सेवासदन/४४

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १९७ ] दूँगा तो वह खुशी से विवाह करने पर तैयार हो जायगा। जरा इन शिक्षित महात्माओं की कलई तो खुलेगी!

कृष्णचन्द्र ने लंबी सांस लेकर कहा, पहले मुझे विष दे दो, तब यह मुकद्दमा दायर करो।

उमानाथने कुद्ध होकर कहा, आप क्यों इतना डरते है?

कृष्णचन्द्र-मुकदमा दायर करने का निश्चय कर लिया है?

उमा—हाँ, मैने निश्चय कर लिया है। कल सारे शहर के बड़े-बड़े वकील वैरिस्टर जमा थे। यह मुकद्दमा अपने ढंग का निराला है। उन लोगों ने बहुत कुछ देख-भालकर तब यह सलाह दी है। दो वकीलों को बयाना तक दे आया हूँ।

कृष्णचन्द्र ने निराश होकर कहा, अच्छी बात है, दायर कर दो।

उमा---आप इससे असन्तुष्ट क्यों है?

कृष्ण---जब तुम आपही नहीं समझते तो मैं क्या बताऊँ? जो बात अभी दो चार गाँव में फैली है वह सारे शहर में फैल जायगी। सुमन अवश्य ही इजलास पर बुलाई जायगी, मेरा नाम गली-गली बिकेगा।

उमा—अब इससे कहाँ तक डरूँ? मुझे भी अपनी दो लड़कियों का विवाह करना है। यह कलंक अपने माथे लगाकर उनके विवाह में क्यों बाधा डालूँ?

कृष्ण-—तो तुम यह मुकदमा इसलिये दायर करते हो, जिसमें तुम्हारे नामपर कोई कंलक न रहे।

उमानाथ ने सगर्व कहा, हाँ, अगर आप उसका यह अर्थ लगाते है तो यही सही। बारात मेरे द्वार से लौटी है, लोगों को भ्रम हो रहा है कि सुमन मेरी लड़की है। सारे शहर से मेरा ही नाम लिया जा रहा है। मेरा दावा दस हजार का होगा, अगर पाँच हजार की डिगरी हो गयी तो शान्ता का किसी उत्तम कुल में ठिकाना लग जायगा। आप जानते है, जूठी वस्तु को मिठास के लोभ से लोग खाते हैं। जब तक रुपये का लोभ न होगा शान्ता का विवाह कैसे होगा? एक प्रकार से मेरे कुल में भी कलंक लग गया। पहले [ १९८ ] वह अपनी वाणी से कह सकती थी। उसके मन ने कहा, जिसे पतिव्रत जैसा साधन मिल गया है उसे और किसी साधन की क्या आवश्यकता? इसमें सुख, सन्तोष और शान्ति सब कुछ है।

आधी रात बीत चुकी थी। कृष्णचन्द्र घर से बाहर निकले। प्रकृति सुन्दरी किसी वृद्धा के समान कुहरे की मोटी चादर ओढे निद्रामें मग्न थी? आकाश में चन्द्रमा मुँह छिपाये हुए वेग से दौड़ा चला जाता था, मालूम नहीं कहाँ?

कृष्णचन्द्र के मन मे एक तीव्र आकांक्षा उठी, शान्ता को कैसे देखूँ। संसार में यही एक वस्तु उनके आनन्दमय जीवन का चिह्न रह गई थी। नैराश्य के धने अन्धकार में यही एक ज्योति उनको अपने मन की ओर खींच रही थी। वह कुछ देर तक द्वार पर चुपचाप खड़े रहे तब एक लंबी साँस लेकर आगे बढ़े। उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो गंगाजली आकाश में बैठी। हुई उन्हें बुला रही है।

कृष्णचन्द्र के मन में इस समय कोई इच्छा, कोई अभिलाषा, कोई चिन्ता न थी। संसार से उनका मन विरक्त हो गया था। वह चाहते थे कि किसी प्रकार जल्दी गंगातट पर पहुँचूँ और उसके अथाह जल में कूद पड़ूँ। उन्हें भय था कि कहीं मेरा साहस न छूट जाय। उन्होंने अपने संकल्प को उत्तेजित करने के लिये दौड़ना शुरू किया।

लेकिन थोड़ी ही दूर चलकर वह फिर ठिठक गये और सोचने लगे। पानी में कूद पड़ना ऐसा क्या कठिन है, जहाँ भूमि से पैर उखड़े कि काम तमाम हुआ। यह स्मरण करके उनका हृदय एक बार काँप उठा, अकस्मात् यह बात उनके ध्यान में आई कि कहीं निकल क्यों न जाऊँ? जब यहाँ रहूँगा ही नहीं तो अपना अपमान कैसे सुनूँगा? लेकिन इस बात को उन्होंने मन में जमने न दिया। मोह की कपटलीला उन्हें घोखा न दे सकीं। यद्यपि वह धार्मिक प्रकृति के मनुष्य नहीं थे और अदृश्य के एक अव्यक्त भय से उनका हृदय काप रहा था, पर अपने संकल्प को दृढ़ रखने के लिये वह अपने मन को यह विश्वास दिला रहे थे कि परमात्मा बड़ा दयालु और करुणाशील [ १९९ ] है। आत्मा अपने को भूल गई थी। वह उस अपने ही घर में जाते डरता है।

कृष्णचन्द्र इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए कोई चार मील चले गये। ज्यों-ज्यो गंगा तट निकट होता जाता था, त्यों-त्यों उनके हृदय की गति बढ़ती जाती थी। भय से चित्त अस्थिर हुआ जाता था। लेकिन वे इस आन्तरिक निर्बलता को कुछ तो अपने वेग और कुछ तिरस्कार से हटाने की चेष्टा कर रहे थे। हाँ मैं कितना निर्लज्ज, आत्मशून्य हूँ। इतनी दुर्दशा होने पर भी मरने से डरता हूँ। अकस्मात् उन्हें किसी के गाने की ध्वनि सुनाई दी। ज्यों-ज्यों वे आगे बढते थे, त्यों-त्यों वह ध्वनि निकट आती जाती थी। गाने वाला उन्हीं की ओर चला आ रहा था। उस निस्तब्ध रात्रि में कृष्णचन्द्र को वह गाना अत्यंत मधुर मालूम हुआ। कान लगाकर सुनने लगे :

हरिसों ठाकुर और न जनको।
  जेहि जेहि विधि सेवक सुख पावै तेहि विधि राखत तिनको॥
           हरिसों ठाकुर और न जनको।
       भूखे को भोजन जु उदर को तृषा तोय पट तनको।
  लाग्यो फिरत सुरभी ज्यों सुत सग उचित गमन गृह वनको।
           हरिसो ठाकुर और न जनको॥

यद्यपि गान माधुर्य-रस पूर्ण न था, तथापि वह शास्त्रोक्त था इसलिये कृष्णचन्द्र को उसमें बहुत आनन्द प्राप्त हुआ। उन्हे इस शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। इसने उनके विदग्ध हृदय को शान्ति प्रदान कर दी।

गाना बन्द हो गया और एक क्षण के बाद कृष्णचन्द्र ने एक दीर्घकाय जटाधारी साधु को अपनी ओर आते देखा। साधु ने उनका नाम और स्थान पूछा। उसके भाव से ऐसा ज्ञात हुआ कि वह उनसे परिचित है। कृष्णचन्द्र आगे बढ़ना चाहते थे कि उसने कहा, इस समय आप इधर कहाँ जा रहे हैं?

कृष्णचन्द्र——कुछ ऐसा ही काम आ पड़ा है। [ २०० ]साधु—आधी रात को आपका गंगातट पर क्या काम हो सकता है?

कृष्णचन्द्र ने रुष्ट होकर उत्तर दिया, आप तो आत्मज्ञानी है। आपको स्वयं जानना चाहिये।

साधु——आत्मज्ञानी तो मैं नही हूंँ, केवल भिक्षुक हूँ, इस समय में आपको उधर न जाने दूँगा।

कृष्णचन्द्र——आप अपनी राह जाइये। मेरे काम में विघ्न डालने का आपको क्या अधिकार है?

साधु——अधिकार न होता तो मैं आपको रोकता ही नहीं। आप मुझसे परिचित नहीं है, पर मैं आपका धर्मपुत्र हूँ, मेरा नाम गजाधर पांडे हैं।

कृष्णचन्द्र——ओ हो! आप गजाधर पांडे है। आपने यह भेष कब से धारण कर लिया? आपसे मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी, मैं आपसे‌ बहुत कुछ पूछना चाहता था।

गजाधर——मेरा स्थान गंगातटपर एक वृक्ष के नीचे है, चलिये वहाँ थोडी देर विश्राम कीजिये, मैं सारा वृत्तांत आपसे कह दूँगा।

रास्ते में दोनों मनुष्यों में कुछ बातचीत न हुई। थोड़ी देर में वे उस वृक्ष के नीचे पहुँच गये, जहाँ एक मोटासा कन्दा जल रहा था। भूमि पर पुआल बिछा हुआ था और एक मृग चर्म, एक कमंडल और एक पुस्तकों का बस्ता उसपर रखा हुआ था।

कृष्णचन्द्र आग तापते हुए बोले, आप साधु हो गये है, सत्य ही कहियेगा, सुमन की यह कुप्रवृत्ति कैसे हो गई?

गजाधर अग्निके प्रकाश में कृष्णचन्द्र के मुख की ओर मर्मभेदी दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें उनके मुखपर उनके हृदय के समस्त भाव अकिंत देख पड़ते थे। वह अब गजाधर न थे। सत्मग और विरक्ति ने उनके ज्ञान को विकसित कर दिया था। वह उस घटना पर जितना ही विचार करते थे। उतना ही उन्हें पश्चात्ताप होता था। इस प्रकार अनुतप्त होकर उनका [ २०१ ] हृदय सुमन की ओर से बहुत उदार हो गया था। कभी-कभी उनका जी चाहता था कि चलकर उसके चरणों पर सिर रख दूँ।

गजाधर बोले, इसका कारण मेरा अन्याय था। यह सब मेरी, निर्दयता ओर अमानुषीय व्यवहार का फल है। वह सर्वगुण संपन्न थी, वह इस योग्य थी कि किसी बड़े घर की स्वामिनी बनती। मुझ जैसा दुष्ट दुरात्मा दुराचारी मनुष्य उसके योग्य न था। उस समय मेरी स्थूल दृष्टि उसके गुणों को न देख सकी। ऐसा कोई कष्ट न था जो उस देवी को मेरे साथ न झेलना पड़ा हो। पर उसने कभी मन मैला न किया। वह मेरा आदर करती थी। पर उसका यह व्यवहार देखकर मुझे उसपर संदेह होता था कि वह मेरे साथ कोई कौशल कर रही है। उसका संतोष, उसकी भक्ति, उसकी गभीरता मेरे लिये दुर्बोध थी। मैं समझता था, वह मुझसे कोई चाल चल रही है। अगर वह मुझसे छोटी-छोटी वस्तुओं के लिये झगड़ा करती, रोती, कोसती, ताने देती तो उसपर मुझे विश्वास होता। उसका ऊँचा आदर्श मेरे अविश्वास का कारण हुआ। मैं उसके सतीत्व पर संदेह करने लगा। अन्त को यह दशा हो गई कि एक दिन रात को एक सहेली के घरपर केवल जरा विलब हो जानेके कारण मैंने उसे घर से निकाल दिया।

कृष्णचन्द्र बात काटकर बोले, तुम्हारी बुद्धि उस समय कहाँ गई थी? तुमको जरा भी ध्यान न रहा कि तुम अपनी इस निर्दयता से कितने बड़े कुल को कलंकित कर रहे हो?

गजाधर——महाराज, अब मैं क्या बताऊँ कि मुझे क्या हो गया था? मैने फिर उसकी सुध न ली। पर उसका अन्तःकरण शुद्ध था? पापाचरण से उसे घृणा थी। अब वह विधवाश्रम मे रहती है और सब उससे प्रसन्न है। उसकी धर्मनिष्ठा देखकर लोग चकित हो जाते है।

गजाधर की बात सुनकर कृष्णचन्द्र का हृदय सुमन की ओर से कुछ नरम पड़ गया। लेकिन वह जितना ही इधर नरम था उतना ही दूसरी ओर कठोर हो गया। जैसे साधारण गति से बहती हुई जलधारा सामने रुककर दूसरी ओर और भी वेग से बहने लगती है। उन्होंने गजाधर को सरोष नेत्रों से [ २०२ ] देखा, जैसे कोई भूखा सिंह अपने शिकार को देखता है। उन्हें निश्चय हो रहा था कि यही मनुष्य मेरे कुल को कलंकित करने वाला है। इतना हीं, उसने सुमन के साथ भी अन्याय किया है। उसे नाना प्रकार के कष्ट दिये हैं। क्या मैं उसे केवल इसलिये छोड़ दूँ कि वह अब अपने दुष्कृत्यों पर लज्जित है? लेकिन उसने यह बात मुझसे कह क्यों दी? कदाचित वह समझता है कि मैं उसका कुछ नही बिगाड़ सकता। यही बात है, नहीं तो वह मेरे सामने अपना अपराध इतनी निर्भयता से क्यों स्वीकार कृष्णचन्द्र ने गजाधर के मनोभावों को न समझा। वह क्षणभर आग की तरफ ताकते रहे, फिर कठोर स्वर से बोले, गजाधर, तुमने मेरे कुल को डुबा दिया। तुमने मुझे कही मुँह दिखाने योग्य न रखा। तुमने मेरी लड़की की जान ले ली, उसका सत्यानाश कर दिया, तिसपर भी तुम मेरे सामने इस तरह बैठे हो मानो कोई महात्मा हो। तुम्हें चिल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए।

गजाघर जमीन की मिट्टी खुरच रहे थे। उन्होंने सिर उठाया।

कृष्णचन्द्र फिर बोले, तुम दरिद्र थे, इसमें तुम्हारा दोष नहीं। तुम अगर अपनी स्त्री का उचित रीति से पालनपोषण नहीं कर सके तो इसलिये तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम उसके मनोभावों को नहीं जान सके, उसके सद्वविचारों का मर्म नहीं समझ सके, इसके लिए भी मैं तुम्हें दोषी नहीं ठहराता। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने उसे घर से निकाल दिया। तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला? अगर तुमको उसके पातिव्रत पर सन्देह था‌। तो तुमने उसका सिर काट क्यों नहीं लिया? और यदि उतना साहस नहीं था, तो स्वयं क्यों न प्राण त्याग कर दिया? विष क्यों न खा लिया अगर तुमने उसके जीवन का अन्त कर दिया होता तो उसकी यह दुर्दशा न हुई होती, मेरे कुल में यह कलंक न लगता। तुम भी कहोगे कि मैं पुरुष हूँ। तुम्हारी इस कायरता पर, इस निर्लज्जता पर धिक्कार है! जो पुरुष इतना नीच है कि अपनी स्त्री को दूसरों से प्रेमालाप करते देखकर उसका रुधिर खौल नहीं उठता वह पशुओं से भी गया बीता है।

गजाधर को अब मालूम हुआ कि सुमन को घर से निकालने की बात [ २०३ ] कहकर वह मानो ब्रह्मफाँस से फँस गये। वह मनसे पछताने लगे कि उदारता की धुन में मैं इतना असावधान क्यों हो गया। तिरस्कार की मात्रा भी उनकी आशा से अधिक हो गई। वे न समझे थे कि वह यह रूप धारण करेगा और उससे मेरे हृदयपर इतनी चोट लगेगी। अनुतप्त हृदय वह तिरस्कार चाहता है जिसमे सहानुभूति और सहृदयता हो, वह नहीं जो अपमानसूचक और क्रूरतापूर्ण हो। पका हुआ फोड़ा नश्तर का घाव चाहता है, पत्थर का आघात नहीं। गजाधर अपने पश्चात्ताप पर पछताये। उनका मन अपना पूर्वपक्ष समर्थन करने के लिये अधीर होने लगा।

कृष्णचन्द्र ने गरजकर कहा, क्यों, तुमने उसे मार क्यों नहीं डाला?

गजाधर ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, मेरा हृदय इतना कठोर नहीं था।

कृष्ण——तो घर से क्यों निकाला?

गजाधर——केवल इसलिये कि उस समय मुझे उससे गला छुड़ाने का और कोई उपाय न था।

कृष्णचन्द्र ने मुँह चिढ़ाकर कहा, क्यों जहर खा सकते थे।

गजाधर इस चोट से बिलबिलाकर बोले, व्यर्थ में जान देता?

कृष्ण——व्यर्थ जान देना व्यर्थ जीने से अच्छा है?

गजाधर——आप मेरे जीने को व्यर्थ नहीं कह सकते। आपसे पंडित उमानाथ ने न कहा होगा, पर मैंने इसी याचना-वृत्ति से उन्ह शान्ता के विवाह के लिए १५००J दिये है और इस समय भी उन्हीं के पास यह १०००) लिये जा रहा था, जिससे वह कही उसका विवाह कर दे।

यह कहते कहते गजाधर चुप हो गये। उन्हे अनुभव हुआ कि इस बात का उल्लेख करके मैंने अपने ओछेपन का परिचय दिया। उन्होंने संकोच से सिर झुका लिया।

कृष्णचन्द्र ने संदिग्ध स्वर से कहा, उन्होंने इस विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा।

गजाधर——यह कोई ऐसी बात भी नही थी कि वह आपसे कहते। [ २०४ ] मैंने भी तो पाप किये है, पर कभी इस शक्ति का अनुभव नहीं किया कुछ नहीं, यह सब इनके शब्दजाल है, इन्होंने अपनी कायरता को शब्दों के आडम्बर में छिपाया है, यह मिथ्या है, पाप से पाप ही उत्पन्न होगा, अगर पाप से पुण्य होता तो आज संसार में कोई पापी न रह जाता।

यह सोचते हुए वे उठ बैठे, गजाधर भी आग के पास पड़े हुए थे। कृष्णचन्द्र चुपके से उठे और गंगा तट की ओर चले। उन्होने निश्चय कर लिया था कि अब इन वेदनाओं का अन्त ही करके छोड़ेगा।

चन्द्रमा अस्त हो चुका था। कुहरा और भी सघन हो गया था। अन्धकार ने वृक्ष, पहाड़ और आकाश में कोई अन्तर न छोड़ा था। कृष्ण चन्द्र एक पगडंडी पर चल रहे थे, पर दृष्टि की अपेक्षा अनुमान से अधिक काम लेना पड़ता था। पत्थर के टुकडों और झाड़ियों से बचने में वह ऐसे लीन हो रहे थे कि अपनी अवस्था का ध्यान न था।

करार के किनारे पहुँचकर उन्हें कुछ प्रकाश दिखाई दिया। वह नीचे उतरे। गंगा कुहरे की मोटी चादर ओढ़े पड़ी कराह रही थी। आस-पास के अन्धकार और गंगा में केवल प्रवाह का अन्तर था। यह प्रवाहित अन्धकार था। ऐसी उदासी छाई हुई थी जो मृत्यु के बाद घरों में छा जाती है।

कृष्णचन्द्र नदी के किनारे खड़े थे। उन्होने विचार किया, हाय! अब मेरा अन्त कितना निकट है। एक पल में यह प्राण न जाने कहाँ चले जायेंगे। न जाने क्या गति होगी? संसार से आज नाता टूटता है। परमात्मन् अब तुम्हारी शरण आाता हूँ, मुझपर दया करो, ईश्वर मुझे सँभालो।

इसके बाद उन्होंने एक क्षण अपने हृदय में बल का संचार किया। उन्हें मालूम हुआ कि मैं निर्भय हूँ। वह पानी में घुसे। पानी बहुत ठंडा था। कृष्णचन्द्र का सारा शरीर दहल उठा। वह घुसते हुए चले गये। गलेतक पानी में पहुँचकर एक बार फिर विराट तिमिर को देखा, यह संसार-प्रेम की अंतिम घड़ी थी, यह मनोबल की, आत्माभिमान की अंतिम परीक्षा थी। अब तक उन्होंने जो कुछ किया था यह केवल इसी परीक्षा की तैयारी थी। [ २०५ ] इच्छा और माया का अंतिम संग्राम था। माया ने अपनी संपूर्ण शक्ति से उसे अपनी ओर खींचा। सुमन विदुषी वेष में दृष्टिगोचर हुई, शान्ता शोक की मूर्ति बनी हुई सामने आई। अभी क्या बिगड़ा है क्यों न साधु हो जाऊँ? मैं ऐसा कौन बड़ा आदमी हूँ कि संसार मेरे नाम और मर्यादा की चर्चा करेगा? ऐसी न जाने कितनी कन्याएँ पाप के फन्दे में फंसती है। संसार किसकी परवाह करता है? मैं मूर्ख हूँ जो यह सोचता हूँ कि संसार मेरी हँसी उड़ावेगा। इच्छा-शक्ति ने कितना ही चाहा कि इस तर्क का प्रतिवाद करे पर वह निष्फल हुई। एक डुबकी की कसर थी। जीवन और मृत्यु में केवल एक पग का अन्तर था। पीछे का एक पग कितना सुलभ था कितना सरल! आगे का एक पग कितना कठिन था, कितना भयकारक।

कृष्णचन्द्र ने पीछे लौटने के लिये कदम उठाया। माया ने अपनी विलक्षण शक्ति का चमत्कार दिखा दिया। वास्तव में वह संसार-प्रेम नहीं था यह अदृश्य का भय था।

उस समय कृष्णचन्द्र को अनुभव हुआ कि अब मैं पीछे नहीं फिर सकता। वह धीरे-धीरे आप ही आप खिसकते जाते थे। उन्होंने जोर से चीत्कार किया, अपने शीत शिथिल पैरों को पीछे हटाने की प्रबल चेष्टा की, लेकिन कर्म की गति कि आगे ही को खिसके।

अकस्मात् उनके कानों में गजाधर के पुकारने की आवाज आई। कृष्णचन्द्र ने चिल्लाकर उत्तर दिया, पर मुझसे पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि हवा से झूझकर अन्धकार में लीन हो जाने वाले दीपक के सदृश लहरों में मग्न हो गये। शोक, लज्जा और चितातप्त हृदयका दाह शीतल जल में शान्त हो गया।

गजाधर ने केवल यह शब्द सुने "मैं यहाँ डूबा जाता हूँ” और फिर लहरों की पैशाचिक क्रीड़ा-ध्वनि के सिवा और कुछ न सुनाई दिया।

शोकाकुल गजाधर देरतक तटपर खड़े रहे। वही शब्द चारों ओर से उन्हें सुनाई देते थे। पास की पहाडियाँ और सामने की लहरे, और चारों ओर छाया हुआ दुर्भाग्य अन्धकार उन्हीं शब्दों से प्रतिध्वनित हो रहा था। [ २०६ ]

३९

प्रातःकाल यह शोक समाचार अमोला में फैल गया इने गिने सज्जनों को छोड़कर कोई भी उमानाथ के द्वार पर समवेदना प्रकट करने न आया! स्वाभाविक मृत्यु हुई होती तो संभवत: उनके शत्रु भी आकर चार आँसू बहा जाते, पर आत्मघात एक भयंकर समस्या है, यहां पुलिस का अधिकार है, इस अवसर पर मित्रदल ने भी शत्रुवत् व्यवहार किया।

उमानाथ से गजाधर ने जिस समय समाचार कहा, उस समय वह कुएँ पर नहा रहे थे। उन्हें लेशमात्र भी दुख व कुतूहल नहीं हुआ। इसके प्रतिकूल उन्हें कृष्णचन्द्र पर क्रोध आया, पुलिस के हथकडों की शंका ने शोक को भी दबा दिया। उन्हें स्नान-ध्यान में उस दिन बड़ा विलंब हुआ। संदिग्ध चित्त को अपनी परिस्थिति के विचार से अवकाश नहीं मिलता। वह समय ज्ञान रहित हो जाता है।

जान्हवी ने बड़ा हाहाकार मचाया। उसे रोते देखकर उसकी दोनों बेटियाँ भी रोने लगी। पास-पड़ोस की महिलाएं समझाने के लिये आ गई। उन्हें पुलिस का भय नहीं था पर वह आतंनाद शीघ्र ही समाप्त हो गया। कृष्णचन्द्र के गुण-दोष की विवेचना होने लगी। सर्व सम्मति ने स्थिर किया कि उनमें गुण की मात्रा दोष से बहुत अधिक थी। दोपहर को जब उमानाथ घर में शर्बत पीने आये और कृष्णचन्द्र के सम्बन्ध में कुछ अनुदारता का परिचय दिया तो जान्हवी ने उनकी ओर वक्र नेत्रो से देखकर कहा; कैसी तुच्छ बातें करते हो।

उमानाथ लज्जित हो गये। जान्हवी अपने हार्दिक आनन्द का मुख अकेले उठा रही थी। इस भाव को वह इतना तुच्छ और नीच समझती थी कि उमानाथ भी उसे गुप्त रखना चाहती थी। सच्चा शोक शांता के सिवा और किसी को न हुआ। यद्यपि अपने पिता को यह सामर्थ्य हीन समझती थी, तथापि संसार में उसके जीवन का एक आधार मौजूद था। अपने पिता की हीनावस्था ही उसकी पितृभक्तिका कारण थी, अब वह [ २०७ ] सर्वथा निराधार हो गई। लेकिन नैराश्य ने उसके जीवन को उद्देश्यहीन नहीं होने दिया। उसका हृदय और भी कोमल हो गया। कृष्णचन्द्र ने चलते-चलते उसे जो शिक्षा दी थी, उसमें अब विलक्षण प्रेरणा शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया था। आज से शान्ता सहिष्णुताकी मूर्ति बन गई। पावस की अंतिम बूंदो के सदृश मनुष्य की वाणी के अंतिम शब्द कभी निष्फल नहीं जाते। शान्ता अब मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकालती, जिससे उसके पिता की आत्मा को दुख हो, उनके जीवनकाल में वह कभी-कभी उनकी अवहेलना किया करती थी, पर अब वह अनुदार विचारों को हृदय में भी न आने देती थी। उसे निश्चय था कि भौतिक शरीर से मुक्त आत्मा के लिये अन्तर और वाह्य में कोई भेद नहीं। यद्यपि अब वह जान्हवी को संतुष्ट रखने के निमित्त कोई बात उठा न रखती थी, तथापि जान्हवी उसे दिन मे दो-चार बार अवश्य ही उल्टी सीधी सुना देती। शान्ता को क्रोध आता, पर वह विष का घूंट पीकर रह जाती, एकान्त में भी न रोती। उसे भय था कि पिताजी की आत्मा मेरे रोनेसे दु:खी होगी।

होली के दिन उमानाथ अपनी दोनों लड़कियो के लिये उत्तम साड़ियाँ लाये। जान्हवी ने ने भी रेशमी साड़ी निकाली, पर शान्ता को अपनी पुरानी धोती ही पहननी पड़ी। उसका हृदय दु:ख से विदीर्ण हो गया, पर उसका मुख जरा भी मलिन न हुआ। दोनो बहने मुँह फुलाये बैठी थी कि साड़ियाँ में गोट नहीं लगवाई गई और शान्ता प्रसन्न वदन घर का काम काज कर रही थी, यहाँ तक कि जान्हवी को भी उसपर दया आ गई। उसने अपनी एक पुरानी लेकिन रेशमी साड़ी निकालकर शान्ता को दे दी। शान्ता ने जरा भी मान न किया। उसे पहनकर फिर पकवान बनाने में मग्न हो गई।

एक दिन शान्ता उमानाथ की धोती छँटनी भूल गई। दूसरे दिन प्रातःकाल उमानाथ नहाने चले तो धोती गीली पड़ी थी। वह तो कुछ न बोले, पर जान्हवी ने शान्ता को इतना कोसा कि वह रो पड़ी। रोती थी और धोती छाँटती थी। उमानाथ को यह देखकर दु:ख हुआ। उन्होंने मन में सोचा, हम केवल पेट की रोटियों के लिये इस अनाथ को इतना कष्ट दे रहे हैं? [ २०८ ] ईश्वर के यहाँ क्या जवाब देंगे? जान्हवी को तो उन्होंने कुछ न कहा पर निश्चय किया कि शीघ्र ही इस अत्याचार का अन्त करना चाहिये। मृतक संस्कारो से निवृत होकर उमानाथ आजकल मदनसिंह पर मुकद्दमा दायर करने का कार्यवाही में मग्न थे। वकीलो ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि तुम्हारी अवश्य विजय होगी। पांच हजार रुपये मिल जाने से मेरा कितना कल्याण होगा, यह कल्याण कामना उमानाथ को आनन्दोन्मत्त कर देती थी, इस कल्पना ने उनकी शुभाकांक्षाओं को जागृत कर दिया था। नया कर बनाने के मन्सूबे होने लगे थे। उस घर का चित हृदयपट पर खिंच गया था। उसके लिये उर्पयुक्त स्थान की बातचीत शुरू हो गयी थी। इन आनन्दकल्पनाओं में शांता को सुधि ही न रही थी जान्हवी के इस अत्याचार ने उनको शान्ता की ओर आकर्षित किया। गजाधर के दिये हुए सहस्त्र रुपये जो उन्होंने मुकदमें के खर्च के लिये अलग रख दिये ये घरों मौजूद थे एक दिन जाहन्वी से उन्होंने इस विषय में कुछ बातचीत की। कही एक सुयोग्य वर मिलने की आशा थी। शान्ता ने यह बात सुनी। मुकद्दमे की बातचीत सुनकर भी उसे दुख होता था, पर वह उसमें दखल देना उचित समझती थी। लेकिन विवाह की बातचीत सुनकर वह चुप न रह सकी। एक प्रबल प्रेरक शक्ति ने उसकी लज्जा और संकोच को हटा दिया ज्योंही उमानाथ चले, वह जान्हवी के पास आकर बोली, मामा अभी तुमसे क्या कह रहे थे? जान्हवी ने असंतोष भाव से उत्तर दिया, कह क्या रहे थे, अपना दु:ख रो रहे थे। अभागिनी सुमन ने यह सब कुछ किया नहीं तो यह दोहरकम्मा क्यों करना पड़ता? अब न उतना उत्तम कुल ही मिलता है, न वैसा सुन्दर वर। थोडी दूर पर एक गांव है। वहीं एक वर देखने गये थे। शान्ता ने भूमि की ओर ताकते हुए उत्तर दिया, क्या मैं तुम्हें इतना कष्ट देती हूँ कि मुझे फेंकने की पड़ी हुई है? तुम मामा से कह दो कि मेरे लिए कष्ट न उठावें।

जान्हवी-तुम उनकी प्यारी भांजी हो, उनसे तुम्हारा दुःख नहीं देना जाता। मैंने भी तो यही कहा था कि अभी रहने दो। जब मुकदमे का [ २०९ ] रुपया हाथ आ जाय तो निश्चिंत होकर करना पर वह मेरी बात माने तब तो?

शांता-मुझे वहीं क्यों नहीं पहुँचा देते?

जान्हवी ने विस्मित होकर पूछा, कहाँ?

शान्ता ने सरल भाव से उत्तर दिया, चाहे चुनार, चाहे काशी।

जान्हवी-—कैसे बच्चों की सी बात करती हो! अगर ऐसा ही होता तो रोना काहे का था? उन्हीं तुम्हे घर में रखना होता तो यह उपद्रव क्यों मचाते?

शान्ता-बहू बनाकर न रक्खे लौण्डी बनाकर तो रखेंगे।

जान्हवी ने निर्दयता से कहा, तो चली जाओ, तुम्हारे मामा से यह कभी न होगा कि तुम्हें सिर चढ़ाकर ले जाँय और वहाँ अपना अपमान करा के फिर तुम्हें ले आवे। वह तो उन लोगों का मुँह कुचलकर उनसे रुपये भरावेगें।

शान्ता-—मामी, वे लोग चाहे कैसे हो अभिमानी हो, लेकिन मैं उनके द्वारपर जाकर खड़ी हो जाऊंगी तो उन्हें मुझपर दया आ ही जायगी। मुझे विश्वास है कि वह मुझे अपने द्वारपर से हटा न देगे। अपना बैरी भी द्वार पर आ जाय तो उसे भगाते संकोच होता है मैं तो फिर भी...

जान्हवी अधीर हो गई। यह निर्लज्जता उससे न सही गई। बात काटकर बोली, चुप भी रहो, लाज हया तो जैसे तुम्हें छू नहीं गई। मान न मान में तेरा मेहमान। जो अपनी बात न पूछे बह चाहे धन्नासेठ ही क्यों न हो, उसकी ओर आँख उठाकर न देखे। अपनी तो यह टेक है। अब तो वे लोग यहाँ आकर नकघिसनी भी करे तो तुम्हारे मामा दूर ही से भगा देगे।

शान्ता चुप हो गई। संसार चाहे जो कुछ समझता हो, वह अपने को विवाहिता ही समझती थी। एक विवाहिता कन्या का दूसरे घर में विवाह हो, यह उसे अत्यंत लज्जाजनक, असह्य प्रतीत होता था। बारात आने के एक मास पहले से वह सदन के रूप गुण की प्रशंसा सुन-सुनकर उसके हाथों बिक चुकी थी। उसने अपने द्वार पर, द्वारचार के समय, सदन को अपने पुरुष की भॉति देखा है, इस प्रकार नहीं मानो वह कोई अपरिचित मनुष्य है। अब किसी दूसरे पुरुष की कल्पना उसके सतीत्व पर कुठार के [ २१० ] समान लगती थी। वह इतने दिनों तक सदन को अपना पति समझने बाद उसे हृदय से निकाल न सकती थी, चाहे वह उसकी बात पूछे या न पूछे, चाहे उसे अंगीकार करे या न करे।अगर द्वाराचार के बाद ही सदन उसके सामने आता तो वह उसी भाँति उससे मिलती मानो वह उसका पति हैं विवाह, भंवर या सेंदुर बंंधन नहीं, बंधन केवल मन का भाव है।

शान्ता को अभी तक यह आशा थी कि कभी न कभी में पति घर अवश्य जाऊँगी, कभी न कभी स्वामी के चरणो में अवश्य ही आश्रय पाऊँगी, पर आज अपने विवाह की-या पुनर्विवाह की बात सुनकर उसका अनुरक्त हृदय काँप उठा। उसने निस्संकोच होकर जान्हवी से विनय की कि मुझे पति के घर भेज दो। यहीं तक उसकी सामर्थ्य थी। इसके सिवा वह और क्या करती? पर जान्हवी की निर्दयतापूर्ण उपेक्षा देखकर उसका धैर्य हाथ से जाता रहा। मन की चंचलता बढ़ने लगी। रात को जब सब सो गये तो उसने पद्मसिंह को एक विनय पत्र लिखना शुरू किया। यह उसका अंतिम साधन था। इसके निष्फल होने पर उसने कर्तव्य का निश्चय कर लिया था।

पत्र शीघ्र ही समाप्त हो गया। उसने पहले ही से कल्पना में उसकी रचना कर ली थी। केवल लिखना बाकी था-

“पूज्य धर्म पिता चरण-कमलों में सेविका शान्ता का प्रणाम स्वीकार हो। मैं बहुत दु:ख में हूँ। मुझपर दया करके अपने चरणों में आश्रय दीजिये। पिताजी गंगा में डूब गये। यहां आप लोगो पर मुकदमा चलाने का प्रस्ताव हो रहा है मेरे पुनर्विवाह की बातचीत हो रही है। शीघ्र सुधि लीजिये। एक सप्ताह तक आपकी राह देखूँगी। उसके बाद फिर आप अबला की पुकार न सुनेंगे।’’

इतने में जान्हवी की आँख खुली। मच्छरो नेंं सारे शरीर में कांटे चुभो दिये थें। खुजलाते हुए बोली, शान्ता! यह क्या कर रही है।

"शान्ता ने निर्भय होकर कहा पत्र लिख रही हूँ।”

"किसको?” [ २११ ]"अपने श्वसुर को।”

"चुल्लू भर पानी में डूब नहीं मरती?”

"सातवे दिन मरुँगी।"

जान्हवी ने कुछ उत्तर न दिया, फिर सो गई। शान्ता ने लिफाफे पर पता लिखा और उसे अपने कपड़ो की गठरी में रखकर लेट रही।

४०

पद्मसिंह का पहला विवाह उस समय हुआ था जब वह कालेज में पढ़ते थे और एफ० ए० पास हुए तो वह एक पुत्र के पिता थे। पर बालिका वधू शिशुपालन का मर्म न जानती थी। बालक जन्म के समय तो हृष्ट पुष्ट था पर पीछे धीरे-धीरे क्षीण होने लगा था। यहाँ तक कि छठे महीने माता ओर शिशु दोनों ही चल बसे। पद्मसिंह ने निश्चय किया अब विवाह न करूँगा। मगर वकालत पास करने पर उन्हें फिर वैवाहिक बन्धन में फँसना पड़ा। सुभद्रा रानी वधू बनकर आई। इसे आज सात वर्ष हो गये।

पहले दो तीन साल तक तो पद्मसिंह को सन्तान का ध्यान ही नहीं हुआ। यदि भामा इसकी चर्चा करती तो वह टाल जाते। कहते मुझे संतान की इच्छा नहीं। मुझसे यह बोझ न सँभलेगा। अभी तक सन्तान की आशा थी, इसलिये अधीर नहीं होते थे।

लेकिन जब चौथा साल भी यों ही कट गया तो उन्हे कुछ निराशा होने लगी। मन में चिंता उपस्थित हुई, क्या सचमुच में निस्सन्तान ही रहूँँगा? ज्यों ज्यों दिन गुजरते थे यह चिंता बढ़ती जाती थी। अब उन्हे अपना जीवन कुछ शून्य सा मालूम होने लगा सुभद्रा से वह प्रेम न रहा, सुभद्रा ने इसे ताड़ लिया। उसे दु:ख तो हुआ, पर इसे अपने कर्मो का फल समझकर उसने संतोष किया।

पद्मसिंह अपने को बहुत समझाते कि तुम्हें सन्तान लेकर क्या करना हैं? जन्म से लेकर पचीस वर्ष की आयु तक उसे जिलाओ, खिलाओ, पढ़ाओ तिसपर भी यह शंका ही लगी रहती है कि यह किसी ढंग की भी होगी या नहीं। [ २१२ ] सिकल उबर फेर दी। वह शान्ता के विषय मे इसी समय कुछ न कुछ निश्चय कर लेना चाहते थे। उन्हें भय था कि कहीं विलव होने से यह जोश ठण्डा न पड़ जाय।

कुँवरसाहब के यहाँ ग्वालियर से एक जलतरंग बजानेवाला आया हुआ था। उसी का गाना सुनने के लिए आज उन्होंने अपने मित्रों को निमंत्रित किया था। पद्मसिंह वहाँ पहुँचे तो विट्ठलदास और प्रोफेसर रमेशदत्त में उच्चस्वर से विवाद हो रहा था और कुंवरसाहब, पंण्डित प्रभाकरराव तया सैयद तेगअली बैठे हुए बटेरो की इस लड़ाई का तमाशा देख रहे थे। शर्माजी को देखते ही कुँवरसाहब ने उनका स्वागत किया। बोले, आइये, आइये, देखिए यहाँ घोर संग्राम हो रहा है, किसी तरह इन्हें अलग कीजिये नहीं तो ये लड़ते-लड़ते मर जायेंगे।

इतने में प्रोफेसर रमेशदत्त बोले, थियासोफिस्ट होना कोई गाली नहीं है। मैं थियासोफिस्ट हूँ और इसे सारा शहर जानता है। हमारे ही समाज के उद्योग का फल है कि आज अमेरिका, जर्मनी ,रूस इत्यादि देशों में आापको राम और कृष्ण के भक्त और गीता, उपनिषद् आदि सदग्रन्थों के प्रेमी दिखाई देने लगे है। हमारे समाज ने हिन्दू जाति का गौरव बैठा दिया है उसके महत्व को प्रसारित कर दिया है और उसे उस उच्चासन पर बिठा दिया है जिसे वह अपनी अकर्मण्यता के कारण कई शताब्दियों से छोड़ बैठी थी। यह हमारी परस कृतघ्नता होगी अगर हम उन लोगों का यश न स्वीकार करें, जिन्होंने अपने दीपक हमारे अन्धकार को दूर करके हमें वह रत्न दिखा दिये है जिन्हें देखने की हम सामर्थ्य न थी। वह दीपक व्लावेट्स्की का हो, या आल्कट का या किसी अन्य पुरुष का, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं। जिसने हमारा अन्धकार मिटाया हो उसका अनुग्रहीत होना हमारा कर्तव्य है, अगर आप इसे गुलामी कहते है तो यह आपका अन्याय है।

विट्ठठलदास ने इस कथन को ऐसे उपेक्ष्य भाव से सुना मानो वह कोई निरर्थक बकवाद है और बोले, इसी का नाम गुलामी है, बल्कि गुलाम तो [ २१३ ] एक प्रकार से स्वतंत्र होता है, उसका अधिकार शरीर पर होता है, आत्मापर नहीं। आप लोगों ने तो अपनी आत्मा ही को बेच दिया है। आपकी अंगरेजी शिक्षा ने आपको ऐसा पददलित किया है कि जबतक यूरोप का कोई विद्वान किसी विषय के गुण दोष प्रकट न करे तब तक आप उस विषय की ओर से उदासीन रहते है। आप उपनिषदों का आदर इस लिये नहीं करते कि वह स्वयं आदरणीय है बल्कि इसलिये करते है कि व्लावेट्स्की और मैक्समूलर ने उनका आदर किया है। आप में अपनी बुद्धि से काम लेने की शक्ति का लोप हो गया है। अभी तक आप तान्त्रिक विद्या की बात भी न पूछते थे। अब जो यूरोपीय विद्वानों ने उसका रहस्य खोलना शुरू किया तो आपको अब तन्त्रों मे गुण दिखाई देते है। यह मानसिक गुलामी उस भौतिक गुलामी से कहीं गई गुजरी है। आप उपनिषदों को अग्रेंजी में पढ़ते है, गीता को जर्मन मे अर्जुन को अर्जुना कृष्ण को कृशना कहकर अपनी स्वभाषा ज्ञान का परिचय देते है। आपने इसी मानसिक दासत्व के कारण उस क्षेत्र में अपनी पराजय स्वीकार कर ली, जहाँ हम अपने पुरुष की प्रतिभा और प्रचण्ड़ता से चिरकाल तक अपनी विषय पताका फहरा सकते थे।

रमेशदत्त इसका कुछ उत्तर देना ही चाहते थे कि कुंवर साहब बोल उठे मित्रों! अब मुझसे बिना बोले नहीं रहा जाता। लाला साहब, आप अपने इस ‘गुलामी' शब्द को वापस लीजिये।

विठ्ठल-क्यों वापस लूँ?

कुंवर -आपको इसके प्रयोग करने का अधिकार नहीं है।

विट्ठल—मेरा आशय यह है कि हममे कोई भी दूसरों को गुलाम कहने का अधिकार नहीं रखता। अंधों के नगर में कौन किसको अन्धा कहेगा? हम सबके सब राजा हो या रंक, गुलाम है। हम अगर अपढ़ निर्धन गंवार है तो थोड़े गुलाम है, हम अपने राम का नाम लेते है।, अपनी धोती पगड़ी का व्यवहार करते है, अपनी बोली बोलते हैं, अपनी गाय पालते है और अपनी गंगा में नहाते है, और हम यदि विद्वान, [ २१४ ] उन्नत ऐश्वर्यवान है तो बहुत गुलाम है, जो विदेशी भाषा बोलते है, कुत्तें पालते हैं और अपने देशवासियों को नीच समझते हैं, सारी जाति इन्हीं दो भाग में विभक्त है। इसलिये कोई किसी को गुलाम नहीं कह सकता। गुलामी के मानसिक, आत्मिक, शारीरिक आादि विभाग करना भ्रंतिकारक है। गुलामी केवल आत्मिक होती है, और दशाएँ इसी के अन्तर्गत है? मोटर बंगले, पोलो और प्यानो यह एक एक वेड़ी के तुल्य है। जिसने इन बेडियों को नहीं पहना उसी को सच्ची स्वाधीनता का आनन्द प्राप्त हो सकता है, और आप जानते है वह कौन लोग हैं? वह दीन कृषक है जो अपने पसीने की कमाई खाते है, अपने जातीय भेष, भाषा और भावका आदर करते है और किसी के सामने सिर नहीं झुकाते।

प्रभाकराव ने मुस्कराकर कहा, आपको कृपक बन जाना चाहिये।

कुंवर तो अपने पूर्वजन्म कुकर्मो को कैसे भोगूँगा? बड़े दिन में मेवे की डालियाँ कैसे लगाऊँगा? सलामी के लिये खानसामा की खुशा मद कैसे करूँगा? उपाधि के लिये नैनीताल के चक्कर कैसे लगाऊँगा? डिनर पार्टी देकर लेडियों कुत्तों को कैसे गोद में उठाऊँगा? देवताओं को प्रसन्न और संतुष्ट करने के लिये देशहित के कार्यों में असम्मति कैसे दूँगा? यह सब मानव अध पतन की अन्तिम अवस्थाएँ हैं। उन्हें भोग किये बिना मेरी मुक्ति नहीं हो सकती। (पद्मसिंह से) कहिये शर्मा जी, आपका प्रस्ताव बोर्ड में कब आयेगा? आप आजकल कुछ उत्साहहीन से दीख पड़ते है। क्यों, इस प्रस्ताव को भी कहीं गति होगी जो हमारे अन्य सा सार्वजनिक कार्यों की हुआ करती है?

इधर कुछ दिनों से वास्तव में पद्मसिंह का उत्साह कुछ क्षीण हो गया था। ज्यो-ज्यों उसके पास होने को आशा बढ़ती थी, उनका अविश्वास भी बढ़ता जाता था, विद्यार्थी की परीक्षा जबतक नहीं होती वह उसी की तैयारी में लगा रहता है, लेकिन परीक्षायें उत्तीर्ण हो जाने के बाद भावी जीवन-संग्राम की चिन्ता उसे हतोत्साह कर दिया करती है। उसे अनुभव होता है कि जिन साधनों से अबतक मैंने सफलताा प्राप्त की है वह इस