैराश्य से वह उसे दूर रखता था। उसके साथ वह सुख का आनंद उठा सकता था लेकिन दुःख आनन्द नहीं उठा सकता था। सुमन पर उसे वह विश्वास कहाँ था जो प्रेम का प्राण है! अब वह कपट प्रेम के मायाजाल से मुक्त हो जायगा। अब उसे बहुरूप धरने की आवश्यकता नहीं। अब वह प्रेम को यथार्थ रूप में देवेगा यथार्थ रूप दिखावेगा । यहाँ उसे वह अमूल्य वस्तु मिलेगी जो सुमन के यहां किसी प्रकार नहीं मिल सकती थी। इन विचारों ने सदन को इस नये प्रेम के लिए लालायित कर दिया। अब उसे केवल यही संशय था कि कही वधू रूपवती न हुई तो? रूप लावण्य प्राकृतिक गुण है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। स्वभाव एक उपार्जित गुण है, उसमें शिक्षा और सत्संग से सुधार हो सकता है।सदन ने इस विषय में समुराल केनाई से पूछ ताछ करने की ठानी; उसे खूब भंग पिलाई खूब मिठाइयां खिलाई। अपनी एक धोती उसको भेट की।नाईने नशे में आकर बखूकी ऐसी लम्बी प्रशंसा की, उसके नखशिख का ऐसा चित्र खीचा कि सदन को इस विषयों को सन्देह न रहा यह नखशिख सुमनसे बहुत कुछ मिलता था। अतएव सदन नवेली दुलहिन का स्वागत करने के लिए और भी उत्सुक हो गया।

२३

यह बात बिल्कुल तो सत्य नहीं है कि ईश्वर सबको किसी न किसी हीले से अन्न वस्त्र देता है। पण्डित उमानाथ बिना किसी हीलेही संसार का सुख भोग करते थे। उनकी आकाशी वृत्ति थी। उनके भैंस और गायें न थी,लेकिन घर में घी-दूध की नदी बहती थी, यह खेती बारी न करते थे, लेकिन घरमें अनाज की सत्तियाँ भरी रहती थी। गाँवमें कहीं मछली मरे, कहीबकरा कटे ,कही आम टूटे, कही भोज हो, उमानाथ का हिस्सा बिना माँगे आप ही आप पहुँच जाता। अमोल बड़ा गाँव था। ढाई तीन हजार जन संख्या थी। लेकिन समस्त गाँव में उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था। स्त्रियों को यदि गहने बनवाने होते तो वह उमानाथ से कहती। लड़के-लड़कियों के विवाह उमानाथ की मार्फत तय होते। रेहननामे,बैनामे, दस्तावेज उमानाथ ही के परामर्श लिखे जाते। मुआमिले मुकद्दमे उन्ही के द्वारा दायर होते और मजा यह था कि उनका यह दबाव और सम्मान उनकी सज्जनता के कारण नहीं था। गांववालो के साथ उनका व्यवहार शुक ओर रूखा होता था। वह बेलाग बात करते थे, लल्लोचप्पो करना न जानते थे, लेकिन उनके कटु वाक्यों को लोग दूध के समान पीते थे। मालूम नहीं उनके स्वभाव में क्या जादू था। कोई कहता था यह उनका एकबाल है, कोई कहता था इन्हे महावीर का इष्ट है। लेकिन हमारे विचार में यह उनके मानव स्वभाव के ज्ञान का फल था। वह जानते थे कि कहाँ झुकना और कहाँ तनना चाहिए। गॉव बालों से तनने मे अपना काम सिद्ध होता था, अधिकारियों से झुकने में ही। थाने पर तहसीलके अमले चपरासी से लेकर तहसीलदार तक, सभी उनपर कृपादृष्टि रखते थे। तहसीलदार साहब के लिए वह वर्सफल बाते, डिप्टी साहब को भावी उन्नति की सूचना देते। कानून गो और कुर्क अमीन उनके द्वारपर बिना बुलाये मेहमान बने रहते। किसीको यन्त्र देते किसी को भगवद्गीता सुनाते और जिन लोगों की श्रद्धा इन बातों पर न थी, उन्हें मीठे अचार ओर नवरत्न की चटनी खिला कर प्रसन्न रखते। थानेदार साहब उन्हे अपना दाहिना हाथ समझते थे। जहां ऐसे उनको दाल न गलती वहाँ पण्डितजी की बदौलत पाँचो उंगली घी में हो जाती। भला ऐसे पुरुषकी गाँववाले क्यों न पूजा करते?

उमानाथ को अपनी बहन गंगाजली से बहुत प्रेम था लेकिन गगांजली को मैके आने के थोड़े ही दिनों पीछे ज्ञात हुआ कि भाई का प्रेम म भावज की अवज्ञा के सामने नहीं ठहर सकता। उमानाथ बहिन को अपने घर लानेपर मन से बहुत पछताते। वे अपनी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए ऊपरी मनसे[ १३० ] उसकी हाँ में हाँ मिला दिया करते। गंगाजली को साफ कपड़े पहनने का क्या अधिकार है? शान्ता का पालन पहले चाहे कितने ही लाड़ प्यार से हुआ हो, अब उसे उमानाथ की लड़कियों से बराबरी करने का क्या अधिकार है? उमानाथ, स्त्री की इन खेपपूर्ण बातों को सुनते और उनका अनुमोदन करते। गंगाजली को जब क्रोध आता तो वह उसे अपने भाई ही पर उतारती। वह समझती थी कि वे अपनी स्त्री को बढ़ावा देकर मेरी दुर्गति करा रहे है। वे अगर उसे डाँट देते तो मजाल थी कि वह यो मेरे पीछे पड़ जाती? उमानाथ को जब अवसर मिलता तो बह गंगाजली को एकान्त में समझा दिया करते। किन्तु एक तो जान्हवी उन्हें ऐसे अवसर मिलने ही न देती, दूसरे गंगाजली को भी उनकी सहानुभूति पर विश्वास न आता।

इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। गंगाजली चिन्ता, शोक और निशा से औषधियाँ सेवन कराई लेकिन जब कुछ लाभ न हुआ तो उन्हें चिन्ता हुई। एक रोज उनकी स्त्री किसी पड़ोसी के घर गई हुई थी। उमानाथ बहन के कमरे में गये। वह बेसुध पड़ी हुई थी, बिछावन चिथड़ा हो रहा था। साड़ी फटकर तारतार हो गई थी, शान्ता उसके पास बैठी हुई पंखा झल रही थी। यह करुणाजनक दृश्य देखकर उमानाथ पड़े यही बहन है। जिसकी सेवा के लिए दो दासियाँ लगी हुई थीं, आज उसकी यह दशा हो रही है! उन्हें अपनी दुर्बलता पर अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न हुई। गंगाजली के सिरहाने बैठकर रोते हुए बोले, बहन यहां लाकर मन तुम्हें बड़ा कष्ट दिया है। नहीं जानता था कि उसका यह परिणाम होगा। आज किसी वैद्यक ले आता हूँ। ईश्वर चाहेगें तो तुम शीघ्र ही अच्छी हो जाओगी।

इतने में जान्हवी भी आ गई, ये बातें उनके कान में पढ़ी। बोली, हाँ हाँ दौडों, वैद्य को बुनाओ, नहीं तो अनर्थ हो जायगा। अभी पिछले दिनों महीनों ज्वर आता रहा, तब बैद्य के पास न दौड़े। में भी ओढ़कर पड़ रहती तो तुम्हें मालूम होता कि इसे कुछ हुआ है, लेकिन में कैसे पढ़ रहती? घर की चक्की कौन पीसता? मेरे कर्म में क्या सुख भोगना वदा है? [ १३१ ] उमानाथ का उत्साह शान्त हो गया। वैद्य को बुलाने की हिम्मत न पड़ी। वे जानते थे कि वैद्य को बुलाया तो गंगाजली को जो दो-चार महीने जीते है, वह भी न जी सकेगी।

गंगाजली की अवस्था दिनों दिन बिगड़ने लगी। यहाँ तक कि उसे ज्वरातिसार हो गया। जीने की आशा न रही। जिस उदर में सागू के पचाने की भी शक्ति न थी, वह जोकी रोटियाँ कैसे पचाता? निदान उसका जर्जर शरीर इन कष्टों को और अधिक न सह सका। छः मास बीमार रहकर वह दुखिया अकाल मृत्यु का ग्रास बन गई।

शान्ता का अब संसार में कोई न था। सुमनके पास उसने दो पत्र लिखे; लेकिन वहाँ से कोई जवाब न गया। शान्ता ने समझा; बहन ने भी नाता तोड़ दिया। विपत्ति में कौन साथी होता है? जब तक गंगाजली जीती थी; शान्ता उसके अञ्चल में मुँँह छिपाकर रो लिया करती थी। अब यह अव-लम्बन भी न रहा। अन्धे के हाथ से लकड़ी जाती रही। शान्ता जब तब अपनी कोठरी के कोने में मुँँह छिपाकर रोती, लेकिन घर के कोने और माता के अञ्चल में बड़ा अन्तर है। एक शीतल जल का सागर है, दूसरा मरुभूमि।

शान्ता को अब शान्ति नहीं मिलती। उसका हृदय अग्नि के सदृश दहकता रहता है, वह अपनी मामी और मामा को अपनी माता का घातक समझती है। जब गंगाजली जीती थी, तब शान्ता उसे कटु वाक्यों से बचाने के लिए यत्न करती रहती थी, वह अपनी मामी के इशारों पर दौड़ती थी, जिसमे वह माता को कुछ कह न बैठे। एक बार गंगाजली के हाथ से घी की हाँड़ी गिर पड़ी थी। शान्ता ने मामी से कहा था, यह मेरे हाथ से छूट पड़ी। इसपर उसने खूब गालियाँ खाई। वह जानती थी कि माता का हृदय व्यंग को नहीं सह सकता।

लेकिन अब शान्ता को इसका भय नहीं है। वह निराधार होकर बलवती हो गई है। अब वह उतनी सहनशील नही है, उसे जल्द क्रोध आ जाता है। वह जली कटी बातों का बहुधा उत्तर भी दे देती है। उसने अपने हृदय को कड़ी से कड़ी यन्त्रण के लिए तैयार कर लिया है। मामा से [ १३२ ] वह दबती है, लेकिन मामी से नहीं दबती और ममेरी वहिनों को तो वह तुरकी वतुरकी जवाब देती है। अब शान्ता वह गाय है जो हत्या भय के बलपर दूसरे का खेत चरती है।

इस तरह एक वर्ष और बीत गया। उमानाथ ने बहुत दौड़धूप की कि उसका विवाह कर दें, लेकिन जैसा सस्ता सौदा वह करना चाहते थे, वह-कही ठीक न हुआ। उन्होने थाने, तहसील में जोड़तोड़ लगाकर २००, का चन्दा करा लिया था। मगर इतने सस्ते वर कहाँ? जान्हवी का वश चलता तो वह शान्ता को किसी भिखारी के गले बाँधकर अपना पिण्ड छुड़ा लेती, लेकिन उमानाथ ने अबकी पहली बार उसका विरोध किया और सुयोग्य वर ढूंढते रहे। गंगाजली के बलिदान ने उनकी आत्मा को बलवान बना दिया।

२४

सार्वजनिक संस्याएँ भी प्रतिभाशाली मनुष्यों की मुहताज होती है। यद्यपि विट्ठलदासके अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्राय:सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊँची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के सम्मिलित होते ही इस संस्था में जान पड़ गई। नदी की पतली बार उमड़ पडी। बड़े आदमियों मे उनकी चर्चा होने लगी। लोग उनपर कुछ-कुछ विश्वास करने लगे?

पद्मसिंह अकेले न आये। बहुवा किसी काम को अच्छा समझकर भी हम उसमें हाथ लगाते हुए डरते है, नक्कू बन जाने का भय लगा रहता है। हम बड़े आदमियों के आ मिलने की राह देखा करते है। ज्योंही किसी ने रास्ता खोला, हमारी हिम्मत बँध जाती है, हमको हँसी का डर नही रहता। अकेले हम अपने घर में भी डरते हैं, दो होकर जंगलो में भी निर्भय रहते है। प्रोफेसर रमेशदत्त, लाला भगतराम और मिस्टर रुस्तम भाई गुप्तरूप से विट्ठलदासकी सहायता करते रहते थे। अब वह खुले पड़े। सहायकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी।

विट्ठलदास सुधार के विषय में मृदुभाषी बनना अनुचित समझते थे, इसलिए उनकी बात रुचिकर न होती थी, मींठी नीद सोने वालों [ १३३ ] को उनका कठोर नाद अप्रिय लगता था। विट्ठलदास को इसकी चिन्ता न थी।

पद्मसिंह धनी मनुष्य थे। उन्होंने बड़े उत्साह से वेश्याओं को शहर मुख्य स्थानों से निकालने के लिए आन्दोलन करना शुरू किया। म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों में दो चार सज्जन विट्ठलदास भक्त भी थे। किन्तु वे इस प्रस्ताव को कार्य रूप में लाने के लिए यथेष्ट साहस न रखते थे। समस्या इतनी जटिल थी कि उसकी कल्पना ही लोगों को भयभीत कर देती थी। वे सोचते थे कि इस प्रस्ताव को उठाने से न मालूम शहर में क्या हलचल मचे शहरके कितने ही रईस, कितने ही राज्यपदाधिकारी, कितने ही सौदागर इस प्रेम मंण्डी से सम्बन्ध रखते थे। कोई ग्राहक था, कोई पारखी, उन सबसे बैर मोल लेने का कौन साहस करता? म्युनिसिपैलिटीके अधिकारी उनके हाथों में कठपुतली के समान थे।


पद्मसिंहने मेम्बरो से मिलमिलाकर उनका ध्यान इस प्रस्ताव की ओर आकर्षित किया। प्रभाकरराव की तीव्र लेखनी ने उनकी बडी सहायता की। पैम्फलेट निकाले गये और जनताको जागृत करनेके लिए व्याख्यानों का कम बाँधा गया। रमेशदत्त और पद्मसिंह इस विषय में निपुण थे। इसका भार उन्होंने अपने सिर ले लिया। अब आन्दोलन ने एक नियमित रूप धारण किया।

पद्मसिंह ने यह प्रस्ताव उठा तो दिया, लेकिन वह इसपर जितना ही विचार करते थे, उतने ही अन्धकार में पड़ जाते थे। उन्हे यह विश्वास न होता था कि वेश्कयाओं निवसनसे आशातीत उपकार हो सकेगा। संभव है, उपकारके बदले अपकार हो। बुराइयो का मुख्य उपचार मनुष्य का सट्ठन है। इसके बिना कोई उपाय सफल नही हो सकता ।कभी-कभी वह सोचते-सोचते हताश हो जाते। लेकिन इस पक्ष के एक सभ्य बनकर वे आप सन्देह रखते हुए भी दूसरो पर इसे प्रकट न करते थे। जनताके सामने तो उन्हें सुधारक बनते हुए सकोच न होता था, लेकिन अपने मित्रों और सज्ज नोके सामने वह दृह न रह सकते। उनके सामने आना शर्माजी के लिए [ १३४ ] वही कठिन परीक्षा थी। कोई कहता, किस फेर में पड़े हो, विट्ठलदास के चक्कर में तुम भी आ गये? चैन से जीवन व्यतीत करो। इन सब झमेलो में क्यों व्यर्थ पड़ते हो? कोई कहता, यार मालूम होता है, तुम्हें किसी औरत ने चरका दिया है, तभी तुम वेश्याओं पीछे इस तरह पड़े हो? ऐसे मित्रों के सामने आदर्श और उपकारकी बातचीत करना अपनको बेवकूफ बनाना था।

व्याख्यान देते हुए भी जब शर्मा जी कोई भावपूर्ण बात कहते करुणात्मक दृथ्य दिखाने की चेष्टा करते तो उन्हें शब्द नही मिलते थे, और शब्द मिलते तो उन्हें निकालते हुए शर्माजी को बड़ी लज्जा आती थी। यथार्य में बह इस रस में पगे नहीं थे। वह जब अपने भावशैथिल्यकी विवेचना करते तो उन्हें ज्ञात होता था कि मेरा हृदय प्रेम और अनुराग से खाली है।

कोई व्याख्यान समाप्त कर चुकने पर शर्माजी को यह जानने की उतनी इच्छा नही होती थी कि श्रोताओं पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, जितनी इसकी कि व्याख्यान सुन्दर, सप्रमाण और ओजपूर्ण था या नहीं।

लेकिन इन समस्याओं के होते हुए भी यह आन्दोलन दिनों-दिन बढ़ता जाता था। यह सफलता शमजी कें अनुराग और विश्वास में कुछ कम उत्साहवर्धक न थी।

सदनसिंह के विवाह को अभी दो मास थे। घर की चिन्ताओं से मुक्त होकर शर्माजी अपनी पूरी शक्ति से इस आन्दोलन में प्रवृत्त हो गये। कचहरी के काम में उनका जी न लगता। वह भी वे प्रायः इन्हीं चर्चाओं में पड़े रहते। एक ही विषय पर लगातार सोचते विचारते रहने से उस विषय से प्रेम हो जाया करता है। धीरे-धीरे शर्माजी के हृदय में प्रेमका उदय होने लगा।

लेकिन जब यह विवाह निकट आ गया तो शर्माजी का उत्साह कुछ क्षीण होने लगा। मन में यह समस्या उठी कि भैया यहाँ वेश्याओं के लिये अवश्य ही मुझे लिखेंगे उस समय में क्या कहूँगा? नाच बिना सभा सूनी रहेगी, दूर दूर: गाँवो से लोग नाच देखने आवेंगे नाच न देखकर उन्हें निराशा होगी, भाई साहब बुरा मानेंगे, ऐसी अवस्था में मेरा क्या कर्तव्य है? भाई साहब को इस कुप्रयासे रोकना चाहिए। लेकिन क्या में