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सेवासदन/५

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १६ से – २० तक

 

फागन में सुमन का विवाह हो गया। गगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएँ मे डाल दिया।

सुमन ससुराल आई तो यहाँ की अवस्था उससे भी बुरी पाई जिसकी उसने कल्पना की थी। मकान मे केवल दो कोठरिया और एक सायवान। दीवारो मे चारो ओर लोनी लगी हुई थी। बाहर से नालियों की दुर्गन्ध आती रहती थी, धूप और प्रकाश का कही गुजर नही। इस घर का किराया ३) महीना देना पड़ता था।

सुमन के दो महीने तो आराम से कटे। गजाधर की एक बूढी फुआ घर का सारा काम-काज करती थी। लेकिन गर्मियों में शहर मे हैजा फैला। और बुढिया चल बसी। अब वह बड़े फेर मे पड़ी। चौका बरतन करने के लिए महरियां ३) रुपया से कम पर राजी न होती थी। दो दिन घर में चूल्हा नही जला। गजाधर सुमन से कुछ न कह सकता था। दोनो दिन बाजार से पूरिया लाया, वह सुमन को प्रसन्न रखना चाहता था। उसके रूप-लावण्यपर मुग्ध हो गया था। तीसरे दिन वह घडी रात को उठा। और सारे बरतन माज डाले, चौका लगा दिया, कल से पानी भर लाया। सुमन जब सोकर उठी तो यह कौतुक देखकर दंग रह गई। समझ गई कि इन्हीने सारा काम किया है। लज्जाके मारे उसने कुछ न पूछा। सन्ध्या को उसने आप ही सारा काम किया। बरतन मांजती थी और रोती जाती थी। पर थोड़े ही दिनों में उसे इन कामों की आदत पड़ गई। उसे अपने जीवन में आनन्द सा-अनुभव होने लगा। गजाधर को ऐसा मालूम होता था मानों जग जीत लिया है। अपने मित्रो से सुमन की प्रशंसा करता फिरता। स्त्री नहीं है, देवी है। इतने बड़े घर की लड़की, घर का छोटे-से छोटा काम भी अपने हाथ से करती है। भोजन तो ऐसा बनाती है कि दाल रोटी में पकवान का स्वाद आ जाता है। दूसरे महीने मे उसने वेतन पाया तो सबका सब सुमन के हाथों में रख दिया। सुमन को आज स्वच्छन्दता का आनन्द प्राप्त हुआ। अब उसे एक एक पैसे के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़ेगा। वह इन रुपयों को जैसे चाहे खर्च कर सकती है। जो चाहे खा पी सकती है।

पर गृह-प्रबन्ध मे कुशल न होने के कारण वह आवश्यक और अनावश्यक खर्च का ज्ञान न रखती थी। परिणाम यह हुआ कि महीने में दस दिन बाकी थे और सुमन ने सब रुपये खर्च कर डाले थे। उसने गृहिणी बनने की नही, इन्द्रियों के आनन्द भोग की शिक्षा पाई थी। गजाधर ने यह सुना तो सन्नाटे में आ गया। अब महीना कैसे कटेगा? उसके सिरपर एक पहाड़-सा टूट पड़ा। इसकी शंका उसे कुछ पहले ही हो रही थी। सुमन से तो कुछ न बोला, पर सारे दिन उसपर चिन्ता सवार रही, अब बीच में रुपये कहाँ से आवें?

गजाघर ने सुमन को घर की स्वामिनी बना तो दिया था, पर वह स्वभाव से कृपण था। जलपान को जलेबियाँ उसे विष के समान लगती थी। दाल में घी देखकर उनके हृदय मे शूल होने लगता। वह भोजन करता तो बटुलीकी ओर देखता कि कही अधिक तो नहीं बना है। दरवाजे पर दाल चावल फेंका देखकर उसके शरीर मे ज्वाला-सी लग जाती थी, पर सुमन की मोहनी सूरत ने उसे वशीभूत कर लिया था। मुंह से कुछ न कह सकता।

पर आज जब कई आदमियो से उधार माँगने पर उसे रुपये न मिले तो वह अधीर हो गया। घर में आकर बोला, रुपये तो तुमने सब खर्च कर दिये अब बताओ कहां से आवें? सुमन-—मैने कुछ उडा़ तो नही दिए।

गजाघर—उड़ाये नही, पर यह तो तुम्हें मालूम था कि इसी में महीने भर चलाना है। उसी हिसाब से खर्च करना था।

सुमन-—उतने रुपयो मे बरकत थोड़े ही हो जायगी।

गजाधर-तो मैं डाका तो नही मार सकता।

बातो बातों में झगड़ा हो गया। गजाधर ने कुछ कठोर बाते कही। अन्त को सुमन ने अपनी हँसुली गिरवी रखने को दी और गजाधर भुनभुनाता हुआ लेकर चला गया।

लेकिन सुमन का जीवन सुख में कटा था। उसे अच्छा खाने, अच्छा पहिनने की आदत थी। अपने द्वार पर खोमचे वालो की आवाज सुनकर उससे रहा न जाता। अबतक वह गजाधर को भी खिलाती थी। अब से अकेली ही खा जाती। जिह्वा रस भोग के लिए पति से कपट करने लगी।

धीरे-धीरे सुमन के सौन्दर्य की चर्चा मुहल्ले मे फैली। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ आने लगी। सुमन उन्हें नीच दृष्टि से देखती; उनसे खुलकर न मिलती। पर उसके रीति व्यवहार में वह गुण था जो ऊँचे कुलो में स्वाभाविक होता है। पड़ोसिनो ने शीघ्र ही उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। सुमन उनके बीच में रानी मालूम होती थी। उसकी सगर्वा प्रकृति को इसमें अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता था। वह उन स्त्रियों के सामने अपने गुणो को बढा कर दिखाती। वह अपने भाग्य को रोती, सुमन अपने भाग्य को सराहती। वे किसी की निन्दा करती तो सुमन उन्हें समझाती। वह उनके सामने रेशमी साडी़ पहनकर बैठती, जो वह मैके से लाई थी। रेशमी जाकट खूटीपर लटका देती। उनपर इस प्रदर्शन का प्रभाव सुमन की बात चीत से कही अधिक होता था। वह वस्त्राभूषण के विषय मे उसकी सम्मति को बड़ा महत्व देती। नये गहने बनवाती तो सुमन से सलाह लेती, साडियाँ लेतीं तो पहले सुमन को अवश्य दिखा लेती। सुमन ऊपर से उन्हें निष्काम भाव से सलाह देती, पर उसे मन में बड़ा दुःख होता। वह सोचती यह सब नये नये गहने बनवाती है, नये-नये कपड़े लेती है और यहाँ रोटियो के लाले है। क्या संसार में मैं ही सबसे अभागिनी हूँ? उसने अपने घर यही सीखा था कि मनुष्य को जीवन में सुख भोग करना चाहिए। उसने कभी वह धर्म चर्चा न सुनी थी, वह धर्म-शिक्षा न पाई थी, जो मन में सन्तोष का बीजारोपण करती है। उसका हृदय असन्तोष से व्याकुल रहने लगा।

गजाधर इन दिनो बडी मेहनत करता। कारखाने से लौटते ही एक दूसरी दूकान पर हिसाब-किताब लिखने चला जाता था। वहाँ से ८ बजे रात को लौटता। इस काम के लिए उसे ५) और मिलते थे। पर उसे अपनी आर्थिक दशा में कोई अन्तर न दिखाई देता था। उसकी सारी कमाई खाने पीने में उड़ जाती थी। उसका सञ्चयशील हृदय इस ‘खा पी बराबर' दशा में बहुत दुःखी रहता था। उस पर सुमन उसके सामने अपने फूटे कर्म का रोना रो-रोकर उसे और भी हताश कर देती थी। उसे स्पष्ट दिखाई देता था कि सुमन का हृदय मेरी ओर से शिथिल होता जाता है। उसे यह न मालूम था कि सुमन मेरी प्रेम-रसपूर्ण बातो से मिठाई के दोनों को अधिक आनन्दप्रद समझती है। अतएव वह अपने प्रेम और परिश्रम से फल न पाकर, उसे अपने शासनाधिकार से प्राप्त करने की चेष्टा करने लगा। इस प्रकार रस्सी मे दोनो ओर से तनाव होने लगा।

हमारा चरित्र कितना ही दृढ हो, पर उसपर सगतिका असर अवश्य होता है। सुमन अपने पड़ोसियो को जितनी शिक्षा देती थी उससे अधिक उनसे ग्रहण करती थी। हम अपने गार्हस्थ्य जीवन की ओर से कितने बेसुध है। उसके लिए किसी तैयारी किसी शिक्षा की जरूरत नही समझते। गुडियाँ खेलने वाली बालिका, सहेलियो के साथ विहार करने-वाली युवती, गृहिणी बनने के योग्य समझी जाती है। अल्हड बछडे़ के कन्धे पर भारी जुआ रख दिया जाता है। एसी दशा में यदि हमारा गार्हस्थ्य जीवन आनन्दमय न हो तो कोई आश्चर्य नही। जिन महिलाओ के साथ सुमन उठती-बैठती थी,वे अपने पतियो को इन्द्रियसुखका यन्त्र समझती थीं। पति, चाहे जैसे हो, अपनी स्त्री को सुन्दर आभूषणो से उत्तम वस्त्रों से सजावे, उसे स्वादिष्ट पदार्थ खिलावे। यदि उसमें वह सामर्थ्य नहीं है तो वह निखट्टू है, अपाहिज है, उसे विवाह करने का कोई अधिकार नही था, वह आदर और प्रेम के योग्य नही। सुमन ने भी यही शिक्षा प्राप्त की और गजाधर प्रसाद जब कभी उसके किसी काम से नाराज होते तो उन्हें पुरुषो के कर्त्तव्य पर एक लम्बा उपदेश सुनना पडता था।

उस मुहल्ले में रसिक युवकों तथा शोहदो की भी कमी न थी। स्कूल से आते हुए युवक सुमन के द्वार की ओर टकटकी लगाते हुए चले जाते। शोहदे उधर से निकलते तो राधा और कान्हा के गीत गाने लगते। सुमन कोई काम करती हो, पर उन्हें चिककी आड़ से एक झलक दिखा देती। उसके चञ्चल हृदय को इस ताक-झाँक मे असीम आनन्द प्राप्त होता था। किसी कुवासना से नही, केवल अपनी यौवन की छटा दिखाने के लिए केवल दूसरो के हृदयपर विजय पाने के लिए वह यह खेल खेलती थी।